पिछली कड़ी- राजा-पीलू की जोड़ी
शादी के अगले दिन की सुबह हर नयी बहू के लिए कभी न भुलायी जाने वाली सुबह होती है थोड़ी सी घबराहट, झिझक और नये परिवार की परंपराओं, तौर-तरीकों को समझने की कोशिश के साथ-साथ उनके बीच खुद को मिला लेने की इच्छा जैसे दूध में शक्कर.
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
शादी हुई तो अगली सुबह मेरे लिए भी कुछ ऐसी ही थी और मैं हमारे समय के हिसाब से थोड़ा जल्दी ब्याह दी गई थी तो परिपक्वता का नितांत अभाव भी था और इसी वजह से घबराहट की जगह एक डर ने ले ली थी. लेकिन समझ मुझमें ख़ूब थी इसलिए सीखने में मुझे कभी भी किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा.
सुबह उठकर जब नहा-धोकर रसोई में आई तो क्या देखती हूँ कि मेरी सासुमाँ रसोई में पहले से ही मौजूद हैं और गैस चूल्हे के सामने खड़ी नाश्ता बना रही हैं. माँ के पैर छूकर सेवा लगाने के बाद मैंने उनसे डरते-डरते कहा कि माँ मैं बनाती हूँ आप रहने दीजिए न.
सामने से जो उत्तर आया वो शायद ही कभी मुझे विस्मृत हो सके- ए बाबा अभी मैं बणौंणु त खयाला धौं भोळ जब अपणी कुटुमदारी जुड़ली तब याद करल्या गरम र्वोटी कु सवाद. हमुन त कभी पायी नी ज्वानीमा गरम र्वोटी पर चांदौंउ की ब्वार्युंक यु मलाल न रौ
(ए बाबा अभी मैं बना रही हूँ तो खा लो गर्म रोटी, कल जब अपना परिवार बढ़ेगा तब याद करोगे गर्म रोटी का स्वाद हमें तो जवानी में कभी मिली नहीं गर्म रोटी लेकिन मैं चाहती हूँ कि बहुओं को ये मलाल न रहे)
उनकी कही यह बात मेरे मन को छू गई. मेरे विवाह के आठ साल बाद हमें सास-ससुर जी ने सामाजिक परंपरा के अनुसार एकल परिवार बनाने का आदेश दिया, पहले तो मैदानों में भी और कम से कम पहाड़ के जीवन में तो ऐसी कल्पना करना भी एक प्रकार का “टैबू” माना जाएगा कि सास अपनी बहू को रोटी बनाकर खिलाए लेकिन जब तक हम उनके साथ उनके पास रहे, हमेशा माँ ने अपनी बहुओं को गर्मागर्म रोटियां बनाकर खिलायीं. मुझे तो देर से खाने की आदत रही लेकिन मेरी जेठानी को भूख जल्दी लगती थी तो माँ उन्हें सबसे पहले नाश्ता खिलाती थीं. मैं सबके लिए बनाती और माँ हम दोनों देवरानी-जेठानी के लिए. अपने आप वो सबसे अंत में खाती थीं तब उन्हें मैं या मेरी जेठानी नाश्ता खिलाते थे.
जो सास अपनी बहुओं को इतने स्नेह से गर्मागर्म रोटियां खिला रही हैं उनके खुद के जीवन में फूली रोटी से उठती भाप की खुशबू उन्हें या तो अपने मायके में मिली थी या फिर जब वो टिहरी गढ़वाल-डोभ रामपुर के अपने ससुराल के पैतृक गांव से नरेंद्र नगर आ गयीं तब अपनी बेटियों के हाथों बनी रोटियों में मिली. मुझे उनके साथ बैठकर उनकी आपबीती सुनने का अवसर न जाने कितनी ही बार मिला.
शादी हुई तब वो सत्रह साल की थी और ससुर जी अठारह साल के. तब आज के समय की तरह दूल्हा-दुल्हन को ऐसी इजाज़त नहीं थी कि वे एक दूसरे को मिल सकें, देख सकें, बात भी कर सकें. शादी हुई तो विदाई के बाद बारात उनका डोला लेकर चली. दुल्हन घबराहट और बेचैनी में है कि न जाने कैसे लोग होंगे कैसी जगह होगी?
