पिछली कड़ी – छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : जिंदगी धूप तुम घना साया
पिथौरागढ़ के सीमांत से हो रहे इस व्यापार और व्यापारियों में भोटान्तिक समाज के साहस, प्रयत्न और प्रयास की कथाओं से मुझे शुम्पीटर का नवप्रवर्तन सिद्धांत सोलह आने सिद्ध होता प्रतीत होता था. थ्योरी ऑफ़ इकोनॉमिक ग्रोथ एंड डेवलपमेंट का यह पेपर पोस्ट ग्रेजुएशन पाठ्यक्रम में आगरा विश्वविद्यालय ने बिल्कुल नया लगाया था और वैकल्पिक था. अर्थशास्त्र विभाग के हेड डॉ. दिवाकर नाथ अग्रवाल ने दर्शन घर से ऊपर अपने घर एल्बनी को चढ़ते मुझसे कहा कि मैं यही ऑप्शनल लूँ. मेरे घर का कैंट की ओर जाने वाला रास्ता भी यही था. उस दस मिनट की चढ़ाई में अग्रवाल साहिब ने वृद्धि और विकास को ऐसे कुछ समझाया कि मुझे इसमें रूचि जाग गई. अग्रवाल साहिब ने हमें माइक्रो इकोनॉमिक थ्योरी पढ़ाई थी और वह फंडा मेन्टल ऐसे समझाते थे कि क्लास में ही सब याद हो जाता.
(Mrigesh Pande Article Pithoragarh)
देश के विकास की चर्चा महेश दा भी खूब करते. मार्क्स से अलविन टोफ्लर तक की बात. साथ में होते अतुल दा, सनवाल साब और जगदीश चंद्र जोशी जैसे डी एस बी के फिजिक्स के धुरंधर प्रोफेसर व ऑब्जरवेटरी के उनके साथी एस्ट्रोनोमर. उनमें डॉ. ललित मोहन पुनेठा भी होते जो गुन्नर मिर्डल के फैन थे और अगेंस्ट द स्ट्रीम के फोलोवर. कॉलेज में नये युवा टीचर के रूप में चंद्रेश शास्त्री आ गये थे जिनकी अदा और स्टाइल के साथ ज्ञान की गंगा हम सब को मोह गई थी. वह सहज भी थे और रिज़र्व भी. परम मूडी. वह मेरे रिश्तेदार भी थे इसलिए कई बार उनके साथ उनके घर की चढ़ाई हँसनिवास से पार करते उसका दूसरा ही रूप दिखता जिसके भीतर एक कवि व लेखक छुपा बैठा था.एक शाम अपनी किताबों और फाइलों के ढेर के बीच कहीं से चंद्रेश ने करीब सौ सवा सौ पेज की एक मोटी जिल्द मेरे हाथ में रख दी जो उनका लिखा उपन्यास था, अंग्रेजी में. अभी उसमें वह कई सुधार कर रहे थे. अपने घर परिवार की समृद्धि से उकता कर एक युवा एक द्वीप में चले जाता है और उन्हीं आदिवासियों के बीच रहते उस इलाके का काया पलट कर देता है. अब आदिवासी उसे अपना भगवान समझने लगते हैं तो वह वहां से भी भाग जाता है और तिब्बत के एक गोम्पा में मुक्ति की खोज करने की कोशिश करता है. उसे पढ़ते मैं साफ समझा कि विकास के मात्रात्मक धटकों से आगे कहीं गुणात्मक घटक होते हैं और इनसे ही अनुकूलतम संतुष्टि मिल सकती है.यही पॉइंट ऑफ़ ब्लिस है. चरम आनंद. चंद्रेश का नायक इसी निर्वाण की खोज में था.
