फागुन के आखिरी दिनों में रफल्ला, गाँव के नजदीक के गधेरे में अपना घाघरा धो रही है. बसंत इन दिनों से एक हाथ आगे होता है. इन एकदम उदास मटमैले दिनों में लगभग सभी चीजें खुद-ब-खुद कहीं डूब गयी सी लगती हैं. घास-पत्तियों से खाली पहाड़ों की बदत्तमीज़ शक्ल अपना नंगापन दिखाने पर आमादा हो जाती.कई झरने व नाले सूखकर सफेद हो जाते हैं और कुछ में थोड़ा-बहुत पानी सुबकते हुए बहता रहता है. गाँव और उससे जुड़ी हुई चीजों की हैसियत केवल खटूठा पर लटकते हुए घोंसलों की तरह और बसंत की आमद किसी चिड़िया के टूटे पंख की तरह लगती है. इस उदास मौसम में गधेरे के किनारे काले बड़े डांग के ऊपर सूखता रफल्ला का घाघरा बसंत से भी अधिक रंगीन, खूबसूरत और प्यारा लगता है.
(Mohan Thapliyal Story Raflla)
चैत के पूरे महीने फजीतू रफल्ला को गाँव के हर चौक में नचायेगा. चार मुट्ठी अनाज के लिए उसका घाघरा एक ही चौक में चार सौ फिर-कनियां काटेगा. हर घर के ठाकुर पंडित को वह दानी हरिश्चन्द्र कहेगी. रफल्ला, जिसका दरअसल केवल पेट नाच रहा होता है और भूख के धक्के जिसे चौक में इधर से उधर फेंक रहे होते हैं या जिसके मुख से गीत कम भूख की इच्छाओं के जुमले ज्यादा टपक रहे होते हैं- अचानक कम अनाज पाने पर उसकी आँखों का पानी काजल हो जाता है. बिदाई के वक्त घाघरे के घुमेरों को अपने बदन से सटाती हुई जब वह उन दानी-ठाकुरों के सामने अपना टोकरा आगे करती है तो वे लोग हिकारत से मट्टी-दो मट्ठी अनाज उसमें छिड़क-भर देते हैं. रफल्ला को ऐसे लोगों पर ताना मारना आता है. चौक छोड़ते हुए गीत की लय में ही वह यह कहने से नहीं चूकती
बड़े घर-बार, घुटनों तक दाल और कमर तक भात में डूबे होने के बावजूद तुम लोगों ने मुझे इतना-भर दिया है जितना कि दुखी बिल्ली का मूत.
रफल्ला के साथ कभी एक मर्द और था. उसे याद है, उन दिनों उसकी हंसी, नाच और काठी की कद्र करने वाला वही एक सच्चा मर्द था. उसके साथ नाचते हुए रफल्ला को लगता, वह अपनी इच्छाओं के बगीचे में सुंदर फूल की तरह खिल उठी है. उन प्यार-भरे दिनों में रफल्ला ने उसे चरखू नाम दिया था और खुद को उसके इशारों पर नाचने वाली चरखी कहा करती थी.
और एक दिन, खून-सने लोथड़े की तरह दिमाग के कंदे से लटका हुआ, आज भी रफल्ला को उसी भयानकता के साथ याद है. ढोलक की थाप पर रफल्ला का जिस्म पूरे मेले की छांछ छोल रहा था कि बीच तमाशे में कुछ पंडितों के लौंडों ने ऐसी गुंडई मचानी शुरू कर दी थी कि देखते ही देखते पता नहीं किस मादरजाद ने रफल्ला के मर्द की घुघराली जटाओं वाली खोपड़ी कट्टमचूर कर दी थी. भीषण मार-फौंदारी और रक्तपात मचाने के बाद सभी लुंड-लोफर पता नहीं किधर गायब हो गये थे.
