पहाड़ और मेरा जीवन – 41
पिछली कड़ी: आपकी एक छोटी-सी पहल कैसे आपका मुकद्दर संवार सकती है
आज कुछ लोग इस बात पर शायद यकीन न करें, पर सच यही है कि मैं कक्षा नौ से लेकर बारहवीं करने तक अपनी मां से एक बार भी नहीं मिला. मेरी मां से मुलाकात चार साल बाद हुई जब मैं बारहवीं की परीक्षाओं के बाद मध्यप्रदेश के बड़वाह नामक जगह गया, जहां मां पिताजी और छोटी बहन के साथ रह रही थी.
इस दौरान पिताजी जरूर एक बार हमसे मिलने आए थे. पर उनके आने की एक अलग कहानी है.
इन चार सालों में भाई और मैं पहले तो सद्रगुरू निवास के कमरे में साथ रहे, बाद में हम कुजौली गांव में पुनेठा जी के मकान में आ गए, जहां हमने दो छोटे कमरे किराए पर लिए. दोनों ही जगह संडास की की ऐसी व्यवस्था थी कि बाल्टी लेकर करीब तीस-चालीस मीटर पैदल चलना पड़ता था. कुजौली में तो नहाने के लिए लगभग तीन सौ मीटर दूर एक गधेरे में नीचे उतरना पड़ता था, जहां एक भरा-पूरा नौला था.
उन दिनों पहाड़ों में बहुत नौले हुआ करते थे. इस नौले में गांव की औरतें भी कपड़े वगैरह धोने आती थीं. गांव में कई घरों में छोटे-छोटे कमरे कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों को किराए पर दिए गए थे. पहाड़ों में गर्मियों के मौसम को छोड़ दो तो बाकी पूरे साल ठंड तो रहती ही है. और जाड़ों के दिनों में तो कड़क ठंड. हिमालय की गोद में ठंड न होगी तो कहां होगी.
दिसंबर से फरवरी तक तो सुबह उठने पर हर चीज में पाला गिरा मिलता था. एक साल जब मैं नवीं या दसवीं में पढ़ता था, तो फरवरी के महीने में बर्फबारी भी हुई थी पिथौरागढ़ में. हम लोग रजाई ओढ़कर सोते थे. सोने के लिए ठंडी पड़ी रजाइयों के भीतर घुसने में एकबारगी झिझक होती थी लेकिन एक बार घुस गए, तो बाहर निकलना बहुत बड़ी चुनौती हो जाया करती थी.
पहाड़ों में ठंड के दिनों में चाय पीने का भी अलग सुख हुआ करता है. ज्यादातर चाय स्टील के गिलास में पी जाती है ताकि गर्म गिलास को हथेलियों के बीच दबाकर उसकी गर्माहट का भी लुत्फ लिया जा सके.
भाषण देते हुए जब मेरे पैर कांपते रहे, जुबान हकलाती रही और दिमाग सुन्न पड़ गया
अमूमन तो सुबह उठकर चाय बनाने की ड्यूटी मेरी ही लगा करती थी. मुझे कभी यह खयाल नहीं आया कि मैं भाई के साथ एक-एक दिन, बारी-बारी से चाय बनाने की बात कर सकता था. पहाड़ों में ठंड के दिनों में कोई सुबह-सुबह आपको भाप छोड़ती चाय का गिलास पकड़ाए, तो इससे बड़े सुख की कल्पना नहीं की जा सकती, लेकिन ऐसी भाप छोड़ती चाय बनाने के लिए आपको अगर रातभर अपने शरीर की ऊष्मा से गर्म की गई रजाई को त्यागकर बाहर निकलना पड़े और बर्फ जैसे ठंडे फर्श पर बैठकर काम करना पड़े, तो आप और कुछ करें न करें पर किस्मत को जरूर कोसंगे. मैं यही करता था.
ज्यादा तो नहीं पर मुझे लगता है कि एक-दो बार हम भाइयों में काम को लेकर थोड़ी हाथापाई भी हुई थी. असल में चाय के अलावा दिन का खाना बनाने की जिम्मेदारी भी मेरी ही थी. भाई जब तक मेरे इन संस्मरणों को पढ़ गलत जानकारी के लिए आपत्ति दर्ज नहीं करता, मैं तो कहूंगा कि रात का खाना भी मैं ही बनाता था. दिन में लंच बनाने के लिए हम शॉर्टकट का इस्तेमाल करते थे और एक ही कूकर में एक बार में ही दाल और चावल साथ ही बना लिया करते थे.
उन दिनों कूकर में भीतर अलग से कुछ पकाने के लिए गोलाकार बर्तन आया करते थे. तरीका यह था कि कूकर आप सामान्य तरीके से दाल बनाना शुरू करो और जब उसमें पानी डाल दो तो बीच में कोई स्टील का कटोरा रख उसके ऊपर चावल बनाने वाला यह बर्तन रख दो. ज्यादा चावल बनाने हों तो उस बर्तन के ऊपर एक और ऐसा बर्तन रख दो.
