समाज

गोठ में पहाड़ी रजस्वला महिलाओं के पांच दिन

कुछ सालों पहले उत्तराखण्ड के गाँवों में कोई नई दुल्हन जब ससुराल में प्रवेश करती थी – उसकी पहली माहवारी, जिसे लोक भाषा में धिंगाड़ होना, छूत होना, अलग होना, दिन होना या मासिक आदि नामों से जाना जाता है, के लिए एक अलग ही माहौल तैयार किया जाता था. (Menstrual Days of Hill Women)

माहवारी के पहले दिन से ही उसे पता चल जाता था कि अब जब भी उसे माहवारी आती रहेगी, उसको माहवारी के नियमों को ओढ़ना होगा और खुद को उसमें रचना, बसाना होगा. अपने दर्द और स्त्री सम्मान को भूलकर उसे अपनी सदियों से चली आ रही परंपराएं जीवित रखनी होंगी. शायद इन्हीं परंपराओं के कारण उस स्त्री को कभी अपने दर्द और सम्मान का अहसास भी नहीं हुआ या उसको उस समय इन नियमों के विरूद्ध जाने की हिम्मत नहीं हुई होगी.

समय उपरांत, इनका पालन वह खुद से ही करने लगी थी जैसे यह समाज की नहीं, उसकी अपनी ही जरूरत थी. वह जैसे खुद पालन करती जाती, आने वाली पीढ़ी से भी उम्मीद करती कि वे सब भी इसका पालन करें. आज भी कुछ स्थानों पर ये मान्यताएं वैसे ही प्रचलन में हैं जैसे तब थीं.

गावों में इन प्रथाओं को खूब अच्छे से मानने वाली, वही बहू जब शहर गई तो काफी कुछ बदल गया, लेकिन फिर उसके बाद जब भी वह गांव में आती तो माहवारी के प्रचलित नियमों का पालन करने का ढोंग भी करती, ताकि बड़े बुजुर्गो को यह सोचकर संतुष्टि मिलती रहे कि सब कुछ नियमों के अनुसार ही हो रहा है. हालांकि वे भी समझने लगे थे कि अब कुछ तो है जो अधिक समय निभाया नहीं जाएगा.

इन नियमों के तहत महिला को माहवारी के लगभग चार से पांच दिन तक अपना लोटा, गिलास, तश्तरी और ओढ़न-बिछौना अलग रखना होता था. माहवारी के दौरान इस्तेमाल किए कपड़े को धोने के बाद वह उसी गोठ के पीछे किसी कपड़े के नीचे अपने इस्तेमाल किए हुए कपड़ों और अंगवस्त्रों को छुपा कर सुखाती थी, ताकि किसी की नजर न पड़े, फिर चाहे वहां सूरज की रोशनी पहुंचे या ना पहुंचे. सीमित मात्रा में सूती कपड़ा होने के कारण अधिकतर अधसुखा कपड़ा भी इस्तेमाल हो जाता था. कभी गलती से तार में सूखता कपड़ा किसी को दिखाई दे जाए तो उसे निर्लज्ज स्त्री होने के ताने सुनने को मिलते थे. यही ताने घर में किसी धार्मिक कार्य अवसर पर माहवारी आ जाने पर भी मिलते थे और स्त्री बहुत ग्लानि महसूस करती थी.

माहवारी से निवृत होते ही उस महिला को इस दौरान इस्तेमाल किए गए कपड़े, बिछौना आदि धोकर, उस स्थान को लीपने के बाद पूरा घर भी मिट्टी, गोबर से लीपना होता था. फिर गौ मूत्र छिड़क कर और स्वयं गौ मूत्र चखकर घर में प्रवेश करना होता था, तभी उसका प्रवेश शुद्ध माना जाता था.