विकास के सिद्धांत, नीति और समस्याओं पर बेंजामिन हिगिंस से ले हैरोड-डोमर व गुन्नार मिर्डल के प्रारूप अंततः उत्पादन, आय, उपभोग, बचत और विनियोग पर टिक जाते हैं जिनके बढ़ने से वृद्धि होती है. यानी विकास बराबर वृद्धि धन परिवर्तन का जामा पहनते हैं. जरुरी है कि बचत विनियोग की दिशा में लगी रहें. ताकि पूंजी बढ़े. ग्रोथ मॉडल इसी मैक्रो इकोनॉमिक ढांचे में सिमटे हैं. पर असली बात है चेंज यानी परिवर्तन. यह परिवर्तन नॉन इकोनॉमिक फैक्टर है. ये रिलेटेड है सोच से, दृष्टिकोण से, काम के तरीके से, लगातार विपरीत परिस्थिति में भी असंभव को संभव बनाने वाली मानसिकता से. यह बात दिमाग में घुसेड़ दी थी डॉ. गिरीश चंद्र पांडे ने जो हमें ग्रोथ व डेवलपमेंट का नया पेपर पढ़ाने आए. वह गिरदा के नाम से फेमस थे. हाजिर जवाब, सेटायर और व्यंग बाणों से लैस.
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नये पेपर जो ऑप्शनल था के लिए पूरी क्लास भरी पड़ी थी. सत्तर तो होंगे ही. गिरदा के प्रवेश के साथ ही सब बड़े उत्सुक कि बड़ा मजा आएगा क्योंकि वह बड़े मजे, हंसी मजाक, ह्युमर व ठट्ठे से सब समझा देते हैं. पर आज इस पहले दिन तो वो बड़े सीरियस निकले. पढ़ाते- पढ़ाते कब अंग्रेजी से हिंदी- उर्दू और फिर ठेठ पहाड़ी टोन. कुमाउनी बोल सब को अपनी बात में बहा पहली बात तो उन्होंने ये कही, कि ठीक है फैशन करो, क्रीम पाउडर फतोड़ो पर माल रोड में, बैंड स्टैंड में. टाइट कपड़े पहन रिंक हाल जाओ, घुड़ सवारी करो. ये क्लास में इत्र फुलेल सेंट केवड़ा डाल महारानियां न आएं.
क्लास दो रो में बंटी हुई थीं एक तरफ गर्ल्स और दूसरी ओर लड़के. यह सारी बात कहते गिरदा का चेहरा लड़कों की ओर था पर बीच बीच में उनकी तिर्यक दृष्टि कन्याओँ की तरफ पलटती. तरकश से नए तीर निकलते. किस्सागो ने सुनाया :
अब जो प्रॉब्लम है वह है रिसोर्सस के यूटिलाइजेशन की. उत्पादन उतना नहीं बढ़ता जितनी जनसंख्या. इसे पैदा करने से ज्यादा और कोई इंटरटेनिंग काम है ही नहीं देश की चालीस परसेंट आबादी के पास.एक बार एक नेताजी दूर एक गांव गये कि अपनी जनता की प्रोब्लम्स जान सकें. बड़ी गेदरिंग, लोग ही लोग, बड़े- बूढ़े, अधेड़-मरियल, तमाम जनानियां और बिर- बिर फिरते बच्चे. बिलो पोवर्टी लाइन वाला गाँव था. अनाज उपज सब इंद्र देव के हवाले थी. कामगार -कारीगर कुछ पढ़े- लिखे युवा शहर खिसक लिए थे.कोई लाला के यहां पल्लेदारी कर रहा था.कोई रिक्शा चला रहा था. नेता जी इस विचार में थे कि इस गांव के हालत देख यहाँ के लायक की कोई योजना शुरू करा दें जिससे इनकी दरिद्रता तो मिटे. सो पहले उन्होंने यह जान लेना चाहा कि आखिर उनकी सबसे बड़ी समस्या क्या है जिसे वह फौरन दूर करें. जनता जनार्दन से उन्होंने अनुरोध किया कि अपनी प्रॉब्लम बतायें. माइक से नेताजी की आवाज गूंजती रही पर सब मौन, बस खुस्स पुस्स होती, अगल बगल बैठे के कान तक ही जूँ रेंगती फिर शून्य. नेता जी समझ गये या तो कहने में हिचक रहे या समस्या बड़ी गंभीर है. बातों बातों में कितनी भी बड़ी समस्या का हल निकालने का हुनर वह खूब जानते थे. सो उन्होंने फिर पंप प्राइमिंग की.
कुछ बूढ़े बुजुर्गों ने अधेड़ पधान को जबरदस्ती खड़ा कर दिया. पधान बड़ी देर अपनी पैजामा खुजाता रहा फिर अपनी महीन पतली आवाज में बोला, “जी हज़ूर, माई बाप, ये रेलगाड़ी.”
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“रेलगाड़ी क्यों यहां तुम्हारे स्टेशन पे रूकती नहीं क्या? मैं मिनिस्ट्री से कह जितनी भी पैसेंजर, मेल, एक्सप्रेस हैं सबका यहाँ हाल्ट करवा दूंगा, इतनी जनसंख्या है गाँव की, सबको सुविधा मिलेगी,अब खुश”.नेताजी खुशी से बोले.
माईबाप, ये रेल गाड़ी तो रात के बारा बजे गुजरती है गाँव के बीच से. सबकी नींद तोड़ देती है. फिर क्या करें? तभी तो बढ़ती जाती है गांव की आबादी. कह खित्त से हंस एक बूढा बोला. अगले दिन क्लास में बायीं तरफ बैठी रो में सिर्फ एक कॉलम लड़कियां रह गईं बाकी ने डेमोग्राफी ले ली जो वैकल्पिक पेपर था और जिसे चंद्रेश पढ़ा रहा था.
क्लास में संतुलित आबादी देख डॉ. गिरीश चंद्र पांडे जी ने तिरछी चितवन बायीं तरफ कर वक्र मुस्कान दी और बोले भेड़ बकरी की तरह हँक ग्रोथ और डेवलपमेंट को ह्रदयंगम नहीं किया जा सकता है. इसके लिए विल और डिटरमिनेशन में बैलेंस होना चाहिए जो किसी भी सर्कमस्टेंस को अपने फेवर में करे. यही साहस है. स्किल है. उपक्रम से भरा हुआ मन. कुछ कर गुजरूँ की भावना. कैसी भी बाधा क्यों न आए उसे दूर करने में लगी अपनी ताकत. ऐसे ही नहीं मिल जाता है सब कुछ. उसके लिए प्रयत्न और प्रयास करना पड़ता है. आगे तुम पढोगे जोसफ अलॉइस शुम्पीटर की डेवलेपमेंट थ्योरी. थ्योरी ऑफ़ इन्नोवेशन.नवप्रवर्तन.
नवप्रवर्तन तो एक प्रवृति है जो बस कुछ के भीतर बसती है. भेड़ बकरी का रेवड़ नहीं जिन्हें जहां चाहे हका दो.आ गये. क्लास में बैठ गये. इधर उधर ताकते रहे न जाने कौन कौन सी खुशबू छिड़क दूसरे को इम्प्रेस करने की कोशिश. इससे अच्छा तो है हिप्पी बन जाओ.
मैंने कहा न कि ये जो पंजाब है, राजस्थान है वहां से निकला उपक्रमी. ये टाटा बिरला गोदरेज एक दिन में नहीं बन गये. ये तो वह कौम होती हैं जिनके भीतर भरी होती है उपक्रम की प्रवृति. मिल जुल कर एक दूसरे की मदद करने की नीयत और आदत होती है. ये पहाड़ियों जैसे नहीं कि जो जरा आगे बढ़ा उसकी टांग खींचे.
सर, तो क्या पहाड़ में ये उपक्रम करने वाली कौम रही ही नहीं? ये सवाल पूछा राजेश शाह ने जो बड़ा रिज़र्व अलग -थलग सा रहने वाला बंदा था. उसकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी और हमेशा वह मुस्कुरा के अपनी बात रखता था.
क्यों, तुम ही हो, साह कम्युनिटी है, पूरा बाजार, लेन देन, होटल पर कब्ज़ा और ये पुष्पा मरतोलिया वो उधर बैठा संजय नबियाल पूरी व्यापारी कौम. तिब्बत के साथ व्यापार. उत्तर प्रदेश का जो ये अपना नैपाल से लगा, तिब्बत से लगा बॉर्डर है वहां से होने वाला व्यापार. इसे इतनी ऊंचाइयों में किसने पहुँचाया, इसी कम्युनिटी ने.
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भोटान्तिक समुदाय के बारे में धीरे-धीरे बहुत जानकारियां मिलीं. एम ए ही में यहां के कारबार पर लघु शोध प्रबंध जमा करने का मौका मिला तो यही के अपने मित्रों ने धारचूला से आगे रहने खाने की सारी जिम्मेदारी ली कैसी कैसी जगह चढ़ा उतार दिया. नारायण आश्रम भी देख लिया. खूब फोटो खींची और प्रोजेक्ट रिपोर्ट में लगाई भी. कवर पेज पर नन्दा देवी हिमश्रृंखला थी और उसके नीचे उसी इलाके का लोकगीत :
कै जागा हुनलों मासी को फूल,
ऊंच हिमाल छ मासी को फूल.
को देवी चंढ़ोँल मासी को फूल,
नन्दा देबी चढ़ोँल मासी को फूल.
कुछ साल बाद नौकरी लग जाने पर जब मैं अल्मोड़ा कॉलेज मैं था तब तवाघाट में भीषण भूस्खलन हुआ था. खेला पलपला तक भीषण बारिश और लथपथ रास्तों से गुजर जाना था कि पहाड़ कितने दुर्गम हैं और कितना कठिन है जीवन यापन यहां.
अब पिथौरागढ़ आ कर इस सीमांत की परतें खुल रहीं हैं.अनायास ही ऐसे लोग मिल रहे जो बता रहे समझा रहे. यहां की परंपरा यहां की संस्कृति यहां का लोक यहां का जीवन कामधंधे.
फिर डॉ. राम सिंह जी मिल गये. उनके साथ रहते-घूमते काली कुमाऊं-गुमदेश के रिवाज देखे. वहां अभी भी अजीब से संकीर्ण मन और रीति से लोग गुजर बसर कर लोग दिन काट रहे.जीवन निर्वाह व निर्धनता की रेखा जैसा वाक्य किताबों में अक्सर पढ़ जब यहां घूमा तो पता चला कि मार्केट इम्परफेक्शन की जुगलबंदी में लीन यहां वह मन हैं जो गरीबी और लाचारी के साथ रहने को बाध्य करते हैं. गोठ में गाय बँधी है पर दूध नहीं बेचेंगे, चाय बनाने के लिए भी नहीं देंगे कारण यह कि नजर लग जाएगी दूध-दन्याली पर.गोरफरांग बच्चों-नानतिनों के माथे मुँह में काजल के बिंदे, डिठोना के अलंकरण .औरतें रजस्वला होतीं तो किसी को छूना, पानी के धारे-नौलों पर जाना बिल्कुल बंद, अलग गोठ में फटे पुराने कम्बल के सहारे पूस की रात तक ठिठुर कर काट देना और ऐसी फटेहाल दशा में रख उसे जनम भर के लिए प्रसूति और बाई का रोगी बना देना. पंचेश्वर के इस विशाल जलागम में उपजाऊ मिट्टी है, जंगल है पर कमी है तो उस सोच की जो प्रकृति के उपादान का संतुलित प्रयोग कर इसे फल फूल मसाले मोटे अनाज से भर सके. मरतोला आश्रम में देखा था कि स्वामी माधवाशीष ने ‘मध्यवर्ती तकनीक’ का प्रयोग कर सघन -गहन खेती का कितना सुन्दर सपना पाला है पर ये आदर्श मॉडल कभी बन नहीं पायेगा. कारण वही है नई बात, नये विचार,नये साधन, नई तकनीक को अपनाने में संकोच.
‘गनेल की तरह पड़े रहते हैं पहाड़ी, एक दूसरे की टांग भी खींचेगे तो हाथ पाँव चलाने का कष्ट नहीं करते बस खाप चलाएंगे. कपाल पर ले नीचे से ऊपर तक पिठ्या खींच अक्षत चिपका सब अपने ईष्ट पर छोड़ देंगे, ज्यादा ही हो गया तो देवता नचा लेंगे. खच्च होता बोकिया ही सार पतार का सहारा हुआ इनका.
तो गजब की विभिन्नतायें थीं पहाड़ के इस दूसरे सिरे पर. सीमांत की ओर पहाड़ की इन्नोवेटिव कौम का पहला दर्जा डॉ. गिरीश चंद्र पांडे सीमांत वासियो को देते थे जिसने अपने बूते तिब्बत व्यापार को पराकाष्ठा तक पहुंचा दिया था जिसके साथ व्यापार की शर्ते अनुकूल थीं और उनका भुगतान संतुलन पूरी तरह समायोजित.
व्यापार करने के उनके आपस में तय किये अपने नियम होते.सब कुछ आपसी विश्वास और एक दूसरे का मदद से संचालित. यह वस्तुओं की अदल बदल से जुड़ा था.जिनके बीच मुचलका या अनुबंध होता जिसे ‘गमगिया’ कहा जाता. गमगिया करीब दो फुट लम्बे और चार -पांच इंच चौड़े पहाड़ी कागज पर भोटी भाषा में लिखा जाता जिसमें व्यापार करने वाले मित्रों के नाम, उनका पता और मित्रता के नियम लिखे जाते. एक बार गमगिया हो गया तो आगे पीढ़ी दर पीढ़ी मित्रता बनी रहती.मित्रता की शुरुवात ‘सुलजी -मुलजी’ कही जाती. दोनों पक्ष आपस में बैठ एक ही प्याले से ‘छङ्ग ‘ पीते. भोटिया ‘मुस्से’गमगिया पत्र पर अपनी मुहर लगाते. यह मित्रता लगातार बनी रहे इसके लिए एक पत्थर के दो टुकड़े कर दोनों पक्ष अपने पास रखते. कभी कोई विवाद, संशय या छल -कपट होता तो पत्थर के दोनों टुकड़े आपस में मिला जाँच की जाती. इस मिलान को ‘सिड़च्याद’ कहा जाता.भोटान्तिक व्यापार में तिब्बती मित्र को ‘मुस्से’ कहा जाता. यह वह तिब्बती मित्र होता जिनसे गुड़, चावल, जौ, फाफर, सूती कपड़ा आदि खरीदा जाता और बदले में उन्हें ऊन, नमक, सुहागा देता. हूण देश में मुस्सा ही भोटिया व्यापारी का सहारा होता. मुस्से से मित्रता भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलती. उसके घर जवांई और बेटे भी मुस्से ही माने जाते. कभी यह मित्रता टूटे तो दोनों पक्ष आपस मैं बैठ पत्थर के टुकड़े तोड़ देते व गमगिया फाड़ देते. उनके आयात निर्यात कर होते थे जिन्हें ‘क्विन ठल’ कहा जाता था.
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डॉ. जगदीश चंद्र पंत ने भारत तिब्बत व्यापार पर गहन काम किया था. उसका हर पक्ष उनकी जुबान पर रहता. मुझे भी वह लिखने के लिए उकसाते. पर मेरे भीतर लगातार एक काम को करने का धैर्य नहीं था. बस तू नहीं और सही वाली फिलसफी. डॉ. पंत अपने किराये वाले घर जनार्दन भवन में लोहे की अलमारी के बगल में आसन मोड़ दत्तचित हो नियम से लिखते. खूब पढ़ते. उनकी सार पतार में कुशल लड़कियां अपने बाबू की खूब सेवा करती दिखतीं.
उनके घर से निकल सड़क पर चलते, कॉलेज में विभाग में बैठे डॉ. पंत ने मेरे दिमाग में भोटान्तिक अर्थव्यवस्था के साथ उनकी सामाजिक सांस्कृतिक खूबियों को रोचकता के साथ भर दिया था. विभाग में उनके रहते किसी भी नये काम की शुरुवात बड़ी आसानी से हो जाती. पहाड़ से जुड़ी किसी समस्या पर गोष्ठी हो, नाटक हो या और कोई आयोजन बस उनके कान में बात डाल दो. वो सब इंतज़ाम करा देते और फण्ड भी जुटा देते. बाजार पर उनकी पकड़ गज़ब थी. अक्सर वह डी. एम, एस डी एम के दफ्तर भी भेज देते कि जाओ आगे बहुत नौकरी है. राजकाज में संपर्क से ही सब होता है.राम सिंह जी के साथ उनकी जोड़ी साहस और उपक्रम से भरे दो चेहरों की सक्सेस स्टोरी बयान करती.यह जोड़ी हमेशा कुछ करने लगे रहने को प्रेरित करती. पंडित नैन सिंह की डायरी पर डॉ. राम सिंह उन दिनों काम पर लगे थे. लौह लक्ष्मी के अपने कारखाने में बनते संदूकों और अलमारियों के शोर के बीच कोने में रखी बड़ी मेज पर बिखरे डायरी के वह पन्ने उन्होंने एक मोटे रजिस्टर में उतार दिए थे साफ टांकेदार अपनी लेखनी में. काली श्याही वाली विल्सन पेन से.
डॉ. जगदीश चंद्र पंत ने भोटान्तिकों के अदम्य साहस और जीवट का पूरा चिट्ठा खोल डाला था. यह कौम व्यापारी जिसने अपने व्यापार का संचालन खुद किया और भोट से आगे बढ़ तिब्बत जाने वाले अनेक रास्तों की खोज भी कर डाली.वो रास्ते जो दुर्गम पहाड़ और दर्रो से हो गुजरे जो संकीर्ण थे पथरीले थे. उतार चढ़ाव से भरे इतने संकरे कि दो लोग या पशु भी अगलबगल साथ साथ चल न सकें. ऐसा भी नहीं कि जो रास्ता एक बार बन गया उस पर हमेशा चलने का मौका मिले. देखते ही देखते कटीली झाड़ियों से, नुकीली घास से भर जाये पहाड़ी, भू स्खलन से गायब हो जाये, बर्फ से ढक जाये. उस पर नीचे तलहटी पर बहती काली नदी जिसके बहाव और मूड का कोई अनुमान ही न लगे. कभी सरस सरिता सी शांत तो कहीं सुसाट – भुभाट, लरज -गरज के साथ ह्रदय में कंप करती. गोरी नदी भी कम न थी, कई जगह चट्टानों से सट कर बहे तो रस्ता निकालने के लिए चट्टान में गहरे छेद करने पड़ें और सब्बल डाल आगे बढ़ा जाए. व्यापारी इनसे ही हो कर चलें.उनके भारवाही पशु इन्हीं से आगे बढ़ें. “लुक” या “मौऊ” यानी भेड़, उनके चरवाहे यानी “लोकपा” या “लुकबा” के साथ सभी ‘सेमजिन’ यानी घर के सभी पालतू पशु.ऊंचाई पर घने लम्बे बाल वाला याक जो साठ -सत्तर सेर भार उठा पर्वत श्रृंखलाओं की प्रदक्षिणा करवा दे. जंगली याक ‘रोंड़’ कहा जाता जो सवारी भी कराता व वक्त बेवक्त खेत भी जोत देता .रस्सियों से बने पुल भी जिन्हें ‘सांगे’ कहा जाता. इन भेड़ बकरियों की पीठ पर सावधानी से माल लाद बढ़ना होता. इन पशुओं में सामान की पोटलियां सावधानी व ऐसी कुशलता से लादी जातीं कि संकरे रास्तों पर जब जानवर चलें तब वह चट्टानों से न टकराएं. कई रास्ते पार करने को जीवट भरे जोखिम लिए जाते.बताया जाता है कि मुंसियारी से तीस कोस दूर जब रस्ता निकालना बहुत कठिन हो गया तो मानी कंपासी ने अपनी युक्ति से गोरी नदी की तेज धार को ही मोड़ दिया.इसके लिए पहले ‘नहरदेवी’ की स्थापना की गई. तदन्तर यह मंदिर भोटान्तिकों के साहस और आस्था का प्रतीक बना.
गोरी गंगा नदी के किनारे जो पथ रहे, वह आज भी इस इलाके के पुराने साहूकारों के नाम से जाने जाते हैं. मुंसियारी से करीब 20 मील की दूरी पर ‘मापांग का मेल’ धरमराय पांगती ने कठोर चट्टान को तोड़ -काट -खुरच कर बनाया था. ऐसे ही किसन सिंह मारतोलिया ने मुंसियारी से 8 मील की दूरी पर ‘सुड़गोन’ नामक पथ बनाया था. ठीक इसी से दो मील आगे मिलम की ओर जिमिघाट के ऊपर चपटी सपाट चट्टान के बीच से नलीनुमा रस्ता मेसू नामक एक धनी महिला द्वारा बनवाया गया था.
