पिछले चार दशकों से कुछ अलग तरीके से सन्देश देते, जाग्रत से कुछ मुद्दे उठाए आम लोगों से सीधे जुड़ते, संवाद करते सामने आते रहे नुक्कड़ नाटक. चारों और घिर आयी भीड़ से घिर गलियों-चौराहों, फैक्ट्री गेट, बाजार, खेल के मैदान और यहाँ तक कि खेत-खलिहान में इनके संवाद गूंजते, समवेत कोरस उभरता, पात्र कभी गोल घिरते कभी छिटक जाते.जगह कहीं भी हो, लोगों के बीच घिर, कथ्य -विचार- विषय को उभारते ये नुक्कड़ नाटक आम दर्शकों के बीच उन्हें अपना खेल दिखाते. चलते लोग -बाग इस हलचल को देख रुक जाते हैं. इस मजमे में जो बोल उन्हें सुनाई देते,वह रोजमर्रा की घटनाओं से जुड़ा होता,और वही अपने आसपास के माहौल को रच देता .इनका समापन कभी हंसी -मजाक -ठिठोली के बाद किसी मुद्दे पर तंज करता,तो कभी विकृतियों व प्रतिकूल स्थितियों का जाल सामने रख ऐसी त्रासद स्थितियों की बानगी पेश कर देता जिन्हें लोग महसूस कर रहे हैं, भोग रहे हैं.
(Natrang Article Mrigesh Pande)
उपनिवेशवाद के विरोध में जन-गण को खींच लाने की पहल अपने देश में नुक्कड़ नाटकों के द्वारा “इप्टा” ने की जिसका उद्देश्य यही रहा कि आम लोग भी समझें कि दरअसल उनके समीप ऐसा हो क्या रहा है जिसकी चुभन उन्होंने महसूस की है.
सफदर हाशमी का मानना था कि नुक्कड़ नाटक हमारे प्राचीन नाटकों और लोकनाट्य के साथ पश्चिमी थियेटर से प्रभाव ग्रहण करता रहा . राजनीतिक पम्पलेट,दीवारी इश्तहार, आन्दोलनपरक भाषण और राजनीतिक प्रदर्शन इनके विविध रूपों के निर्माण में सहायक रहे. मकसद रहा जनता को आंदोलित करना और संघर्षरत संगठनों के पीछे लामबंद करना. वृत्ताकार अभिनय स्थल, प्रस्तुति की शर्तें, अभिनेता और दर्शक का सामीप्य बनी इस शैली ने नाटकीय संरचना, नए लेखकीय कौशल, नये तरीके के प्रशिक्षण, संगीत, काव्य और समूह -गान के नए इस्तेमाल व मंच-प्रबंधन के एक नये तरीके को सामने रखा. इसने यह जता दिया कि रंगमंच अपने चारों ओर से घिरे पर्दों और तामझाम पर ही टिका नहीं होता, वह तो किसी भी खाली जगह पर प्रकट हो सकता है जिसके चारों ओर देखने वाले हैं. रास्ता चलते लोग रुक इसे देखने लग जाते हैं.
पहले भी ऐसे उदाहरण थे. प्राचीन ग्रीक नाटक सूरज की रौशनी में तीन और से घिरे हज़ारों दर्शकों के बीच होता था तो शेक्सपीयर अपने नाटक सरायों के सहनों में,बाज़ारों में और बगीचों में खेलता था.लंदन की सबसे ज्यादा शोर गुल वाली जगह पर उसका थियेटर था. वहीँ बर्तोल्त ब्रेख्त कहते थे कि उनके आदर्श दर्शक तो वह हैं जो नाटक के समय धुवां उड़ाएं और जाम गटकें.1881 में दशाश्वमेध घाट, बनारस में खुले में हुआ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का “अंधेर नगरी ” नाटक भी इसी शैली का पहला आधुनिक नुक्कड़ नाटक माना जाता रहा.
