प्रो. मृगेश पाण्डे

छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : धूप सुनहरी-कहीं घनेरे साये

पिछली कड़ी : छिपलाकोट अन्तर्यात्रा : तू भी मिला आशा के सुर में मन का ये एकतारा

हरिनन्दन निवास- यह वह दो मंजिला मकान था जिसमें अब मैं बहिन गंगोत्री के साथ रहने लगा. इसमें दो बड़े कमरों के साथ छोटी बैठक व अंदर एक लम्बा सा गलियारा था जिसे मैंने फोटोग्राफी प्रयोग शाला बना दिया था. बाहर भी बैठने की खूब जगह थी. तखत डाल दिया था और चार फोल्डिंग कुर्सियां भी. सुबह की पहली धूप यहां पड़ती. थलकेदार की पहाड़ी के साथ नीचे हनुमान मंदिर का इलाका और दूर तक फैली घाटी दिखती थी.कई कई सौ नाली खेती वाली भूमि की समान पट्टी के बीच में यह अकेला दु मंजिला भवन था हरि नंदन निवास. इसके मालिक हमारे ही महाविद्यालय में कॉमर्स के हेड थे. जब मेरे लिए ज्यादा जगह वाले मकान की ढूंढ खोज कुण्डल सिंह कर रहा था तो जोशी जी को भी पता चला कि मैं जरा बड़ा खुला-खुला सा मकान ढूंढ रहा हूं पर बाजार वाले इलाके में नहीं, तो वह तुरंत मेरे पास विभाग में आए. वह मुझे ऊपर का सेट देने को तैयार थे.
(Memoir of Pithoragarh Mrigesh Pande)

‘किराया सही लगाना मृगेश को. फोटो खींचने में बहुत ढोल फोक करता है ये. मैगजीन अखबार के भी ढेर हुए आखिर जाते वह अठन्नी की रद्दी में हैं. घर की सारी जिम्मेदारी भी हुई इस पै. अब किराये में हरदा तुम अपनी कॉमर्स मत लगा देना.’ डॉ. पंत बोले.

‘अरे नहीं हो आप भी क्या कह रहे. मैं तो नैनीताल से इसे जानता हूं. इसके पिता बरसर साब हुए, मेरी बड़ी मदद की उनने नैनीताल रहते’.

‘बरसर साब के नाम से ही जाने गये हमारे बप्पा जी. हरिश्चन्द्र नाम कम चला. सरनेम पांडे वो लगाते भी न थे’. विभाग में रसायन विभागाध्यक्ष डॉ. सी डी बिष्ट बैठे थे. वह बोले – डॉ.. डी डी पंत जब डी.एस. बी के प्रिंसिपल बने तो शासन ने बरसर की पोस्ट क्रिएट की. डॉ. पंत तो बड़े वैज्ञानिक हुए इसलिए कार्यालय, वित्त और प्रबंध के काम से उन्हें मुक्त करने के लिए हरिश्चन्द्र जी की नियुक्ति बरसर के पद पर हुई. तब से वह बरसर साब ही कहे गये.

सी डी बिष्ट जी का भतीजा धारा बल्लभ नैनीताल कॉलेज के दिनों से ही मेरा दोस्त था. पिथौरागढ़ आ फिर घर आना जाना बढ़ा. वह भी जनार्दन कुटी में रहते थे. सिनेमा लाइन में. हर हफ्ते तो उधर जाना होता ही था. कभी अपने हेड साब के यहाँ, कभी राम सिंह जी का लौह लक्ष्मी, अपने रिश्तेदार पंडित जनार्दन पांडे जी और उनका खूब स्नेहिल परिवार, केमिस्ट्री वाले बहादुरदा और खूबसूरत भाभी जी, इनसे थोड़ा ऊपर खन्ना जनरल स्टोर वाले खन्ना जी जो पाकिस्तान से ले हिंदुस्तान तक की पार्टीशन गाथाएं खूब विस्तार से सुनाते और ये एहसास दिलाते कि ये आजादी हमने किन कीमतों पर पाई है.
(Memoir of Pithoragarh Mrigesh Pande)

