जिसकी प्रेरणा से बेडू पाको जैसा कालजयी गीत बनकर पूरी दुनिया में छा गया. जिसका प्रांगण गवाह रहा है रामलीला की अनगिनत तालीमों की रंग भरी शामों का. जिसने नगरवासियों के चिंतन, उनकी समस्याओं को उठाने का ठोस धरातल प्रदान किया है, जहां मेले में खरीदे रंग-बिरंगे खिलौने आज भी मन को रोमांचित कर जाते हैं, ऐसा नंदा देवी प्रांगण बचपन की यादों में इतना रचा बसा है कि ख़ासकर नंदा देवी मेले के दौरान मन पंछी बनकर वहां पहुंच जाने की ज़िद करता है. (Nanda Devi Folk Festival)
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प्राकृतिक विविधताओं से भरे उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में लोक पर्वों की भी बहुलता है. साल भर कोई न कोई लोक पर्व यहां पर मनाया जाता है. आनंद का विषय है कि आज जब सांस्कृतिक चेतना शून्य होती जा रही है तो ये लोक पर्व अपने ऐतिहासिक महत्व के साथ अपनी लोकप्रियता को भी बनाए हुए है. संचार तकनीकि के विकास के साथ ही दूसरे प्रदेशों या देशों में प्रवास करने वाले इस क्षेत्र के लोग भी इन पर्वों को उतने ही उत्साह के साथ मनाते हैं और इनका प्रचार प्रसार और संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. सितंबर यानि भाद्रपद के महीने में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण लोकोत्सव है नंदा देवी मेल
यह पर्व भाद्र मास शुक्ल पक्ष अष्टमी को सम्पन्न होता है. इस बार यह लोकपर्व 22 से 24 सितम्बर के बीच मनाया जाएगा. नंदा देवी महोत्सव के रूप में लोकप्रिय यह त्योहार नंदा-सुनंदा को समर्पित है, जो खुशी की देवी मानी जाती है और स्थानीय लोगों की संरक्षक देवी भी हैं.
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नंदा-सुनंदा दो बहने हैं जिन्हें नयना और सुनयना नाम से भी पुकारा जाता है. चैत्र के महीने में मनाया जाने वाला भिटौली पर्व भी कहीं ना कहीं नंदा-सुनंदा से ही जुड़ा है क्योंकि इस क्षेत्र के लोग उनसे बेटी बहन का नाता रखते हैं. नंदा देवी उत्सव के दौरान मां नंदा-सुनंदा की मनमोहक प्रतिमाएं बनाई जाती हैं. इन्हें बनाने के लिए केले के पेड़ का इस्तेमाल किया जाता है. वृक्ष की चयन प्रक्रिया भी रोचक है. कदली यानि केले के वृक्ष से नंदा सुनंदा की प्रतिमाओं के आवरण बनाए जाते हैं. केले के बाग में जाकर पूजा अर्चना की जाती है और अभिमंत्रित अक्षत (चावलों) कदली वृक्षों की ओर उछालते हैं, इस प्रक्रिया में जो वृक्ष हिलता है, वही मां नंदा सुनंदा की प्रतिमा में सजने का सौभाग्य पाता है. उस कदली वृक्ष के तने को काटकर संगीतमय वातावरण में तुरही और नगाड़े की धुन के साथ नंदा के मंदिर में लाते हैं. फिर कुशल कारीगरों और कलाकारों की मदद से नंदा-सुनंदा की मूर्तियां बनाई जाती हैं, ठीक उसी तरह जैसे रामलीला में पुतले. आधार के लिए लकड़ी का फ्रेम इस्तेमाल करते हैं. इसके अतिरिक्त मां के चेहरे में नाक, आंख, होंठ आदि अंगों को बनाने के लिए उड़द, चावल का बिस्वार जो ऐपण देने के लिए प्रसिद्ध है, सिंदूर और हरे पत्तों का इस्तेमाल किया जाता है.
इस तरह मुखौटों को सुंदर आकर दिया जाता है और मध्य रात्रि के समय चंद राजवंश के किसी उत्तराधिकारी के द्वारा इनमें प्राण प्रतिष्ठा की जाती है. उत्सव के लिए हर साल बेहतरीन इंतज़ाम किए गए जाते हैं, जिसमें कुमाऊं क्षेत्र और राज्य के अन्य स्थानों से भक्तों की भारी भीड़ देखी जाती है.