हो सकता है जाड़ों में कभी जबकि ठंड बहुत ज्यादा रही हो और मेरा रजाई से बाहर निकलने का मन न कर रहा हो, भाई को हाथों की हथेलियों के बीच अदरक डाली दूध वाली चाय की गर्मागर्म स्टील की गिलास लेने का मन कर रहा हो और उसने मुझे नीचे उतारने के लिए मेरे ऊपर से रजाई खींच ली हो, तो मैंने गुस्से में आकर उसकी ओर से वापस पूरी रजाई अपने ऊपर ले ली हो और तब ‘इस छोटे की ऐसी मजाल’ सोचते हुए उसने मुझे लात मार दी हो और मैंने अन्याय का माकूल जवाब दे दिया हो, तो इस सिलसिले से मैं इनकार नहीं कर सकता क्योंकि मुझे कम से कम इतना तो याद है कि मैं दाहिने हाथ की हथेली को फोल्ड कर जब उसे मुक्के की शक्ल देता था, तो ठीक तर्जनी के ऊपर जो गूमड़ निकलकर आता था उसे मैं बहुत फक्र से देखता था क्योंकि देखने से ही ऐसा लगता था कि वह जिसके भी लगेगा उसे कुछ क्षणों के लिए नानी याद जरूर आ जाएगी.
वैसे कुछ काम ऐसे होते थे, जिन्हें लेकर लड़ाई होना लाजिमी था. वे ऐसे काम हैं जिन्हें लेकर इन दिनों पत्नी से भी कई बार कलह हो जाती है. उन दिनों हम लोग पीतल के पंप मारकर चलने वाले स्टोव पर खाना बनाते थे. कई बार ऐन खाना बनाने से पहले स्टोव में मिट्टी का तेल खत्म हो जाता था. स्टोव में तेल डालने की प्रक्रिया बहुत बोझिल करने वाली थी. पहले तो चारपाई के नीचे कहीं कोने में रखा हुआ मिट्टी तेल का जरिकेन बाहर निकालो. चारपाई के नीचे घुटने मोड़कर उतरना पड़ता था. उसे निकालने के बाद फिर स्टोव की टंकी में टोंटी लगाओ. हमारे पास छोटी सी टोंटी थी. जरिकेन से तेल डालते हुए इस बात का बहुत खयाल रखना पड़ता था कि टोंटी में एक साथ ज्यादा तेल न पड़ जाए. क्योंकि ऐसा होने पर तेल बाहर गिर जाता था और उन दिनों तेल की एक-एक बूंद हमारे लिए बहुत कीमती हुआ करती थी. हमने न जाने कितनी बार इसी तेल के खत्म हो जाने की वजह से भूखे पेट रहने की पीड़ा बर्दाश्त की थी.
इसी तरह जाड़ों में बर्तन धोने का काम बहुत तनाव देता था. कमरे के बाहर ही दो फुट चौड़ी गैलरी थी और उसके एक कोने में दीवार में छेद कर पाइप फिट किया हुआ था. इसी कोने में खाए हुए बर्तन रख दिए जाते थे. बर्तन धोने का काम जिस तरह का मानसिक तनाव पैदा करता था वह हम दोनों को ही खूब समझ में आता था इसलिए हमने नियम यह बनाया हुआ था कि खाना खाने के बाद अपनी-अपनी थाली तुरंत धो देनी है. मुझे याद है कि बर्तन धोने के मामले में मैंने बड़े भाई को अन्यथा मुझसे मिलने वाले सम्मान को आड़े नहीं आने दिया और दोनों में काम का बराबर बंटवारा हुआ. लेकिन बंटवारे के बावजूद कई बार भाई अपनी पढ़ाई का वास्ता देकर अपनी बारी के बर्तन भी मुझसे धुलवा लेता था.
ठंड के दिनों में पानी में हाथ डालना ही बड़ी चुनौती हुआ करती थी और अगर आपको बर्तनों में लगे तेल का चीकट निकालना पड़ जाए, तो थोड़ी ही देर में उंगलियों के पोरों का सुन्न पड़ जाना तय था. कई बार बर्तन धोने का काम भी हमारी बीच संक्षिप्त घूंसेबाजी की वजह बना. संक्षिप्त इसलिए क्योंकि बड़ा भाई दो-चार मुझे लगाने के बाद खुद को महान बनाते हुए लड़ाई जैसे तुच्छ काम में अपनी ऊर्जा व्यय करने को मूर्खों का काम मानते हुए युद्धभूमि छोड़ देता.
कुछ मैं भी अंदर ही अंदर भाई पर हाथ उठाने से हिचकता था क्योंकि भाई थोड़ा नाजुक मिजाज और नाजुक शरीर वाला था जबकि पहाड़ी हुड्डपना बचपन से ही मेरे व्यक्तित्व का एक पहलू था. शायद इसी पहलू की वजह से मैं फौज में गया. लेकिन जहां तक भाई की बात है, तो बचपन से ही मैं छोटा होते हुए भी उसकी शारीरिक सुरक्षा के प्रति खुद को जिम्मेदार समझता था. ऐसा कभी हुआ तो नहीं लेकिन अगर कोई मेरे सामने बड़े भाई को शारीरिक नुकसान पहुंचाता कभी (शायद आज भी) तो मैं उसे सबक सिखाने में देर नहीं लगाता.
अपनी हथेली को मुक्के के आकार में ढालने के बाद तर्जनी के ऊपर हड्डी का जो नुकीला और ताकतवर गूमड़ निकल आता था, उसे मैं कभी बड़े भाई पर पूरी ताकत से नहीं आजमाता था, पर भाई को नुकसान पहुंचाने वाले का मैं शायद ऐसा लिहाज न कर पाता.
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सुन्दर चन्द ठाकुर
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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