सी डी बिष्ट जी के पिता ख्याली राम बिष्ट जी, डी.एस.बी के लाइब्रेरियन हुए. मुझे याद है डी. एस.बी के स्टॉफ क्वाटर जहाँ हम रहते थे, उसके ठीक नीचे एन.सी.सी. का ग्राउंड था जिसमे खूब धूप आती थी. खाली समय में वहां कुर्सी डाल स्टॉफ की बड़ी हस्तियाँ धूप तापतीं थी. ख्याली राम जी वहां बैठ हमेशा कुछ न कुछ पढ़ते दिखते थे. हम अपने क्वाटर के आंगन में धमाचौकड़ी करते, कंचा-गोली, गुल्ली-डंडे का जोर आजमाते. छुपम-छुपाई खेलते. कितनी बार तो ख्याली राम जी जिन्हें हम बड़े चच्चा कहते, हमें अपने पास बुला लेते. किताब के पन्ने उल्टा पलटा रंग बिरंगे चित्र दिखाते. कोई मेगजीन भी देते पढ़ने को. उन किताबों के पन्ने बड़े मुलायम चिकने होते. मैं तो उन्हें छू के जरा उलट-पलट के रख देता था. इतना कौन पढ़े. उसमें छपे चेहरों में पेन से दाढ़ी मूँछ बना देना और फिर खी खी खितखिताना. महेश दा ये हरकत पकड़ लें तो खैर नहीं. ऐसा चँटाप पड़ता कि नाख साफ हो जाती. दिनेश दा बस धमका देते. वो तो बस अपनी पढ़ाई करते धीमी आवाज में रेडियो सिलोन लगाते. तलत महमूद के दीवाने. ए गमे दिल क्या करूँ? वहशते दिल क्या करूँ? पता नहीं जो करते होंगे पर महेश दा की डांठ जरूर खाते. डांठने वाला हर एक के ऊपर मौजूद था सिवाय हमारे बप्पा के. पर जब ग्वालियर वाले भिंजू आते तो वो तो बप्पा को भी न छोड़ते. सब कहते वो सटकी गये हैं गले में अपने रोली फ्लेक्स कैमरा को लटकाये घूमते फिरते हमको भी खूब फिराते कभी अयारपाटा कभी राजभवन के पिछवाड़े. सरकार की बड़ी नौकरी से रिटायर थे जरा भी गुस्सा आए तो अंग्रेजी वाली गालियां देते.

सी डी बिष्ट जी के कुछ क्लोज अप अपने टू हंड्रेड एम एम निकॉर्मेट लेंस से खींच, अपनी फोटो प्रयोगशाला में हाइड्रो क्विनिन की कम-ज्यादा मात्रा के मेल और सॉफ्ट और हार्ड पेपर के संयोग से बना मैंने उनके सामने क्या रखे केमिस्ट्री विभाग से मुझे एक से एक केमिकल प्रयोग के लिए मिलते गए. कॉपर टोनिंग तो क्या अब तो मैंने गोल्ड क्लोराइड तक का इस्तेमाल कर डाला था. रजत बिम्ब के शेड निखार पर थे.

विभाग में डॉ.. जगदीश चंद्र पंत जी के साथ रसायन विभाग के प्रोफेसर डॉ. सी डी बिष्ट, डॉ. रामसिंह, गणित के धुरंधर डॉ. जगमोहन चंद्र जोशी व प्रोफेसर रजनीश जोशी के साथ अर्थशास्त्र विभाग के सभी सहकर्मी बैठे थे. करम सिंह के बदले अब जोशज्यू थे, जो चाय बना रहे थे.

रिक्त पदों पर नई नियुक्ति होने से विभाग भरा पूरा हो चुका था. डॉ. मुन्ना भाई साह जी का स्थानांतरण हो चुका था और उनके प्रतिस्थानी डॉ. जगदीश चंद्र पंत गोपेश्वर से आए थे और टकाना में जनार्दन कुटी में रहते थे. उनका गांव गंगोलीहाट था.

अर्थशास्त्र विभाग के बगल में ही हिंदी विभाग था और उसके मुखिया थे डॉ. राम सिंह. राम सिंह जी का वन रावतों पर एक लेख तभी दिनमान में छपा था. अपने एक खाली पीरियड में हिंदी विभाग में झांका तो डॉ. राम सिंह वहां बैठे कुछ लिख रहे थे. उन्होंने मुझे देख भीतर आने का इशारा किया. मेरी नामिक ग्लेशियर की यात्रा के बारे में पूछा और कब कहाँ रहे? कौन सा रास्ता पकड़ा जैसे सवाल पूछ विस्तार से जानकारी ली. कुछ जगहों में मैंने कहा कि हम उस गांव पहुंचे तो उन्होंने फौरन पूछा कि गांव का नाम क्या था? नाम तो में कइयों के भूल चुका था. उन्होंने फिर पूछा कि कागज-पेन साथ में नहीं रखते क्या? ये हर जगह साथ होना चाहिए. तुरंत नोट करो, तारीख भी लिखो और रोज रात पहले अपनी डायरी भरो. वहां फोटो खींची होंगी, मुझे दिखाना. तुम्हारे कई फोटो मैंने साप्ताहिक हिंदुस्तान, वामा वगैरह में देखे. इस पहाड़ को पकड़ो. पहाड़ कोई खूबसूरत कैलेंडर-पोस्टर नहीं इसके अपने दर्द हैं, उसे लाओ अपने फोटो में.

“तुमने काली कुमाऊं का इलाका देखा है”? राम सिंह जी ने पूछा.

“न”, मैंने इंकार में सर हिलाया.