कुमाऊं के सांस्कृतिक नगर अल्मोड़ा में इस त्यौहार की अगर बात करें तो बताते हैं कि सन् 1617 में तत्कालीन शासक बाज बहादुर चंद गढ़वाल के जूनियागढ़ किले को जीतकर नंदा की अल्मोड़ा प्रतिमा लाए थे और बाज़ार स्थित मल्ला महल में मंदिर बनवाकर उसे वहां स्थापित किया. इससे पूर्व वहां पर केवल सुनंदा की अर्चना की जाती थी. हालांकि मूर्ति की धातु को लेकर अलग-अलग मत है. फिर 1699 में राजा ज्ञानचंद गढ़वाल के बधानकोट से मां नंदा की स्वर्ण प्रतिमा अल्मोड़ा लाए. 1710 में राजा जगत चंद ने मां नंदा की 200 स्वर्ण मुद्राओं से प्रतिमा बनाकर नंदा देवी मंदिर में स्थापित की. 1816 में अंग्रेजों और गोरखाओं के संघर्ष में मल्ला महल नष्ट होने के साथ-साथ मंदिर भी लड़ाई की भेंट चढ़ गया और रामशिला मंदिर स्थित मां नंदा की मूर्ति को उसके मूल स्थान से स्थांतरित कर दूसरी जगह पहुंचा दिया गया था जो स्थान आज नंदा देवी परिसर कहलाता है. वर्तमान में मंदिर में तीन देवालय हैं. बाईं ओर पार्वतेश्वर मंदिर, बीच में उद्योतचंदेश्वर और और जिस मंदिर में नंदा विराजमान हैं उसे नंदा देवी मंदिर कहते हैं.
चंद्रवंशीय राजा उद्योत चंद ने अल्मोड़ा में चार मंदिर बनवाए. जो क्रमशः विष्णु देवाल, त्रिपुरा सुंदरी, उद्योतचंदेश्वर और पार्वतेश्वर हैं. उद्योतचंद्र मंदिर नागर शैली का प्रतीक है जिसमें वेदीबंध, त्रिरथ युक्त जघाभाग, चार भूमि आमलकों से विभाजित रेखा शिखर, ग्रीबा बनाए गए हैं. स्तंभों के काष्टछत्र द्वारा इसमें गज, सिंह की प्रतिमा, शुकनास के रूप में स्थापित है. पट्टियों में भी शेर द्वारा हिरन के आखेट, नाग, मिथुन, मीन, पक्षी, मानव, आमोद प्रमोद के दृश्य, सुरा दरबार, हाथियों के युद्ध के दृश्य अंकित हैं. ब्रह्मा विष्णु और उमा महेश का भी अंकन इन पत्थरों में है. यह मंदिर उत्तर पूर्व कोने में है और इसका द्वार पश्चिम दिशा में है. मंदिर के शिखर पर गज सिंह की प्रतिमा शुकनास के रूप में स्थापित की गई थी जो अब खंडित रूप में है.
मल्ला महल से मूर्ति स्थानांतरित होने के दौरान देवी रुष्ट हुईं थी और कमिश्नर ट्रेल को स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ा. पंडितों की सलाह पर शिव मंदिर के साथ देवी नंदा की मूर्ति की पुनः स्थापना की गई. मल्ला महल अल्मोड़ा शहर के बीचोंबीच नागर शैली में बना हुआ शाही सल्तनत की गवाही देता एक भवन है, जिसे धरोहर के रूप में संजोने और वहां पर संग्रहालय स्थापित करने का सपना पूरा होते हुए हमने देखा है.
पहले यहां पर तहसील स्थित थी, जिसे अब शहर से लगभग चार-पांच किलोमीटर दूर स्थित विकास भवन में जिलाधिकारी कार्यालय के पास स्थानांतरित किया जाना है.
मल्ला महल स्थित रामशिला मंदिर भी नगर वासियों की आस्था का केंद्र है. ड्योढ़ी पोखर से शुरू होकर यह यात्रा दुगाल नौले में विसर्जन के साथ संपन्न होती है. ठीक इसी तरह नैनीताल में पाषाण देवी के पास झील में प्रतिमाओं को विसर्जित किया जाता है. नैना देवी मंदिर, नैनी झील के किनारे, माल रोड पर पेड़ों और बाजार में इमारतों पर सजावटी रोशनी लगाई जाती हैं . नैना देवी मंदिर के सामने मेला मैदान में कपड़े, रसोई के सामान, स्थानीय हस्तशिल्प और दैनिक उपयोग की अन्य वस्तुओं की बिक्री के लिए कई स्टॉल लगाए जाते हैं. विभिन्न राज्यों से छोटे-बड़े कारोबारी भी इन मेलों में आने लगे हैं.
