‘हमारा जैसा बोलेंगा तो हिंदी कैसे बनेगा राष्ट्रभाषा, बोलो?’
ठीक तारीख याद नहीं है, 1978-79 के किसी महीने में एक दिन सुना कि मिसेज रेनू बनर्जी की लगभग छिहत्तर साल की उम्र में मृत्यु हो गई है. उन दिनों मैं नैनीताल से बदली होकर मिर्जापुर के आदिवासी इलाके दुद्धी में नये खुले डिग्री काॅलेज में था, इसलिए उनकी अंतिम यात्रा में शामिल नहीं हो पाया. नैनीताल आकर जब समाचार सुना तो काफी लंबे समय तक यह कचोटन बनी रही.
मिसेज़ रेनू बनर्जी कब नैनीताल आईं और, कब वह यहीं का हिस्सा बन गईं, यह तो हमें मालूम नहीं था, लेकिन साठ के दशक में वह नैनीताल के उन गिने-चुने लोगों में से एक थीं, जिन्हें अंग्रेज़ी और हिंदी में प्रकाशित होने वाली नवीनतम पुस्तकों की जानकारी रहती थी. उनके पति वनस्थली विद्यापीठ में प्रोफसर थे, मगर वह अपने बेटे और बेटी के साथ नैनीताल में रहती थीं. उनका बेटा प्रेम हम लोगों का साथी था, जिसने बाद में नैनीताल से ही अंग्रेज़ी में एम. ए. किया और नशे का आदी हो जाने के कारण काफी कम उम्र में चल बसा था.
अंग्रेजों ने अपने लिए माल रोड तो भारतीयों के लिए बनवाई ठंडी सड़क
मिसेज़ बनर्जी हमें नैनीताल के माल रोड पर स्थित किताबों की मशहूर दुकान ‘आर. नारायन बुक काॅर्नर’ में अक्सर मिल जातीं. कौन-सी नई किताब आई है और उसमें उल्लेखनीय क्या है, इसकी जानकारी सबसे पहले हमें उन्हीं से मिलती, इसलिए जब भी उनसे मुलाकात होती, साहित्य में रुचि रखने वाले हम युवा उन्हें घेर लेते. बड़े सलीके से साड़ी और लौंग कोट पहने हुए मिसेज बनर्जी अपने प्रथम दर्शन में ही एक आभिजात महिला लगतीं. वे एक घरेलू महिला थी, उनकी पहली पसंद भी घर-परिवार और बच्चे थे, फिर भी जाने कैसे वह किताबों और परिवार की दुनिया के बीच एक कलात्मक संतुलन बनाए हुए संसार के नवीनतम प्रकाशनों की जानकारी रखती थीं. किताबों के चयन के मामले में उनकी बहुत तीखी पसंद थी जिसमें वह कभी कोई समझौता नहीं करती थीं. वे जहाँ भी जातीं, चाहे माल रोड में घूम रही हों या अपने परिचितों के घर जाना हो, हमेशा उनके साथ एक अलसेशियन कुत्ता रहता था, जिसका नाम उन्होंने ‘दीपू’ रखा हुआ था. कभी अगर हम लोग उनसे पूछते कि सड़क पर घूमते हुए भी वह कुत्ते को अपने साथ क्यों रखती हैं, अट्ठावन वर्षीया मिसेज़ बनर्जी बड़ी सहजता से कहतीं, ‘‘अरे, कभी किसी ने हमारे को छेड़ दिया तो ?… अखिर इस नैनीताल सिटी में दो ही तो खूबसूरत लोग घूमता है, एक हम और दूसरा हमारा बेटी अंजली! हमारा हिफाजत के लिए कोई तो होना चाहिए कि नईं?’’
मिसेज बनर्जी के साथ बातें करते हुए हमने अंग्रेज़ी और बांग्ला साहित्य की समकालीन रचना-धाराओं के बारे में खूब बहसें कीं और उन्होंने हमें साहित्य और पाठक के आत्मीय रिश्ते के बारे में अनेक मौलिक बातें बताईं. लेखक और पाठक के रिश्ते को वह एक पवित्र रिश्ता मानती थीं, जहाँ दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव होना जरूरी है. वे रवींद्र नाथ के उपन्यासों को इसलिए पसंद नहीं करती थीं कि वे आम पाठक की समझ से परे होते हैं, जब कि वह उनकी कविताओं की दीवानी थीं, खासकर ‘गीतांजलि’ की, जो उनके अनुसार उपनिषदों से प्रभावित होकर लिखी गई थी. उपन्यासकार के रूप में बांग्ला के शरत और बंकिम चंद्र तथा अंग्रेज़ी के पी. जी. वुडहाउस और समरसेट माॅम उनके प्रिय लेखक थे. हिंदी लेखन के बारे में वे हमसे बराबर बातें करती थीं और हमसे पूछकर नए साहित्यकारों को पढ़ती थीं. हिंदी में उन्हें प्रेमचंद के उपन्यास और जयशंकर प्रसाद की कविताएँ पसंद थीं. हिंदी के नए लेखकों को वह पसंद नहीं करती थीं क्योंकि वे उनकी समझ में नहीं आते थे. हिंदी लेखकों को पसंद न करने के पीछे भी वह दोष अपना ही मानती थी, क्योंकि उनके अनुसार हिंदी भाषा में आए बदलाव से वह अपरिचित थीं. आज लगता है, दरअसल, उनके मन में उपजी यह स्थापना विनय के रूप में थी. अगर हिंदी लेखन के बारे में उनकी राय का हम सम्मान करते तो शायद हिंदी लेखन की आज इतनी दयनीय स्थिति नहीं होती.