“वो काली कुमाऊँ, गुमदेश का इलाका भी अद्भुत है. अपने कुमाऊं से बिल्कुल अलग सा. उसे “कुमु” भी कहते हैं मैं तो जब भी दो तीन की छुट्टी पड़े, निकल पड़ता हूं. तुम्हारी इच्छा हो तो साथ चलना. गांव-गांव जायेंगे. वहां की आर्थिकी पकड़ना तुम. लोगबाग-बसासत, वहां के कष्ट, वहां की असुविधा के चित्र खींचना. समझ में आएगा तब कि अभाव-असुविधा में हाड़-मांस बनाए रखने को कितने जतन करने पड़ते हैं. पहाड़ दूर से बहुत खूबसूरत दिखता है न? भीतर घुसोगे तो पता चलेगा कि कैसी कैसी दुविधा में बांध रखा है लोगबागों ने खुद को, सारा परिवार सारी राठ चली आ रही रीत से इंच भर नहीं सरकती. कई जगह तो मुर्दे को एक ही डंडे में बांध ले जाते हैं”.

मैं कुछ समझा नहीं.

“अरे, दुधारू खूब पल जाते हैं उस इलाके में मगर बाहर वाले को दूध, दन्याली देंगे नहीं, बेचेंगे नहीं. कहते हैं उनके दूध पर नजर लग जाएगी. कोई उनकी कुड़ि पै पहुँच गया तो शुद्धि के लिए गौँत्योंली करेंगे. हर किसी बड़ी जात का मानस की खोपड़ी में हाथ भर लम्बी चुटिया जरूर पड़ी मिलेगी, कोई गांठ मार रखेगा कोई गोल गोल बांधेगा, जट्ट तक पड़ गये दिखते हैं उनमें. फिर अपनी औकाद साफ करने को ले जनेऊ भी हुई छह पल्ले वाली तीन पल्ले वाली. मुख धोते ही कपाल पे अक्षत पिठ्या च्यापने ही हुए रोज सुबे. कैसी-कैसी पूजा कैसे-कैसे मंतर. माली हालत में सब फटीचर ही हुए. हर विपदा में देबता और उसके गण, भूत पिशाच, परी-आंचरी की पुकार को थाली पिटेगी. अरे ये सारे दानव तो उनके दिमाग में घुसे पड़े हैं. अजीब अड़यॉट देखे भाई.
(Memoir of Pithoragarh Mrigesh Pande)

“मैं चलूँगा आपके साथ.” इस कुमू नाम के इलाके की बात सुन में उनके साथ चलने को फौरन तैयार हो गया.

“ठीक है. मुझे भी सब जगह फोटो की जरुरत होती है, तुम चलोगे तो खींचना. फिर मुझे भी देना. कैमरा तो है मेरे पास. बड़ा बेटा भारत लाया मेरे लिए पर मुझसे हो नहीं पाई फोटोग्राफी”.

मैं खींचूंगा. चलूँगा भी.

कल आओ घर. दिन में दाल-भात वहीं खाना. मैं सिनेमा लाइन लौह लक्ष्मी में मिल जाऊंगा तुमको. जहां तुम्हारे हेड साब रहते हैं पंत जी, जनार्दन कुटी में, उससे पहले ही पड़ जाता है लौह लक्ष्मी. ग्यारह बजे तक रहता हूं वहां. फिर भारत सब संभालता है. तुम आ जाओगे, साथ निकल पड़ेंगे. बात-चीत भी होगी.

दीप को भी ले आऊं अपने साथ, बड़ा खुश होगा.

हाँ, हाँ इसमें पूछने जैसी क्या बात. दीप भी घूमने फिरने लिखने-पढ़ने वाला है. फालतू कचकच भी नहीं करता. चलने की आदत भी उसमें खूब. नारायण आश्रम भी हो आया. बड़े बोल्डर गिरे थे तब. अब बौर्डर के पहाड़ भी तो भंगुर हुए.

तो ठीक रहा फिर. अब वो सातों-आठों पड़ेगा. जिलाधिकारी उसमें दो दिन की छुट्टी करवा देता है.

अब कल तो आ ही जाना दुकान में. निकल पड़ेंगे एंचोली को.

मैं और गंगोत्री हरिनन्दन निवास डॉ. जोशी के मकान में दुमंजिले में रहने लगे थे. उसमें खूब जगह भी थी और एकौर यानी कोने में था ये सेट. वैसे तो नीचे भी एक सेट खाली था पर उसमें जगह कम थी. बाकी के दो सेट में बालदा और भोलदा सपरिवार सकुटुंब रहते फिर टकाना सड़क को धोबीघाट होते कॉलेज से जोड़ने वाली कच्ची सड़क भी इसी मकान के पिछवाड़े से गुजरती थी. पांच-छै बजे नहीं, इस सड़क पर टकाड़ी से पितरोटा,सुकोली जैसे समीपवर्ती गावों के भेसूण डगमगाते-बलखाते जगह-जगह जमीन पिचकाते प्रकट होने लगते. पीछे के दरवाजे की कुण्डी भी खड़खड़ा जाते. कितने ही समझते कि उनका गोठ आ गया एक बार तो एक टिल्ली जबरदस्ती कुण्डी खड़काते कहने लगा,’ बिमला दरवाज त खोल दे’. उसे बाहर धकियाया तो जिद पर अड़ गया कि ये मेरा ही घर है.’जाणि किले बिमला दरवाज नि खोलण लागिरेम्यान?’ फिर पुकार लगी,’ दरवाज नै त खिड़की ही खोल मर्यान’.

