उत्तराखण्ड का गढ़वाल-कुमाऊं दुनिया का शायद एकमात्र ऐसा भूभाग है जहाँ हर रात्रि सद्यःप्रसूता होती है और हर दिन नवजात शिशु. जी हाँ, यहाँ रात ब्याती है और दिन जन्म लेता है इस तरह हुआ न हर दिन नवजात शिशु. भोर का तारा होता होगा हिन्दी में, मॉर्निंग स्टार अंग्रेजी में अपने उत्तराखण्ड में तो वो रतब्याणू है. रतब्याणू अर्थात द टाइम सील ऑव द बर्थटाइम ऑव द डे.
(Morning Article by Devesh Joshi)
जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि को पूर्णतया चरितार्थ करने वाले संस्कृत साहित्य में भी रात-दिन को अभिकल्पित किया गया है इस रूप में – दिनमपि रजनी सायं प्रातः, शिशिर बसंतो पुनरायात. हर फूल के प्रसव पर उत्सव मनाने वाली नायिका शकुंतला के सृजक सौंदर्यानुरागी कालीदास जी तुम्हें किस एंगल से गढ़वाली (उत्तराखण्डी) मानूं. भाई लोग कहते हैं कि आप कालीमठ में पैदा हुए पर आपने फूल का ब्याना देखा रात का ब्याना नहीं. जहाँ अन्य संस्कृतियों में रात्रि को राक्षसी, दिन को उसे विजित करने वाले नायक तथा परस्पर विरोधी शक्तियों के रूप में प्रदर्शित किया गया है वहीं उत्तराखण्ड में रात-दिन को भी माँ-पुत्र के रूप में दिखाया गया है. प्रकारान्तर से ये हमारे दर्शन को भी उद्घाटित करता है जो पारस्परिक सम्बंधों की बुनियाद पर खड़ा है, विरोधाभाषों पर नहीं.
पग-पग पर पीड़ाओं से मुखातिब होने वाला लोक न सिर्फ पशु-पक्षियों-पेड़-पौधों की पीड़ा महसूस करता है बल्कि रात्रि की निस्तब्धता की भी पीड़ा, प्रसव पीड़ा को महसूस करता है. हर दिन के उजास में उसे नवजात शिशु के मुखारबिंद की झलक दिखायी देती है. प्रसव पीड़ा से प्राप्त पुत्रफल की तरह हर दिन को संजोकर रखने और अपना सर्वोत्कृष्ट कौशल उस पर उड़ेलने, ममत्व न्यौछावर करने का भरपूर प्रयास करता है. अगले प्रसव की अनिश्चितता की तरह हर दिन वर्तमान की अमूल्य निधि है.
यहाँ हर रात की हिफाज़त आसन्नप्रसवा की तरह की जाती है. शीतकाल में प्रसवकाल कुछ लम्बा खिंच जाता है तो आसन्नप्रसवा और अपना तनाव दूर करने के लिए किस्से-कहानियों, पहेलियों, गीतों का सहारा लिया जाता है. कथाओं की अन्तिम पंक्ति फिक्स होती है – कत्था काणी रात ब्याणी. रात माँ है जिसकी गोद में, जिसके आगोश में सुकून तलाशा जाता है. नींद आती है तो अपना कुछ नहीं, सब माँ की कृपा समझी जाती है. माँ-पुत्र के सम्बंध में सहिष्णुता है, त्याग की भावना है और एक दूसरे के प्रति कर्तव्यबोध का अहसास भी है.
प्रश्न यह भी हो सकता है कि रात ही क्यों प्रसवा हुई, दिन क्यों नहीं. इसके लिए रात-दिन की प्रकृति को ध्यान से देखें तो उत्तर स्वयं मिल जाता है. रात्रि में मातृ-सदृश गम्भीरता है, परिपक्वता है और स्थिरता है जबकि दिन में चंचलता है, बालपन से लेकर युवावस्था तक की झलक है और गति है. दिनमपि रजनी सायं प्रातः वाले कांसेप्ट में पुनरावृत्त्ति की नीरसता है. बोरिंग मोनोटाॅनी. जबकि नवजात कांसेप्ट में चिर नवीनता है. कोई भी दिन पिछले सा नहीं. हर दिन नया, मौलिक, अनोखा. हर दिन में कुछ नया रचने-सृजित करने का भरपूर अवसर. उत्तराखण्ड में रात ब्याने के प्रयोग के पीछे एक और कारण समझ में आता है. यहाँ गृहस्वामिनी प्रातः जब गोठ का द्वार खोलती है तो नवजात पशुशावक के दर्शन अक्सर हो जाया करते हैं. यह उनके लिए सुखद वरदान से कम नहीं होता है क्योंकि प्रसवपीड़ा को समझने वाली गृहस्वामिनी बिना किसी बाहरी सहायता के सम्पन्न प्रसव को दैवी कृपा ही समझती हैं. पशु प्रसव दिन में भी होते हैं किन्तु वे उतने आश्चर्य के कारण नहीं होते क्योंकि उनमें गृहस्वामी/स्वामिनी का योगदान भी सम्मिलित होता है.