ब व कारंत के हिसाब से नुक्कड़ कलाकार शास्त्रानुयायी नहीं होता, वह रूपवादी नहीं होता, वह महानता का दावा भी नहीं करता. चले आ रहे रंगकर्म के तमाम तामझाम का वह विरोध नहीं करता पर उन पर अवलंबित नहीं रहता. वह चरित्र नहीं पात्र है उसे पहले से तय दर्शक भी नहीं चाहिए और असल बात तो यह कि उसे दर्शक नहीं जनता चाहिए. नुक्कड़ का कलाकार समूह का सदस्य है. नाटक कार स्वयं समूह है. वह सजग नागरिक है, उसकी भंगिमा क्रांतिकारी हैं. वह स्थापित मूल्यों का विरोधी है, रंगमंच का व नाटक का भी जिसे अभिनेता नहीं परफॉर्मर चाहिए.
नुक्कड़ कलाकार के आगे दर्शक बदलता रहता है. वातावरण हावी होता है. उसे तो दर्शकों के बीच रहना है उसकी प्रेजेंस ऑफ माइंड इस मायने में बड़ी जरुरी है कि वह अपने दर्शकों की टिप्पणियों पर तुरंत प्रतिक्रिया दे सके. उसकी भंगिमाएँ, उसके द्वारा की जा रही गतियाँ और उसकी वाणी के साथ इमोशनल इंटेंसिटी ही उसे इस काबिल बनाती है कि वह दर्शकों के साथ बेहतर सम्पर्क कर सके. नुक्कड़ कलाकार का पात्र बदलेगा-अपनी आवाज बदल कर, चाल बदल कर, भंगिमा बदल कर, मैनरिज्म बदल कर व चरित्र बदल कर.
नुक्कड़ नाटक की परंपरा और प्रयोग में देवेंद्र राज अंकुर स्पष्ट करते हैं कि शुरू से ही नाटकों से जुड़े तीन तत्वों की उपस्थिति इस प्रक्रिया में भी शामिल थी -प्रदर्शन स्थल के रूप में एक घेरा, दर्शकों और अभिनेताओं का अंतरंग सम्बन्ध और सीधे सीधे दर्शकों की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े कथानकों, घटनाओं और नाटकों का मंचन. नुक्कड़ नाटक ऐसा माध्यम है जो खुदबखुद लोगों के बीच जा पहुँचता है, उनकी समस्याओं से रूबरू होता है व उन्ही की भाषा में संवाद करता है. उसकी भूमिका प्रायः विरोध की रहती है.जो भी गलत हो रहा उन बातों को ले जनमानस का ध्यान लगा उसे जागृत करता है और ग़लत व्यवस्था से लड़ने को तैयार करता है.
नुक्कड़ नाटक की मूल प्रवृति उस उत्प्रेरक की भांति होती है जो किसी भी समस्या को उठाता है और अपने दर्शकों से यह अपेक्षा भी रखता है कि वे व्यवहार के स्तर पर भी कोई निर्णय लेंगे.यह रंगमंच के उस अलगाव सिद्धांत से भी मिलता -जुलता है जिसमें दर्शकों से यह उम्मीद की जाती है कि वह कथा के प्रवाह के साथ न बह जाये, उसे तो दूरी बना कर उसे देखना है व सोच विचार कर समस्याओं के प्रति संवेदनशील बनना है.
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इस प्रकार से नुक्कड़ नाटक एक वैयक्तिक विधा के दायरे से ऊपर उठ समूह को अपने साथ ले कर चलता है. इसी कारण यह स्वाभाविक रूप से कोरस की जरुरत महसूस करता है. देश में लम्बे समय तक नाट्य मण्डलियों ने नुक्कड़ नाटकों की विधा से विविध समस्याओं व विरोध क्या सशक्त व जीवंत माध्यम बनाया. ऐसे प्रश्न भी उभरे कि क्या नुक्कड़ नाटक विरोध और रोजमर्रा की समस्याओं से अलग भी गहरी और गूढ़ बातों में जा उनकी जाँच -पड़ताल कर सकता है या नहीं. कई नाट्य मण्डलियों ने नुक्कड़ नाटकों के बने बनाए ढर्रे को तोड़ कर नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियाँ दीं और उनका अपेक्षित प्रभाव भी पड़ा.
