पिछली कड़ी : डी एस बी के अतीत में ‘मैं’
डी एस बी मेरे लिए इसलिए भी खास बना रहा कि मेरा बचपन इसी की परिधि में बीता. वहीं घर था सरकारी, अंग्रेजों के समय का बना. टीन की छत, भीतर की तरफ लकड़ी लगी हुई. तीन कमरे अंदर थे. साथ में पूजा का एक छोटा कक्ष. उससे लगी बड़ी सी रसोई जिसमें दो तीन चूल्हे थे और धुँवा बाहर जाने को ऊपर चिमनी भी थी. कोयले की अंगीठी भी सुलगती थी. भारी-भारी सग्गड़ भी धरे दिखते और जांती भी. कोयले के चूरे में गोबर मिला उनके गोले बना घर की महिलाएं पिछवाड़े धूप में उन्हें सुखा देती जो जाड़ों भर चलते.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
जाड़ों की अरड़ पट्ट को दूर करने के लिए इसके इंतज़ाम बारिश का मौसम खतम होते ही शुरू कर दिए जाते. कक्का जी वन विभाग में रेंजर थे. लकड़ी कोयले की इफरात थी. रसोई के बगल में भंडार कक्ष भी था जिसमें दो अलमारियों की तो मुझे पक्की याद है. भीतर के कमरों से बाहर खूब सारी कांच लगी खिड़कियों से घिरा बरामदा था जिसमें दो बड़े कमरे और फिर बैठक थी. इसके बाहर निकल जाओ तो बाहर आँगन था खूब लम्बा पर उसकी चौड़ाई कुछ कम थी. उसके नीचे करीने से बनी क्यारियां थीं. उन पर निराई गुड़ाई करते दीनामणि सगटा जी मुझे बड़ा अच्छा मानते थे. अपनी खोद खाद करते हुए खूब बात करते. काथ सुनाते और पहाड़ी गाने भी गाने लग जाते. बताते कि पेड़ भी सब सुनते हैं चिताते हैं. बाहर बहुत सारे वृक्ष थे. कभी उनमें फूल आते. आड़ू और नाशपाती भी लगती. पत्तियाँ भी झड़ती रहती उन्हें किनारे बटोर हरलाल रोज उनमें आग लगाता. झिकड़े-मिकड़े बटोर उनमें आग लगाने की बप्पाजी को भी आदत थी. हम भी इस धम-धुकुड़ी से बड़े खुश होते और बदन तताते. जाड़ों में तो ऐसे खतड़ुए कितनी बार जला दिए जाते. असल खतडुआ घर के ऊपर के फील्ड में मनता. तब तक इन पेड़ों पर खूब ककड़ियाँ भी लदी दिखतीं.
छुट्टी का दिन छोड़ कर बप्पाजी का चमड़े वाला बैग लिए उनके पीछे-पीछे छाया बना गंगा सिंह चलता. बप्पाजी के सामने उसका मुख सिला रहता.जब वो नहीं होते तो खूब जोर जोर से बोलता. ईजा उसे देख कहती आ गया कुकाटी. मेरी हरकत पता नहीं कहां से देखता और साब से शिकायत लगाने की धमकी देता. बप्पाजी जब घुमाने ले जाते तो वह भी साथ होता. मैं कहीं इधर उधर न जाऊं सोच इतना कस के मेरा हाथ पकड़ता कि उंगली सुन्न कर देता. जब वो न होता तो गुरूजी साथ होते. उनके साथ चलने में खूब मजा आता और वो हाथ वाथ भी नहीं थामते.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
इस घर के दाएं कोने का एक दरवाजा रसोई को और दूसरा बैठक को जाता. उस पर छोटा सा दालान था. इससे ऊपर सीढियाँ फिजिक्स लेक्चर थिएटर को जातीं जहाँ दस बजे घंटी बजते ही चहल-पहल बढ़ जाती. घंटिया भी तीन जगह बजतीं थीं. एक केमिस्ट्री लेक्चर थिएटर के पल्ले, दूसरी नीचे आर्ट्स ब्लॉक में और तीसरी बिल्कुल नीचे इंटर वाले सेक्शन में. नौ बजे से ही रौनक शुरू हो जाती. बप्पा जी ठीक नौ बजे तैयार दिखते. कॉलेज जाते वह ज्यादातर बंद गले का कोट पहनते. जाड़ों में मफलर टोपी भी. कॉलेज में कोई प्रोग्राम चलता तो खुले गले का कोट भी पहनते. हमेशा खूब सजे संवरे रहते.मुझे खूब याद है कि जब भी आवारा भिदढू बने हम भाई-बहिन, संगी-साथी कॉलेज के परिसर में डोलते बप्पाजी को दिखते तो हमसे ज्यादा डाँठ ईजा, चाची और माया दी को पड़ती.महेश दा को भी हमारा आवारापन बिल्कुल पसंद न था.
