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कभी न खुलने वाली इम्पोर्टेड व्हिस्की की बोतल

कल वह अचानक सामने आ गया. बिल्कुल दिल के दौरे की तरह. हमारे बस दुआ-सलाम के रिश्ते हैं. मगर कल वह बड़ी आत्मीयता से मिला. यूं लिपट गया जैसे बहुत ही सगा हो. फिर उसने कहा- ‘‘चलो कमरे में चलते हैं. मैं यहीं पास में रहता हूं. तुम्हें एक्सपोर्ट क्वालिटी की चाय पिलाता हूं.” मुझे लगभग खींचते हुए सा ले जाकर उसने कमरे में बिठा दिया.

कमरे में पहुंच कर उसने मुझे एक लंगड़ी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और खुद मय जूतों के बिस्तर में धंस गया. ‘‘बैठो यार, आराम से बैठो. चाय पिलाता हूं तुम्हें बढ़िया वाली. क्या याद करोगे तुम भी कि चाय पिलाई थी किसी ने!’’

‘‘तुम यहां अकेले रहते हो ?’’ मैंने पूछा.

‘‘नहीं एक रूम पार्टनर भी साथ में रहता है. आजकल गांव गया है. इस बीच मैं भी शहर में नहीं था.’’

‘‘लगता है आज ही वापस लौटे हो. कमरा कुछ अस्त-व्यस्त सा लगता है.’’

‘‘अरे नहीं, मुझे लौटे तो चार-पांच दिन हो गए.’’ यह कहकर उसने जेब से निकाल कर गहरे काले रंग का गौगल आंखों पर चढ़ा लिया. अब मैं उसकी आंखें नहीं देख पा रहा था.

मैंने चोर निगाही से कमरे का जायजा लिया. हर चीज अस्त-व्यस्त थी. बिस्तर बिना तह किया पड़ा था. जूते-चप्पल औंधे पड़े थे. टेबल पर चाय की जूठी प्यालियां और किताबें आड़ी-तिरछी थीं. सिंक में जूठे बर्तनों का अम्बार लगा था और बुरी तरह गंधा रहा था.

शायद उसने मेरी नजरें पढ़ लीं. कहने लगा, ‘‘देखो यार, आजकल जमाना शराफत का रह नहीं गया है. अब मेरे रूम पार्टनर को ही ले लो. जब शहर में नया-नया आया तो महीने भर तक होटल में पड़ा रहा था. रोता था कि सारी तनख्वाह होटल का बिल चुकता करने में चली जाती है. क्या खाऊं, क्या बचाऊं ? अब तुम तो जानते ही हो, मैं जरा दूसरे किस्म का आदमी हूं. दिल चौड़ा करके चलता हूं. मैंने कहा चल भई. इधर शिफ्ट हो जा मेरे साथ. काफी जगह है अपने पास. किराया आधा-आधा कर लेंगे. पट्ठा उसी शाम अपना सामान उठा लाया. तब से यहीं पड़ा है. अपने लिए कमरा खोजने की कभी कोशिश ही नहीं की साहब ने उसके बाद. कई बार मेरे बच्चे जिद करते हैं कि हमें भी शहर ले चलो. पर कैसे ? भाई साहब यहां डेरा जमाएं बैठे हैं. खैर, छोड़ो, किसी की बुराई क्या करनी. चाय पीते हैं. और कुछ आता हो न हो अपने को, पर चाय लाजवाब बना लेता हूं. पिओगे तो कायल हो जाओगे.’’

मुझे भी चाय की तलब लगी थी. सोचा कि चाय मिल जाए तो उठूं. एक जरूरी काम से निकला था.

‘‘सामने देखो दीवार में,’’ वह फिर कहने लगा, ‘‘भाई साहब की काहिली का ये आलम है कि आज पन्द्रह तारीख है, मगर आपसे इतना भी न हो सका कि कलेंडर का पन्ना ही उलट दें. क्या नमूना साथ में रख लिया यार, मैंने भी साथ में! लाइफ चौपट कर दी इसने मेरी.’’