डोला उठाने वाले काफ़ी देर से चलते-चलते थक गए हैं और एक समतल जगह पर आकर थोड़ा सुस्ताने के लिए डोला नीचे रख देते हैं, पानी का धारा पास ही है डोले वाले पानी पीने चले गए हैं और दुल्हन अपने डोले में बैठी है उसका दूल्हा पालकी में बैठा है. संबंध की रेशमी डोर से दोनों जुड़े हुए हैं भले ही एक दूसरे को देखा न हो फिर भी मन समर्पित है. अचानक टिहरी गर्ल्स इंटर कॉलेज की छुट्टी होती है तो लड़कियां डोला देखकर भागी-भागी दुल्हन देखने आती हैं. तब किसी-किसी के पास घड़ी होती थी समय देखने के लिए. लगभग दोपहर का समय है.
लड़कियां आते ही डोले की चादर हटाकर दुल्हन को देखने की कोशिश करती हैं, दुल्हन स्वभाविक रूप से थोड़ा झिझक रही है कि इन पढ़ी-लिखी लड़कियों में से कुछ को गुस्सा आ जाता है कि इतने नखरे दिखा रही है ये दुल्हन? अचानक बिना किसी अंदाज़े के दुल्हन के सिर पर दो-चार मारते हुए लड़कियों की सेनापति कहती है- हैं… इतने नखरे कर रही है, जैसे तुझे खा जाएंगे हम?
थोड़ी दूर बैठा दूल्हा देख रहा है कि उसकी दुल्हन के साथ लड़कियां कैसी बदतमीजी कर रही हैं. मन में एक चिंता अपनी दुल्हन के लिए हुई और दूल्हा अपने पालकी वाले लोगों से बोला- अरे बचाओ, उसे मार पड़ रही है.
दूल्हे का यह एक वाक्य दुल्हन के लिए संजीवनी जैसा रहा जीवन भर. शादी के बाद दूल्हा अपनी दुल्हन को देखता उससे पहले ही माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हुए वापस नरेंद्र नगर लौट आया और पूरे तीन साल बाद घर आया. यहां दुल्हन अगली सुबह चार बजे के आसपास जब उठी तो देखा सास उठी हुई है और भैंस को बाहर निकाला जा चुका है, वो नयी बहू कुछ समझ पाती उससे पहले ही उसका स्वागत गालियों से सास ने किया और आदेश दिया कि पड़ोसियों के सेरों में साठी की मंड्वार (धान को झाड़ने की प्रक्रिया) है और उसे तुरंत जाकर वहां मंड्वारती करनी होगी वरना उनके साथ कोई नहीं आएगा मदद करने.
आज के समय की बात होती तो क्या मजाल थी कि नयी बहू को छोड़कर दूल्हा माँ-पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए चला जाए और उसके पीछे दूसरे ही दिन बहू को ऐसे खेतों में काम करने भेज दें ससुराल वाले. अरे कम से कम महीने भर तक तो नयी बहू की अपनी ही ठसक होती है. सजना-सँवरना, सब रिश्तेदारों के घर खाने पर जाना, पड़ोसियों और दोस्तों से मिलना, दुल्हन को ससुराल में कम्फर्ट देना ससुराल वालों की पहली प्राथमिकता होती है. लेकिन यहाँ ब्वारी ने घर भी ठीक से नहीं देखा था कि पड़ोसियों के सेरों में साठी की मंड्वार करने भेज दी गई. गर्मागर्म रोटी तो दूर एक प्याली चाय भी नसीब नहीं हुई ब्वारी को… नथुली, बुलाक, तिमंणीया, मुर्खले (पहाड़ी जेवर) सब सासू ने अपने पास रख लिए और ब्वारी को एक फुल्ली (नाक की लौंग) और कानों के सूत के साथ सेरों में भेज दिया.
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
ससुराल में सास-ससुर के साथ छोटा पांच साल का देवर है जिसकी देखभाल तो अपने बच्चे की तरह ही करनी है बहू को लेकिन जिसे बहू को नाम लेकर नहीं पुकारना है बल्कि द्यूरजी कहना है. एक छोटी ननद लगभग आठ साल की है जो सास की बड़ी लाडली है. दिन भर मंड्वारती के बाद थकी हारी बहू घर लौटी तो सास ने बाजरे की रोटी का चौथाई हिस्सा और कड़ाही में पोछने के लिए साग रखा है.