अब वह दौर है जब आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक स्तर पर झेली जा रही उथल पुथल के बावजूद नुक्कड़ नाटकों की प्रभावी भूमिका उदासीन होती चली जा रही है. आरम्भ में नुक्कड़ नाटकों को ऐसा सुविधाजनक रास्ता मान लिया गया था जिसमें कुछ लोग जुट गये, कुछ भी उछल कूद कर आगे बढ़ गये. फिर जो लोग इस विधा से किसी विचारधारा के साथ जुड़े थे उन्होंने व्यवस्था के विरोध में नुक्कड़ नाटक को प्रभावी हथियार बनाया. उस विचारधारा के स्थापित होने पर उनके सामने यह दुविधा उपजी कि अब वह किसका विरोध करें? तात्कालिक समस्याओं पर आधारित होने के कारण नुक्कड़ का प्रभाव भी बहुत जल्दी खत्म हो जाने की प्रवृति उभरी नुक्कड़ हेतु नया व सशक्त लेखन भी सामने नहीं आया.
नुक्कड़ नाटकों की प्रासंगिकता, संभावनाएं और चुनौती पर शमसुल इस्लाम लिखते हैं कि आज़ादी के बाद जो सकारा त्मक विचार, संकल्प व संस्थाएं हमने पाई थीं, उनमें ह्रास होता गया. राज्य व उसकी संस्थाएं शोषक वर्ग के हाथों में पड़ आम जन के शोषण का औजार बन गईं. महंगाई, बेकारी, सांप्रदायिकता, जातिवाद, स्त्रियों व अन्य दलित वर्गों का दमन जिस तरह बढ़ता जा रहा है, वह सत्ता पर विराजे अभिजात वर्ग के जन विरोधी चरित्र को उजागर करने लगा.
नुक्कड़ नाटक आंदोलन ड्रामा के क्षेत्र में केवल एक वैकल्पिक धारा ही नहीं थी बल्कि विचारधारा के स्तर पर भी एक विकल्प रहा. इसने जड़ता और पतनशीलता के विरुद्ध आवाज उठाई सो इसका दमन तो होना ही था. बंदूके, झूठे मुकदमे, कारावास, यातना नुक्कड़ नाटक प्रेमियों की भी किस्मत बने.
नुक्कड़ नाटक जनता के बीच जनता की बात रख वंचित और पीड़ित वर्ग की आवाज बने. यह जन मुक्ति के स्वप्न थे (प्रज्ञा-हिंदी की प्रोफेसर व लेखिका) जिसे तमाम सत्ता प्रतिष्ठानों ने लगातार हाशिये पर धकेलने की कोशिश की.आपातकाल में शासन के तानाशाही रवैये से ले कर वर्तमान पूंजीवादी, नव साम्राज्यवादी द्वारा जनता के शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध नुक्कड़ नाटकों ने लगातार आवाज उठाई. अब साम्प्रदायिकता, जातिवाद, सामन्तवाद, वैश्विक आतंक वाद, बाजारवादी पूंजीवाद जैसी व्यापक घटनाओं के साथ रोजमर्रा के जीवन में आम आदमी को चुभ रही मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेकारी, अशिक्षा, दहेज, अवैज्ञानिक दृष्टिकोण व स्त्री-समानता जैसे विषयों को उठाया गया.इनका मूल स्वरूप सत्ता की हां से हां मिलाने का न रहा. ये प्रतिरोध और विकल्प की राजनीति से प्रेरित और सृजित रहे. नुक्कड़ नाटक इस तथ्य को भी रेखांकित करते हैं कि नुक्कड़ नाटक एक जन -संसद है जहां जनता सांसद भी है और मतदाता भी. वह देखती है कि देश और दुनिया में जो गैर बराबरी और अन्याय की व्यवस्था चलती है उससे लड़ने के औजार कहाँ हैं?
