सुन्दर चन्द ठाकुर

हल चलाना, नौले से फौले में पानी भरकर लाना और घोघे की रोटी मक्खन, नून के साथ खाना

पहाड़ और मेरा जीवन – 42

पिछली कड़ी:  एक कमरा, दो भाई और उनके बीच कभी-कभार होती हाथापाई

हम सबकी जड़ें गांवों में हैं, लेकिन सबने वहां का जीवन नहीं देखा. मैं अपने गांव के बहुत करीब रहा, लेकिन गांव के जीवन को उस तरह नहीं जान पाया जैसा कि गांव में रहकर जाना जाता है. यह बात अलग है कि क्योंकि मेरे भीतर लेखक बनने का कीड़ा था, इसलिए मैं लोगों, चीजों और घटनाओं का बहुत बारीकी से निरीक्षण करता था.

पिथौरागढ़ बाजार में मैं जहां रहता था, वहां से हमारा गांव करीब 30 किमी दूर था. उन दिनों यह दूरी बहुत लंबी लगती थी. अब 90 किमी की कॉमरेड मैराथन करने के बाद, जिसकी तैयारी करते हुए बहुत लंबा-लंबा दौड़ा, यह 30 किमी की दूरी बहुत छोटी लगती है. अब का समय होता तो मैं हर वीकएंड दौड़ लगाकर गांव पहुंच जाता. गांव में मैं जब जाता था, तो हमेशा अपने एक ताऊजी के घर जाता था. उनके दो बेटे शमशेर और भूपाल हमारे घनिष्ठतम मित्र थे. हममें एक ही परिवार के होने की गहरी भावना थी और हम यही समझते थे कि हम आपस एक-दूसरे से सुख-दुख साझा कर जीवन को ठीक से गुजार पाएंगे.

ताऊ जी के बड़े बेटे शमशेर ने अंग्रेजी से एमए करने के बाद फौज में एजुकेशन कोर ज्वॉइन कर ली, जहां से कुछ वर्ष पहले रिटायरमेंट लेने के बाद वह फिर से उत्तराखंड सरकार के तहत सरकारी स्कूल में पढ़ाने का काम कर रहे हैं. भूपाल की कहानी ज्यादा उतार-चढ़ावों से भरी रही है. कॉलेज में पढ़ते हुए वह पीने की लत का शिकार हो गया था. उसे जल्दी ही ब्लड प्रेशर की बीमारी ने भी पकड़ लिया. जब मैं कॉलेज पहुंचा, तो उसने और मैंने एक ही कमरे में रहना शुरू किया. पर वह कहानी बहुत दिलचस्प है. उसे बाद में सुनाता हूं.

अभी इनका जिक्र इसलिए आया कि मैं जब भी गांव जाता था, तो इन्हीं के साथ जाता था. और गांव जाकर भी हर काम इन्हीं के साथ करता था. शमशेर दा बड़े थे, तो उनसे तो बातचीत ज्यादा न होती थी, पर भूपाल का मैं पीछा नहीं छोड़ता था. नवीं में एक बार किसी मौके पर जब मेरा गांव जाना हुआ, तो भूपाल के साथ रहते हुए मैंने बहुत से ऐसे काम किए, जो गांव में रहते हुए ही किए जा सकते हैं. मैंने जीवन में पहली बार बैलों को कंट्रोल करना सीखा और खेतों में हल जोता.

जानवरों से मुझे बचपन से ही बहुत प्यार था. बैलों पर मैंने स्कूल में मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पढ़ी थी – दो बैलों की कथा. इसमें हीरा और मोती नामक दो बैलों की बहुत ही मार्मिक कहानी है. कहानी पढ़ने के बाद से ही मुझे बैलों से बहुत प्यार हो गया था. जिन दिनों मैं ठुलीगाड़ में रहता था, तो कई बार देवत गांव जाना हुआ. वह हमारे मकान मालिक का गांव था, जहां उन्होंने बैल भी पाले हुए थे. एक-दो बार मुझे इन बैलों के साथ ग्वाला जाने का मौका मिला, जहां गांव के कुछ और लड़के भी अपने बैलों के साथ ग्वाला आए हुए थे. वहां कुछ ऐसा हुआ कि हमारे मकान मालिक के एक बैल और किसी दूसरे लड़के के बैल के बीच लड़ाई शुरू हो गई.

ऐसी लड़ाइयों को लड़के बहुत ही कौतुहल से देखते थे. पर मैंने देखा कि हमारे मकान मालिक का बैल, जो कि उम्र में दूसरे बैल से बहुत बड़ा था और उसके मुकाबले कमजोर भी, लड़ाई हारने लगा. मुझे उस पर दया आई और मैंने आगे बढ़कर उन बैलों को अलग कर दिया. हालांकि वहां इकट्ठा दूसरे लड़के लड़ाई का मजा लेना चाहते थे, पर मैं अपने मकान मालिक के बैलों को वहां से निकाल दूसरी जगह लेकर चला गया. उस हारे हुए बैल को मैं यह सोचकर जंगल से पेड़ की हरी पत्तियां खिलाता रहा कि इन्हें खाने से इसकी ताकत बढ़ेगी और अगली मर्तबा कभी लड़ाई हुई, तो वह जरूर जीतेगा.