उसने दूसरी टांग भी बिस्तर पर रख ली और गिनाने लगा, ‘‘देखो बर्तनों का ढेर पड़ा है. हर चीज पर धूल जमी है. कोई चीज अपने ठिकाने पर नहीं. मैं खुद इतने दिनों से इसी बिस्तरे पर सोने को मजबूर हूं. यार इतना अलीत आदमी मैंने आज तक नहीं देखा.’’

‘‘लेकिन…’’ मैंने कुछ कहना चाहा तो उसने फौरन मुझे टोक दिया, ‘‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं यार, कमरे की हालत खुद अपनी आंखों से देख ही रहे हो. नरक बना के रख दिया उस आदमी ने.’’

इस बीच उसने दो-तीन सिगरेट फूंक डाली. राख और टोंडे यहां-वहां बिखेर दिए, ‘‘देखो, ऐशट्रे में रत्ती भर जगह नहीं छोड़ी इस आदमी ने. अब कोई करे तो क्या करे, कैसे करे? पूरा कमरा कूड़ादान बना दिया इसने.’’ उसने मुंह में पान मसाला डाला, पाउच पलंग के नीचे फेंका और खिड़की के सींखचों से मुंह सटा कर पीक थूक कर फिर पसर गया.

‘‘क्या बर्तन, झाडू-पोछे के लिए कोई आदमी रखा है?’’ मैंने पूछा.

‘‘नहीं तो, सब खुद ही करना पड़ता है. ऐसी नवाबी न तो अपने को पसंद है, न हैसियत है.’’ बोलने के दरमियान पीक की कुछ बूंदे उसके होंठों से बाहर छलक आईं. उसने उल्टे हाथ मुंह कर हाथ चादर में रगड़ दिया.

‘‘तो तुम शुरू क्यों नहीं करते कहीं से? कहीं से भी. थोड़ा झाडू ही लगा डालो. चाय का बर्तन और दो प्यालियां ही धो लो कम से कम. वर्ना चाय बनेगी कैसे ?’’ मेरी बात पर वह यूं मुस्कराया जैसे मैंने कोई बेहद बचकानी बात कर दी हो.

मैंने उकता कर घड़ी देखी तो पता चला कि काफी देर हो गई बैठे-बैठे. वह हाथ-पाँव हिलाता तो इतनी देर में सिंक में पड़े सारे बर्तन धुल के दो लोगों का खाना तैयार हो सकता था.

‘‘घड़ी मत देखो यार,’’ वह बोला, ‘‘बैठो आराम से, बढ़िया सी चाय पिलाता हूं तुम्हें.’’

‘‘लेकिन तुम तो लेटे हो तब से, चाय बनेगी कैसे? चाय बनने के कुछ आसार तो दिख नहीं रहे मुझे. इतनी देर से अपने रूम मेट की बस बुराई किए जा रहे हो.’’

‘‘तुम अजीब बात कर रहे हो यार,’’ वह कहने लगा, “अब मैं अपने घर में बैठ कर अपना दुःखड़ा भी नहीं रो सकता ? मै तो तुम्हें अपना समझ कर बात कर रहा हूं और तुम ऐसे बात कर रहे हो ?’’

‘‘दुःखड़ा तुम काफी रो चुके. उसकी जरूरत भी नहीं. कमरे की हालत मैं देख ही रहा हूं कि खराब है. वही तुम अलग-अलग तरीके से कहे जा रहे हो. इससे कमरा ठीक तो नहीं होगा. तुम हिलो तो सही, कहीं से शुरू तो करो. अच्छा, तुम अपने पार्टनर की बुराई किस हक से कर रहे हो ? तुमने उससे अलग क्या किया ? उसने एशट्रे का तो इस्तेमाल किया, तुमने तो राख फर्श पर झाड़ दी और चादर से मुंह पोंछ लिया.’’

