जब हम रालम और जोहार के लिए पिथौरागढ़ से निकले तो बरसात अपने चरम पर थी और रोड जगह जगह टूटी हुई थी. नाचनी से आगे हरडिया पर हमारी जीप कीचड़ में धंस गयी जिसे निकालने की कवायत में हमारे जूते बुरी तरह कीचड़ में डूब गए.
(Munsiyari Travelogue by Vinod Upreti)
एक दिन सूखने के बाद इनके लिए भीगते रहना नियति बन गयी थी. पांतो से रालम के बहुत खतरनाक रास्ते में मेरे दांये पैर का जूता एक ओर से तलवे के जोड़ में फट गया. हर दिन के साथ यह छेद फैलता जा रहा था और मेरा मोजा इससे बाहर झाँक रहा था.
मिलम ग्लेशियर के बाद हम नंदा देवी बेस, ल्वा और सलांग के कम प्रचलित रास्तों में खूब चले थे जिससे जूते की हालत बिगडती चली गई. ब्रह्मकमल के बगीचे के मर्तोली की ओर आते-आते यह इस लायक नहीं बचा कि इसे पहना जा सके. जहाँ पर हम अपने एक साथी और रकसेक छोड़ कर ब्रह्मकमल के बगीचे की ओर गए थे वहां पर आकर मैंने जूता त्याग दिया. यहाँ से आगे मैंने चप्पल में चलना था.
मर्तोली तक आते आते चप्पल की खामियां और खूबियाँ समझ में आने लगी थी. चप्पल बहुत फ्लेक्जिबल होने के कारण आरामदायक तो थी. लेकिन झाड़ियों, पथरीले रास्तों और कीचड़ में चलने में चप्पलें अच्छी नहीं होती. ऊपर से ठण्ड से बचाव का भी कोई उपाय नहीं. लेकिन अब जो भी हो मैंने यहाँ से मुनस्यारी तक का सफ़र इसी चप्पल में पूरा करना था.
आज हम मर्तोली में पंहुचे तो वह जवान यहीं मिला जो ल्वा जाने के पहले दिन मिला था. आज यहाँ पर कुछ और लोग आ पंहुचे थे जिनको नंदा देवी अभियान में जाना था. दो नौजवान हमें बड़ी गर्मजोशी से मिले, उनमें से एक थे कैप्टन श्यामल सिन्हा. वह कुमाऊं रेजिमेंट में काम करते थे और एक कुशल पर्वतारोही थे. इससे पहले शेषनाग और पंचाचूली अभियान कर चुके थे.
हम मुन्ना के घर में रुके थे और बाकी इनका दल नाथू चाचा के घर में. हम शाम देर तक मर्तोली के आसपास साथ टहलते रहे और उनसे उनके अभियानों की कहानियां सुनते रहे. उनके पास उम्दा किस्म का कैमरा था जिसमें हमने कुछ तस्वीरें देखी. साथ में चाय पीने के बाद हम अपने अपने ठिकानों में जा सिमटे. उनको कुछ दिन इस इलाके में रहकर एकेल्मेंटाइज होना था. अर्थात इस वातावरण में खुद को ढालना था ताकि अचानक बढ़ी ऊंचाई के कारण उनको आरोहण में दिक्कतें कम हों.
(Munsiyari Travelogue by Vinod Upreti)
अगली सुबह हमने इस दल से विदा ली और यह दल पांगर पट्टा के लिए निकला और हम रिलकोट की ओर चल पड़े. हम बहुत जल्दी में नहीं थे और हमें लास्पा तक ही जाना था. मर्तोली गोरी नदी से काफी ऊपर एक ऊंचे मैदान में बसा है जहाँ से एक ओर पूर्वी नंदा तो एक और त्रिशूली नजर आती है. यहाँ से बृज गंगा टॉप भी दिखाई देता है जिसे पार कर हम रालम से जोहार में आये थे. मर्तोली के ऊपर नंदा देवी मंदिर से लगता हुआ एक बड़ा सा जंगल है जो ऊपर पहाड़ी में फैला हुआ है.
इस जंगल में मुख्यतया भोजपत्र और हलके गुलाबी बुरांश के पेड़ बहुतायत में हैं. यह एक सिंगुल वन है. अर्थात इससे पेड़ पौधों का दोहन बहुत ही नियंत्रित तरीके से किया जाता है. इसके बीचों-बीच पानी की छोटी- छोटी धाराएं बहकर नंदा देवी मंदिर की पीछे तक आती हैं जहाँ से पाइप लगाकर गाँव में पानी की व्यवस्था की गयी है.