विडम्बना यह थी कि जिन दिनों महिला को पोषक आहार की बहुत जरूरत होती और मन भी करता कि कुछ गरम-गरम और चरपरा सा खाने को मिले उन्हीं दिनों में उससे कहा जाता था कि माहवारी के चार से पांच दिन तक उसको बिल्कुल सादा तथा और दिनों की अपेक्षा थोड़ा कम मात्रा में भोजन मिलेगा. वह भोजन उसे सबसे अलग बैठकर उसी स्थान पर करना होता जहां उसे लगभग चार से पांच दिन रहना है. अधिकतर वह स्थान तब जानवरों के रहने का स्थान यानी कि गोठ होता था. वहां ओढ़ने-बिछाने के लिए ज्यादा बिस्तर नहीं मिलता था. उन चार से पांच दिनों तक घर के अंदर प्रवेश वर्जित रहता, क्योंकि घर में देवी देवताओं को किसी भी प्रकार से छू कर छुत्याना (छूत फैलाना) नहीं होता है. माना जाता कि इससे सारे घर में अघोर हो जाएगा. घर के किसी सदस्य को भी छूना नहीं है, अगर गलती से छू लिया तो उसको किसी सदस्य द्वारा गो मूत्र छिड़क कर ही अंदर आने दिया जाता. माना तो यह भी जाता है कि यदि इस तरह से घर का कोई भी सदस्य उस महिला को छू लेता है तो सारे घर में अघोर फैल जाएगा. जिससे घर के सदस्य के शरीर में अवतरित होने वाले देवी-देवता नाराज हो जाएंगे या कुछ विघ्न हो जाएगा. इससे घर के कुछ लोग, खासकर बुजुर्ग, बीमार भी हो सकते हैं. इस मान्यता के प्रति अंधविश्वास इतना अधिक होता कि वास्तव में लोग बीमार होने लगते. शायद तीव्र मनोवैज्ञानिक प्रभाव के कारण ऐसा होता है. (Menstrual Days of Hill Women)

माहवारी के दौरान अलग बैठने और सोने का ये मतलब भी नहीं होता है कि महिला को काम से छुट्टी मिल गई है. ऐसा बिल्कुल नहीं है क्योंकि उसको अन्दर के काम नहीं करने होते हैं तो घर में उसकी उतनी जरूरत भी नहीं होती है. लेकिन उस दौरान वह जंगल में घास-पात, लकड़ी-पतड़ी लाना, जानवरों को नहलाना-धुलाना आदि सभी बाहरी काम किया करती है. घर की कोई बड़ी महिला पुराने बक्से से या कभी किसी ओने-कोने से तलाश कर कुछ मैले, पुराने कपड़े के टुकड़े उसकी ओर उछाल जाती ताकि अगर वह चाहे तो माहवारी में उन कपड़े के टुकड़ों का इस्तेमाल कर ले. उत्तराखंड में रजस्वला स्त्रियों का गोठ-प्रवास

चूंकि स्त्री चार से पांच दिन गोठ के एक कोने में ही रहती थी और दूसरी ओर घरेलू जानवर भी होते थे तब यदि बिछाने को मोटी गुदड़ी नहीं है तो नीचे गरम रखने के लिए पराली का उपयोग कर सकती थी. ताकि खाली खौड़ (खाली जमीन) में न सोना पड़े. वह धान की पराली बिछा कर वह उसके ऊपर अपनी चादर, गुदड़ी या बोरे के टुकड़े बिछा लिया करती. कमरे में उजाला करने के लिए एक लालटेन या मिट्टी तेल (घासलेट) का दिया जला लेती थी. यदि सांप, बिच्छू सोते हुए काट जाए और महिला मर जाए तो ज्यादा खोजबीन न करके यह भी मान लिया जाता था कि जरूर किसी अघोर के कारण ही ऐसा हुआ होगा. किसी बहू को यदि अधिक सुरक्षा की चाहना होती थी तो उसे समझाया जाता था कि पहाड़ों में हर घर के गोठ और पाखों में गौल (मोनिटर लिजर्ड) रहता है, जो पहरू का काम करता है. गौल के कारण कोई सांप-कीड़ा घर में जल्दी से प्रवेश नहीं कर सकता है. गौल छिपकली प्रजाति का बड़ा जानवर है. जहरीला होने के कारण इसे खतरनाक माना जाता है किन्तु यह बहुत शर्मीला होता है तथा इंसान से एक निश्चित दूरी बनाकर उसके आसपास ही रहता है .इसलिए गौल की उपस्थिति सुरक्षात्मक रूप से सही मानी जाती थी. बार बार गौल से सामना होते रहने से महिलाओं को आदत भी बनने लगती थी. नई नवेली दुल्हन को गौल से ही डर लगता हो तो लगता रहे, उसके लिए कोई और उपाय संभव न थे क्योंकि माहवारी में अलग सोने, रहने वाली, वह कोई अकेली औरत नहीं है. (Menstrual Days of Hill Women)

