पहाड़ और मेरा जीवन – 18
बचपन के कुछ वाकये और कुछ लोग इस तरह याद हैं कि लगता है जैसे सब कल की ही बात है, पर असल में तो वे लगभग चालीस साल पुरानी बातें हैं. चालीस साल बहुत होता है क्या? पता नहीं. लेकिन इन चालीस सालों में बहुत से बचपन के दोस्त बिछड़ गए.
फेसबुक में हर व्यक्ति का प्रोफाइल मिल जाता है, पर कुछ नामों में इतनी समानता है कि उस नाम के हजारों लोग मिल जाते हैं और अब जबकि अपने ही दिमाग में उन बचपन के दोस्तों के चेहरे धुंधले पड़ चुके हैं, उन्हें सिर्फ शक्ल के आधार पर तो नहीं ही पहचाना जा सकता. क्योंकि अगर ऐसा हो पाता, तो मुझे पिछले सप्ताह लिखी कहानी की नायिका मिनी नायर का पता चल जाता.
फेसबुक पर यह नाम खोजने पर सैकड़ों चेहरे सामने आ जाते हैं. इतनी सारी मिनी नायरों में से मेरे बचपन वाली मिनी नायर कौन सी होगी, पता लगाना बहुत मुश्किल है. इसी तरह मेरी क्लास का एक और सहपाठी था, रामदेव सिंह. वह भी एमईएस कॉलोनी में ही रहता था. उसकी तीन-चार बहनें भी थीं, जिनमें से सबसे बड़ी का नाम गीता था, जिनका विवाह इंडियन नेवी में काम करने वाले नौजवान से हुआ था क्योंकि जब मैं सेना में था और सोमालिया जाने के लिए छह महीने मुंबई रहा था, तब एक बार मैं कोलाबा के नेवी नगर उनके घर गया था.
यानी तब तक भी मैं रामदेव और उसके परिवार के लोगों से संपर्क था. रामदेव के बारे में पता चला था कि वह भी बीएसएफ या सीआरपीफ टाइप किसी अर्द्धसैनिक बल में डिप्टी कमांडेंट बन गया था, लेकिन उससे आजतक कभी बात नहीं हुई. रामदेव के परिवार से कैसे बातचीत शुरू हुई, दोनों परिवारों के बीच दोस्ती कैसे बढ़ी, यह पता नहीं, पर यह याद है कि मां ने मुझे उनके घर दूध पहुंचाने की जिम्मेदारी दी थी और मैंने साल भर तक तो यह काम किया ही होगा.
मैं जानता था कि ऐसा कोई काम बड़ा भाई करने से रहा और छोटी बहन अभी बहुत छोटी थी, इसलिए वह मेरे ही हिस्से आना था. उन दिनों मैं आत्मसम्मान जैसी किसी चीज से परिचित न था और अगर होता, तो भी कुछ नहीं कर पाता क्योंकि तब भी मुझे ही रामदेव के घर दूध देने जाना होता.
रामदेव के घर दूध देने मैं रोज ही जाता था और ऐसा मैं सहर्ष करता. उन दिनों मेरे पास समय जैसे इफरात में रहता था. मेरे पास टाइम पास के ऐसे तरीके थे कि बोर होने का सवाल ही नहीं. पहाड़ में तब बच्चों के बीच एक पदाई का खेल लोकप्रिय था.
इसमें होता यह है कि हथेली के साइज के समतल पत्थर ले लिए जाते हैं. जिसकी चाल होती है वह अपना पत्थर कुछ दूरी पर उछाल देता है. दूसरे बच्चे को अब अपना पत्थर इस तरह फेंकना होता है कि वह सीधे पहले वाले के पत्थर के ऊपर गिरे. ऐसा होने से उसके दो पॉइंट बन जाते हैं, जिन्हें उतारने के लिए दूसरे को दो बार चाल देनी होती. अगर दूसरे का पत्थर पहले के पत्थर के ऊपर नहीं गिरा मगर एक भेद (हाथ की हथेली पूरी फैलाने पर दोनों सिरों के बीच की दूरी) के नजदीक रहा, तो एक ही बार चाल चलनी होती.
पत्थर एक भेद दूरी से दूर गिरने पर दूसरे की चाल आ जाती. रामदेव के घर दूध पहुंचाते हुए मैं कई बार तो दो पत्थर उठा रास्ते में अकेले ही यह खेल खेलते हुए चलता था. उसके घर में अक्सर उसके पिताजी जिनका नाम शायद श्री आरपी सिंह था, दूध लेते थे. सुबह के वक्त किसी के घर दूध देने के काम में कोई बुराई तो न थी, मगर मुझे लगता था कि कई बार सुबह-सुबह किसी के घर जाकर आप उन्हें डिस्टर्ब ही करते हैं, भले ही वह दूध देने जैसा भला काम ही क्यों न हो. कई बार, खासकर छुट्टी के दिन ऐसा होता था कि लोग सुबह देर तक सोते थे, तो मुझे खासी देर तक दरवाजे के बाहर खड़े रहना पड़ता था. पर मैं छुट्टी के दिन लोगों की देर से उठने की आदत को जानते-समझते हुए देर तक दरवाजे पर खड़े रहने का बुरा नहीं मानने की कोशिश करता.