नुक्कड़ की दुनिया में प्रतिरोध की संस्कृति की पहचान निहित है (मृत्युंजय प्रभाकर) भारत में नुक्कड़ नाटक आंदोलन पिछली सदी के पांचवे दशक से उभरा. 1942 से 1947 तक अंग्रेजों के खिलाफ स्वाभाविक गुस्सा और लोकतंत्र का ख्वाब इप्टा की प्रस्तुतियों में उभरा. बंगाल के अकाल से पीड़ित मानवता के लिए सहायता बटोरने इप्टा अपने कार्यक्रमों के साथ पहुंची. नुक्कड़ की प्रस्तुतियां शहरों,कस्बाई शहरों के साथ-साथ बड़े पैमाने पैर गांव-देहात के उन किसान-मजदूरों के सामने पहली बार की गई जो अब तक अपनी सांस्कृतिक जड़ों तक सिमित थे. वहीं दूरदराज के इलाकों में अपनी प्रस्तुतियां देती नुक्कड़ की मंडलियों को उस इलाके की लोक शैलियों से परिचित होने का अवसर मिला.
आजादी मिलने के बाद इप्टा में संक्रमण का दौर शुरू हुआ इप्टा से जुड़े अधिकांश कलाकारों ने फिल्म उद्योग में अवसर पाया जिससे विषय वस्तु के स्तर पर ऐसी फ़िल्में बनीं जो प्रगतिशील मूल्यों को आगे बढाती थीं. फ़िल्मी गीतों, नृत्यों में लोक-शैलियों का खूब उपयोग हुआ. ये गीत हर जुबान से गुनगुनाये जाने लगे. आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार से प्रगतिशील विचारों से प्रभावित युवा इनसे गहरे जुड़ा. दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद अपनी सरकार बनने से जगी उम्मीदों ने भारत की जनता के मुक्ति के स्वप्न को बिखेर दिया. आजादी के आंदोलन का मुख्य स्वर अंग्रेजी राज का विरोध था और आज़ादी मिलने के बाद की यह सोच कि उनके मकसद की पूर्ति हो चुकी है,इप्टा के साथ जुड़े लोग स्वतः ही कायांतरित हो चुके थे. कम्युनिस्ट पार्टी के नारे ‘ये आज़ादी झूठी है ‘के नारे ने भी,काफी बड़ी संख्या में मध्य वर्ग से अपने समर्थको को दूर कर दिया था.
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1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद लोगों के बीच उपजी निराशा और शासन की जन विरोधी नीतियों ने भारतीय जनता और युवा वर्ग को पुनः आंदोलित कर दिया. 1967 के चुनाव में कई प्रान्तों में कांग्रेस पराजित हुई. इसी साल राष्ट्रव्यापी नक्सलबाड़ी का उभर हुआ. मजदूर आंदोलन भड़के. 1970 के दशक में इप्टा का पुनर्गठन हुआ. जन आक्रोश इतना देशव्यापी रहा कि इंदिरा गाँधी को इमरजेंसी लगानी पड़ी. जनता को लोकतान्त्रिक अधिकारों से महरूम कर दिया गया. राजनीतिक गिरफ़्तारियां हुईं, आंदोलन बेरहमी से कुचलने का दौर शुरू हुआ. 1977 में इंदिरा गाँधी की पराजय तक ऐसा सांस्कृतिक आंदोलन उभर चुका था जिसने जनता की समस्याओं को उन्हीं के बीच रू-ब-रू करा, उसके पीछे के पेंच को उघाड़ने की कोशिश की. नुक्कड़ नाटक का मूल स्वर व्यवस्था विरोधी रहा जिससे जनता को राजनीतिक जागृति मिली और नाटक को मिले अपार दर्शक.
हर तरह की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं के क्रांतिकारी हल को सामने रखते ये नुक्कड़ नाटक,आपसी गठजोड़ व जनता के प्रति हो रही साजिशों का भंडाफोड़ करने लगे. जनता को संवेदनशील बना उसे ज्ञान देने के उद्देश्य से नुक्कड़ नाटकों में भी कुछ निश्चित फार्मूलों का प्रयोग होने लगा. तब जनता को सचेत करने से ज्यादा लड़ाई कैसे लड़नी है और कैसे दुश्मन को परास्त करना है का भाव इन नुक्कड़ नाटक पर हावी होने लगा. ऐसे में अधिकांश नाटकों में जनता का दोहन/शोषण मुख्य मुद्दा बन गया. ऐसे में समस्याओं का हल नहीं बल्कि विषय भी अंततः ऐसे फॉर्मूले में बदल गया जिसमें एक जैसे पात्र सामने आए और वैसे ही स्टीरियो टाइप के.’दुख ही जीवन की कथा रही ‘वाली बात इन लेखकों को इतनी पसंद आई कि उन्होंने हर नाटक को दुखमय बना डाला. यह उनकी सबसे बड़ी गलती रही.