बैलों के प्रति यही आकर्षण था, जो मुझे एक बार गांव में भूपाल के पीछे-पीछे खेतों में ले गया, जहां उसे एक बड़ा खेत जोतना था. कुछ देर में उसे किनारे खड़े होकर खेत जोतते हुए देखता रहा. कुछ ही देर में बाज्यू यानी उसके पिता उसके लिए गुड़ और चाय लेकर आए. हमारे गांव खड़कू भल्या में गर्मी बहुत होती है क्योंकि वह घाटी में बसा हुआ है. खेतों में काम करने के लिए लोग इसीलिए सुबह-सुबह निकल जाते हैं. भूपाल ने चाय पीने के बैलों को रोककर खड़ा कर दिया था. वह जब चाय पीने लगा तो मैं उठकर बैलों के पास चला गया. मुझे बैलों के पास जाता देख बाज्यू दूर से ही चिल्लाए- नहीं, नहीं, पास मत जा. बैल मारेगा तुझे. बाज्यू मुझे शहरी लड़का समझते थे और इसीलिए जब भी मैं गांव आता मुझे हर खतरे से महफूज रखने की कोशिश करते. मुझे कोई काम न करने देते. पर आज मैं उनकी नहीं सुनने वाला था.

मैंने हल को मजबूती से अपने हाथ में पकड़ लिया. मैं पहले ही पेड़ की एक टूटी हुई टहनी अपने बाएं हाथ में लिए हुए था. मैंने हवा में टहनी फटकाई और मुंह से भूपाल की तरह हरररररर की आवाज निकाल हल की नोक को जमीन पर लगा दिया. बैल चलने लगे. मिट्टी बारिश में थोड़ी गीली थी, सो हल का फाल मिट्टी के अंदर घुस उसे चीरता हुआ आगे बढ़ने लगा. मिट्टी के बड़े-बड़े डल्ले फाल के दोनों ओर बाहर निकलने लगे. खेत जहां खत्म होने को था वहां पहुंचकर मैंने भूपाल की तरह अपने होंठों को आपस में मिलाकर पाSSSS पाSSSSS की ध्वनि निकाली. यह ध्वनि बैलों के लिए ब्रेक का काम करती है. बैल रुक गए.

मैंने हल घुमाया तो बैल घूम गए. मैं इतनी निपुणता से हल जोत रहा था कि दूर से देख रहे बाज्यू भी मुझे कुछ न बोले और भूपाल चाय पी चुकने के बाद भी एक पेड़ की छाया में सुस्ताता रहा. बैलों के चेहरों में न जाने ऐसी क्या बात मुझे दिखती है, एक निसहायता, एक बेचारगी, आंखों में एक निर्दोषता कि मेरा मन उनके लिए भर-भर आता था. इसलिए मैंने हाथ में पेड़ की टहनी पकड़ तो रखी थी पर मजाल कि मैं उससे बैलों को मारता. मैंने आधा बचा हुआ वह खेता खुद ही पूरा जोत डाला. और अपने इस काम पर मैं इतना खुश हुआ और मेरा मन बैलों के प्रति आभार से इतना भर गया कि उन्होंने मुझे ऐसा अवसर दिया था और चुपचाप वे मेरे कहे के मुताबिक चले कि मैं वहां से घर जाकर उनके खाने के लिए पेड़ों के पत्ते और थोड़ी घास ले आया.

उस बार मैंने गांव में बहुत सारे ऐसे काम किए जो गांव के जीवन का अनिवार्य अंग थे. जैसे मैं करीब पांच सौ मीटर दूर नौले से तांबें के फोलों में पानी भरने गया. फोला थोड़ा घड़े के आकार का बर्तन होता है, जो गांव-घरों में बहुत प्रचलित था. लोग उसी में पानी भरकर रखते थे. मैंने ताऊजी की कुल्हाड़ी लेकर एक बहुत बडे लट्ठे को काट-काटकर चूल्हें में जलाने वाली लकड़ियों के ढेर में बदल दिया. मैंने ओखल में धान डालकर उन्हें कूट-कूटकर चावल में बदला, चक्की चलाकर मक्के का आटा निकाला, दही को मथकर छांछ बनाई, मक्खन निकाला, खाया. गांव में मक्के की रोटी, धनिए के पत्तों के साथ पिसे हरे नमक और ताजा बने मक्खन के साथ खाने का जो दिव्य जायका था, उसकी स्मृति आज भी मेरी जीभ पर बची हुई है.

यह सोचकर मुझे बहुत दुख होता है कि अब हमारा पुश्तैनी गांव कुछ ही सालों में नहीं रहेगा. वह भी पंचेश्वर बांध की भेंट चढ़ जाएगा. वैसे भी वहां जमा चौदह परिवार ही बचे हुए हैं. ताऊजी का परिवार कभी का पिथौरागढ़ शहर में शिफ्ट हो चुका है. कुछ दिनों पहले गांव से मेरे पास घी आया था. जिस दिन से वह आया उस दिन से मेरे लिए सबसे सुखद पल वह होता है जब मैं भोजन में एक चम्मच घी डाल रहा होता हूं. उसकी खुश्बू जब नथूनों से प्रवेश करती है तो भूख की आग और ज्यादा प्रज्वलित हो उठती है. सिर्फ इस घी की फिराक में ही नहीं बल्कि वहां गुजारे समय को दोबारा जीने की खातिर जब भी मैं पिथौरागढ़ जाऊंगा, गांव का चक्कर जरूर लगाकर आऊंगा.

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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