जो लड़की गेहूं की नर्म रोटी खाकर बड़ी हुई है वो बाजरे की मोटी, ठंडी और सख्त रोटी का चौथाई हिस्सा कैसे खाती? पर भूख ने उसे विवश कर दिया. उसने जैसे-तैसे ये टुकड़ा रोटी खायी पर भला एक चौथाई भाग से भूख मिटती कैसे? क्या घर में इस बाजरे की मोटी रोटी के अलावा कुछ नहीं बना था? नहीं, दोपहर को घर में झंगोरा और फाणू भी बना था लेकिन बहू को वही रोटी का टुकड़ा मिला जो ससुरजी के सामने बना था और जिसके बाद ससुरजी घर से निकल गए थे और शाम को लौटे हैं. लेकिन बहू को ज्यादा लाड़-प्यार देकर बिगाड़ना थोड़े ही है, इसलिए उसे काम पे झोंक के रखना ही उस जमाने की हरेक सास का परम कर्तव्य था. चौक में एक मुर्रा नस्ल की भैंस बंधी है जो खूब दूध देती है उसके साथ उसकी एक “थोर्ड़ी” (भैंस की छोटी बछड़ी या फिर यूँ भी कहते हैं कि कटड़ी) भी है जो भैंस के जितना तो नहीं लेकिन उसके आधे जितना घास खाती है. घास काटने से लेकर, गोबर साफ करने, दूध दुहने और भैंस को घास-पानी देने तक की पूरी अघोषित जिम्मेदारी बहू के हवाले है. इन सब कामों में जरा भी चूक होने का मतलब है कि सैसरी उसके भैजी को चार बातें नमक-मिर्च लगाकर सुना देंगे इसलिए वो बड़ी मुस्तैदी से सब काम करती है. भले ही घर में दूध दही की कमी न हो लेकिन वो ब्वारी को कौन देता था तब के जमाने? जब मलाई मथकर मक्खन बनाना होता तो बहू को केवल “नेतण”(रस्सी जो र्वौड़ी पर बंधी होती थी) पकड़ कर “र्वौड़ी”(लकड़ी का एक डंडा जो परेड़ी में डालकर रस्सी की मदद से खींचा जाता था मक्खन करने के लिए) चलानी है लेकिन नीचे “परेड़ी”(लकड़ी से बना खूब गहरा गोल बर्तन जिसमें मलाई मथकर मक्खन बनाया जाता था) में देखना नहीं है, कि मक्खन लगा कि नहीं?, वर्ना सास नाराज हो जाएगी कि ब्वारी को सास की डर नहीं है और वो अब खुद मक्खन देखने लगी है, इसलिए उसे बस सास को आवाज़ देकर बुलाना है और पूछना है कि ए जी द्येखा धौं मक्खन ल्हैगी कि ना? (ए जी देखना जरा मक्खन लग गया कि नहीं?)
ब्वारी को बस काम करने में दक्ष होना चाहिए और बोलने और खाने के वक्त चुप रहकर जितना और जो आदेश हो करना चाहिए.
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
तीन साल बाद पति घर लौटा तो बहू सब खैरी (कष्ट) भूल सी गई और कुछ दिन रहकर वो वापस चला गया. दिन जैसे स्वप्न में बीत गए हों. उसके बाद बहू को मायके भेजा गया. अपने मायके आकर ससुराल में देखी खैरी ब्वारी कुछ भूल सी गई. माँ तो नहीं है लेकिन भाई-भाभी और पिताजी हैं जो मैत आई बेटी के आराम का पूरा ध्यान रखते हैं. मैत आने के कुछ दिनों बाद गौं में मंडाण लगा है, मैत आई बेटी को भी उलार हो गया मंडाण देखने का. भाभी को पूछ- ए बौजी जाऊँ मंडाण देखणक?
