उप्रेतीखाल, पाँखू, पिथौरागढ़ में 1930 में जन्मे नंद कुमार उप्रेती की कहानी एक सामान्य पहाड़ी आदमी का उस जमाने का लगभग आम मगर खास किस्सा है. एक गरीब परिवार में जन्म और बचपन में ही शहरों की ओर पलायन. लखनऊ की गलियों-सड़कों में ठोकरें खाने से पहले बालक नंद कुमार के भीतर शायद कोई ऐसी मणि थी जो उन्हें हर भटकन से उबारती और रचनात्मक दिशा में ले जाती रही. उप्रेती जी की कहानी का यही बड़ा उजला और प्रेरक पक्ष है.
(Nand Kumar Upreti Uttarakhand)
जब वह लखनऊ पहुँचे तो मुश्किल से ही साक्षर थे लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने न केवल पढ़ना-लिखना सीखा बल्कि बांग्ला और अंग्रेजी भाषा पर भी पकड़ मजबूत की. और यह सब तब किया जबकि लखनऊ में न उनका कोई परिचित था, न सहारा देने वाला. उन दिनों पहाड़ियों ने उन्हें ‘ल्याख’ नहीं लगाया तो बंगालियों ने उन्हें हाथों-हाथ लिया.
एक बंगाली की दुकान में काम किया. उसी के यहाँ रहे. पढ़ाई में रुचि देखकर उसने पढ़ाया भी. पढाई और नौकरी साथ-साथ चली. बाद में लखनऊ के प्रसिद्ध बंगाली भद्रपुरुष विक्टर नारायण विद्यान्त ने उन्हें अपने (विद्यान्त) कालेज में पढ़ाने की नौकरी दी. छोटी कक्षाओं से पढ़ना शुरू करके वे खुद पढ़ते-पढ़ते एम.ए. करके इण्टर तक के विद्यार्थियों को हिन्दी व संस्कृत पढ़ाने लगे.
1960-62 तक नंद कुमार उप्रेती अपने अध्यवसाय के बलबूते बांग्ला लेखक के तौर पर स्थापित हो चुके थे. शीर्ष बांग्ला पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ छपती थीं. लेकिन तब तक भी लखनऊ के पर्वतीय समाज को उनकी प्रतिभा की कोई जानकारी नहीं थी. दरअसल उप्रेती जी स्वयं पहाड़ियों से दूर रहते थे. कारण यही कि जब वे एक छोकरे के रूप में लखनऊ पहुँचे थे और पैर टिकाने के लिए भटक रहे थे तो लखनऊ के पहाड़ियों ने उन्हें सहारा देने की बजाया हँसी-ठट्टे का ही पात्र बनाया. वे अक्सर यह बात कहा भी करते थे.
अक्टूबर 1962 में आकाशवाणी, लखनऊ से कुमाऊँनी गढ़वाली बोली का उत्तरायण कार्यक्रम शुरू हुआ. जीत जरधारी और जयदेश शर्मा ‘कमल’ ने उसकी शुरूआत की. कुछ महीनों बाद कमल जी शिमला से एक अन्य प्रतिभावान कुमाऊनी युवक को ‘उत्तरायण’ के लिए खोज लाए. इस युवक का नाम था वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’. जिज्ञासु ने जब ‘उत्तरायण’ के लिए कुमाऊनी-गढ़वाली लेखकों की खोज शुरू की तो किसी ने उन्हें आकाशवाणी में नंद कुमार उप्रेती से मिलवाया जो अक्सर हिन्दी व बांग्ला कार्यक्रमों में भाग लेने वहाँ जाते थे.
(Nand Kumar Upreti Uttarakhand)
जिज्ञासु जी बताते हैं कि मैं उस युवक को कभी-कभार देखता था और उसे बंगाली ही समझता था. वह बांग्ला ही बोलते थे. जब पता लगा कि ये तो कुमाऊनी हैं तो ‘उत्तरायण’ के लिए कुमाऊनी में लिखने का आग्रह किया. उप्रेती जी ने शुरू में आनाकानी की मगर बाद में मान गए.