(Morning Article by Devesh Joshi)
आज बिजली की चकाचैंध में पहाड़ी नगर-कस्बों के साथ गाँव भी नहाने लगे हैं. रात के होने का अहसास ही उस अर्थ में नहीं रह गया है तो फिर रात का ब्याना तो दूर की बात हो गयी है. रात ब्याती नहीं है तो दिन बासी-सा लगने लगता है. रात-रात भर नेट, टीवी पर बैठने वाली नई पीड़ी को समझाना कठिन है कि वे न सिर्फ अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं बल्कि गर्भवती रात्रि का भी अपमान कर रहे हैं. वे देर रात तक जगने के कारण अब्बल तो नवजात दिन के दर्शन ही नहीं कर पाते हैं और अगर करते भी हैं तो ऊँघते हुए-जम्हाई लेकर, बोझिल आंखों से.
सदियों तक विकास और संसाधनों की नवीनता से अपरिचित पहाड़ी जनमानस ने, जो उसके हाथ में था उसीमें नवीनता की तलाश की. सुबह नया अखबार उसकी पकड़ में न रहा हो तो क्या उसने हर नए दिन को ही एक अखबार बना लिया था. जिसका सम्पादक भी वही था, मालिक भी और पाठक भी.
रतब्याणू की चर्चा प्रारम्भ में की गयी थी. इसे यहाँ धार माकू गैणू भी कहा जाता है. धार अर्थात रिज़ पहाड़ों के क्षितिज का भी निर्धारण करती है. इस तरह धार माकू गैणू अर्थात पूर्वी क्षितिज का तारा. यही संध्याकाल में पश्चिमी क्षितिज पर भी दिखायी देता है. हिन्दी में समयानुसार इसे भोर का तारा या संध्या का तारा कहना पड़ता है पर उत्तराखण्डी भाषा में दोनों वक्त के लिए धार माकू गैणू से काम चल जाता है. धार माकू गैणू में जहाँ यह भाव छुपा है कि कि दिन धार के पीछे से आ रहा है (और जो वैज्ञानिकता के नजदीक भी है) वहीं रतब्याणू तो रात के ब्याते वक्त ही प्रकट होता है या इसके प्रकट होते ही रात होती है. रतब्याणू नवआशा का शुभ संकेत लेकर आता है.
(Morning Article by Devesh Joshi)
रात ब्याने के कांसेप्ट से कोई ये न समझ ले के अंध-कूप में जीते थे हमारे पूर्वज. जिन्हें दिन-रात और ऋतु परिवर्तन की नियमितता का बोध ही नहीं था. उन्हीं के सृजित बहुतेरे लोकगीतों में मिल जाएंगी ये पंक्तियां- बौड़ि-बौड़ि ऐगी रितु दांयी जसो फेरो. ऋतुओं के और दिनों के बौड़ने (पुनरागमन) का उन्हें अच्छा ज्ञान था. ये तो उनका भावनात्मक लगाव था जो उन्होंने दिन-रात के लिए रातब्याने का प्रतीकात्मक प्रयोग किया.
रात ब्याने को लाक्षणिक रूप से प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि उत्तराखण्डी समाज सदियों से रात ब्याने की प्रतीक्षा कर रहा है. रात पर सख्त पहरा रहा है. कभी अत्याचारी राजाओं का, कभी गोरखों का, कभी अंग्रेजों का और कभी अपने ही पंचों का. एक उत्तराखण्डी लोकोक्ति है कि रांका बाळि-बाळि तेरी रात नि ब्याणी अर्थात छुद्र प्रयासों से बड़े मकसद हासिल नहीं किए जा सकते. तो फिर गुनगुनाएं – ये रात कभी तो ब्यायेगी, वो सुबह कभी तो आएगी.
लेखक की पुस्तक घुघुती न बासऽ से
(Morning Article by Devesh Joshi)
–देवेश जोशी
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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं.
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