घंटी बजती. सीढ़ियों से ऊपर पी एल टी की ओर जाते तमाम स्टूडेंट दिखते. क्लास लगतीं. हम बच्चे यह नजारा देखते. जब वहां कोई न होता तो पी एल टी में ऊपर की ओर उठी उन बेंचोँ में बैठ जाते. अक्सर मैं मास्साब भी बन जाता. सामने बड़ी मेज पर रखी चौक से बड़े लम्बे ब्लैकबोर्ड पर कभी कुछ लिखता, कभी चित्र बनाता. हरलाल का लड़का पप्पू प्रिंसिपुल साब बनता. उसकी आदत थी हर दो-एक मिनट में नाक में ऊँगली डाले रखने की. कभी कभार बड़े लोगों में हमारे दाज्यू लोग भी यह तमाशा देखते.
दिनेश दा ने एक बार पप्पू को एक पेन दी और कहा कि अब वह प्रिंसिपल साब बन गया है, चल इस पेन से दस्तखत कर. खुशी के मारे पप्पू का मुंह आधा खुल गया. दिनेश दा के साथ उनके एक दोस्त भी थे उमेश्वर सिंह. बड़े ही मुंहफट और गुस्सैल भी. खुद को खसिया कहते और बोलते बामण की यारी गधे की सवारी. दिनेश दा ने जब पप्पू को पैन दी तो हँस कर बोले, “हाँ ले पैन ले,अभी कर ले एक्टिंग बच्चू बाद में तो गू ही उठाएगा. झाड़ू ही मारेगा”. ये बात महेश दा ने सुन ली और उन्हें खूब डांठ लगाई. हाँ हो दाज्यू गलती हो गयी. खट्ट कह देने की आदत जो हुई. अब माफ भी कर दो हो कह उन्होंने कान पकड़ उट्ठक-बैठक लगा दी.हम सब खितखिता गए.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
कई साल बाद जब दिनेश दा के. जी. के कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस के प्रवक्ता बने तो उमेश्वर सिंह भी मुरादाबाद में बैंक में नौकरी में लग गए. दोनों यार साथ ही रहते. जब हमें दद्दा मुरादाबाद ले जाता तो उमेश्वर दा हमें खूब घुमाते. कभी कटघर की ओर कभी पीतल के कारखाने.दिनेश दा कहते कि यहां के बड़े लाला इसने खूब पोट रखे हैं. ईजा, माया दी और हम भाई बहनों को वह दिलशाद सिनेमा भी ले जाते और खूब मार धाड़ वाली पिक्चर दिखाते. ईजा और माया दी तो खूब नाराज हो कहतीं कहाँ बात कर रहा था सम्पूर्ण रामायण की और यहां दिखा दी ऐसी खिचरोल. उनके लाख मना करने पर भी चाट-टिक्की खिलाते. वैसे खुद बहुत ही सुबे उठ जाते और एक धोती बांध बड़ी देर तक पूजा करते.मंत्र वंत्र भी पढ़ते और विभूत लगाते. किसी की तबियत खराब हो तो उसकी झाड़ फूक भी करते. खुद को भैरव का भगत बताते और रोज अपने हाथ से ढेर सारी रोटियां पाथ मुहल्ले के कुत्तों को खिलाते.
पुरानी यादें सुनाते दिनेश दा बताते कि महेश दा उनसे कहते थे कि अब जमाना तेजी से बदल रहा. दूसरी औद्योगिक क्रांति का युग है ये. हमारे देश में भी नेहरू ने महालनोबीस का मॉडल लागू किया है. सोवियत रूस से क्रांति की ऐसी शुरुवात हो चली है जो आम आदमी को उसका हक देगी. अब क्यों मेहतर का लड़का मेहतर ही बने?अब जमाना बदल रहा. तुम भी हमेशा ठुल धोती बामण नहीं रहोगे. मार्क्स ने कहा कि अपने हक की लड़ाई में सब मजदूर एक हो जायेंगे और अपना हिस्सा मांगेंगे.जब मैं इंटर में इसी डी एस बी परिसर में पढ़ने लगा तो बड़े दद्दा की कई बातें उनके शौक उनकी शायरी उनका फैज और मंटो और ख़्वाजा अहमद अब्बास मेरी यादों में उमड़ घुमड़ करते रहा. महेश दा जात पात नहीं मानते थे. जनेऊ भी नहीं पहनते थे और श्राद्ध के दिनों में भी लाशण प्याज़ खा देते थे. कहते तो मेरे बप्पा जी भी थे कि,” जिए बाप को लट्ठम लट्ठा मरे बाप को पिंड”. पर वह रोज सुबह दुर्गा माता की पूजा करते और शंख घंट बजाते.ज्वालामुखी ईष्ट हुई बल तो हवन भी करते.