‘जिज्ञासु नहीं होता तो मैं कुमाऊनी में कभी नहीं लिखता.’ नंद कुमार जी बताते थे- ‘यह जिज्ञासु ही है जिसने मुझसे जबर्दस्ती कुमाऊनी में लिखवाया. यह पीछे पड़ा रहा और मैं मना करता रहा. फिर इसकी लगन देखकर मुझे दया आ गई. मैं कुमाऊनी में लिखने लगा.’
उप्रेती जी ने लखनऊ के बंगालियों के बीच पलते-बढ़ते बांग्ला सीखी थी लेकिन कुमाऊनी तो उनके रग-रग में बहती थी. कुमाऊनी में लिखना शुरू किया तो फिर क्या कहानी-किस्से, क्या कविता, क्या हास्य-व्यंग्य और क्या नाटक-सभी विधाओं में रचनाएँ प्रस्फुटित होने लगीं.
(Nand Kumar Upreti Uttarakhand)
‘शुरू में उप्रेती जी की कुमाऊनी मेरी समझ में ही नहीं आती थी.’ जिज्ञासु जी कहते हैं- ‘ऐसे-ऐसे ठेठ पहाड़ी शब्द वे लिखते कि मुझसे पढ़ा भी नहीं जाता. दरअसल, मैं भी तब कुमाऊनी सीख ही रहा था और ठेठ आंचलिक शैलियों से मेरा वास्ता नहीं पड़ा था.’ उप्रेती ठेठ कुमाऊनी में रचनाएँ लिखते, ठेठ अंदाज में पढ़ते-सुनाते और समझाते भी जाते. नंद कुमार उप्रेती और वंशीधर पाठक ‘जिज्ञासु’ का यह रिश्ता धीरे-धीरे दोस्ती में बदल गया- लंगोटिया दोस्ती. यह गहरी दोस्ती चालीस साल न केवल कायम रही बल्कि निरन्तर प्रगाढ़ होती रही. उप्रेती जी के निधन (6 फरवरी 2005) के बाद जिज्ञासु जी के पास कोई दोस्त नहीं रहा.
दरअसल लेखन को उन्होंने कभी महिमामण्डित नहीं किया. न ही कभी कोई साहित्यिक या लेखकीय दावे किए. उन्होंने सब कुछ लिखा- जो मन किया और जो लिखवाया गया. बांग्ला में लिखने के अच्छे पैसे मिलते हैं, वे बताते थे. दरअसल जिन हालात में वे लखनऊ आए, उसमें पैसा बड़ी जरूरत थी. 1971 में जबसे उन्हें जानना शुरू किया, वे शादीशुदा और दो बेटे व दो बेटियों के पिता थे और गुजारे को मास्टरी का सीमित वेतन. बांग्ला में उन्होंने क्या-कैसा लिखा इसका ज्यादा पता नहीं लेकिन हिन्दी व कुमाऊनी में उन्होंने वह सब कुछ लिखा जो चलता था.
कहानी-कविता-नाटक-व्यंग्य, आदि के अलावा प्रचार सामग्री, विज्ञापन संवाद, फिल्म कथा, वगैरह. लेकिन उनके लेखन में हम समाज, समय और संस्कृति की बेहतरीन झलक भी देख सकते हैं. बांग्ला पत्रिकाएँ उनकी कहानियाँ आग्रहपूर्वक माँगती थी. ‘उत्तरायण’ के लिए उन्होंने कुछ बहुत सुन्दर कविताएँ, कहानियाँ, किस्से, संस्मरण और नाटक व रूपक लिखे.
‘डिरेक्टर रामलिल’ और ‘मी यो गयूं मी यो सटक्यूं’ जैसे उनके कुमाऊनी नाटकों को जब ‘आँखर’ ने मंच पर खेला तो दर्शक हँसते-हँसते लोटपोट हो गए. ये लोकप्रिय नाटक बाद में कई शहरों में खेले गए. दरअसल ये मूलतः हास्य नाटक नहीं हैं. इनमें गरीब पहाड़ी आदमी का त्रासद स्थितियों का बेहतरीन चित्रण है लेकिन विलाप की तरह नहीं. उप्रेती जी ने खुद गर्दिश के दिन हँसते-हँसते झेले और जिस तरह उन पर विजय पाई, उस अनुभव ने उन्हें यह अनोखा जीवन दर्शन दिया कि
मैंने सारे दुखों की पोटली बनाकर उसे भेल के नीचे च्याप दिया है और उनसे कहता हूँ अब दबाओ सालो मुझे.
