प्राचीन यूनान में डायजनिस नाम का एक दास था. वह अपनी दासता से मुक्त होना चाहता था. मुक्त होने के लिए एक दिन वह राजा के सिपाहियों को चकमा दे जंगल की ओर भाग निकला. सिपाहियों को जब इसका पता चला, तो वे भी उसे खोजने जंगल की ओर गए. जंगल में कई दिनों तक भटकने के बाद एक दिन जब डायजनिस थका-मांदा एक पेड़ के नीचे आराम कर रहा था, उसे किसी के कराहने की आवाज सुनाई पड़ी. उसने देखा कि वहीं पास में एक बहुत बड़ा शेर अपने जख्मी पैर को चाटते हुए कराह रहा था.
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पहले तो शेर को देखकर डायजनिस घबराया, लेकिन उसने गौर किया कि शेर बहुत तकलीफ में था. उसने देखा कि शेर के पंजे में एक बड़ा कांटा धंसा हुआ था. बहुत हिम्मत करते हुए उसने शेर के पास जाकर वह कांटा निकाल दिया. डायजनिस कुछ महीनों तक और जंगल में भटकता रहा, परंतु दुर्भाग्य से आखिरकार राजा के सिपाहियों ने उसे पकड़ ही लिया. उसे बेड़ियों में बांधकर कालकोठरी में डाल दिया गया. कुछ दिनों बाद बगावती गुलामों की सुनवाई हुई और राजा ने उसे मौत की सजा मुकर्रर कर दी.
उन दिनों मौत की सजा के रूप में गुलामों को भूखे शेर के पिंजरे में डाल दिया जाता था. डायजनिस को भी चार दिनों से भूखे रखे गए शेर के पिंजड़े में डाल दिया गया. इस तमाशे को देखने के लिए जनता को भी बुलाया गया था. लोग दम साध कर देख रहे थे कि अब देखते ही देखते शेर डायजनिस को खा जाएगा. पिंजरे में डायजनिस के गिरते ही भूखा शेर उसकी ओर लपका. पर यह क्या? अचानक उसने अपना सिर डायोजनिस के चरणों में झुका लिया और प्यार से उसके पैर चाटने लगा. राजा के सिपाहियों ने ढोल-नगाड़े बजाए कि वह गुस्से में आकर डायजनिस को खा जाए, पर शेर डायजनिस के चरणों में लेटा रहा. सिपाहियों को भला कैसे मालूम होता कि शेर और डायजनिस के बीच यह कैसा संबंध है! दरअसल शेर डायजनिस को पहचान गया था कि उसी ने कभी उसके पैर से कांटा निकालकर उसे दर्द से छुटकारा दिलाया था. अब वह उसके अहसान का जवाब दे रहा था.
यह कहानी हमें यह सीख देती है कि जीवन में हमेशा विपत्ति में पड़े किसी भी मानव या प्राणी की मदद करने को तत्पर रहना चाहिए. हमारा हर किसी के प्रति दया से भरा बर्ताव होना चाहिए. हमारा मन करुणा से भरा हुआ होना चाहिए. यह कहानी यह भी बताती है कि जीवन में कब-कौन हमारी किस तरीके से मदद करेगा, हमारा तारणहार बनेगा, इसके बारे में हम कुछ तय नहीं कर सकते. मैंने अपने सैनिक जीवन के दौरान ऐसे बहुत से किस्से सुने, जिनसे मालूम चला कि कोई अफसर अपने जवानों के साथ जैसा बर्ताव करता है, वैसा ही व्यवहार उसके जवान करते हैं. अगर कोई अफसर अपने सैनिकों को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाता है, तो उस अफसर के मोर्चे पर या किसी अन्य मुसीबत में फंसे होने पर जवानों का उसके प्रति वैसा ही बर्ताव होता है. ऐसे भी जवान हुए हैं, जिन्होंने अपने अफसरों की ओर आती गोलियों को अपने सीने पर लिया और शहीद हो गए.
दूसरी ओर ऐसी भी घटनाएं सामने आई हैं कि जवानों ने मुसीबत में फंसे अपने अफसर को अकेला छोड़ दिया. तो सवाल सिर्फ अफसरों और जवानों का नहीं, हमें हर व्यक्ति के प्रति अपने बर्ताव को लेकर सचेत रहना ही चाहिए. हमेशा यह याद रखना चाहिए कि किसी व्यक्ति को पद और प्रतिष्ठा से नहीं आंका जा सकता. गरीब और कमजोर आदमी के प्रति अपने बर्ताव में हमें ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है, क्योंकि हमारा अहं उनके प्रति हमारी सोच को दूषित कर सकता है. रहीम दास का दोहा है – रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि. जहां काम आवै सुई, काहि करे तलवारि.
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इसीलिए हम किसी का अपने काम आने के नजरिए से आंकलन न करें, बल्कि यह सोचें कि सभी प्राणियों में एक जैसी ही आत्मा का तो वास होता है. हरेक के प्रति हमारा बर्ताव दया और करुणा से संचालित होना चाहिए. जीवन में हर चीज एक-दूसरे से जुड़ी हुई होती है. हमारा हर कर्म एक ऊर्जा के रूप में ब्रह्मांड में संचित हो जाता है और वह कभी बर्बाद नहीं होता. वह अपने परिमाण के बराबर अंतर जरूर लाता है. आइंस्टीन बता ही गए हैं कि ऊर्जा अपना रूप बदलती है, वह कभी नष्ट नहीं होती. हमारा हर कर्म अपने में ऊर्जा ही है. वह अगर सकारात्मक होगा, तो हमें उसके सकारात्मक परिणाम ही मिलेंगे. कर्म का बीज जैसा होगा, वैसा ही फल मिलेगा. दूसरे प्राणी तो निमित्त मात्र होते हैं. इसीलिए कभी यह न देखें कि आपके सामने आया व्यक्ति छोटा है या बड़ा. वह अगर मुसीबत में है, तो उसकी मदद जरूर करें.
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-सुंदर चंद ठाकुर
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.
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