फुंड जावा धौं.. अजौं लड़क्वाळेंण्या थोड़ी ज्यु नौनों की दहन हो
(जाओ न….. अभी तक कोई बच्चे थोड़ी हुए हैं कि घर में उनकी चिंता हो)
अपनी दगड़्याण्यों के साथ बेटी भी मंडाण देखने चली गई. अब रात को सहेली के कहने पर उसी के घर सो जाने का निर्णय लिया गया. आधी रात उसे लघुशंका के लिए बाहर निकलना पड़ा, वो अपनी सहेलियों के साथ बौंड (घर के ऊपरी कमरे) में सोई हुई है और बाहर निकलकर छज्जा से नीचे ओबरा (पहाड़ी घरों में नीचे वाले ठंडे अपेक्षाकृत कम प्रकाश वाले कमरे) से थोड़ी दूर चौक के दांयी ओर जाना होगा. परायी जगह और घनी काली रात. बौंड से निकलते ही वो रास्ता भूल जाती है और छज्जे पर पैर रखने की जगह खाली जगह पैर रखने के कारण सीधा नीचे चौक में गिरती है.
‘धम्म’ की आवाज़ को शायद खोळे के दूसरे घर में भी किसी ने सुन लिया है लेकिन थोड़ी ही देर में वहां एक ख़ामोशी छा जाती है. उठने की कोशिश करती है तो उसे “खुट्टी” में तेज पीड़ा होती है, लेकिन फिर भी वो लघुशंका से निपट कर सीढ़ियां चढ़ती हुई ऊपर जाती है और अपनी दगड़्याण्यों को बोलती है कि मैं घर जाती हूँ मेरी बौजी मेरा इंतज़ार कर रही होगी. इतना कहने के साथ ही वो सरासर उस आधी रात को ही उसी ताजी पीड़ा में लंगड़ाते हुए अपने घर (मैतियों के) आ गयी. उसकी बौजी ने उसकी बिछौंणी तैयार रखी है कि ननद आए तो सोने के लिए टुपटुपी बिछौंणी हो. वो आकर चुपचाप पड़ गयी और थकान से भारी हुई आँखों में जल्दी ही नींद आ गयी.
अगली सुबह बड़ा भैजी (भाई) उसे जगाने के लिए उसकी बौजी को बोलता है लेकिन बौजी को सैसर्या बेटी की हर खैरी का अंदाजा है इसलिए वो मना करते हुए कहती है- सेंण द्या धौं लठ्याळों वीं थैं. वै ढंगार पार सैसरी कख स्येंण दींदा होला वीं थैं इतगा (सोने दो न उसे भले लोगों. उस पहाड़ी के पार ससुराल वाले कहाँ सोने देते होंगे इतना उसे)
आदत खराब न कर वीं की. रोली अपड़ा घर जब बखत पर न उठली (आदत खराब मत कर उसकी. रोएगी अपने घर, जब समय पर न उठेगी)
इतना बोलकर थोड़ी देर में ही बड़ा भाई किसी काम से बाहर चला गया और जल्दी ही लौट आया. उसने चौक से ही अपनी पत्नी को आवाज दी,
कहां है तेरी ननद? छंछरू बोल रहा था कि वो कल छज्जा से गिरी रात और जरूर उसके पैर पे चोट लगी होगी!
अब बौजी कमरे में आती है और उसका ढिक्याण (ओढ़ने वाली चादर /कम्बल) उठाकर उसे देखते हुए पूछती है- सच्ची गिरी थी तू?
उसके पास कोई जवाब नहीं होता लेकिन पैर सूज चुका है और सबको खबर लग गई कि वो छज्जा से गिरी है कल रात. ससुराल जाने का समय भी नजदीक है और पैर की हड्डी टूट गयी है. उस पहाड़ी क्षेत्र में जहाँ दर्द की एक गोली मिलना भी संभव नहीं था टूटी हड्डी पर प्लास्टर चढ़ाना तो दिन में तारे गिनने से भी विकट होता, लिहाजा उसके पैर पर गौं के एक सबरोग विशेषज्ञ भैजी ने गरम लालमिट्टी और गाय के गोबर की पट्टी कर दी.
लगभग पंद्रह दिन गुजर चुके हैं और ससुराल वालों को अपने बेमोल मिले बौळ्या (मजदूर) की याद आने लगी है. मैत आते हुए तो उसे एक दो महीने रुकने की मौन सहमति मिल चुकी थी लेकिन यहाँ खेतों में काम शुरू हो गया था और गेहूं की बुवाई का समय था, देवलसारी महादेव के घास के कटुले से घास सारने और पुरेल्डे लगाने में गौं के हर घर के बौळ्या की तैनाती हो गई थी तो ऐसे में उसके ससुराल वालों का ये सब काम बिना बौळ्या पूरा कैसे हो?