पुलिस, रफल्ला ने उसी दिन बहुत देर बाद ढलती शाम को तब देखी थी, जब जमीन पर पड़े हुए उसके मर्द के खून के साथ-साथ उसके बदन का खून भी जमने की हालत में आ गया था. जाँच-पड़ताल से ज्यादा वे आँख मारी कर रहे थे. आखिर में एक मटमैले कागज के ऊपर कुछ खानापूरी करके और उस पर रफल्ला का अँगूठा घिसकर चलते बने थे. शैतान की तरह डंडा नचाते हुए उन्होंने कहा था कि लाश की चीर-फाड़ करवाने के बाद वे अदालत में कत्ल का मुकदमा दायर कर देंगे.
मर्द के कत्ल के बाद रफल्ला के जिस्म के कत्लों का सिलसिला शुरू हुआ. गाँव के कई नामी-गिरामी मुस्टंडों ने उसके कठोर मांस को पिता-पिता किया. उसके बदन की गोलाइयों और लचीली कमर के बारे में एक भोंडा-सा गीत भी उन दिनों आसपास के गाँवों में गूंजा था. रफल्ला को उन दिनों आकाश, जंगल और जमीन पर चारों ओर मदमाते मर्द सांडों की नंगी और बेडौल आकृतियां नजर आतीं. उन दिनों बिजली की गड़गड़ाहट से अधिक खौफनाक और डरावनी आवाजें उसे मर्दो की लगती थीं. खौफनाक मर्द जो उसके जिस्म को एकदम निचोड़कर फक़ और सूखा कर डालते. और एक दिन अलस्सुबह जब सामने की पहाड़ की जुंट पर सूरज का मटेला धब्बा बादलों की चपेट में फंसा हुआ था, तब रफल्ला ने जाना कि ऐसी हालत में औरत के लिए अपने जिस्म का टट्टी-पेशाब उतार पाना भी कितना पीड़ादायक काम है.
रफल्ला की लचीली काठी ने अब सरकते दिन और महीनों के साथ अपने को कई गाँवों में खिसकते देखा. क्बीली, नगरास, जलेथा और मषाणगांव धीरे-धीरे हजम होती हुई आखिर में वह सिमखेत पहुंची. इस गाँव के नीचे, जिसकी बगल से एक छोटी नदी बहती है, बादियों के मकानों में फजीतू ने उसे अपने साथ रख लिया था. फजीतू, जिसकी उदास और काली आँखों में चमक जैसी कोई चीज नहीं थी, लेकिन जिसने रफल्ला के बदन को थन की तरह सहलाया था.
(Mohan Thapliyal Story Raflla)
बार-बार हँसने और रो पड़ने की हालत में फफकती हुई पूरी रात रफल्ला फजीतू के बदन पर आटे की तरह चिपकी रही. वर्षों बाद आज उसके बदन के रोंयें डंक की तरह नहीं झरझराये थे और उसे लग रहा था, इतने दिनों तक लगातार मनहूस की तरह पीछा करती हुई आलमबार्ज मर्दो की वह हवश और उनके भीमकाय अंगों की गिरफ्त से दूर उसकी सुबह आज हाँफने वाली औरत की सुबह नहीं है. नींद खुलने पर नदी के ठंडे पानी में कुल्ला-पिचकारी और जिस्म धोने के बाद उसने वह घाघरा भी खूब पछीर कर धोया था, जिस पर अनगिनत भुतैले निशानों की पपड़ियां जम गई थीं.
नदी से लौटकर रफल्ला ने दिन के उजाले में कोठरी पर नजर डाली. फजीतू उस वक्त चुपचाप चूल्हे के पास बैठा हुआ ढोलक पर नये चमड़े की पूड़ कस रहा था. रफल्ला अनाज की गंध के लिए ललक रही थी. लेकिन कोठरी में पुराने टोकरों, ढोलकियों और दीवार की कीलों पर उलझी हुई पूड़ कसने की डोरियों के सिवाय कुछ भी नजर नहीं आ रहा था. फर्श पर पड़े हुए एक टोकरे की तली में कुछ बीज बाँस की बुनाई के बीच फंसे रह गए थे, जिन्हें देखकर रफल्ला की इच्छा उन्हें ठूंगकर खा जाने की हुई खाने की इच्छा में वह घर में फैली-बिखरी चीजों को शिकार की तरह टोह ही रही थी कि अचानक फजीतू की उजाड़ आँखों में समुद्र भर आया. उस वक्त गूंगी हालत में फफकते हुए एक-दूसरे के लिए वे महज धुंधले निशान-भर रह गये थे. औरत के बगैर घर किस तरह खाली हो जाता है, इस हकीकत का अहसास उसे फजीतू की पकी आँखों और गालों के अंदर धंसते हुए उस चमड़े को देखकर हो गया था, जो सुरंग बनने की शुरूआत में अंदर की ओर गुम होने लगा था.
