1955 का साल था. दुनिया में शीतयुद्ध की हवा गर्मा रही थी. भारत के दौरे पर सोवियत रूस के दो बड़े नेता आये और भारत और सोवियत रूस के बीच संबंधों का एक नया अध्याय लिखा जाना था. रूस से आये दो मेहमानों ख्रुश्चेव और बुल्गानिन का भारत में भव्य स्वागत हुआ. अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने भारी भीड़ के बीच भारत में कुश्ती से लेकर कब्बडी तक के खेल देखे. अब बारी भारत की सांस्कृतिक झलकियों की थी. शाम का समय था और तीन मूर्ति के सभागार में एक गीत ने ऐसा समां बांधा की हर कोई थिरकने को मजबूर था गीत के बोल थे- बेडू पाको बारामासा.
(Mohan Upreti)
1955 की इस शाम के बाद सबकुछ कुमाऊनी संगीत के स्वर्णिम इतिहास में दर्ज है. भारतीय लोक संगीत के इतिहास में कुमाऊनी लोकगीत को मजबूती के साथ दर्ज कराने वाले नायक थे मोहन उप्रेती. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ‘बेडू बॉय’ मोहन उप्रेती की आज पुण्यतिथि है.
तीन मूर्ति के सभागार में हुई उस शाम में मोहन उप्रेती ने न केवल बेडू पाको बारामासा गाया बल्कि नईमा खान के साथ इस पर नृत्य भी किया. बाद के वर्षों में नईमा खान से उन्होंने विवाह भी किया.
(Mohan Upreti)
अल्मोड़े के रानीधार में जन्में मोहन उप्रेती का जन्म वर्ष 1928 है. लोकगायक मोहन सिंह रीठागाड़ी को उन्होंने अपना गुरु माना है. अपने जीवन काल में मोहन उप्रेती ने 22 देशों की यात्रा की और सभी जगह कुमाऊं की संस्कृति का प्रचार प्रसार किया. अपने एक साक्षात्कार में अफ्रीका के किसी रेगिस्तान में कुमाऊनी होली गाने को वह खूब याद करते हैं.
संगीत निर्देशन के लिये मोहन उप्रेती को 1981 में भारतीय नाट्य संघ ने और लोक नृत्यों के लिये संगीत नाटक अकादमी द्वारा 1985 में पुरस्कृत किया. पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति को बुलंदियों तक पहुंचाने वाले मोहन उप्रेती ने अजुवा-बफौल ,राजुला-मालूशाही, जीतू-बगड़वाल, रामी-बौराणी, रसिक-रमौल जैसी अनेक लोक कथाओं का मंचन किया.
यह मोहन उप्रेती और उनके साथियों के काम ही प्रभाव है कि उत्तराखंड से जुड़ा हर इंसान बेडू पाको बारामासा को अपनी विशिष्ट पहचान के तौर पर देखता है.
(Mohan Upreti)
बेडू पाको गीत की दिलचस्प कहानी यहां पढ़िये: नरैणा काफल पाको चैता
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