“बिमला खिड़की खोल दे”. महाविद्यालय में किये जाने वाले नाटक पागल खाना में अपना पगलेट आशिक गोपाल विरह विदग्ध हो यही संवाद बोलता:

‘बिमला खिड़की खोल दे’.

हरिनन्दन निवास के नीचे के दो कमरों में जो नया किरायेदार शख्श नमूदार हुआ वह अग्रवाल था, नरेंद्र कुमार अग्रवाल. वैसे तो हमारे हरीश चंद्र जोशी जी किसी बाहरवाले देशी को घर किराये पर न देते पर नरेंद्र कुमार अग्रवाल हमारे ही कॉलेज में रामपुर से ट्रांसफर हो कर आया था. वह हमारे प्रिंसिपल डॉ. के एन जोशी के अधीन पी.एच.डी भी कर रहा था. लिहाजा सब जोड़ जंतर परख हरीश चंद्र जोशी जी ने उसे नीचे का एक सेट किराये पर दे दिया. किराया भी हमसे ज्यादा लगाया. नरेंद्र कुमार अग्रवाल ने उनको बता दिया था कि वैसे तो वह अकेला ही है पर उसके दोस्त जब मैदान से आएंगे तो उसी के पास रहेंगे. जोशी जी ने अनुमान लगा लिया कि आखिर कितने दोस्त आएंगे? साल में दो-चार दिन ही तो आएंगे. खाली घूमने कौन आयेगा इतनी दूर पिथौरागढ़.
(Memoir of Pithoragarh Mrigesh Pande)

हरि नंदन निवास में कोने वाला सेट अग्रवाल को मिल गया उसके बगल वाले दो सेटों में भोला दत्त जी और बाला दत्त जी अपने बड़े परिवार सहित रहते थे. दोनों ही इंटर कॉलेज में मास्साब थे और पूरे संस्कारी-कर्मकांडी. वहां सुबह चार-पांच बजे से ही घंटी शंख ध्वनि के साथ मंत्रोचार हो था जाता था गाय के गोठ की सार पतार शुरू होती थी. उन दोनों ही परिवारों में कन्या रत्नोँ की बहुलता थी जो भोर होते ही नाना क्रियाओं में डूबने उतरने लगतीं. कोई हमेशा क्लास में फर्स्ट रहने वाली, कोई जेब्लिन फैंकने की उस्ताद कोई भजन गायन में माहिर तो एक गीता दत्त के गीत गाने की सिद्धता से पहचानी जाती. अब अग्रवाल के आने से देर रात संगीत बजना भी शुरु हो गया. वह गजलों का दीवाना था और मस्त सेक्सोफोन बजाता था. शाम होते ही पूरा रामपुरी घराना अग्रवाल की कुटिया में गूंजने लगता. पहले पहले तो वहां कॉलेज के बड़े जाने पहचाने अनुचर कई दिनों तक मुँह दिखाई करते रहे जो उसका बन्द सामान सिले बंधे टाट से खोलते, उससे निकली चीजें हैरत से देखते और फिर दिशा निर्देश के अनुसार उनको एकबट्याने की कोशिश करते. सामान उसके सेट के आंगन में ही खुल रहा था. मैं और मलकानी तब कॉलेज से घर लौट ही रहे थे. हम दोनों दुमंजिल वाले थे अतः सीढियाँ चढ़ते वहां जमा माल असबाब देखा. ऐसा लगा कोई पुराना कभाड़ी अपने लुंतुरे फैलाये है. चार पांच अदद बोरियां थी जो बारदाने वाले की खैरात में मिलने का मंजर पेश करती थी. उनको कुतरा भी गया था जो शायद रेल रोड कार्यालय के गोदाम में पड़े रहने से हुआ होगा. माल की आवक सीधे रामपुर से हुई थी. बाद में जब अग्रवाल से पूछा गया कि भाई बता रहे हो कि हाई स्कूल का रिजल्ट निकलने के बाद जब साथ तुम्हारे तुम्हारा सपूत रहेगा तो ये अटरम बटरम क्यों बटोर लाए, वहीं भौजाई तो हैं, तीन लड़कियां भी और खुद ही बताया तुमने कि इंटर कॉलेज में पढ़ाती हैं.

