“चाँद के उस पार चलो” फिल्म टेलीविजन पर चल रही है. फिल्म के अन्तिम दृश्य नैनीताल के मैदान में फिल्माया गया है. दृश्य लगभग रोमांटिक कहा जा सकता है.अन्त सुखान्त है. नायक और नायिका का मिलन. फिल्म तो समाप्त हो जाती है. लेकिन मल्लीताल के मैदान को देखकर मेरा मन उसके चारों ओर लधर जाता है. उस मैदान में नेताओं के भाषण भी सुने. खेल भी देखे. और ठंडी सड़क से जो विद्यार्थी लंघम, एस आर, के पी छात्रावासों से आते थे उनके दर्शन भी यदाकदा हो जाते थे. Nainital Nostalgia by Mahesh Rautela
मन की परतें जब खुलती हैं तो सबसे पहले वहाँ प्यार ही दिखायी देता है और बातें धीरे-धीरे आती हैं. कृष्ण भगवान को हम सबसे पहले उनके प्यार के लिए याद करते हैं और बाद में गीता के लिए. अयारपाटा को जाते रास्ते के सामने खड़े होकर पेड़ों और पहाड़ की छाया को बढ़ता देखता हूँ. जो दिन ढलने के साथ बढ़ती जाती है.इस बीच ठंड भी बढ़ती जाती है. बहुत देर तक प्रतीक्षा रहती थी किसी की. इस प्रतीक्षा में बहुतों का आना-जाना होता था. Nainital Nostalgia by Mahesh Rautela
एक दोस्त किसी को चाहता था, वह खड़े बाजार में रहती है,दूसरी मंजिल पर. हम दो-तीन दोस्त उससे कहते थे ,”तूने उसमें क्या देखा!” वह कहता,”मुझे अच्छी लगती है” एक दोस्त फिर उससे कहता है ,”एकदम बन्दर की तरह उसका मुँह है, छोटा-छोटा!” वह कहता,”मुझे अच्छी लगती है”
उसको चिढ़ाते-चिढ़ाते कंसल बुक डिपो के पास कैफे में समोसा और चाय पीते हैं. अब बातें प्यार से पढ़ायी पर आ जाती हैं. क्वान्टम सिद्धांत,कणों की तरंग गति, प्रकाश विद्युत प्रभाव (फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट) आदि. ठंड का स्वभाव जानना हो तो नैनीताल जाना चाहिए. ऐसी भावना मन में आती है. Nainital Nostalgia by Mahesh Rautela
प्रशासनिक सेवा की परीक्षा देने के इरादे से एक बार कंसल बुक डिपो से इतिहास की मोटी किताब खरीद डाली. बाद में लगा किताब से अधिक वजन उसकी अंग्रेजी का है. मुझे लगा कि अंग्रेजी के लिए अलिखित आरक्षण हमारी विदेह स्वतंत्रता में दिया गया है. अपने-अपने स्वार्थों के कारण हम इस पर ध्यान नहीं देते हैं. विदेह स्वतंत्रता पर देश रेंग तो सकता है लेकिन खड़े होकर चल नहीं सकता है.दुकान से निकलते ही मुझे हमारी कक्षा की सहपाठी मिली. उसने मुझे बधाई नहीं दी,प्रथम आने की. उसकी द्वितीय श्रेणी आयी थी,तो मेरा बधाई देना तो उचित नहीं था. मैंने सुना था जब परीक्षा परिणाम आया था तो उस दिन वह बहुत रोयी थी. Nainital Nostalgia by Mahesh Rautela
मैं रिक्शा स्टैंड के पास पेड़ों के नीचे बैठ बीते युग को देखने लगा. मेरा दोस्त जो गर्मी के दो महिनों में पास के क्लब में काम करता था, उसकी बातें याद आने लगी. वह रात दो बजे डेरे में पहुँचता था. रास्ते में कब्रिस्तान पड़ता था, जिम कार्बेट के आवास (गर्नी हाउस) के पास. वह कहता था रात को एक बच्चा कब्रिस्तान से उसके साथ आता है और उसे छोड़ कर जाता है. एक दिन उसके साहस की मैंने परीक्षा लेनी चाही. मैं रात को डेरे (कोठी ) के सामने के पेड़ की डाल पर बैठ गया और ज्योंही वह वहाँ पर पहुँचा, नीचे कूद गया. वह डर से घबरा गया और बेहोश हो गया. पाँच मिनट हिलाने के बाद होश में आया. मैंने कहा “अरे विवेक, मैं हूँ.” उस दिन से उसकी सभी साहसिक गपों पर विराम लग गया. वह तीन साल से एक ही कक्षा में था. एक दिन उसके दोस्त से पता चला कि वह एक लड़की को पसंद करता है जो क्लब आया करती है. उसी से मिलने के लिए वह क्लब में काम करता है.