पूरा एक महीना बीत गया कि एक दिन मथळ्या खोळा (ऊपर वाले मोहल्ले का एक घर) का एत्वारू उसके ससुराल की तरफ से होकर आया और आते ही उसने लड़की के भैजी को सैसर्युं का रैबार सुना दिया- वीं का ससुराजी मिलीथा मैं थैं. अपड़ा सेरोंम ढिंका था फोड़णां. बल हमारी ब्वारी की ममता त मैत्युंक होली हम चा मरउं कि बच्यां रौं. मैत्युं कू काम करनु भलु ल्हगदु उं थैं (उसके ससुरजी मिले थे मुझे अपने खेतों के मिट्टी के ढेले फोड़ रहे थे. ऐसे बोल रहे थे कि हमारी बहू की ममता अपने मायके वालों के लिए ही है हम चाहे मरें या बचें. मायके वालों का काम करना अच्छा लगता है उन्हें)
ये व्यंग्य बाणों से लैस रैबार सुनकर भैजी का माथा ठनका! फौरन घर आकर उसने भुली को आदेश दिया कि तैयार हो जाए भोळ सुबेर ही उसे सैसर छोड़ आएगा वो आखिर क्यों सुने किसी के झूठे ताने? उनके सामने ले जाकर खड़ा कर देगा तभी विश्वास होगा ससुराल वालों को कि वो काम करने लायक तो क्या चलने-फिरने लायक भी नहीं है आजकल, तो उनका काम कैसे करेगी. बौजी को ममता उमड़ी और उन्होंने कहा मत भेजो अभी उसे वहां खुट्टी(पैर) ठीक तो हो जाने दो लेकिन भैजी आखिर एक पुरूष था क्यों समझता स्त्री की व्यथा, अगले ही दिन सुबेर दोनों भैजी-भुली उसके सैसर के लिए निकल गए और जैसे-तैसे लंगड़ाती हुई वो घर पहुँची.घर पहुँचने पर ससुराल वालों की खौफनाक चुप्पी से सामना हुआ मानो मायके जाकर उसने भारी भूल की हो और पैर की हड्डी टूटने के जिम्मेदार उसके मायके वाले हों.
अगली सुबह उठकर उसने अपनी पड़ोसी सहेली बुगनी को पूछा- हमारा गौं की द्यूलसारी का कटुला की बारी कब की होली? (हमारे गाँव की देवलसारी महादेव के कटुले में घास की बारी कब की होगी?)
आज ही जाणु बल लठ्याळी, फटाफट भैंसु गाड़्याल अर कल्यौ खयाल धौं तब चलदौं. ब्याण्वा (भोर का तारा) औंण से पैली झट्ट सरौ अपड़ु काम. (आज ही जाना है प्यारी, फटाफट भैंस बाहर निकाल ले और नाश्ता खा ले तब चलते हैं. भोर का तारा निकलने से पहले निपटा ले अपने काम जल्दी से)
दोनों ने एक दूसरे का हाल-चाल पूछा सुबह के तीन बजे ही. इसके बाद दोनों काम निपटाने लगीं लेकिन बुगनी के पैर में तो कोई चोट नहीं है इसलिए उसने फटाफट सब काम कर लिया और कल्यौ भी बना कर खा लिया लेकिन इसके तो पैर में चोट लगी है लंगड़ाती हुई वो केवल भैंस बाहर निकाल पाई और उसे घास डाल के गोबर साफ कर पाई है कि वियेणा दिखा. अब सास भी उठकर छज्जा में बैठ गयी है वो रस्वाड़ी में चाय भी नहीं बना पाई थी और जाने के लिए तैयार हो गई, लेकिन उसके ससुरजी चुपचाप उठकर रस्वाड़ी में जा चुके थे इसलिए चाय बन गयी है.
ल्या चा पियाला तब जयी कर्यान (लो चाय पी लो तब चले जाना)
उसने चाय का गिलास लिया और पीने लगी ही थी कि सास ने कहा- हाँ ईं अपड़ा बुबास्वैंण थैं पिलावा चा. कपाळ मथि बिठावा मेरा.
(हाँ इस (‘पिता की प्यारी’, गाली) को पिलाओ चाय. मेरे सिर पे बिठाओ इसे)
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
इतना सुनते ही ब्वारी डर गयी और चाय का गिलास नीचे रखकर लंगड़ाती हुई देवलसारी महादेव का घास काटने निकल गयी.