“हाँ भाई, जमाने को पढ़ाएं. हम तो साफ निकल गये. मक्खन से बाल की तरह. लब कैंसिल हो गया. अब इस पत्थर गढ़ में अपने बेटे के साथ रहेंगे बस. गाएंगे बजायेंगे गजलों नज़मों की दुनिया है अपनी बाकी दुकानदारी से हमें क्या”?

अपनी एक बड़ी और दूसरी कुछ छोटी सी जन्मजात आँख टपकाते अग्रवाल चहकते हुए बोला तो मुँह में ठूंसे पान का खुंड मुंड रस वस भी होंठों से निश्रत हो गया जो तुरंत बायें हाथ की चपल गति से कमीज में पुछ भी गया.

भोलदा और बाल दा भी नए पड़ोसी के स्वागत में तत्पर खड़े थे. अग्रवाल ने महाविद्यालय के अनुचरों को आदेश दिया कि भय्या पहले वो बोरी खोलो जिसमें रसोई का सामान है. पहले रसोई जमा लें. दोनों अनुचरों ने तुरंत आदेश मान बोरी खोल डाली. उसमें बर्तन थे. सो एक बर्तन निकलता तो दूसरा रसोई में ले जाता. मिट्टी तेल का स्टोव भी बोरी में से निकला और बड़ा कुकर भी. थाली प्लेट भी और गिलास भी. नीचे के बर्तन तो कई बिना धुले ठूंस दिए दिखते थे. गिलास देख अगरवाल ने उन्हें धोने का आदेश दिया. सो विलंबित गति से दोनों अनुचर गिलास उठा रसोई गये. फिर आ कर बताया कि पानी नहीं है नल में.

भोला दत्त जी ने स्थिति स्पष्ट की कि पानी तो सुबह ही आता है. भर कर रखना पड़ेगा. पीने का पानी तो वह भी महादेव के नौले से लाते हैं. फिर एक बाल्टी पानी भीतर से ला सामने रख दी कि अभी इससे काम चलाइये. अगरवाल बोला उसके सामान में बाल्टी तो है नहीं टब होगा उसमें डालो. टब ढूंढने के चक्कर में बर्तन की कुल जमा तीन बोरियां बाहर बरामदे में ही खुल गईं. ले भाई डाडू, पणयूँ, चम्मच, कटोरी और उन्हीं में ठूंसे चीनी मिट्टी के कप भी जिनमें कइयों के हैंडल इस घपड़ चौथ में टूटे दिख रहे थे. तीन गिलास स्टील के दिख ही गये तो धुले भी. कोने में रखी तिपाही पर उन्हें टिका अपने बैग से अगरवाल ने कुछ व्हिस्की जैसी बाटली निकाली और बहुत थकान का एलान कर अपने अनुचर समीप बुलाए. लीजिये लीजिये कह भोल दा और बाल दा को निमंत्रित किया. अरे नहीं नहीं कह भोल दा और बाल दा अपने अपने सेट में घुस गये. बाल दा ने तो दरवाजा भी बन्द कर दिया.

मैं और भुवन मलकानी भी पडोसी का सामान टंजियाने उपस्थित हो गये. व्हिस्की की बाटली के दर्शन हमें भी कराये गये जिसे पूरी सात्विकता के भाव से हमने हाथ जोड़ मना कर दिया. मेरे सामने जो बड़ी सा आयताकार पेटी थी उसे टटोला तो भीतर कुछ सॉलिड माल होने का एहसास हुआ. ऊँगली के इशारे से पूछा कि इसमें क्या तो अग्रवाल की चहकती आवाज आई, “अरे भई पांडे जी इसमें हमारी जान का प्यारा सेक्सोफोन है. सब एडजस्ट हो फिर जमेगी महफिल.”पड़ोसी खिड़कियों से कुछ चेहरे गुपचुप नज़ारा देख रहे थे. मैंने पाया अब उनमें कुछ खुसुर पुसूर होने लगी थी.”
(Memoir of Pithoragarh Mrigesh Pande)

“ये सेक्सोफ़ोन क्या हुआ?”, भुवन मलकानी की बड़ी-बड़ी आँखों में अजब सा कौतूहल था.

हारमोनियम जैसा ही होता है, गले में लटकता है. मैंने भी फिल्मों में ही हीरो को बजाते देखा है. कह में बोरी में सिले उस वाद्य यँत्र के दीदार को उत्सुक हो उसकी सुतली काटने लगा.

 फिर कुल तीन जमा गिटार खुले. बड़ी सावधानी से. उन सब की जात अलग-अलग थी. ढोलक भी पाई गयी जिसमें बकलम अग्रवाल ऊँट की खाल की पूड़ी थी.

और सब तो है पर तबला ना दिख रा तुम्हारे तबेले में, मैंने तंज किया.”अब क्या है भई पांडे जी, तबलची बन हमने संगत ना करनी. हम तो बस ओरिजिनल धुन बनाते है. तबलची बन पीटते रहना अपनी फितरत में नहीं. वैसे हमने अहमद जान थिरकुआ साब का तबला सुना है स्टेज पर पांच फिट की दूरी से. सामता प्रसाद को बजाते देखा है. पर हम तबलची वाला दोयम दर्जे का काम न कर पाएंगे”.

