क्या यह संभव है कि कोई इंसान बिना परेशान हुए अपना पूरा जीवन गुजार ले? वह चाहे कोई भी हो. गरीब या अमीर. कोई भी. कुछ लोग समझते हैं कि अगर कोई अमीर है, तो उसे परेशान होने की क्या जरूरत. परेशान तो गरीबों को ही होना पड़ता है. उन्हें राशन की लाइन में लगना पड़ता है, भीड़ भरी सब्जी मार्केट से सौदा करके सब्जियां लानी पड़ती हैं. बच्चों को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए रात-रात भर लाइन में खड़े रहना पड़ता है कि सुबह उन्हें एडमिशन फॉर्म मिल जाए. हजार-हजार रास्तों से परेशानियां उनकी ओर मुंह उठाए चली आती हैं. गरीबों की परेशानियों का सबब बनने वाली चीजों की एक लंबी फेहरिस्त है. लेकिन लोगों की ऐसी समझ गलत है. जितनी लंबी लिस्ट गरीबों की परेशानियों की बनी है, अमीरों की उससे थोडी और लंबी ही बनेगी. मनोवैज्ञानिक रूप से सबसे पहले तो अमीरों को जब-तब यही डर सताता रहता है कि उनका पैसा और रुतबा हाथ से निकल न जाए. उन्हें हर पल अपनी दौलत को महफूज रखने की चिंता सताती है.
(Mind Fit 48 Column)
कुछ अमीरों को अगर ऐसी चिंता नहीं होती, तो उन्हें दौलत को बढ़ाने की फिक्र रहती है. जो अडानी हैं, वे अंबानियों से आगे निकलना चाहते हैं. जो अंबानी हैं, वे अडानियों को पास नहीं फटकने देना चाहते. अमीरों की दूसरी चिंता पैसा खर्च करने की होती है कि कहां खर्च करें. वे ज्यादा पैसा खर्च करने के बहाने ढूंढते रहते हैं. आप अगर अमीर नहीं, तो उनकी ‘पैसे कहां खर्च करें’ वाली मानसिकता को नहीं समझ पाएंगे. वे चांद पर घर बनाने के लिए प्लॉट खरीदकर बैठे हुए हैं कि चलो कहीं तो ठीक-ठाक पैसा खर्च हुआ. पर अब जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे चिंता भी बढ़ रही है, क्योंकि अभी तक एलन मस्क चांद पर जाने-लाने वाली शटल सर्विस शुरू नहीं कर पाया है. सुपर अमीरों की यह भी चिंता होती है कि समाज में ईमानदारी के संस्कार ज्यादा पुष्पित-पल्लवित न हों. शहर में ईमानदार पुलिस कमिश्नर के आने पर उनकी आधी जान सूख जाती है. बात अगर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री की होती है, तो ये सुपर अमीर जेब से भर-भरकर पैसा खर्च करते हैं कि कोई ईमानदार व्यक्ति न चुन लिया जाए. ईमानदारी के प्रकाश में उनका काला धन छिप नहीं सकता. सचिन वझे जैसे बेईमान पुलिस अफसर इसीलिए पनपते हैं.
मुद्दा अमीर या गरीब होना नहीं, मुद्दा यह है कि क्या हम निरंतर ऐसी मन:स्थिति में बने रह सकते हैं, जहां मानसिक रूप से कुछ भी हमें परेशान नहीं कर पाए. असल में हमें परेशान रहने की आदत पड़ चुकी है. लत लग चुकी है. इसलिए जब भी हम परेशान नहीं होते, तो हमारा मन खराब होने लगता है. हम परेशान होने के बहाने ढूंढने लगते हैं. कुछ भी सोचकर परेशान हो जाते हैं. कुछ न मिला, तो हम यही सोच लेते हैं कि सुबह हम आधा घंटा पहले उठेंगे. ऐसा हम सचमुच उठने के लिए नहीं सोचते. सिर्फ परेशान होने के लिए सोचते हैं, क्योंकि ज्यादातर हम सोचने के बाद भी नहीं उठते.
अगर हम मुआयना करें, तो जिन बातों के बारे में सोचकर हम परेशान होते हैं, उनमें कोई दम नहीं होता. ऐसा नहीं होता कि कोई तलवार से हम पर हमला कर रहा हो और हमें उससे निहत्थे मुकाबला करना हो. लेकिन आदत ऐसी पड़ी है कि जरूरी काम के लिए भी हम परेशान होते हैं. बच्चे की दसवीं की बोर्ड परीक्षा है, बस इसलिए हम परेशान हो जाते हैं. अगले दिन बैंक में कोई जरूरी काम कराने जाना है, तो पिछली रात से ही परेशान होने लगते हैं, क्योंकि हमारी रोज की दिनचर्या टूट रही होती है.
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एक बैंक दीवालिया घोषित हो गया. आप ऐसी खबर पढ़कर परेशान हो जाते हैं, क्योंकि आप तुरंत फोकस अपने बैंक पर ले आते हैं कि कहीं वह भी दीवालिया न हो जाए. आपकी तो जीवन भर की कमाई वहां जमा है. डूब गई, तो क्या होगा. फिर आपकी कल्पना इस सोच की गाड़ी को न जाने कैसे-कैसे डरावने रास्तों से ले जाती है. सच यही है कि हमें परेशान करने वाली सौ फीसद बातें मनोवैज्ञानिक स्तर पर ही घट रही होती हैं. वस्तुत: तो हम हर पल सांस लेते हुए जी रहे होते हैं.
नियम यह बना लें कि जिन बातों को लेकर आप कुछ नहीं कर सकते, उनके बारे में सोचकर परेशान न हों. मौसम खराब है, तो खराब है. आप क्या कर सकते हो. और जिन बातों को लेकर आप कुछ कर सकते हो, तो बेहतर है कि उनके लिए कुछ करो. परेशान तब भी न हो. यकीन कीजिए कि अगर आपने इस नियम का पालन किया, तो परेशान होने की वजहें खुद ब खुद खत्म हो जाएंगी.
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-सुंदर चंद ठाकुर
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कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे. सुन्दर ने कोई साल भर तक काफल ट्री के लिए अपने बचपन के एक्सक्लूसिव संस्मरण लिखे थे जिन्हें पाठकों की बहुत सराहना मिली थी.
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