जाते हुए चढ़ाई थी तो वो जैसे-तैसे लंगड़ाती हुई भी ऊपर पहुँच गई. वहां उसकी दगड़्याण्यों ने उसे एक समतल जगह पर घास काटने को कहा और बाक़ी सब इधर-उधर जाकर घास काटने लगीं. शाम होते-होते उसने लगभग पैंतीस पुळा (घास के गठ्ठर) घास काटा लेकिन बाक़ी बहुओं का घास देखकर बहुत घबरा गई है कि सबने तो साठ-साठ, सत्तर-सत्तर पुळा घास काटा है और उसका उन सबके आधे पर भी नहीं है. आज सासु के तानों की झड़ी लगने के पूरे इंतजाम हो गए हैं फिर भी अब घर तो जाना ही होगा सो वो भी सबके साथ घास का बोझ उठाकर चली. जहाँ तक सैंणा बाटा था (समतल रास्ता) वहां तक तो वो भी सबके साथ ही चलने की कोशिश करती रही लेकिन उसके बाद सीधी रपटीली उतराई थी और उसके पैर की हड्डी टूटने के कारण वो पहले से ही भयंकर पीड़ा से गुजर रही थी, तो अब आगे बढ़े कैसे? साथिनें सब सर-सर उतरने लगीं और उसके साथ केवल बुगनी रह गई लेकिन आखिर वो भी कब तक उसका साथ देती? लिहाजा अब थोड़ी दूर तक साथ चलने के बाद बुगनी भी फटाफट नीचे उतरती चली गई! घनघोर जंगल के बीच में उतराई का रास्ता, दाएँ पैर की टूटी हड्डी की असहनीय पीड़ा, गहराती हुई रात और जंगली जानवरों का डर वो टूटे पैर में ही वापस भेजने के लिए अपने मैतियों को कोसती हुई रोते-रोते पहाड़ी ढलान पर उतरने की कोशिश करने लगी और एक खुदेड़ गीत ऐसे ही रोते हुए फूटता है.
बासी जै रै काफ्फु, बासी जै रे काफ्फु
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
मेरा मैता का बाटा, मेरा मैत का बाटा
मेरी बौजी सुणली, मेरा भैजी भेजली
बासी जै रे काफ्फु, मेरा मैत का बाटा
मेरू बाबा सुणलु, मेरा भैजी भेजलु
बासी जै रे काफ्फु, मेरा मैत का बाटा
दूध कु रे पतेलु,दूध कु रे पतेलु
भै – बैण्युं की गैल, छुटि ग्यों अकेलु
बासी जै रे काफ्फु, मेरा मैत का बाटा
मेरी बौजी सुणली, मेरा भैजी भेजली
कुळैं का ले बण, कुळैं का ले बण
तेरी गैलन छुट्यौं, मर्यां कारे समान
बासी जै रे काफ्फु, बासी जै रे काफ्फु
मेरा मैता का बाटा, मेरा मैत का बाटा
मेरू बाबा सुणलु, मेरा भैजी भेजलु!
(काफ्फु( पंछी) तू चहचहाना मेरे मायके के रास्ते और मेरा संदेश मेरे मायके वालों को सुनाना मेरी भाभी सुनेगी तो मेरे भैजी को भेजेगी, मेरे पिताजी सुनेंगे मेरे भैजी को भेजेंगे .दूध की पतेली, भाई-बहनों के बीच रहती थी अब छूट गई अकेली, चीड़ का वन, तेरे साथ से छूटी मरे हुए के समान काफ्फु तू चहचहाना मेरे मायके के रास्ते और मेरा संदेश मेरे मायके वालों को सुनाना मेरी भाभी सुनेगी तो मेरे भैजी को भेजेगी, मेरे पिताजी सुनेंगे मेरे भैजी को भेजेंगे)
ऐसे ही दर्द भरे खुदेड़ गीत रोती हुई गाती लंगड़ाती हुई आ रही थी कि उसके ससुराल से आगे वाले गाँव की एक ब्वारी जो उसी के मैती गाँव की बेटी भी थी पीछे से सिर पर राशन का थैला उठाए लपकती हुई चली आई. उसके खुदेड़ गीत की पीड़ा सुनकर थोड़ा ठिठकी और उसे देखने की कोशिश की तो उसे घास के बोझ तले पहचान गई.