यादें बड़ी गहरी होती हैं. पीछा करती हैं और कहीं छपछपी लगा जातीं हैं. फिर वही अपना डीएसबी जिसके परिसर में कई जगह फैले क्वार्टर के सभी बच्चे शाम होते ही जमा हो जाते. पीएलटी के ठीक बगल में एक छोटा मैदान था. महेश दा और दिनेश दा वहां अपने दोस्तों के साथ बेडमिंटन भी खेलते. हमारी फौज भी रहती, हरलाल का लड़का पप्पू, गंगा सिंह का लड़का, कुशाल सिंह के दोनों लड़के और नितुवा भी जो गुरूजी यानी हरकिशन जोशी का साला था और छोटी उम्र में ही गांव से शहर आ गया था. हरकिशन जोशी जी ऑफिस में चपरासी थे पर पढ़ने लिखने के शौकीन. हर काम में माहिर. सलीकेदार. इसी कारण उनका नाम गुरूजी पड़ गया. खूब मेहमान आते तो चाय उन्हीं के हाथ बनती. फुल्के तो ऐसे जैसे गोल डिब्बा. गुरू जी महेश दा, दिनेश दा,अतुल दा, जीवन दा की उम्र के ही थे. सब दोस्त भी उन्हें बहुत पसंद करते.वह बहुत मोहिले थे.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
हर काम बहुत साफ सुथरे तरीके से करते. बचपन से ही उन्होंने मुझे देखा था. मेरे बालपन की कई हरकतें उनके मुख से बार बार सुनी थीं. इस कॉलेज से जुड़ी कितनी यादें भी मैंने बार बार उनसे ही सुनी थीं. महेश दा और दिनेश दा के तो वह खास थे. दोस्त जैसे. हमारे घर में कोई पूजा पाती हो या शादी बारात सब में गुरू जी का मैनेजमेंट चलता था. गुरूजी के बड़े भाई मोहन दा हुऐ. वह खाना बहुत अच्छा बनाते थे और बड़े सऊर वाले थे. मोहन दा ऑब्जरवेट्री में काम करते थे. बाद में वह वहां के डायरेक्टर सिनवल साब के अर्दली रहे. उनका साला नित्यानंद हुआ जो मुझसे कुछ बड़ा था. जब वो गाँव से आया तो हमारे ही घर रहा. और भी कई लड़के थे. दिलीप था. धन सिंह था.
गांव से इस डी एस बी तक सफर पूरा करने वाले तृतीय श्रेणी चतुर्थ श्रेणी वाले काम पर चिपक गये बहुत सारे लोग रहे जिन्होंने अपने कई जान पहचान वालों व संबंधियों को इस परिसर का हिस्सा बना दिया था. उनमें बहुत सारे यहाँ पहले डेली वेज पर काम पाते. ज्यादातर पढ़ाई में तेज निकले. उनमें कइयों को पुअर बॉयज फण्ड का सहारा मिलता. फीस माफ होती. यहाँ के प्राचार्य बड़े उदारमना रहे और उनका कार्यालय भी जिसमें सभी गावों से आ सरकारी नौकरी से चिपके थे. मेरे बप्पा भी उनमें एक थे. खुद भी वह अल्मोड़ा के पल्यूं गाँव के भगोड़े रहे. इस कारण उनका दरबार भी बहुत संवेदन शील था नौकरी और चाकरी के मामले में. बप्पा जी की टीम ऐसे अवकलन-समाकलन में सिद्ध थी. मोहन चंद्र जोशी जी, प्रेम बल्लभ बाबू, डंगवाल जी मेहरा बाबू और भी बहुत स्वाभिमानी चरित्र जो अलग अलग विधाओं के माहिर थे चाहे क्लासिकी संगीत हो या हाथ का क्राफ्ट. बप्पा जी तो इस कॉलेज की हर खूबी के पीछे का राज यहां रहे प्राचार्य खास कर ए. एन. सिंह और के एन श्रीवास्तव की शख्शियत को मानते थे जिन्होंने पढ़ाई लिखाई के साथ खेल कूद, संस्कृति, लोक विरासत को जरुरी समझ ऐसी इकाईयां गठित कर दीं जिनमें हर कोई अपनी रूचि के हिसाब से शिरकत करता था. उन्होंने स्टॉफ के साथ सेक्रेटरियल स्टॉफ का भी क्लब बनाया जिसमें भांति भांति के आयोजन होते. उनकी कोआपरेटिव भी थी जिसमें आम जरूरत का सामान मिलता.