1990 के दशक से वैश्विकरण की आंधी आई जो जनता के लोकतान्त्रिक अधिकारों को सीमित कर पूंजीवादी लोकतंत्र का इस्तेमाल अपने हित में करने का लक्ष्य रखती रही. इसके हथियार बने एनजीओ लोक कल्याण पर हमले की इस साजिश में नुक्कड़ नाटकों का इस्तेमाल किया गया.इसके साथ ही व्यवस्था पोषित नुक्कड़ नाटक का चलन भी बढ़ा जिसने सरकारी व निजी समूहों के द्वारा चलाये अभियानों का प्रचार -प्रसार हुआ. बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी इसका घोर अनुसरण किया.अपने उत्पादों के प्रचार के लिए उन्होंने नुक्कड़ नाटकों का सहारा लिया. चुनाव का मौसम नुक्कड़ के कलाकारों के लिए नये अवसर ले कर आया. राजनीतिक दलों के प्रचार का ठेका लेने वाले प्रायः नुक्कड़ के कलाकार व समूह थे, जिन्होंने युवा रंगकर्मियों के माध्यम से पार्टी प्रॉपगेंडा हुआ. नुक्कड़ नाटकों के ऐसे स्वरुप ने इस बहस को भी जन्म दिया कि पूंजीवादी मान्यताओं के विरुद्ध नुक्कड़ नाटक ने जिस वैकल्पिक भाषा और संस्कृति को उभार दिया, पूंजीवादी समूह और उसके दलाल उसके अवमूल्यन के लिए ऐसी साजिश रच रहे हैं.
अपनी लम्बी विकास यात्रा के क्रम में कथ्य व शिल्प के स्तर पर नुक्कड़ नाटकों की परिसीमा यह रही कि कथ्य व शिल्प के स्तर पर उनका स्वरूप एक सा बना रहा. नुक्कड़ नाटकों का अपना न तो व्याकरण गढ़ा गया और न ही उसके सौंदर्य शास्त्र के निर्माण की कोशिश ही की गई. बदलते समय और यथार्थ के अनुसार नये-नये प्रयोगों को आत्मसात भी न किया गया. इसी कारण नुक्कड़ नाटक वहीं खड़ा दिखाई देता है जहां से उसने अपनी यात्रा शुरू की. ऐसे में जरुरी हो जाता है कि नुक्कड़ नाटकों को अपना व्याकरण और सौंदर्य शास्त्र खुद गढ़ना होगा. धर्मेंद्र प्रधान सिंह स्पष्ट करते हैं कि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर खेले जाने से नुक्कड़ नाटक को एक ऐसा सुविधाजनक कला माध्यम मान लिया गया जिसमें किसी गंभीर या जटिल समस्या को शामिल करने की जरुरत ही महसूस न हुई. ऐसे में नुक्कड़ नाटक कुछ रूढ़ प्रतीकों, चले आ रहे गति विधानों, उत्तेजक गीतों और अंततः विरोध की अनिवार्य प्रकृति तक ही सीमित होता चला गया.व्यवस्थित व्याकरण और सुगठित सौंदर्य शास्त्र के अभाव में नुक्कड़ नाटकों में शुष्कता और एकरसता समाती गई. बदलते समय और यथार्थ के अनुसार नये अभिनव प्रयोगों को शामिल कर नुक्कड़ नाटक पुनः नये तेवर और ऊर्जा के साथ आगे बढ़ सकता है.
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कमलानंद झा, “भारतीय नाटक और रंगमंच का टर्निंग प्वाइंट” में स्पष्ट करते हैं कि नुक्कड़ नाटक ने पहली बार व्यक्ति विशेष या नायक की अवधारणा को समाप्त कर सामूहिक नायक की भावना को उपस्थित किया. नायक-नायिका विहीन नाटक की परिकल्पना की, जनता को ही नाटक का नायक बना दिया.