च्च-च्च-च्च-ए द्यूलसारी का मादेब कख लुकी तू ज्यु सिराईं की बेटुली यख ये बणमा घास लाखुड़ुक भटकणीं. सत्या भैजी की आँखी कनी फुटिन ज्यु वैन अपड़ी लाडी भुली यख खड्यायी. कनु बिजोग पड़ी वुं सैसर्युंक ज्योंन खुट्टी बी नी देखी ब्वारी की टूटीं अर बण भेज्याली
(च्च-च्च-च्च-ए देवलसारी के महादेव कहाँ छुपा तू जो सिराईं की बेटी यहाँ जंगलों में घास लकड़ी के लिए भटक रही है. सत्या भाई की आँख कैसी फूटी जो उसने अपनी लाड़ली बहन यहाँ दबायी/भेजी. कैसा अंधेर हुआ उन ससुरालवालों को जिन्होंने बहू का टूटा पैर भी नहीं देखा और बहू को जंगल भेज दिया)
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
उंड दे मैं ल्हिजांदौं तेरू बोझ… आज रात तू तख उद्धा बजारम मेरी पूफ्यांणी कौं यख रुक जै… भोळ सुबेर चट्ट उठिक चल जै अपड़ा घर… मैं तेरू बोझ घर भी पौंछै द्यूलु अर तेरी सासु की खबर भी ल्युलु वीं थैं दिखेंणी नी कि ब्वारी की खुट्टी त या छ टुटीं अर फिर भी बण लखैयाली ब्वारी?
(इधर दे मैं ले जाऊँगी तेरा ये बोझ. आज रात तू वहां नीचे बाजार में मेरी फूफू के घर रुक जाना. कल सुबह जल्दी उठकर चली जाना अपने घर. मैं तेरा बोझ तेरे घर भी ले जाऊँगी और तेरी सास की खबर भी लूंगी (डांट लगाऊँगी) कि उसे दिखाई नहीं दिया कि बहू का पैर टूटा है और फिर भी जंगल भेज दिया बहू को?)
ना ना दीदी मैं त आज ही घर पौंछण पड़ुलु निथर भैजीम छुंईं लगाण उंन
(ना ना दीदी मुझे तो आज ही घर पहुँचना होगा नहीं तो मेरे भैजी के पास मेरी शिकायत करेंगे वो लोग)
ऐसा सुनकर उसके सिर का बोझ नीचे जाती हुई उसकी वो दीदी ले लेती है और उसके हाथ के लिए एक डंडा भी बनाकर दे देती है ताकि उसके सहारे वो नीचे आ सके. नीचे “भादु की मगरी” में सब घस्यारिनों के घर से कोई न कोई उनका बोझ बांटने आया है क्योंकि इतना बोझ लेकर घर जाना कोई आसान बात नहीं होती लेकिन इसके घर में तो बूढ़े सास ससुर के अलावा दो छोटे बच्चे हैं जिनसे ऐसी उम्मीद रखना भी बेकार है कि वो बोझ कम कर सकेंगे, ससुर जी अस्थमा के मरीज हैं तो वो कोई काम कर सकने में सक्षम नहीं हैं और हालांकि सास इतनी बुजुर्ग नहीं है कि काम न कर सकें लेकिन सास, बहू का बोझ कम करने आए तो बहू के बिगड़ने के आसार हो सकते हैं इसलिए वो भी नहीं आयी लेकिन बुगनी और दो दगड़्याणें अपना घास नीचे रखके वापस उसे लेने लौटीं और उसका घास लेकर नीचे भादु की मगरी पहुँची. अब नीचे से भी टूटे पैर कैसे अपना घास ले जाएगी ये ब्वारी लिहाजा नीचे पहुँचकर सब दगड़्याण्यों ने अपना-अपना बोझ कम करने के बाद इसका बोझ भी पूरा आपस में बांट लिया और इसे खाली पैदल चलने के लिए कहा ताकि वो भी घर समय पर पहुँच सके. लाठी के सहारे आखिरकार वो भी गाँव की सीमा तक आ पहुँची सबके साथ. अब यहाँ आकर सब दगड़्याण्यों ने उसका बोझ वापस तैयार किया और पैंतीस पुळा के स्थान पर चालीस पुळा करके उसके सिर पर बोझ थमा दिया कि घरवालों को शिकायत न हो.