कुछ ऐसी ही होती थी तब नई दुल्हन की पहली माहवारी ससुराल में. फिर धीरे-धीरे वह इन सभी रीति रिवाजों में ढलती गईं. इन सब कारणों से न जाने कितनी महिलाएं जाने-अनजाने ही अंदुरूनी संक्रमण का शिकार होती चली जाती, जिस कारण वे समय से पहले जीवन से अलविदा कह जाती थी. उनके बीमार पड़ने पर बहाना होता था कि कुछ ऊपरी लग गया होगा. इसके निवारण के लिए झाड़-फूंक होती थी लेकिन उसका संक्रमण बढ़ता जाता. शर्म और डर से वह किसी को बता भी नहीं पाती और दुनिया छोड़ देती. लोग दुनिया जहान के टोटके करते रहते पर तब वे इसका कारण मासिक अस्वच्छता होना नहीं मानते थे. वे स्त्री को सम्मान नहीं दे पाए और न ही उनको तब समझ में आया कि मासिक के दौरान साफ-सफाई जीवन में कितनी जरूरी है. (Menstrual Days of Hill Women)

एक सर्वे के दौरान एक महिला मुझसे पूछती है कि तुम कह रही हो कि माहवारी में अलग बैठना जरूरी नहीं है तो बताओ आखिर लोग इतने समय तक अलग क्यों बैठते रहे? यह तो सदियों से होता रहा है. मैं तब बस उसको इतना ही कह पाई कि यह तो मैं भी नहीं जानती कि क्यों बैठते रहे किन्तु इतना जरूर समझ सकती हूं कि एक जमाने में जब पहनने को वस्त्र ही नहीं होते थे और अधिकतर लोग आदिवासी जीवन जीते थे तब शायद उसके बहते रक्त के कारण अन्य लोगों से उसको दूर रखा गया होगा. ताकि जो भी रक्त बहे वह सब जगह न फैले और उस दौरान वह किसी एक स्थान का प्रयोग कर सके. किंतु आज समय उपरांत जब सारी सुविधाएं हैं तो भी उन्हीं बातों को लेकर चलना बहुत बड़ी मूर्खता होगी.

धीरे धीरे शिक्षा के साथ महिलाओं को अहसास होने लगा कि कुछ तो ऐसा है जो अनुचित है. वैसे मान्यताओं को मानना उतना बुरा भी नहीं है, यदि इससे किसी को कोई व्यक्तिगत हानि अथवा नुकसान न हो रहा हो और समाज में कोई गलत संदेश न जा रहा हो. जैसे कोई इस दौरान मंदिर नहीं जाना चाहता है तो ठीक है वह व्यक्तिगत है किन्तु उससे किसी को कोई परेशानी नहीं है यदि यह उसका स्वैच्छिक निर्णय है.

एक और बात उन दिनों में मासिक धर्म के इन नियमों का एक फायदा यह जरूर था कि अधिकतर पुरुष खाना बनाना सीख गए और माहवारी के दौरान घर में स्त्री के रसोई में वर्जित होने पर खाना भी स्वयं ही बनाते थे. किन्तु दूसरों से अलग कर भेदभाव करना और अलग होने का अहसास दिलाना स्त्री होने के गौरव को कमतर आंकने जैसा है जो स्त्री के स्त्रीत्व पर प्रहार भी है.

तब की बच्चियां और किशोरियां अपने घर में ऐसा ही माहौल देखकर बड़ी होती थी अतः वे इसे गलत कहें या समझें ये अहसास उतना नहीं होता होगा शायद सिवाय एक भेदभाव को महसूस करने के जिसको वह परम्परा समझ सर झुका कर मानती रही होंगी जिसका कालांतर में दबी आवाज में विरोध के रूप में उस परम्परा को बदलता चला गया.