दुखों की पोटली पर बैठकर वे हँसते थे और हसाते थे. ऊपर से हास्य-प्रधान दिखने वाली उनकी रचनाओं में दरअसल आम पहाड़ी आदमी के हालात का रोचक बयान होता था. हाँ, उनका हास्य-व्यंग्य बोध भी गजब का था. गम्भीर से गम्भीर बात में वे हँसी के तार खोज लेते थे, आँखें मिचमिचा कर टूटे दाँत दिखाते, होठों पर अंगुलियाँ रखकर हँसते और भारी से भारी माहौल हलका हो जाता था.
उनके विषय साहित्यिक तो थे ही, ज्योतिष, योग, धर्म-दर्शन, तंत्र-मंत्र और रहस्य पर भी वे साधिकार बोलते-लिखते थे. गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ जाते तो जाने कहाँ-कहाँ की कन्दराओं में जोगियों-तांत्रिकों से मिलकर उनके अजीबोगरीब किस्से लाते थे. खुद नियमित रूप से योग करते थे और लखनऊ जैसे शहर में भी उनके पास तांत्रिकों-ज्योतिषियों और जगरियों की अच्छी-खासी मण्डली थी. संगीत में भी उनकी अच्छी गति थी. कई नामी संगीतकारों- उस्तादों- नर्तकों- नाट्यकर्मियों से उनके प्रगाढ़ रिश्ते थे. उनके चारों बेटे-बेटियों ने बांग्ला भाषा में प्रवीण होने के साथ-साथ संगीत की अच्छी शिक्षा भी पाई. सपना (अवस्थी) और मोहन ने तो मुम्बई जाकर संगीत को ही आजीविका बनाया है.
चूँकि लेखन कर्म उनके लिए कोई बहुत बड़े दावे की चीज नहीं था, उन्होंने अपना लिखा-छपा कभी सँभाला भी नहीं. अक्सर वे कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों पर लिखते और इस्तेमाल हो जाने पर उसकी साज-सँभाल की चिन्ता नहीं करते. ‘उत्तरायण’ के लिए लिखी रचनाओं को मित्र जिज्ञासु ने काफी हद तक सँभाला और बाद में ‘आँखर’ पत्रिका ने कई रचनाएँ छापी. कुछ रचनाएँ छोटी बेटी पुष्पा ने सँभाल रखी हैं जिन्हें एक तरतीब देने की जरूरत है. लेकिन ज्यादातर रचनाएँ खोज की माँग करती हैं. उनकी उपलब्ध व प्रकाशित कुमाउँनी रचनाओं को पढ़कर साफ लगता है कि कुमाउँनी भाषा बोली, समाज और संस्कृति में उनकी कितनी गहरी पैठ थी. उनका शब्द चयन, शैली और आंचलिक लटक अद्भुत रूप से मोहते हैं. ‘बसन्त डोवा’ कविता की पंक्तियाँ देखिए:
आङ् फूलों का शिकाल गादि
खुट मौनों का झाँवर बादि
लगुलनाक जेवर पैरी
छाजि रौ कतुक बसन्त बैरी
चाड़-प्वाथन नचूणौ बसन्त डोवा.
और ‘अघिन कै हिट’ कविता में कैसे ललकारते हैं वे
ठड्यो डा बज्यो डुङ्गर
बज्यो तु शांख, ठुल भुकर
गदक ना तुरिक टुटाट
धर तु कान् में ठुल बडूयाठ
खुखुरि कैं गाडू तलि म्यान् खित्
अघिन कै हिट्, अघिन कै हिट.
और यह ‘रूड़’ का वर्णन
रूड़ ऐ गे, धरती ताती, घामैलि फाटि जाछि चानी
आम् कुणैद, पार छो बै लौ धै झट्ट टौण पाणी.