जिस दिन से अग्रवाल की काया हरिनन्दन निवास में नमूदार हुई इस इलाके की फिजा ही बदल गई. एक तो हरिनन्दन निवास से तीन-चार सौ फिट दूरी पर नर्सिंग ट्रेनिंग व हॉस्टल का छोटा मोटा संस्थान था जिसके आस पास उग आती दुकानों में तरह-तरह की आस पाले शहर के रसिक गण शाम होते ही श्रृंगार विरह व मिलन का अद्भुत सा माहौल रचते. अजीब ठरकी, अधेड़ व बलशाली औकात वाले भी किसम किसम की जोर आजमाइश में निमग्न रहते. सात आठ बजे तक रोज ही एक आध गुलगप्पड़ चीख गाली गलौज देख लूंगा काट दूंगा की आवाजें भी गूंजती. उस पर जब से अग्रवाल का प्रवेश हुआ बालदा और भोलदा के चेहरों पर रोज कुछ नई लकीरें बनती बिगड़तीं. दोनों के बड़े परिवार थे और लड़कियों की संख्या भी काफी जो प्राइमरी से बी.ए, एम. ए की क्लास पढ़ रहीं थीं. चुस्ती से घर आंगन-गोठ का काम निबटा पढ़ाई के साथ अथेलेटिक्स में भी दखल रखतीं. पर यह कैसा बेसऊर आ गया जो भोर की किरण के साथ कभी मुन्नी बेगम लगा देता तो कभी मेंहदी हसन और उसकी जमात के एच एम वी वाले कै सेट रात के तीसरे पहर तक उसके टेप में घिसटता रहता. उसके संगीत प्रेम से मोहल्ले में काफी घपड़ चौथ हो गयी.

हमारे विभाग में जगदीश चंद्र पंत जी के आ जाने से गतिविधियों में बड़ी तेजी आ गई थी. खुद वह बहुत बढ़िया शिक्षक थे, आर्थिक विचारों के इतिहास और लोक वित्त में उनकी गहरी पैठ थी. साहित्य भवन, आगरा से उनकी आर्थिक विचारों का इतिहास किताब ऍम.एल. सेठ के साथ छप चुकी थी जिसका पूरा प्रवाह डॉ. पंत का ही लेखन था. अभी किताब प्रकाशन में वह नये थे इसलिए साहित्य भवन के बंसल बन्धुओं ने तथाकथित बिकने वाले लेखक का नाम उनके साथ चस्पा कर दिया था. उनके घर जाने का संयोग अक्सर होता था और अपने किराये के मकान जनार्दन भवन में उन्होंने वह जगह मुझे दिखाई थी जहाँ बैठ कर वह नियमित लेखन करते थे. लोहे की अलमारी की आड़ में बनी चौखा मोड़ कर बैठने लायक जगह में उनका आसन था जिसमें मुनीमों वाला डेस्क था. मैं जब उसे गौर से देख रहा था तब वह बोले, “बस नियम से रोज बैठता हूँ, कुछ मिले न मिले, कोई पढ़े न पढ़े, बिके न बिके की परवाह किये बगैर मैं तो बस लिखता हूँ. लिखते हुए हर बार कुछ नई किताब भी रखता हूँ उससे मेरा रिविजन भी हो जाता है”.

पंत जी का परिवार खूब बड़ा था. घर में गाय-बछिया बँधी रहती. गृह लक्ष्मी घास-पतार में अक्सर दिखतीं. उनके हाथ से बनी चाय तो अद्भुत ही होती. कुत्ता भी उनके घर हमेशा.उनकी बड़ी दो लड़कियां मेरी छात्राएं थीं, खूब होशियार और उनके घर में भी, मैं देखता कि सब कुछ बड़ा व्यवस्थित होता और हर कोई किसी न किसी काम में लगा होता. उनकी छह लड़कियां व एक सुपुत्र था जो अभी छोटा था दुबला पतला एकहरा जिसकी चंचल आँखे हर पल किसी ढूंढ खोज में रहती थीं. पहली बार में ही उसने मेरे कैमरे के चौकोर खाकी रंग के झोले के बटन को खोल, उसमें क्या जो है का भाव अपने चेहरे में बड़ी मासूमियत से प्रकट कर दिया था. पंत जी ने कहा अब तूने ये नई खुराफ़ात दिखा दी इसको, अब देखना ये जब तक ले न लो जिद करता रहेगा. और हुआ भी ऐसा ही. धीरे-धीरे अभिषेक के फोटो और नाटक में बढ़ते शौक का जिक्र कर मेरी ओर लगातार देखते रहते. मुझे तो लगता कि वह मन ही मन इस सक्रियता से खुश हैं क्योंकि मुझे वह इन क्रियाओं के लिए हमेशा उत्साहित करते. उनके रहते किसी भी व्यवस्था में कॉलेज व शहर में अड़चन भी न आती. पर ये जरूर जताते कि उनका परिवार बड़ा है, बहिनें हैं-बेटियां हैं अपना घर भी नहीं है यहां. सब देख चलना पड़ता है मृगेश. अक्सर कुछ कहते, अपना हाथ वह मेरे कंधे पर टिका देते. मैं सब समझ जाता. पांच बहनें और दो भाई मेरे भी थे. अभी मैं और गंगोत्री ही नौकरी में लगे थे बाकी सब पढ़ाई में.