नुक्कड़ नाटक ने रंगमंच की अवधारणा को ख़ारिज कर मुक्त आकाश के नीचे मैदान या चौराहे पर नाटक प्रस्तुत कर रंगमंच की भव्यता को समाप्त कर दिया. मंच विहीन नाटक की परिकल्पना नुक्कड़ की ही देन है, साथ ही रंगकर्म के लिए जरुरी समझी जाने वाली सीमाओं को तोड़ कर मंच से, सभागार से, प्रकाश व्यवस्था, मंच सज्जा उपकरणों और इनमें होने वाले खर्चो से अपने को मुक्त कर लिया. अब ऐसा रंगमंच सामने था जिसे कहीं भी, कभी भी, ले जाया जा सकता था. इसका उद्देश्य रहा समकालीन व्यवस्थाओं और उनसे उपजी परिस्थितियों से दो-दो हाथ करना, समकालीन मुद्दों को टारगेट करना. तत्कालीन सत्ता के शोषण और दमन के नुकीले नख-दंत से जनता का साक्षात्कार करना और उसके विरुद्ध लामबंद होना. साथ ही यह किसी घटना की काल -क्रमबद्धता को तोड़ता है. इसमें एक साथ एक समय में एक से अधिक घटनाएं घटती हैं.
नुक्कड़ नाटक साधारणीकरण की अवधारणा को भी पलट देता है.यह दर्शकों को भावुक नहीं होने देता. वह दर्शक के विवेक को भावविभोर नहीं करता बल्कि अलगाव स्थापित कर दर्शक के विवेक को जाग्रत करता है. इनका उद्देश्य मनोरंजन नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन है, व्यवस्था का बदलाव है. उसकी कोशिश होती है कि छिपाई गई सच्चाइयों की, अर्ध-सत्यों की जाँच परख कर लोगों तक पूरी सच्चाई पहुँच सके.
नुक्कड़ नाटक में संवाद के समानान्तर संकेत भाषा व शारीरिक भंगिमा भी चलती रहती है. भाषा के सापेक्ष देह भंगिमा व संकेत सूत्रों का बाहुल्य हो सकता है. रंगमंच की परम्परा में नुक्कड़ नाटक धारदार व सार्थक हस्तक्षेप है जो सत्तर के दशक में अपनी तूफानी गति से आया व बीसवीं सदी के अंतिम समय तक इसकी तेज आंच महसूस की जाती रही.
यही नुक्कड़ नाटक बड़ी चुनौतियों के समक्ष तीव्रता से खड़ा होता है और फिर एक तरीके से हाइबरनेशन में चला जाता है. फिर जब कोई विकट परिस्थिति आती है तो यह एकदम से उभरता है. यह पीड़ितों का अस्त्र है, भीतर ही भीतर सुलगता है. बुझता नहीं, पर धधकता रहता है. वर्तमान परिस्थितियों में नुक्कड़ नाटक शुद्ध ‘जनआंदोलन’ से ‘मार्केटिंग टूल’ होता जा रहा है.
मंजुल भारद्वाज लिखते हैं कि नुक्कड़ नाटक का जनजागरण के माध्यम के रूप में केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर खूब उपयोग किया.जन साक्षरता मिशन इसका उदाहरण है. स्कूल, कॉलेज व विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय सेवा योजना के अधीन नुक्कड़ कराये गये जिनमें ‘सत्ता से संघर्ष’ वाली आत्मा नदारद थी. ऐसी शासनाकूल प्रस्तुतियों से यह विधा प्राणहीन होती गई और नुक्कड़ नाटक कुरता और जीन्स पहने युवाओं का फैशन बन गये. कॉर्पोरेट घरानों ने इसे मार्केर्टिंग टूल बना डाला था. अब यह बदलाव का सर्वसुलभ हथियार था जिस पर ‘खरीदने और बेचने ‘की संस्कृति के पेरोकारों द्वारा कब्ज़ा करने की साजिश चलती रही.