अल्मोड़ा में भी नंदा देवी प्रांगण में सजावट की जाती है और मेला लगता है. हिमालय की नंदा और सुनंदा चोटियों का प्रतिनिधित्व करने वाली जुड़वां देवियों नंदा और सुनंदा की पूजा करने के लिए भक्त सुबह से ही नंदा देवी मंदिर में पहुंचने लगते हैं , जिनकी मूर्तियों को मंदिर परिसर में केले के तने में स्थापित किया जाता है. उत्सव के आखिरी दिन मूर्तियों को डोला (पालकी) में लेकर एक धार्मिक जुलूस निकाला जाता है.
शक्ति रूपी नंदा की पूजा पूरे हिमालय क्षेत्र में होती है. यह मेला अपनी संपन्न प्राचीन विरासत लिए हुए हैं. स्कंद पुराण के मानस ग्रंथ में इस बात का वर्णन मिलता है कि नंदा पर्वत की चोटी पर नंदा देवी का निवास स्थान है. नंदा गढ़वाल के परमार वंश, कुमाऊं के कत्यूर और चंद्र वंश की कुलदेवी मानी जाती है.
गरुड़ के निकट कोट भ्रामरी मंदिर में भी नंदा अष्टमी का पर्व मनाया जाता है. जोहार क्षेत्र में, गढ़वाल के नौटी, देवराड़ा, सिमली समेत कई क्षेत्रों में भी यह पर्व विविधता लिए हुए मनाया जाता है. नंदा को लेकर सभी राजवंशों में अलग-अलग कहानियां प्रचलित हैं. एक प्रचलित कहानी यह भी है कि एक चंद्रवंशीय राजा मां पार्वती का परम भक्त था और संतान न होने के कारण उदास था तो मां पार्वती ने सपने में जाकर उसके घर कन्या रूप में जन्म लेने का वरदान उसे दिया. भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष अष्टमी को एक दिव्य कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम चमोली स्थित नंदा कोट पर्वत के नाम पर नंदा रखा गया. इस प्रकार नंदा चंद्रवंशीय राजा की पुत्री हुई. मुख्यतः हिमालय और मां पार्वती से नंदा का संबंध माना जाता है. कुमाऊं गढ़वाल उनका मायका और कैलाश पर्वत उनका ससुराल माना जाता है. एशिया की सबसे बड़ी और कठिन पैदल धार्मिक यात्रा नंदा राज जाट यात्रा भी नंदा को ससुराल छोड़ने की परंपरा के रूप में मनाई जाती है. तत्कालीन चंद्रवंशीय राजाओं ने अपनी प्रजा के साथ इसे उत्सव के रूप में मनाया और तभी से यह लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है.
यह त्यौहार मातृशक्ति के अभिनंदन का प्रतीक है. अष्टमी के दिन नंदा को महिषासुर मर्दिनि के रूप में पूजा जाता है. बताया जाता है कि नंदा सुनंदा की कदली द्वारा निर्मित मूर्तियों के पूजन के बाद मां सुनंदा की रजत मूर्ति का भी पूजन किया जाता है. यह मूर्ति राजपरिवार के वंशजों के पास सुरक्षित है. केवल मंदिर के पुजारी और राजवंश के सदस्य ही इसके दर्शन कर सकते हैं. यह आम जनता के दर्शनार्थ उपलब्ध नहीं है. पूर्व में, मेले के दौरान बलि प्रथा का भी प्रचलन था. हमने अपने बचपन में देखा था कि भैरव का पूजन कर भैंसे या बकरे की बलि दी जाती थी. जो अब प्रतिबंधित है और स्वागत योग्य कदम है. पूजा अर्चना के बाद मां का डोला पूरे नगर में घुमाया जाता है. झोड़े, छोलिया नृत्य और हुड़के की थाप में नाचते क्षेत्रीय कलाकारों का दल एक मनोहर वातावरण उत्पन्न कर देता है. वर्तमान में महिलाएं भी कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं. इस बार भी महिलाओं के कई समूह कई दिन पहले से ही लोक नृत्य आदि के रियाज़ में लगे हैं. पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता यह अलौकिक त्यौहार देश में ही नहीं बल्कि विदेश में भी अपनी पहचान बना रहा है. ये सच है कि बिना नंदा देवी सरीखे मेलों को देखे और जाने अल्मोड़ा शहर की सांस्कृतिक विरासत को समझना आसान नहीं है. ()
मूलरूप से अल्मोड़ा की रहने वाली अमृता पांडे वर्तमान में हल्द्वानी में रहती हैं. 20 वर्षों तक राजकीय कन्या इंटर कॉलेज, राजकीय पॉलिटेक्निक और आर्मी पब्लिक स्कूल अल्मोड़ा में अध्यापन कर चुकी अमृता पांडे को 2022 में उत्तराखंड साहित्य गौरव सम्मान शैलेश मटियानी पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
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