मुझे गुस्सा तब आता था जब मेरा अपना खेलने का कोई प्लान होता था और मैं दूध देकर जल्दी घर लौटना चाहता था. दरवाजा देर से खोलने का बुरा तो मैंने नहीं माना, लेकिन एक-दो बार रामदेव के पिताजी ने मुझे ऐसी बात कही कि मुझे बहुत ज्यादा बुरा लगा. उन्होंने दूध कम देने की शिकायत की. पर ऐसा कैसे हो सकता था? मां मेरे ही सामने दूध के बर्तन में दूध डालती थी और मैं अपनी आंख से देखता था कि किलो दूध में वह हमेशा पव्वे से थोड़ा एक्स्ट्रा दूध डालती थी.
मेरे ऐसा कहने पर कि अंकल ने दूध कम देने की शिकायत की है, मां ने आधा पाव तक भी ऊपर से ज्यादा दूध डालना शुरू कर दिया. पर इसका क्या कि ऐसा करने के बावजूद अंकल ने एक बार फिर मुझे दूध कम देने की शिकायत कर दी. मैंने मां को तो कुछ नहीं कहा क्योंकि मैं जानता था कि उन्हें अंकल की बात का बुरा लगता और तब वे बर्तन में पूरा पाव भर फालतू दूध डालने लगती ताकि फिर कुछ सुनने को न मिले, पर मुझे यह मंजूर न था.
मैं मां की मेहनत की कमाई को यूं जाया जाते न देख सकता था. मैंने मां से तो कुछ नहीं कहा, पर ऐसा कुछ किया कि जब तक अंकल ने हमसे दूध लिया, उन्होंने दूध कम होने की कभी कोई शिकायत नहीं की. मैं घर से तो उतना ही दूध लेकर निकलता था, जितना मां देती थी. लेकिन रास्ते में एमईएस कॉलोनी के शुरू होते ही एक पानी का नल पड़ता था. मैं दूध के बर्तन को उस नल के नीचे लगा टोंटी खोल देता था.
जिस दिन मेरा जैसा मन होता, उतनी ही देर तक मैं टोंटी खोलकर रखता. जिस दिन बहुत खुश होता, तो टोंटी जरा ही देर के लिए खोलता. पर अगर किसी बात पर मन खराब है, तो टोंटी देर तक खुल जाती. हालांकि शुरू में मैंने बहुत कम देरी के लिए टोंटी खोलकर इस नेक काम की शुरुआत की थी. मैंने धीरे-धीरे ही टोंटी को खोले रखने की अवधि बढ़ाई. मुझे यह डर था कि कहीं अंकल के पास ऐसा यंत्र तो नहीं जिससे दूध में पानी मिलाए जाने का पता चलता हो.
पर जब कई दिनों तक अंकल समेत घर के किसी सदस्य ने कुछ नहीं कहा, मेरा हौसला बढ़ता गया. अब मेरे लिए उनके दूध में पानी मिलाना खेल जैसा हो गया. कई बार तो मैं नींद में चलते हुए भी टोंटी के नीचे बर्तन लगाकर झपकी मार लेता. लेकिन दूध की क्वॉलिटी और क्वॉटिटी दोनों को लेकर कभी शिकायत नहीं आई.
इस बात की मुझे पूरी आशंका है कि उन दिनों जो एमईएस मे मेरे साथी और पहचान के लोग थे, वे आज भी रामदेव के परिवार से सोशल मीडिया के जरिए जुड़े हुए हैं. हो सकता है उनमें से कुछ पहाड़ के मेरे जीवन की इस कड़ी को उनके परिवार तक पहुंचा भी दे.
इसी आशंका के तहत मैं यहां दर्ज कर देना चाहता हूं कि दूध में पानी मिलाते हुए मेरे मन में रामदेव या उसके परिवार के सदस्यों के प्रति मन में कोई दुर्भावना कभी नहीं रही. रामदेव अगर शारीरिक रूप से मेरी तुलना में थोड़ा कमजोर रहा, तो इसके लिए कृपया मेरे दूध में थोड़ा-सा पानी मिलाने को दोषी नहीं माना जाए. वैसे जितना पानी मैं मिलाता था, आजकल के दूध वाले तो पानी में उतना दूध मिलाते हैं.
चूंकि दूध तो रामदेव के परिवार के हर सदस्य ने किसी न किसी रूप में पिया ही होगा, इसलिए मैं रामदेव के परिवार के हर सदस्य से पहले ही माफी मांग रहा हूं. कृपया मेरे प्रति मन में कोई दुर्भावना न लाएं. आप लोगों का परिवार हमारे परिवार का अभिन्न मित्र था और हमेशा रहेगा.
बस मुझे लगा कि मेरी मां जो हाड़तोड़ मेहनत कर अपने बच्चों को पढ़ा रही थी और बाकायदा थोड़ा फालतू दूध देती थी, उस पर दूध कम देने का इल्जाम ज्यादती था, जिसे मेरे बालमन ने एक तरह की नाइंसाफी माना. दूध के बर्तन में कुछ देर के लिए पानी की टोंटी खोल मेरे बालमन ने बस इसी नाइंसाफी का बदला भर लिया था और तो मसला कुछ था भी नहीं.
कुछ तो था मिनी नायर के वजूद में जिसने मुझे उसे भूलने नहीं दिया है
(जारी)
कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.
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