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
घर आकर वो चौक में बोझ नीचे रखती है, उनके पूरे चौक में अँधेरा पसरा है मानो वो जैसे सुबह के चार बजे घर से गयी थी तो उसके जाने के बाद धूप ने भी यहाँ पैर न रखा हो और रात ही रात में पूरा दिन कट गया हो . सुबह से भूखी ब्वारी की थकान और दर्द से हालत बहुत बिगड़ी हुई है लेकिन वो चुपचाप नीचे बैठ गयी है.
ऊपर बौंड से रोशनी आ रही है और कुछ गुमणांट(बोलने की आवाज़ें) भी सुनाई दे रहा है. थोड़ी देर में उसके ससुरजी हाथ धोने के लिए छज्जा में आते हैं और उसे देख लेते हैं, उसे कुछ बोलने को होते ही हैं कि सासू की आवाज़ सुनकर रुक जाते हैं.
अरे फटाफट खा धौं बंदरगळी की. औंण वाळी वा अब ढंढोळेली उंडी-फंडी.
(अरे फटाफट खा न बंदर जैसे गले वाली. आने वाली है वो अब ढूँढेगी इधर-उधर खाना. बंदर जल्दी नहीं निगलता बल्कि गले में थैली में रोक लेता है खाना)
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
ये बातें सुनकर भूखी ब्वारी की पीड़ा और बढ़ जाती है लेकिन वो चुप रहती है और आखिर कुछ कहती भी तो किसके दम पर? मैतियों को कुछ बता नहीं सकती उन्होंने तो अपना बोझ उतार दिया है जैसे उसे ब्याह के और पति साथ में है नहीं जिसके पास कम से कम अकेले में ही हो, कुछ कहके मन हल्का कर सके! वो आँसुओं को भीतर पीती हुई चुपचाप बैठी रही, लेकिन उसके ससुरजी चुप न रह पाए इस अन्याय को देखकर. वो भीतर जाते हैं और सास को लताड़ लगाते हुए बोलते हैं-
ईंन रण तेरी गैल सदानी, ईं ब्येटुली ही खिलौ यनु ना कि वा ब्वारी सुबेर बटिक भुख्खी छन जांयी उंकी चिंता भी हो त्वैक जर स्यां. उ ब्वारी ऐगिन घासन फटाफट उं थैं खाणु दे. अर छकीक दे ह्व़ा.
(इसने रहना है तेरे साथ हमेशा, इस बेटी को ही खिलाती रह, ऐसा नहीं कि वो बहू सुबह से भूखी गयी है उसकी भी थोड़ी सी चिंता हो तुझे. वो बहू आ गयी है घास से फटाफट उन्हें खाना दे और भरपेट देना समझी)
ससुरजी के डांट कर कहने पर सास थोड़ा सा झिझकती है और ब्वारी के लिए मांड का साग बनाती है और गर्मागर्म झंगोरा बनाकर उसे भरपेट खाना खिलाती है.
मैं जब भी माँ को हमारे लिए चिंता करते देखती हूँ, नवनीत जी और मुझे साथ बिठाकर खाना खिलाती माँ के मुख पर खुशी देखती हूँ तो सोचती हूँ कि कितना गहरा असर पड़ा होगा उनपर जब उन्होंने अपने जीवन के शुरूआती दिन ऐसे कष्ट सहकर काटे होंगे और फिर भी अपनी बहुओं के लिए मन में कड़वाहट नहीं पनपने दी बल्कि अनपढ़ होते हुए भी हमारे मन और स्वभाव को खूब प्यार से समझा और हमें परिष्कृत किया.
(Memoir Ruchi Bahuguna Uniyal)
(जारी)
रुचि बहुगुणा उनियाल
देहरादून में जन्मी रुचि बहुगुणा उनियाल वर्तमान में नरेंद्र नगर, टिहरी गढ़वाल रहती हैं. रुचि बहुगुणा उनियाल की प्रकाशित पुस्तकें मन को ठौर, प्रेम तुम रहना और ढाई आखर की बात हैं. रुचि बहुगुणा उनियाल से उनकी ईमेल आईडी [email protected] पर सम्पर्क किया जा सकता है.
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें