गर्मियों के दिनों में जब हम स्कूल की छुट्टी के बाद घर पहुंचते थे ईजा, बाज्यू, जेठजा सब लोग सिन्तोला की गाड़ में भीमल का लोत यानी रेशा निकालने गए होते थे. खाना बनाने के गोठ में चूल्हे में कोयले पर लोहे की कढ़ाई में भात और भट्ट का साग ढका रहता. कोने में दूधी केले की घड़ियां रहती और सानन की ठेकी में छाछ रखी होती.
(Mountain Life During Summer Uttarakhand)
हम चारों भाई-बहन कढ़ाई में ही हाथ से ओलकर उंगलियां चाटते हुए भात खाते. केले खाते, छाछ पीते और छाछ पीने के बाद हम ठेके, बिंडे और पाली को रणेल के पत्तों से धोकर रख देते. रणेल के पत्तों से धुले सानन की लकड़ी के बर्तनों से गजब की खुशबू आती थी और उसमें रखी धिनाली यानी दूध दही का स्वाद तो पूछो ही मत.
हमें सुबह स्कूल जाते समय ही बता दिया जाता था कि स्कूल से घर आकर गाड़ आ जाना भीमल यानी भ्योंले का लोत निकालना है और शैट्टा बनाने हैं, शैट्टा छ्यूला बनाने के काम आता था. मैं सबसे बड़ी थी तो छोटे भाई बहन की पाठी भी मेरे ही पीठ पर बांधी जाती और एक बड़ा पीतल का लोटा जिसके दोनों किनारे छेद कर भ्योंले की रस्सी (झूंणा) से बांधकर पकड़ने लायक बनाया जाता. लोटे में कमेट डालते और रास्ते में पड़ने वाले धारों से उसे पानी से भर लेते. इसे पाठी में लिखने के लिए इस्तेमाल करते थे.
गांव के सारे बच्चे साथ में स्कूल जाते और हमारे साथ-साथ गाय और बकरियां भी होती थी जिन्हें हम स्कूल के आसपास चरने को छोड़ देते. बारी-बारी से कोई न कोई गाय बकरियों पर नजर रखता और घर वापस आते हुए हका के ले आते. हाफटैम यानी ब्रेक में हमारी लोत निकालने और गाड़ की ही बातें होती.
गर्मियों के दिनों में खेत खाली होते तो बच्चे रास्ते से न होकर खेतों में कुदते हुए गाड़ की तरफ जाते. किसी का पैर मूसों के दूलों में घुस रहा है, कोई उल्टा गिर रहा है, कोई दो खेत कूदकर जा रहा है तो कोई घुसूड़ी खेल कर जा रहा है. गाड़ के आसपास हिसालु, काला हिसालू, मच्छ्यान और ऐर की कांटेदार झील किलोमीटर दूर तक फैली रहती. कूंची यानी जंगली गुलाब के अनगिनत सफेद फूल झाड़ियों में ऐसे लदे रहते जैसे किसी ने बर्फ की चादर बिछा दी हो. हिसालु-किरमोणों की झाड़ियों में सब जगह बच्चे ही बच्चे चिड़ियों के झुंड की तरह लिपटे रहते.
(Mountain Life During Summer Uttarakhand)
जब गांव के सभी लोग गाड़ में होते तो गाड़ ऐसे लगती जैसे कोई कौतिक लगा हो. हिलसा यानी जंगली मुर्गियां यहां-वहां आवाज करती हुई दौड़ती रहती. इन सब झाड़ियों में बाघ का भी डर बना रहता था. पूरी गर्मी यहां का वातावरण किसी पिकनिक स्पॉट जैसा हो जाता और मौज मस्ती के साथ काम भी हो जाता. भीमल के डंडों को सुखाकर गाड़ में बड़े-बड़े तालाबों में डाल दिया जाता जो कि 8-10 हफ्तों में भीगकर रेशे छोड़ने लगता.
भीमल पहाड़ का मुख्य चारा है. भीमल की चौड़ी पत्तियां होती हैं, गाय-भैंस इसे बड़े चाव से खाते हैं इनको खाने से धिनाली बहुत ही स्वादिष्ट होती है और स्वाद बदल ही जाता है. भीमल की लकड़ियों से गल कर जब लोत बनने लगता तब सभी गांव वाले लोत निकालने जाते हैं. गाड़ से एक-एक डंडा निकालकर रेशे निकालते. कभी-कभी मछलियां भी पैरों पर चढ़ जाती थी और गुदगुदी करती. हम पानी में अपनी परछाई देखकर जोर-जोर से आवाजें निकालते जो लौट-लौट कर आती और हमें लगता जैसे पानी के अंदर कोई हमारी तरह है. सभी ऊपर-नीचे वालों से पूछते कि तुमने कितना लोत बनाया फिर लोत को धोकर सफेद चमकाते और देखते कि किसका कितना सफेद बना है. बची हुई लकड़ियां भी सफेद दिखने लगती थी. लोत और शैट्टों को खेतों में सुखा आते और पिछले दिन के शैट्टों को खर्क में ले जाते जो बाद में छ्यूले के काम आते थे.
बाज्यू लोग सूखे रेशों( लोत) से गाय भैंसों के लिए गल्यों, जोड़्या और सूखे पत्ते उठाने के लिए जाल बनाते थे. कभी-कभी बरसात में सारी लकड़ियां ताल से बह जाती या मिट्टी में दब जाती फिर हम लोग उन लकड़ियों को ढूंढने दूर तक चले जाते कितना दूर चले गए पता ही नहीं चलता था अब तो शायद उन गाड़ों में कोई कौतिक नहीं लगता होगा. सब कमरों में बंद हो गए हैं. पहले पाकृतिक चीजों पर जिंदगी जीते थे. अब कृत्रिम चीजों के गुलाम हैं, शायद फिर से कभी वहीं पहुंच जाएं तो आजाद हो जाएं.
(Mountain Life During Summer Uttarakhand)
–पार्वती भट्ट
मूलरूप से पिथौरागढ़ की रहने वाली पार्वती भट्ट का पहाड़ से गहरा लगाव है. पार्वती भट्ट की लिखी कहानियां उनके यूट्यूब चैनल पर भी सुनी जा सकती हैं.
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