‘‘तुम मेरे कमरे में बैठकर उस आदमी की तरफदारी कर रहे हो,’’ वह तैश में आ गया, ‘‘मैंने उस आदमी को उस वक़्त परदेश में रहने को जगह दी, जब यहाँ उसका कोई नहीं था. क्या ये कम बड़ी बात है ? कर सकता है कोई ऐसा काम ? इस बात को भूलो मत.’’

‘‘लेकिन ये तो मुद्दा नहीं है. सवाल तो कमरे की साफ-सफाई का है. तुम बात को भटका क्यों रहे हो ?’’

‘‘मैं बात को भटका रहा हूं ? अच्छा जी, बहुत अच्छे. जरा मुंह सुंघाना तो, तुम दारू पीकर तो नहीं आए हो कहीं. बड़ी अजीब बात कर रहे हो यार! उस आदमी ने दस दिन में कमरे की ये गत करके रख दी और तुम उसी की वकालत कर रहे हो.’’ वह सुबकने लगा.

कमरे में काफी देर तक असहनीय सन्नाटा छाया रहा. मैं खुद को अजीब सी हालत में फँसा हुआ महसूस कर रहा था, ठगा हुआ और अपमानित भी. इस विचित्र-सी सोच वाले आदमी ने चाय तो क्या पानी तक के लिये नहीं पूछा और अब डांटने भी लगा है.

”अच्छा सुनो,” उसने अपनी दाढ़ी खुजाते हुए कहना शुरू किया, ”मैं सोच रहा हूँ कि कमरे के सारे पर्दे और फर्नीचर बदल दूँ. सब नया एकदम चकाचक. कायापलट हो जाएगी, तुम देखना. और इधर दीवार पर एक रैक बनाऊंगा. काफी सामान उसमें आ जाएगा. इस बाबा आदम के ज़माने की व्यवस्था को हटा कर एक मोड्युलर किचन बनाना है. सारा धुआं-धक्कड़ चिमनी से बाहर जाएगा. इस सबके लिए पर्याप्त से ज्यादा पैसा है मेरे पास. तुम क्या कहते हो?”

”अब भला इसमें मैं क्या कहूँ ? कर सको तो अच्छा है. सहूलियत रहेगी.”

”फिर तुम्हारी नकारात्मक सोच. कर सको तो का क्या मतलब ? कर क्यों नहीं सकता ? मैं क्या नहीं कर सकता ? पर अपना पार्टनर तो जरा ढंग का हो न! खैर छोड़ो उसे. तुम्हें शायद पता नहीं होगा, मैंने एक ऐसा कलर खोज निकाला है कि अगर दीवारों पर उसे पुतवा दिया जाय तो रात के घुप्प अंधेरे में भी घर के अंदर चांदनी रात का-सा उजाला रहता है.”

”कभी सुना नहीं, ऐसे किसी रंग के बारे में,” मैंने हैरानी से कहा.

”मैंने वही तो कहा कि नहीं जानते होगे. वही कलर पुतवाने वाला हूँ दीवारों पर जल्दी ही.”

”जरूर पुतवाओ यार, लेकिन मुझे अब बख्शो. मुझे डिस्प्रीन की सख्त जरूरत है. मैं चलता हूँ.” ज्यों ही मैं अपने पाँवों पर खड़ा हुआ, पौने चार टांग की कुर्सी धड़ाम से लुढ़क पड़ी.

”अगले हफ्ते मेरे पास एक इम्पोर्टेड व्हिस्की की बोतल आने वाली है. तुम जब तक नहीं आओगे, वह खुलेगी नहीं…”

मैं उसे अनसुना करके बाहर खुली हवा में चला आया.

शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’  प्रकाशित हो चुकी  है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.

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