भारतीय रंगमंच की त्रैमासिक पत्रिका “नटरंग” नुक्कड़ नाटक विशेषांक (खंड 29-अंक 112-114) रंगकर्म को जनवादी चेतना व स्वस्थ वैकल्पिक संस्कृति के प्रसार हेतु अपना सर्वस्व समर्पित करते सफ़दर हाशमी के उल्लेखनीय योगदान से आरम्भ होती है. 34 वर्ष की आयु में ही भारत की राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से लगे साहिबाबाद के झंडापुर गाँव में नुक्कड़ नाटक करते वर्ष 1989 की पहली तारीख को उनकी हत्या कर दी गई थी. सफदर ने अपने जीवन के सतरह साल नुक्कड़ नाटक की विधा को समर्पित करते हुए, इसे जीवंत, संप्रेषणीय और प्रभावी बना दिया था और ऐसे ही नाटक में भाग लेते अपने प्राणों की आहुति दे दी थी.
नटरंग के इस गागर में सागर भरे विशेषांक में नुक्कड़ नाटक के उद्भव व विकास से सम्बंधित लेख हैं. नुक्कड़ के अवसान व पतन के साथ भावी परिदृश्य की रुपरेखा है. राष्ट्रीय नुक्कड़ रंग मेला के संस्मरणों व नोट्स से देश भर में फैली इसकी हलचलों का विवरण है. नुक्कड़ आंदोलन की दशा व दिशा किन परिस्थितियों में केरल, तमिलनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल व कुमाऊं के साथ देश के अन्य भागों तक जनता से रूबरू हुई और दुनिया के सबसे बड़े जागरूकता अभियान में अपना नाम दर्ज करा “रेड रिबन एक्सप्रेस” बनी इसका सम्पूर्ण विवरण है . नुक्कड़ नाटकों को ले कर किसी सरकारी और इतने व्यापक अभियान में गुणवत्ता व स्थानीय विशेषताओं को समाहित करने का यह अनूठा संगम था जिसने त्वरक प्रभाव उपजाये.
(Natrang Article Mrigesh Pande)
नवयुवक इससे कितने जुड़े इसका प्रमाण दिल्ली विश्वविद्यालय में खेले गये नुक्कड़ नाटकों की गुणवत्ता से प्रमाणित होता है. इनमें जल बटा शून्य, भूख, रुको राही और मारे जायेंगे की पूरी स्क्रिप्ट इस विशेषांक में है. साथ में विभिन्न समूहों के पूरे नुक्कड़ नाटक शामिल हैं जिनमें ओम स्वाहा,अनसुने अफसाने, दो दूनी एक, भोंपू, तथागत, पोल खुला पोर पोर मुख्य हैं.
भारतीय रंगमंच पर मंडराता वह साया और नुक्कड़ नाटक की रचना और प्रस्तुति की पड़ताल पर छपी किताबों के साथ निशांत नाट्य मंच, थिएटर यूनियन व जन नाट्य मंच के इतिहास पर केंद्रित कार्यक्रम का विवरण रंग स्मरण में सम्पादित किया गया है साथ ही फोटो फीचर व छवि वीथी में नुक्कड़ नाटकों के बेहतरीन फोटो भी हैं.
नटरंग के नुक्कड़ नाटक का अतिथि संपादन किया है हिमांशु बी जोशी ने जिन्होंने पिथौरागढ़ उत्तराखंड से रंगकर्म की यात्रा आरम्भ की. पिछले तीन दशकों से हिमांशु नाट्य लेखन, अनुवाद, परिकल्पना से ले कर निर्देशन तक सक्रिय रहे तो वहीं आलोचना, कथन, साक्षात्कार, जनसत्ता में कविताएं तथा नटरंग वा रंगप्रसंग आदि में उनके आलेख प्रकाशित होते रहे हैं.
434 पृष्ठ में नुक्कड़ नाटक को समर्पित यह विशेषांक कीर्ति जैन द्वारा नटरंग प्रतिष्ठान के लिए प्रकाशित व मुद्रित किया गया.नुक्कड़ के हर पक्ष का मूल्यांकन करता यह विशेषांक अपनी गुणवत्ता में महत्वपूर्ण सन्दर्भ के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बना गया है.
(Natrang Article Mrigesh Pande)
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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