कुछ बहुत बुजुर्ग आमाओं से बात करने से पर पता चला कि शुरूआत में महिलाओं को अंदुरूनी वस्त्र पहनने की भी आदत नहीं थी और कई तो कपड़ा भी नहीं लगाती थी, क्योंकि आदत नहीं होने से कुछ भी पहनने से परेशानी होती थी और सहज भी नहीं लगता था. लेकिन उनके पास नौ पाट की गहरे रंग का घाघरा ही पहनने के लिए होता था जिसको पूरे मासिक के पांच दिनों में बदला नहीं जाता था और ना ही नहाया जाएगा इस दौरान. किन्तु मासिक के अगले दिन छुती गधेरे (कुछ गावों में पानी का एक ऐसा उपेक्षित स्रोत, जहां मासिक धर्म में औरतें अपने वस्त्र, बिस्तर आदि धो सकती थी वहां का पानी पीने योग्य नहीं माना जाता था अतः जानवरों को नहलाने धुलाने या पानी पिलाने के काम लिया जाता था) जाकर उसको सब कपड़े गुदड़ी आदि धोने होते थे, तब खुद भी नहाना होता था, वह भी मान लेती थी कि अब वह पवित्र हो गई है.

आज मासिक धर्म की शिक्षा तथा जानकारी केवल महिलाओं के लिए जरूरी नहीं है अपितु यह मुद्दा समाज का मुद्दा है. वर्तमान में समाज के नजरिए में बहुत बदलाव आया है तथा स्त्री पुरुष दोनों ही अपनी पुरानी सोच और मिथकों से बाहर निकल कर मासिक धर्म विषय तथा महिला स्वास्थ्य के लिए समावेसित सोच के साथ आगे बढ़ रहे हैं.

वातावरणीय स्वच्छता के साथ शारीरिक स्वच्छता भी बहुत महत्वपूर्ण है उसमें मासिक धर्म की स्वच्छता के लिए मितव्ययता के साथ सुरक्षित एवम् सम्मानजनक सोच के साथ आगे आने की भी जरूरत है. मुझे लगता है कि पहली बार मासिक धर्म की शुरूवात होने पर, किशोरी के लिए यह दिन एक उत्सव या त्यौहार की तरह मनाया जाना चाहिए ताकि उसे एहसास हो सके कि अब वह परिपक्व हो गई है और यह दिन एक पवित्र अहसास की तरह ही लिया जाना चाहिए तथा पोषक आहार एवम् पकवानों के साथ नाच गाकर दिन की शुरूवात हो जिसमें घर के सभी लोग एवम् पुरुष भी शामिल हो. ताकि बेटी को कभी इन सब बातों के लिए पिता, भाई या अन्य घर के पुरषों के सामने शर्मिंदा ना होना पड़े और सभी लोग इसे सहज भाव में ले सकें. कितना अच्छा होता कि पहली माहवारी के आगमन पर भी शगुन आखर लिखे जाते या गाए जाते ढोलक की थाप पर.

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नीलम पांडेय ‘नील’

नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं.

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Sudhir Kumar

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  • असम में जब लड़की की पहली माहवारी आती है तो वो लोग ख़ुशी मनाते है कि उनकी लड़की माँ बनने योग्य है। घर मे दावत करते है गाँव, रिस्तेदारों को आमंत्रित किया जाता है उनके यहाँ एक रश्म भी होती है।

  • बहुत सटीक विवरण और वैज्ञानिक सन्देश देता लेख । बधाई ।।

  • भाई साहब एक सिक्के के दो पहलु होते हैं मानता हूँ महिलाओं का सम्मान होना चाहिए लेकिन दूसरी तरफ हम ये ना भूले कि उत्तराखण्ड देव भूमि है जब स्त्री पीरियड में होती है तो शास्त्रों के अनुसार असुद्ध मानी जाती है अगर आप हमारे पहाड़ के बारे में जानते है तो अगर पीरियड के दौरान महिला घर मे सब के साथ रहती है तो कई अनहोनी घटनायें घट जाती है किसी की संस्कृति का मजाक उड़ाना आसान है लेकिन समझना मुश्किल है केदारनाथ त्रासदी इसका एक जीता जागता उदाहरण है ll