पंत जी का सामाजिक दायरा बड़ा खुला था. शाम के समय अक्सर वह पुराने शिवालय से ऊपर चढ़ते गुप्ता के यहाँ से पान खाते और उनके साथ चलते-चलते इतने लोगों से उनकी भेटघाट और बातें होतीं कि खूब नई जानकारी और सौल-कठोल से दिमाग भर जाता. पहले- पहले यहाँ लोगों से परिचय होने और बातचीत होने पर मुझे वो असजिले इतराट से भरे लगते. देश से आए सारे अध्यापक अपने ज्ञान और पढ़ाने की कला का लोहा मनवाते थे तो उनसे थोड़ी पेंस चलती अब कोई कुमुँ वालों से खार खाता,कोई अल्मोड़ि चाल से. गंगोली वाले तो दिमाग से बहुत ही तेज माने जाते, कहा जाता ‘एक गंगोली दस रंगोली’. धीरे-धीरे जब मैं उनमें रम गया तो पाया मुँह से भले ही सोर वाले झुर-झुस करें,पर दिल से बड़े साफ और स्वागत सत्कार, खिलाने-पिलाने वाले हैं. यहां के पर्व त्यौहार भी खूब धूम धड़ाके से मनते हैं. पूरे खिलंदढ़पन से.
(Memoir of Pithoragarh Mrigesh Pande)

पंत जी के साथ आगे सिलथाम चौराहे से बंदूक की दुकान तक साथ होता जो उनके मित्र व पक्के कोंग्रेसी माहरा साब की थी. उसमें धीरेन्द्र दा यानी धीरेन्द्र सिंह चौहान बैठे दिखते जो फुटबॉल के जाबिर खिलाड़ी और कोच थे. पंत जी फिर वहीं रम जाते और हम और आगे जिलाधिकारी आवास को जाती भाटकोट सड़क को निकलते जहां से पंचचूली की चोटियां अद्भुत दमकतीं. भाटकोट की उस पहाड़ी पर नीचे की ओर कई गुफाएं भी थीं. जिनके इतिहास के बारे में मदन चंद्र भट्ट जी ने एक बार उनके साथ बिषाड़ गांव जाते बहुत कुछ बताया था. बिषाड़ पर उन्होंने इतना ज्यादा बताया था कि भटकोट का इतिहास मैं तब नोट न कर पाया और फिर भूल गया. रामसिंह जी से जब ऐसी कुछ बात चली तो उन्होंने कहा ये इतिहास वाले सब अपनी-अपनी चलाते हैं. ऐसा हुआ होगा कह फाइनल नतीजा देते हैं. अरे प्रमाण तो दो.

अब जैसे यहाँ सोर में थलकेदार पहाड़ी की दक्षिणी तरफ नागथल की ओर भरत भंडारी और उसका दोस्त गोविन्द भंडारी अपनी गाय चरा रहे थे. वहीं नीचे सड़क से वह अपने घर के लिए चट्टान से पत्थर निकलने के लिए गेंती से खोदने लगे तो धातु से टकरा कर बजने वाली आवाज आई. अब और खोदा तो पहले एक सड़ा गला ज्योड़ा यानी रस्सी मिली. जिससे एक घंटी बँधी थी जिसके अंदर ताँबे के कुछ सिक्के थे और साथ में चांदी का धगुला. दीप चौधरी खूब मेहनत कर नतीजे निकालता है. मदन भट्ट जी से मिल, लाइब्रेरी वाले पांगती की मदद से उसने पाया कि ये सिक्के सल्तनत काल के सैय्यद वंश के हैं, हजार साल पुराने. वह मेरे पास आया और पूछा तो मैंने पुराने प्रमाण का सहारा लिया.’

डॉ. राम सिंह जी के साथ थल केदार की चढ़ाई चढ़ते बातचीत हो रही थी. वह पहाड़ की चढ़ाई भी लमालम चढ़ते थे और हांफते भी न थे.

