[एक ज़रूरी पहल के तौर पर आज से हम अपने पाठकों से काफल ट्री के लिए उनका गद्य लेखन भी आमंत्रित कर रहे हैं. अपने गाँव, शहर, कस्बे या परिवार की किसी अन्तरंग और आवश्यक स्मृति को विषय बना कर आप चार सौ से आठ सौ शब्दों का गद्य लिख कर हमें [email protected] पर भेज सकते हैं. ज़रूरी नहीं कि लेख की विषयवस्तु उत्तराखण्ड पर ही केन्द्रित हो. साथ में अपना संक्षिप्त परिचय एवं एक फोटो अवश्य अटैच करें. हमारा सम्पादक मंडल आपके शब्दों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होगा. चुनिंदा प्रकाशित रचनाकारों को नवम्बर माह में सम्मानित किये जाने की भी हमारी योजना है. रचनाएं भेजने की अंतिम तिथि फिलहाल 15 अक्टूबर 2018 है. इस क्रम में हमें यह पहला बेहतरीन लेख भेजा है लोकेश पांगती ने. सुदूर मुनस्यारी में बिताये अपने बचपन की सबसे मूल्यवान यादों में संजोकर एक छोटे से टुकड़े में संजोया है लेखक ने. शुक्रिया लोकेश! – सम्पादक.]
मुनस्यारी में मेरा बचपन
लोकेश पांगती
तिरछे रांछ में बुने कम्बल की गर्माहट के लिए मैं मध्य हिमालय की उस भेड़ को याद करते हुए धन्यवाद देता हूँ जिसके शरीर का ऊन अन्वालों ने उतारकर उस कारीगर को दिया, जिसने कांसे के गिलास में ज्या की चुस्कियां लेते हुए, उसमें भीगे खज्ज़ा के दाने चबाते हुए इसे कातने के बाद बुना था. ये वही बूढ़ा कारीगर था, जिसे मैं बचपन में बुबू कहता था. वह मेरा ही नहीं पूरे गाँव का बुबू था.
मेरे गाँव दरकोट में सुबह-सुबह बुबू के घर में प्रवेश करते ही पूजा पाठ और मंदिर की घंटियों का संगीत कानों में पड़ता. और घी के मिश्रण से तैयार ब्युल्ल तथा मासी गोकुल की वह जलती हुई जड़ी बूटियों से उठती हुई औलोकिक सुगंध का दिन का पहला अहसास … अदभुत होता था वह. फिर बुबू हमको नाश्ता कराते.
मुनस्यारी के स्वादिष्ट आलू के गुटके जिसमें धुंगार का खुशबूदार तड़का पूरे घर को महका देता, उसे हम गाय के घी से चुपड़ी हुई मडुए की रोटी और लकड़ी के दुमके से निकलते गर्म ज्या और खज्ज़ा की साथ पूरा मजा लेते हुए खा जाते. वाह … वह था हमारा भोजन. पेट डम्म ही गया अब … चलो भागो यहाँ से.
दौड़ते दौड़ते कभी माल्टा के पेड़ पर, कभी पुलम के पेड़ पर, कभी पांगर के कांटे से हाथ छुडाते हुए, कभी जमीन में पड़े केमू जमा करते हुए बस दौड़ते ही रहते थे. फिर भूख लगती तो हिन्सालू, घिंघारू, पाम ओखर या कुछ नहीं मिलता तो किल्मोड़े तो थे ही. पीने के लिए हर जगह स्वच्छ निर्मल जल था नौले थे और गणेश जी की सूंढ़ से निकलता धारे का बर्फीला पानी भी था. ये हमारे रोज का कार्यक्रम था यही जिंदगी थी मेरी. न आने वाले कल की चिंता न बीते कल का पछतावा. बस जो भी था आज ही था.
घर पहुचते ही मेरा हुन्नी-कुकूर भौंकते-भौंकते, पूंछ हिलाते हुए मेरा स्वागत करता था. वह मेरा सबसे अच्छा दोस्त था, लात खाने के बाद भी नहीं काटता था मुझे. तभी कानों में ढोल-दमों की जानी पहचानी ध्वनि गूंजती, दूर से ही पता चल जाता की बारात कितनी दूरी पे है. कोई भी बारात हमारे देखे बिना ना गुजरी थी आज तक. हम कभी नहीं चूकते थे. वह उस साल गाँव में बैसाख की पहली बारात थी.
ढोल दमामों की धुन में ढाल तलवार नचाते छोलिया किसी प्राचीन योद्धा की तरह लगते थे पर उनकी तलवार बड़ी छोटी होती थी. इतिहास की किताब में देखी गयी राणा प्रताप और लक्ष्मीबाई की तलवारों से काफी छोटी. फिर ध्यान जाता था सूत के मोटे धागों पे चिपकाए पतंगी कागज़ की रंगीन पताकाओं से लिपटी लकड़ी की सजी हुई डोली में चुपचाप बैठी दुल्हन पर … बेचारी अपने पिता का घर छोड़ कर पति के घर जाती दुल्हन … सिबौ …
माँ दोपहर के भोजन के लिए आवाज लगाती. भाई गजब की आग लगी होती पेट में तब क्या बताऊँ, शायद उसको ही भूख कहते होंगे लोग … खैर … आज माँ ने डुबका पकाया है. जबरदस्त डुबका बनाती है माँ. सिल में पिसे काले भट्ट का गाढ़ा स्वादिष्ट डुबका, जम्बू और घी का तड़का लगा हुआ चूल्हे में रखी बड़ी कढाई में खौलता सलेटी डुबका. गर्मागर्म भात के साथ कांसे की थाली में, मुंह जला देता था वह पहला गास. पर पेट की धधकती आग के सामने वह दर्द भूल कर छेरुआ लगने तक खाते रहता मैं.
लोकेश पांगती हल्द्वानी में रहते हैं. पेशे से पेंटर, ग्राफिक डिज़ाईनर और फिल्म मेकर हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.
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