ये सारे अजपथ थे. जैसे जैसे तिब्बत के साथ व्यापार बढ़ा अजपथ का स्थान अश्वपथ ने ले लिया. तिब्बत से व्यापार करने के लिए दुर्गम दर्रोँ से हो कर गुजरना पड़ता था. जोहार के व्यापारी ऊँटाधूरा से हो कर तिब्बत को जाते थे जो सत्रह हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित दर्रा था. आगे इसी ऊंचाई पर जैँतीधूरा और इससे भी अधिक ऊंचाई पर किंगरी-विंगरी पड़ता था. यह परेशानी भी थी कि इन तीनों को एक ही दिन में पार करना होता था क्योंकि रास्ते में कोई पड़ाव नहीं था और न ही ईंधन मिलता था. रात में इतनी कड़क ठंड कि जानवर बीमार पड़ जाएं, मर जाएं. जब यह घाट और दर्रे पार हो जाएं तब टोपीढुंगा पड़ाव से आगे सतरह हजार फिट की ऊंचाई पर कुंवराघाट पार करना पड़ता था.मल्ला दारमा से गुजरते भोटिया व्यापारी दारमा दर्रे को पार करते तो व्याँस और चौँदास पट्टी के व्यापारी लड़प्यालेख तथा लिपुलेख दर्रो से हो कर जाते. इनमें सबसे सरल रस्ता लिपुलेख घाटी वाला ही था.
व्यापार का यह सिलसिला किसी भी दृष्टि से सीधा सरल और सुविधाजनक न था. पूरा इलाका उन दुर्गम पथों से हो गुजरता जो कहीं चट्टानों से, बीहड़ इलाकों, गाड़,लुंगमा छू या गधेरों,लोंगमा या पहाड़ से बरसात में निकलने वाली छोटी जल धारा, जलकुण्ड, धारा, नाला व सांगू -नदियों, कटीली झाड़ियों, चुभती घास और बुग्यालों से होता बर्फ से ढकी चोटियों के दर्शन कराता.बुग्यालों व पर्वत की चोटियों पर घास के मैदान भी दिखते जिनको पांगा कहते.हवा (हुरता),बादल (टिन ) ओस (पऊ), ओला (सिरा), वर्षा (नम ), हिम(खा) के साथ भूकंप (सेंगुल)के चक्र से मौसम की मार जो अचानक बदल जाये. भोटान्तिक विश्वास करते थे कि हिमालय नीलकंठ की तपोभूमि है इसलिए शिखरों में विष का प्रभाव रहता है. ऐसी कथाएं भी थीं कि दर्रो में चील(चारगो या चारकौक ) से विशाल ऐसा पक्षी भी उड़ता है जो यात्री की आँखे निकाल कर खा जाता है.
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तिब्बत की सीमा में प्रवेश के बाद भी असुविधा व कष्ट थमते न थे. खाना पकाने के लिए ईंधन न मिलता तो वहां उगे कांटेदार ‘डामा’ को जला भोजन पकाया जाता. तिब्बत की सीमा भी बहुत असुरक्षित थी जहां खम्पा लुटेरे व तिब्बती डाकू,’डोक -पा’ अचानक आक्रमण कर माल-असबाब लूट लेते. सारी चुनौतियों का सामना अपने साहस से कर भोटान्तिकों ने अपनी मीठी जुबान से तिब्बतियों के साथ मधुर सम्बन्ध बनाए, उन्हें ‘मित्र’ बनाया.साल में दो बार तिब्बत की व्यापारिक यात्रा संपन्न की. इनमें पहली यात्रा की तैयारी थल मेले के तुरंत बाद अप्रैल माह से ही शुरू हो जाती जब जानवरों पर सामान लाद उन्हें रवाना किया जाता. भारवाही ये पशु कुछ हफ्तों के लिए बुग्यालों में भी चरने के लिए छोड़े जाते ताकि वह यहां की जीवनदायिनी वनस्पति खा कर तंदरुस्त बने रहें. पहली यात्रा में जून के लगते पश्चिमी तिब्बत का अधिकारी ‘चपराँड़ जोड़पोन ‘ भोट प्रदेश में अपना प्रतिनिधि या ‘सरजिया’ भेजता. ये सरजिये वहां रह व्यापार से जुड़ी बातों के साथ उस इलाके की रोग व्याधि विशेषकर छूत की बीमारी के साथ राज विग्रह की हालत का जायजा ले शपथ पत्र लेते. उनके हर लिहाज से संतुष्ट होने पर ही तिब्बत की ओर व्यापारी जा सकते.इस कारण तिब्बत के इन सर्जियों की खूब आवभगत होती. दूसरी यात्रा सितम्बर में शुरू हो जाती.संचार की धीमी गति व आवागमन की असुविधा के कारण कई बार घाटों के खुलने की खबर देर से व्यापारियों तक पहुँचती.जल्दी मंडी तक पहुँचने की कोशिश हर व्यापारी करता और इसके लिए तिब्बती अधिकारियों को घूस भी देनी पड़ती.