‘पहले से ये थल केदार का इलाका धार्मिक केंद्र हुआ. इसे केदारश्वर का वास कहा गया जो भगवान शिव के गण हुए. कहते हैं एक बार हल्दू राक्षस के अनुचर ने वड्डा को जाते पथ पर ठुलीगाड़ में एक बड़ी चट्टान लुड़का दी तो तमाम नौलों, धारों, स्त्रोतों का जल वहां जमा हो गया. ऐसे में चटकेश्वर, देवलसमेत व कुलेश्वर के देव स्थल पानी से लबालब भर गए. तब इस जाव को तोड़ने के लिए केदारश्वर से अनुरोध किया गया. केदारश्वर ने अपने गण को भेजा कि वह राक्षस का अंत कर सब ठीक-ठाक करे. इस गण का राक्षस से युद्ध हुआ. हल्दू के राक्षस ने गण की जीभ काट दी जिससे गण का नाम लाटा पड़ गया. आखिर लाटा ने अपने पराक्रम से राक्षस को हरा दिया उसके जाव को तोड़ा और फिर चट्टान को खंड-खंड तोड़ा जिससे जाम हुआ पानी बह निकला. ये थल केदार पिथौरागढ़ से सोलह किलोमीटर की दूरी पर पड़ने वाला हुआ जहां जाने के लिए ऎचोली, नकुलेश्वर व आठगांव शिलिंग होते रस्ता पड़ता है. बड़ावे से दो किलोमीटर पैदल चढ़ भी यहां आया जाता है. पहले के बखत में यहां के दर्शन कर देश के अलग-अलग प्रांतों से परिज्रावक और तीर्थयात्री कैलास-मानसरोवर की यात्रा के लिए निकल पड़ते. थलकेदार के पहाड़ी ढलानों पर दसवीं से बारहवीं सदी के मंदिरों के समूह तो अभी भी हैं. इनमें नकुलेश्वर मंदिर समूह, मरसोली मंदिर समूह और दिगांश मंदिर समूह मुख्य हुआ. दिगांश मंदिर समूह सबसे पुराना है जिसमें 1027 शाके का एक लेख खुदा है. अब इन मंदिर समूह से गुजरते किसी तीर्थ यात्री की असमय मौत की भी खबर उड़ती रही. खबरबात ये भी फैली कि जहां का वह बाशिंदा था वहां उसकी अंतिम क्रिया करना असंभव मान उसके शव को वहीं गाड़ दिया और साथ में उसके साथ के ढेपुए-आभूषण भी. दूसरी बात इस चौल से जुड़ी कि भूमि पर निर्माण करते हुए उसकी नींव में सिक्के-ढेपुए जर-जेवरात रखे ही जाते हैं. ऐसे सिक्के वहां भी भूमि में रखे जाते हैं जिसे मूर्ति धार कहते हैं.

‘सिक्के तो फिर मिले जब पिथौरागढ़ जिले में चम्पावत के पास सड़क खुद रही थी’. रामसिंह जी बताते हैं कि पुरातत्व शास्त्री जेड. ए. देसाई के उनको भेजे पत्र के अनुसार ऐसे चांदी के सिक्कों को 1216 से 1316 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के काल में ढाला गया. भनौली में भी सड़क खुदाई करते ऐसे सिक्के मिले. दीप चौधरी के पिता जी श्री मोती राम चौधरी इस इलाके के बड़े जानकार रहे. उन्होंने बताया था कि जब नादिर शाह ने दिल्ली में क़त्ले आम किया तो दिल्ली सल्तनत की इस लूट में चार गोरखा सिपाही चांदी के सिक्कों और सोने के जेवर से भरे संदूक भर कर ले आए थे. उनमें एक गोरखा सिपाही लोहाघाट में चांदमारी के निकट, दूसरा पिथौरागढ़ में लेलू गांव में नैनी-सैनी के पास, तीसरा सोर बाजार और चौथा चर्मा में बस गया था. सोर में ‘पंचमार्क’ सिक्के भी मिले जिनमें हर एक की तोल बराबर न थी जबकि औसत तोल चार आने भर की होती थी. इन्हें ‘ढेला’ या ‘दामड़ी’ भी कहा जाता था’. लोग बाग अपनी आम जरुरत की चीजों में इन ढेपुओं-सिक्कों का प्रयोग पहले नहीं के बराबर करते. वैसे भी बाजार पर निर्भरता बहुत सीमित होती. अदल-बदल या वस्तु विनिमय से अपनी जरुरत पूरी की जातीं. ठीक यही बात यहाँ सदियों से चले आ रहे व्यापार पर भी लागू थी.

 सीमांत का यह व्यापार और यहां के दुर्गम पथ तो अपने में अनोखे ही रहे. वहां के दर्रों, बुग्यालों, हिम शिखरों को पार करके ही उस सनसनी और रोमांच का अनुभव किया जा सकता है जो यहाँ के बासिंदो के तन-मन में पीढ़ी दर पीढ़ी नया इतिहास रचते गये. काम की, व्यवसाय की नवीन संस्कृति को जन्म देते गये. वो सब एक दूसरे पर निर्भर थे इसलिए सहयोग और सहकार उनकी रग-रग में समाया. अनगिनत जोखिम झेल उन्होंने कुशल व्यापार की नींव डाली.

(जारी)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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