उप्रेती जी के गद्य का भी एक नमूना देखें. ‘जातुरिक फाम’ कहानी यूँ शुरू होती है:
निश्वास लाग्यूं भ्यो पहाड़नक. आनन्दाक दगाड़ बाट लाग्यूँ नरै फेडनकि तैं. चौखुटिय जाणै आयाँ मोटर में. वाँ बटि बाट लागाँ रामगंगाक ढिङढिङ. चार-पाँच मैल हिटण बिछ्यारि आय आनन्दाक गौ पनुवां बगड़. वाल् ढिङ् राम गंङ, पाल् ढिङ् बिमोई, बगड़ में बस्यूँ भ्यो पनुवां बगड़. चाख में चार घड़ि बैठप छियाँ कि बुल्यूणकि तैं यै ग्यो एक मैंस. कूण पैठ, – ‘आनन्दाक काकज्यू बोलूणान चहा खाणकि.
(Nand Kumar Upreti Uttarakhand)
बेहद भोले, निष्कपट और प्यारे. न कुण्ठा, न कोई गौरव. इतने बरस लखनऊ में गुजारे लेकिन अकेले सड़क पार करने में डरते थे. जो साथ होता, बच्चे ही सही, उसका हाथ पकड़ लेते. मैंने उन्हें कभी जूता पहने नहीं देखा. सर्दियों में बन्द गले का कोट पहनते मगर पैरों में वही हवाई चप्पल फटपटाती रहती. बीडी पीते थे- तीन उंगुलियों से हथेली में भीतर की ओर दबाकर. पीते नहीं, जैसे चूसते थे.
बड़े-बड़े लोगों से परिचय था, आलीशान घरों में आना-जाना था, लेकिन हुलिया और अंदाज हमेशा वही. और उसका कोई ख्याल भी नहीं. मन होता तो महंगे सोफे पर पैर रखकर बैठ जाते या पालथी लगा लेते. भला यह कोई सोचने-विचारने की बात थी उनके तईं! पैदल ही चलना पसंद करते. हर सवारी से बचते और बहुत मजबूरी होने पर ही बैठते. और जब साइकिल या स्कूटर पर बैठते तो साथ वाले को प्याट्ट पकड़ रखते!
(Nand Kumar Upreti Uttarakhand)
जिज्ञासु जी बताते हैं- ‘कभी उप्रेती जी बम्बई भी गए थे. नवनीत में कुछ समय काम किया. फिल्म-विल्म के लिए भी कुछ लिखा मगर बम्बई से घबरा गए और लौट आए.’ घबराते तो वे लखनऊ में भी थे. निझरक रहते तो सिर्फ पहाड़ में. लेकिन पहाड़ के लोग तो महानगर की भीड़ में खो जाने को अभिशप्त हैं.
उप्रेती जी भी प्राण त्यागने बम्बई जा पहुँचे. बेटी सपना के यहाँ गए थे. वहीं दिल का दौरा पड़ा और हवाई जहाज से उनकी मिट्टी लखनऊ आई. नंद कुमार उप्रेती को भूलना बहुत मुश्किल होगा. लेकिन उन्हें याद रखने का सार्थक तरीका यही हो सकता है कि उनकी बिखरी रचनाओं को एकत्र कर प्रकाशित किया जाय.
(Nand Kumar Upreti Uttarakhand)
–नवीन जोशी
नवीन जोशी का यह लेख पहाड़ पत्रिका के चम्पावत-पिथौरागढ़ अंक से साभार लिया गया है.
नवीन जोशी ‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र के सम्पादक रह चुके हैं. देश के वरिष्ठतम पत्रकार-संपादकों में गिने जाने वाले नवीन जोशी उत्तराखंड के सवालों को बहुत गंभीरता के साथ उठाते रहे हैं. चिपको आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर लिखा उनका उपन्यास ‘दावानल’ अपनी शैली और विषयवस्तु के लिए बहुत चर्चित रहा था. नवीनदा लखनऊ में रहते हैं.
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आभार काफी बेहतर जानकारी।
आज पता लगा सपना अवस्थी भी हमारे उत्तराखंड से संबंध रखती हैं।पुनः धन्यवाद।।
अनूठा अंदाज-ए-बयाँ है आपका ।
उप्रेती जी के बारे में अच्छी जानकारी ।
आभार आपका