दोपहर होते ही गाँव के कई आँगनों में फजीतू और रफल्ला ने गीतों के झुमके लगा दिए. सबसे ज्यादा फरमाइश उस गीत की हुई थी, जिसमें सतपुली की बाढ़ में बाईस मोटरों के बह जाने का जिक्र था
संवत द्वी हजार आठ, भादौ का मास!
सतुपली मोटर, बौगेन खास!!
फजीतू पूरी ताकत से ढोलक को पीटता हुआ गीत के बोलों की अंतरा समान तक चढ़ाने की कोशिश के साथ-साथ रफल्ला के बदन को अपनी पास ऐसी मुर्की देता कि वह फौरन शमार खायी तकली की तरह तेजी से भीड़ के बीच चक्कर काटने लगती. कभी गीत छोड़कर फजीतू सीधी बोलचाल में आ जाता-
घनघोर घटाटोप की रात थी महाराज वह. कैसी बारिश हुई होगी महाराज वह कि बीच नदी में पहाड़ उतर कर चलने लगा था. महाराज! किसी की जेब में पैसे थे, किसी की जेब में मंगनी की तारीख और किसी की जेब में बीबी का उलाहना.
(Mohan Thapliyal Story Raflla)
गीत-पर-गीत टूटते-जुड़ते रहे. बीच-बीच में खास मौकों पर अधेड़ ठाकुर को रस में लाने के लिए रफल्ला की घाघरा उठाने और आँख मारने की चाल-बाजियां भी चलती रहीं. शाम होने पर जब धूप गाँव के पीछे फन उठाये पहाड़ की पीठ सेंक रही थी, तब गाँव के ठंडे पत्थरों के चौक पर जमा हुई भीड़ सिर्फ रफल्ला के नाच की गर्मी से अपने बदन को गर्मा रही थी. कुछ मनचले छोकरे, जो पट्टेदार पायजामों और घटिया क्रीम की गंध लेकर शहरों से छुट्टियां बिताने गाँव आये हुए थे और जिन्होंने काफी छीछालेदर के बाद रफल्ला से मन डोले- मेरा तन डोले’ वाला फिल्म गीत गाये जाने को राजी करवा लिया था.
रफल्ला के बदन की थिरकन के साथ-साथ कठपुतलों की तरह हिलने लगे थे. रफल्ला ऐसे तमाम मनचले छोकरों और अधेड़ रंडुओं की कामुक इच्छाओं को समझती हुई कभी-कभी बदत्तमीज इशारों से उन्हें जरूर पुचकारती हुई चलती, लेकिन नाते-रिश्तों की भीड़ में खुल्लम-खुल्ला इतने नंगे और पैने इशारों को बर्दाश्त न कर पाने पर उन्हें तत्काल यह अहसास हो जाता कि उनकी बेचैन इच्छाओं की कब्र के अलावा वहाँ रफल्ला की छाती पर और कुछ नहीं उठा हुआ है.
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–मोहन थपियाल
मोहन थपियाल उत्तराखंड के वरिष्ठ लेखक हैं. उनका जन्म टिहरी में 14 अक्टूबर 1942 को हुआ था. 1983 में उनका पहला कहानी संग्रह सालोमन ग्रुंडे और अन्य कहानियां प्रकाशित हुआ था. मोहन थपियाल द्वारा गयी रफल्ला कहानी समय साक्ष्य द्वारा प्रकाशित मोहन थपियाल की सम्पूर्ण कहानियां किताब से साभार ली गयी है.
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