  • आज भी कुछ लोग इन नियमों को मानते हैं क्योंकि वह अपने बड़ों से यही सीखे हैं ,लेकिन साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि पहले के समय में साधनों व सुविधा के आभाव में इस तरह के नियम बनाये गए होंगे, परंतु अब ऐसा नही है, तो सोच को बदलकर प्रकृति के इस नियम को स्वीकारें जिससे महिलाएं व बच्चियां उन कष्टकारी दिनों में सहज रह सकें।

  • बहुत ही बुरा लगता है जब गाव के बच्चे पूछते है और बीमारी में भी ऐसे ही रहना होता है। पता नहीं कब अंध विश्वास टूटेगा।

  • आदरणीया नीलम 'नील'जी आपका उत्कृष्ट आलेख पढ़कर चार दशक पीछे का गाँव आँखों के आगे साकार हो उठा।उस काल की महिलाओं की समस्या को आपने शब्दों से उकेरा।आपने लिखा है कि _"पहली बार मासिक धर्म होने पर किशोरी के लिए यह दिन एक उत्सव या त्योंहार की तरह मनाया जाना चाहिए।"यदि ऐसा होता तो कितना अच्छा होता उन मासूम कलियों के लिए जो कि खिलने की ओर अग्रसर हैं लेकिन इस शारीरिक परिवर्तन से वे अंदर ही अंदर कुम्हला जाती हैं।
    यहां पर तमिलनाडु और उड़ीसा में मनाए जाने वाले इसी प्रकार के उत्सव के बारे में संक्षिप्त विवरण दे रही हूंँ_
    तमिलनाडु में लड़की की प्रथम माहवारी को उत्सव के तौर पर मनाया जाता है जिसे 'मंजल निरातु' विजा नाम से जाना जाता है,इसको मनाने का यह संकेत है कि लड़की अब महिला होने की ओर अग्रसर है। निमंत्रण पत्र से सभी को आमंत्रित किया जाता है।परिवारजन एवं रिश्तेदार सभी इस उत्सव में भाग लेते हैं।लड़की के चाचा नारियल , आम एवं नीम के पत्तों से झोपड़ी बनाते हैं।जिसे कुदिसाई कहते हैं।इस झोपड़ी के अंदर स्वादिष्ट खाने की वस्तुएं रखी जाती हैं।और एक धातु की झाड़ू रखी जाती है जिससे झोपड़ी को झाड़ा जाता है।
    इस उपलक्ष्य पर लड़की को रेशम की साड़ी एवं गहने पहनने को दिए जाते हैं। दुल्हन जैसा सजाया जाता है एवं बहुत सारे उपहार दिए जाते हैं।मंजल निरातु विजा त्योंहार 'पुण्य धनम' से खत्म किया जाता है।९वें_११वें एवं १५वें दिन पर पूजा विधि पूरी की जाती है इसके पश्चात चाचा द्वारा यह झोपड़ी तोड़ दी जाती है। इसके बाद पंडित जी द्वारा छोटी सी पूजा की जाती है।
    इसके इतर उड़ीसा में माहवारी का वार्षिक उत्सव मनाया जाता है ।चार दिन तक चलने वाले इस उत्सव को 'राजपर्व' नाम से जाना जाता है।चार दिन के इस उत्सव के पहले दिन को पहीलि रजो, दूसरे दिन को मिथुन संक्रांति, तीसरे दिन को भूदाहा या बासी रजा और आखिरी चौथे दिन को बासुमति स्नान नाम से जाना जाता है।इस उत्सव की यह खासियत है कि इसमें वहीं महिलाएं भाग लेती हैं जोकि इस दौरान मासिक चक्र के दौर से गुजर रही होती हैं।वैसे अन्य महिलाएं भी भाग लें तो मनाही नहीं होती है।

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