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उन दिनों मैं एम. ए. प्रथम वर्ष का छात्र था, जब माल रोड पर घूमते हुए एक दिन चंद्रगुप्त विद्यालंकार जी से भेंट हो गई. यों तो वह हर वर्ष नैनीताल आते थे, मगर उनसे मुलाकात का यह पहला मौका था. चंद्रगुप्त जी उन दिनों ‘सारिका’ के संपादक थे. उन्होंने हम मित्रों को बोट हाउस क्लब में आमंत्रित किया और कहा कि वे चाहते हैं, हम लोग ‘सारिका’ के साथ लेखक रूप में जुड़ें. ‘सारिका’ में उन दिनों मनोहरश्याम जोशी का स्तंभ ‘इंटरव्यूज़’ काफी चर्चा में था. उन्होंने मुझे काम सौंपा कि नैनीताल के कुछ लोगों के इंटव्र्यू लेकर मैं जोशी जी की ही शैली में उन्हें भेजूँ. सात लोगों के इंटव्र्यू लेकर मैंने ‘नैनीताल के हंस’ शीर्षक से चंद्रगुप्त जी को भेजे, जिसे उन्होंने ‘सारिका’ के मार्च, 1965 के अंक में प्रकाशित किया. नैनीताल के इन हंसों में एक रेनू बनर्जी भी थीं, जिनका यादगार इंटव्र्यू नैनीताल के उन दिनों के साहित्यिक माहौल की स्मृति को ताज़ा करने के लिए मैं यहाँ यथावत् पुनप्र्रस्तुत कर रहा हूँ:
‘‘आर. नारायन का बुक काॅर्नर. बगल ही में रात की खामोशी में रेडियो से आती हुई सुहानी धुन सुन रहा था. कभी-कभार लोगों की भीड़ स्टाॅल में आ रही थी, थोड़ी ही देर में पुस्तक-पत्रिकाएँ लेकर चली जाती थी. मिसेज़ बनर्जी की प्रतीक्षा में था – आ जाएँ तो इंटव्र्यू लूँ. मिसेज बनर्जी शहर की जानी-मानी महिला हैं – संगीतज्ञ के रूप में भी और एक अच्छी पाठिका के रूप में भी. इस वृद्धावस्था में भी साहित्य के प्रति वही रुचि है, जो शायद युवावस्था में थी. पति वनस्थली विद्यापीठ, राजस्थान के प्रिंसिपल हैं.
‘‘अचानक तिवारी जी ने दाहिनी ओर इशारा किया. सामने उपन्यासों के बीच श्रीमती बनर्जी उलझी हुई थीं. दौड़ा-दौड़ा पास गया. इंटव्र्यू का प्रस्ताव रखा तो बोल पड़ीं, ‘हाम क्या पढ़ता ? मुझे माफ करो बाबा! किसी अच्छा पढ़ा-लिखा लोग से इंटरव्यू लो.’ वृद्ध चेहरा अचानक चमक उठा. संगीत से भी मधुर आवाज़ में बोलीं, ‘ओह, हाम कुछ नईं पढ़ा. हमारा बेटी खूब पढ़ा हैं. हम उससे पूछ के बताने सकता है!’
‘‘नेई-नेई, हाम इंटरव्यू क्या दे सकता ? मैं पढ़ती, भूल जाती. क्यों बेटा दीपू, हाम कुछ पढ़ा ? आप छोड़ेंगा नाहीं…. बाबा, पुराना अंगरेजी आॅथर्स में आई लाइक मेरी कौरेली. दैन आई लाइक बर्नार्ड शाॅ, स्टैफ़न ज़्वाइग, पी. जी. वुडहाउस, समरसेट माॅम. हमें सब अच्छा लगा. हम क्या बताऊँ आपको ? कोई अच्छा लोग से इंटरव्यू लो ना…. माॅडर्न में सब अच्छा लगा. बांग्ला में रवींद्र का नाॅवेल ? ओह, ये तो औरी खराब है. बिलकुल अच्छा नहीं लगा. पोइट्री अच्छा लगा. डाकघर वगैरा सो-सो. हाँ, पोइट्री में उनको अंग्रेज़ी के किसी का भी बराबरी में खड़ा किया जा सकता. शैले, वाइरन, वर्ड्सवर्थ… बाबा, हमें हेडेक होता….