मुझे याद आया एक दिन कैपिटल सिनेमा घर में हमारा एक दोस्त लोकेश अकेले फिल्म देखने गया था. वहाँ सीमा अपनी मौसी के साथ आयी थी.मौसी ने धोती पहनी थी और पल्लू से सिर ढका था. वे आगे पीछे बैठे थे. सीमा बोली,”कुछ बोलो.” लोकेश चुप रहा. जब फिल्म समाप्त हुयी तो सीमा ने अपना पता लिखा कागज लोकेश को दिया. साल में कई बार वह उस पते के अगल-बगल गया लेकिन घर तक कभी नहीं पहुँच सका. “लड़कियों की उम्र किसी का इंतजार नहीं करती है.” यह उक्ति उन दिनों बुजुर्गों की वाणी में सुना करते थे.हल्की धूप से ये रिश्ते हल्की उष्मा दे जाते हैं और दिन ढलते ही उछा(अस्त) भी जाते हैं.
आजकल भी शादी की बातें बहुत जगह
होती हैं. साथ-साथ फोटो खींचकर उन तस्वीरों का दोस्तों में आदान-प्रदान भी हो जाता
है और फिर कुछ समय बाद पता चलता है कि शादी कहीं और तय होने जा रही है.
तैंतालीस साल बाद मैं नैनीताल गया.
माडर्न बुक डिपो में एक महिला को देखा. मैंने कुछ जानकारी लेने के लिये पूछा,”आप नैनीताल में रहती हैं क्या?”
उसने हाँ में उत्तर दिया. मैंने
पूछा,”सामने डीएसबी
के एक प्राध्यापक अक्सर खड़े रहते थे. वे अभी यहाँ आते हैं क्या? मैं डीएसबी में पढ़ा हूँ.”
उसने कहा,”नहीं अब नहीं
दिखते हैं. मैंने भी डीएसबी में पढ़ा है. मेरा नाम सीमा है.”
मैंने कहा लोकेश तो अब नहीं है. वह बोली, हाँ उसके तीन दोस्त थे. मैंने अपना परिचय दिया. वह बोली,”लोकेश को मैंने आपको देने के लिए अपना पता दिया था. आप मेरा पहला प्यार हैं. फिर मुस्करायी.”
मैंने कहा मुझे कोई पता लोकेश ने नहीं दिया था. बहुत बातें होती थीं लेकिन असली बात नहीं हुयी.
बाहर आकर हम बेंच में बैठ कर बातें करने लगे. संवेदनाओं और अनुभूतियों का उल्ट-पुल्ट हो रहा था.लग रहा था जैसे अंधाधुंध बर्फ गिर रही हो. दुकानें,बाजार, झील,पहाड़ियां पहले जैसी लग रही थीं. वह अपने माँ के साथ रहती थी. उसने अपना फोन नम्बर दिया और अब चलती हूँ कह कर उठी और झट से मुझे चूमा. मैंने कहा तुम तो अमेरिकन हो गयी हो. मैं उसे जाता देखता रहा और उसने दो बार पीछे मुड़कर देखा. मैं होटल में जाकर सोच रहा था,ऐसा क्यों हुआ होगा? Nainital Nostalgia by Mahesh Rautela
केपी छात्रावास में एक बार हम दो दोस्त किसी सांस्कृतिक काम के संदर्भ में गये थे. कुछ देर बाद एक छात्रनेता भी अपने समर्थकों को लेकर वहाँ आ गया.छात्रसंघ के चुनाव चल रहे थे. वह किसी लड़की से अनुरोध कर रहा था कि हल्द्वानी से फलाने-फलाने को बुला दे प्रचार के लिए. वैसे जिनको बुलाने के लिए कह रहा था वे एक साल पहले पढ़ाई पूरी कर निकल चुके थे. उनके पहिचान और प्रभाव का उपयोग करना चाहता था. आखिर चुनाव, चुनाव ही होते हैं. जिजीविषा को जगाने वाले! Nainital Nostalgia by Mahesh Rautela
फिर मेरा मन मैदान के किनारे आकर गुनगुनाता है-
ठंड में मूँगफली, सिर्फ मूँगफली नहीं होते,
प्यार की ऊष्मा लिए
पहाड़ की ऊँचाई को पकड़े होते हैं.
हाथों के उत्तर
चलते कदमों के साथी,
क्षणों को गुदगुदाते
बातों को आगे ले जाते,
सशक्त पुल बनाते
उनको और हमको पहचानते,
तब मूँगफली, सिर्फ मूँगफली नहीं होती.
(वही मूँगफली जो साथ-साथ मिलकर खाये थे.)
-महेश रौतेला
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