गाँव के ऊपर के सपाट मैदानों में बरसात में पानी भरकर छोटे-छोटे ताल बन जाते हैं जिनमें बड़े सुन्द्दर परदेसी परिन्दे तैरते देखे जा सकते हैं. इस विशाल मैदान में इस घाटी के सबसे ज्यादा घोड़े चरते नजर आते हैं. एक साथ सैकड़ों घोड़े और खच्चर यहाँ बरसात में आते हैं. गोरी की निचली घाटी में नदी से बजरी और कुछ जगहों में खड़िया की खानों से खड़िया ढोने के लिए बहुत से घोड़े-खच्चर पाले जाते हैं. साथ ही इस घाटी में अधिकांश ट्रांसपोर्ट इन्ही से होता है. बरसात में अमूमन खानों से चुगान बंद रहता है. यह समय होता इन घोड़ों की लम्बी छुट्टी का.
घाटी भर के लोग इनको मर्तोली के बुग्यालों के छोड़ आते हैं जहाँ यह पौष्टिक घासें खाते हैं और आजाद होकर दौड़ते हैं. इसके अलावा इनका कोई ख़ास काम नहीं होता. पूरे चौमास आजादी से खाने और चरने के बाद इनके शरीर तो हट्टे कट्टे होते ही हैं मन भी गुलामी भूल जाता है. सितम्बर जाते-जाते जब इनके मालिक इनको लेने आते हैं तब तक ये भूल चुके होते हैं कि इनकी नियति क्या है. यह पूरी तरह वाइल्ड हो जाते हैं. ऐसे में इनको पकड़ कर काबू करना और वापस लेकर जाना आसान नहीं होता. इनके मालिक रस्सी के फंदे बनाकर इनके पीछे भागते हैं और जैसे-तैसे इनको काबू में लाते हैं. बीतते चौमास में जोहार की घाटी में कुछ दिन इनके मालिकों से कारण गुलजार रहते हैं. ये जिस पड़ाव में रुकते हैं वहां गप्पों और हंसी उल्लास का माहौल बना रहता है.
इत्तेफाक से मुझे ये दो बार रिलकोट में मिले और उनकी किस्सागोई का मैं कायल हो गया. इन घोड़ों के झुण्ड को पीछे छोड़ हम रिलकोट के ऊपर की उस पहाड़ी पर पंहुचे जिसे पुराना रिलकोट कहते हैं. यहाँ पर बहुत कोशिश के बाद कुछ खंडहर देखे जा सकते हैं. कहते हैं रिलकोटिया लोगों का गाँव यही पर हुआ करता था. यहाँ चलने वाली तेज हवाएं इस गाँव की दुश्मन बन गयी और गाँव यहाँ से उजड़ गया.
गोरी के बांये किनारे पर नीचे टोला गाँव नजर आ रहा था जहाँ हम कुछ दिन पहले दो रातों के लिए रुके थे. टोला के अगले छोर पर एक जलधारा गोरी में मिलती है जिसके किनारे एक बड़ा सा रेतीला मैदान बन गया है. कहते हैं यहाँ पर एक गाँव था जो अब पूरी तरह गायब हो गया. इसे सुम्तू कहा जाता था.
(Munsiyari Travelogue by Vinod Upreti)
रिलकोट की इस धार से मिलम मर्तोली की ओर देखें तो रास्ते के नीचे एक मैदान है. यहाँ के बारे में मैंने एक किस्सा सुना, कहते हैं जब यह घाटी आबाद थी तो घाटी भर के शौका जवान यहाँ इकठ्ठा होते थे और एक गोल पत्थर को बोरों और कपड़ों के कस कर लपेट कर एक बड़ी सी गेंद बना लेते और नंगे पाँव फ़ुटबाल जैसा कोई खेल खेलते. उनके इस खेल की तुलना में मेरा चप्पल में चलना कोई ख़ास कठिन काम नहीं था. अभी तक तो मुझे जूते की कोई कमी नहीं खली क्योंकि यहाँ तक का रास्ता सपाट और आसान ही था.
नीचे की रिलकोट में अब दो ही घर नजर आते हैं. वह भी आने-जाने वाले मुसाफिरों के लिए ठिकाना हैं. यहीं पर वह छोटा सा धर्मशाला है जहाँ पर अपनी पहली यात्रा में मैं अपने साथियों के साथ रुका था औत जहाँ चमगादड़ ने फ़कीर दा को डराया था. इस सफ़र में मेरे जूते उतर गए थे और मैं चप्पलों में ही चल रहा था. ऐसा नहीं था कि हम सीधे वापस मुनस्यारी ही जा रहे हों. अब हमने लास्पा में रूककर उसके आसपास को टटोलना था. उससे नीचे उतर कर एक अनजान पथ पर निकल कर पोटिंग ग्लेशियर की ओर भी जाना था. आगे के सफ़र में मेरे पैरों का इम्तिहान होना था.
अभी तक के सफ़र ने हमें बहुत कुछ सिखाया था, और आगे के सफ़र से हमने बहुत कुछ सीखना था. अभी तो नंदा देवी की ओर चढ़ रहे दल की ओर से भी ख़बरें आने वाली थी.
(Munsiyari Travelogue by Vinod Upreti)
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पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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वाह.
बहुत ही मनमोहक वर्णन है। २०२१ में मुझे भी मुनस्यारी जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। बहुत ही अद्भुत जगह है।
धन्यवाद।