‘‘शरत् ?… ए वन! समाजिक चित्रों में ट्रू लाइफ दिया. बंकिम चटर्जी भी बहोत अच्छा है. पर भूमिका ज्यादा है, रियल कम. शरत में समाज सुधार का तरफ बहोत ध्यान था, पर बंकिम में हिस्टोरिकल बैकग्राउंड में ज्यादा. हिंदी में बाबा, प्रेमचंद बहोत अच्छा है. शरत और प्रेमचंद दोनों बराबर का है. दोनों का ट्रेंड एक है. प्रसाद का कविता? बिलकुल रवि ठाकुर का जैसा ही है. लगता है, जैसे काॅपी किया. वैसे उन्हें इंस्पीरेशन उन्हीं से मिला – ये हमने वेरीफाई कर लिया है. बाबा, हमें अब जाने दो. गीतांजलि भी उपनिषद् से लिया. इधर का हिंदी राइटर खास अच्छा नहीं लगा.’
‘‘हिंदी जल्दी ही राष्ट्रभाषा होगा. लेकिन हमारा जैसा ही हिंदी बोला तो मुश्किल हो जाएगा. फिल्म सब देखता. अंग्रेज़ी-हिंदी सब. खटकता है ज्यादा गाना और मटकना. गाना मिक्स्ड म्यूजिक होता. हौम नहीं चाहता, बाबा, म्यूजिक अंग्रेज़ी से लो, पर क्लासिकल तो प्योर हो, अंग्रेज़ी का हो तो वहाँ भी प्योरिटी हो. फिल्म का स्टोरी में कोई आपत्ति नहीं. पर घिसा-पिटा सब एक ही चीज देता है हमेशा. पिक्चर ऐसा हो जिससें लोग कुछ सीख सकें – चाहे वह स्टोरी हो, चाहे फिल्म!’
‘‘भाई, हम बहोत कम पोढ़ता. टाइम कहाँ मिलता ? घर का काम-काज होता. रात को कुछ फालतू टाइम में पोढ़ता. कहानी तो बाबा, ऐसा हो जिससे कुछ सीख सकें. बाबा, हम कुछ नहीं पोढ़ा. बेटा दीपू, अब तुम दो इंटरव्यू. फैशन ? क्या लोग फैशन करता ? हो बाबा, होम क्या जानें ?’
‘‘होम तो चाला. चाचा को बुलाय लिए. वो ही इंटरव्यू देगा. अच्छा बाबा….’’
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आज मिसेज़ बनर्जी हमारे बीच नहीं हैं, अपनी अनुपस्थिति में भी, जब मैं उस उम्र में आ चुका हूँ, जब वे इस दुनिया में नहीं रही थीं, आज भी वह लगातार हमें जीने और लिखने की प्रेरणा और ताकत दे रही हैं. हुआ यह कि कुछ ही दिन पहले, जब मेरे दिमाग में इस उपन्यासिका का यह अध्याय लिखने का विचार आया, रात को मुझे मिसेज़ बनर्जी सपने में दिखाई दीं. उस वक्त उनकी उम्र वही अट्ठावन साल की थी, पोशाक भी उन्होंने वही पहनी थी जिसे पहनकर उन्होंने नारायंस बुक काॅर्नर में इंटव्र्यू दिया था. मगर इस वक्त जगह बदली हुई थी. ग्रांड होटल के पीछे, नगर पालिका के पूर्व चेयरमैन स्व. मनोहरलाल साह जी के मकान के नीचे बाँज के पेड़ से चिपकी विशाल शिला के कोने पर से उनका गुलाबी चेहरा झाँक रहा था, जैसे वह अभी-अभी स्वर्ग से उतर कर यहाँ आई हों. इस बार वह मुस्करा नहीं रही थी, उनके चेहरे पर भी चिलम सौज्यू की तरह व्यथा और परेशानी साफ झलक रही थी. मैंने उनसे पूछा, ‘मिसेज बनर्जी, कैसी हैं आप?’ तो वे अपने पुराने अंदाज़ में बोली, ‘बाबा, ये तुम्हारा बिभूती बाबू क्या लिखता ? औरत को छिनाल बोलता. और ये राजेंद्र जादव, जिसका उपन्यास सारा आकास का बारे में हम माल रोड में कितना तो तुमारे साथ बहस किया, कितना तो झगड़ा किया, वो तुम्हारा सीएम का थर्ड रेट स्टोरी को एक पेज बिज्ञापन का बदले में अपने हंस में छाप देता है. आपने हमको सारिका में नैनीताल का हंस कहा. तब हम स्वयं को कितना बड़ा आदमी समझा था, लेकिन क्या अब नैनीताल का सभी हंस जादव का हंस जैसा हो गया क्या बाबा? अब हम नैनीताल का खबीस नईं बनने रहना चाता बाबा, इसलिए अब सीधा स्वर्ग को जाता है. हमको माफ करना मांगता. अब हम तुमको मिलना भी नईं मांगता. बाय-बाय!’
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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