जिला अधिकारी ‘जोड़पोंन’ व प्रांतीय अधिकारी,’गरपन’ कहलाते. कई किस्म के कर व प्रशुल्क होते जिनमें नकद कर (वार छौँड़ ), व्यापार कर (छोँ -ठल ), प्रति व्यक्ति के आधार पर लिया कर (गो -ठल ), भू कर (सा -ठल )चरा गाह कर (रिगा ठल )दर्रे को पार करने का कर (ल्हा -ठल )धार्मिक कर (पोल -ठल )भेड़ बकरियों पर लिया जाने वाला कर (ल्हुक -ठल ) मुख्य होते. तिब्बतियों का वस्तु मापक यँत्र,’न्यागा’ होता. भारतीय रुपया ‘गग्मू’कहा जाता तो तिब्बती सिक्का ‘तंगा’.
जुलाई महिने के बीच में जब हरेले का त्यौहार मना लेते तब व्यापारी हूणदेश के लिए चल निकलते. आम तौर पर उनकी कोशिश होती कि जुलाई बीतते वह तिब्बत की अपनी मंडी तक सुरक्षित पहुँच जाएं. अपने माल असबाब की सुरक्षा उन्हें खुद करनी होती. लगभग पचास साठ का समूह जरुरी हथियार साथ ले चलता. साथ में सैकड़ों भेड़ बकरियों, घोड़े खच्चर, जुमू-जिमो चंवर गाय का झुण्ड(ढाकर) होता जिनकी रखवाली तिब्बती कुत्ते करते. भेड़ व घोड़े-खच्चरों के गले में घंटी या घाने टुनटुनाते और भेड़ बकरियों के गले में रंगीन पत्थरों की मालाएं.
गर्मियों में जब वह देश लौटते तो यहाँ बिकने वाली वस्तु, जिंस से उनके पशु लदे होते जो अब मैदान की मंडियो तक जाते जिसका दायरा दक्षिण भारत के मुख्य नगर और बंदर गाह होता. कुमाऊं में जौलजीबी, बागेश्वर व थल के व्यापार मेलों में भोटान्तिक व्यापारियों का एकाधिकार होता. जौलजीबी के मेले में तिब्बत से कच्चा ऊन, ऊनी कपड़े, सुहागा, नेपाली घी, घोड़े, अनाज, शोरा, असकोट से चटाइयाँ, काठ के बर्तन के साथ अन्य ढेरों वस्तुओं की बिक्री होती. बागेश्वर के मेले में दूर दूर के व्यापारी तिब्बत की दुर्लभ वस्तु खरीदने पंहुचते. सोने चांदी व अन्य धातु सामग्री भी काफी बिकती. थल में विषुवत- मेष संक्रांति को मेला लगता जहां भोटिया व्यापारियों को तिब्बत से लाई बची हुई वस्तुओं को व तिब्बत के लिए खरीदी वस्तुओं को बेचने का अवसर मिलता. कुमाऊं के मेलों के निबट जाने के बाद भोटान्तिक व्यापारी मैदान की मंडियों के पड़ावों की ओर चल पड़ते . यहां से वह तिब्बत की मंडियों में बिकने वाला माल खरीदते.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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