ऊपर ए एन सिंह हाल में कभी भाषण होता तो कभी नाच गाना और नाटक साल भर कुछ न कुछ आयोजन होता रहता. घरों में भी गाना बजाना महफिल के भी आयोजन होते. होली की बैठक भी जो रात अधरात तक चलती. कभी किसी के यहां कभी हमारे घर.खुद बप्पाजी बड़ा अच्छा गाते थे. शास्त्रीय गाने हों या फिर उनके पसंदीदा के एल सहगल, सी एच आत्मा और पंकज मलिक. मुझे तो सबसे अच्छा हरलाल का गाना लगता. ढोलक, हारमोनियम और बेंजो का भी वह उस्ताद था. महेश दा उससे बिरहा सुनाने की फरमाइश करते. शाम के गहराते उसकी आवाज कितनी दूर तक गूंज जाती. ऐसा लगता सामने के पहाड़ से लौट लौट कर टकरा रही है कानों में.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
डी एस बी के अपने घर के आँगन से नीचे सीढियाँ थीं जिसके अगल बगल क्यारियां. बप्पा जी को भी बोने उगाने का खूब शौक था. उनकी इस चाहत को समझ गरम पानी गाँव से मेरे आनंद मामा कई किस्म के बीज लाते. पहाड़ी धनिया, मेथी, पालक, हालंग, लाई, गेठी. पूरी सार संभार दीनामणिजी करते. बप्पाजी का एक और विकट शौक था धमधुकुड़ी करने का, यानी सूखे पत्ते लकड़ी अटरम-बटरम बटोर उसमें आग लगाने का. बची राख पौधों में डाली जाती खास कर दुन, लहसुन प्याज़ और पालक में. इस आँगन से नीचे छोटा मैदान था जिसमें दिन भर चहल पहल रहती. शाम के समय एन सी सी की परेड भी होती. लेफ्ट-राईट, लेफ्ट-राईट. परेड थम. यहीं नेवल एन सी सी का दफ्तर भी था. उसकी सफेद ड्रेस में सजे स्टूडेंट्स को हम ऊपर से देखते.
इस छोटे मैदान से सटे भवन में आर्ट्स ब्लॉक था जिसके नीचे के तल में खूब बड़ा पुस्तकालय था. ख्याली राम बिष्ट जी जिनको हम ताऊ जी कहते अक्सर इस मैदान में कुर्सी लगा और भी कई लोगों के साथ शाम के बखत धूप तापते दिखते. हमें देख नीचे आओ का इशारा करते. बड़े दुलार से हम बच्चों से कई बातें होती. बेधड़क हम लाइब्रेरी भी चले जाते जहाँ सबसे भीतर के कमरों में पुरानी किताबों पर नई जिल्द लगती अबरी चिपकती. देखादेखी मैं भी घर लौट आटे से लेई बना चिपकाने के काम में खो जाता. ईजा और माया दी से डांठ भी खाता.
बप्पाजी मेरी इन सारी हरकतों को जानते थे पर डांठते पीटते नहीं थे. मुझे मालूम था कि उनका गुस्सा बड़ा विकराल होता था. महेश दा तो उन्हें दूर्वासा कहते थे. अब एक जगह टिक कर बैठने की मेरी आदत न थी. बचपन में कहीं भी अकेले कहीं भी सटक लेने का हुनर मुझे पप्पू से मिला था. वह भी आउट हाउस वाले अपने घर से हमारे घर की सीढ़ियों पर आ खड़ा होता और दो उंगलियां मुंह में डाल सीटी बजाता. बार-बार जब तक में बाहर न आ जाऊं. खड़ा वह सीढ़ियों पर ही रहता, नीचे न आता. यह हम दोनों को मालूम था कि हमारा साथ घर की औरतों को बिल्कुल पसंद न था. पर मुझे मालूम था कि उसका दिमाग बहुत तेज है. सत्तरह का पहाड़ा भी वो हनुमान चालीसा की तरह खट्ट सुना देता था जबकि मुझे वो याद ही न होता था.पप्पू के साथ नीचे सीढ़ियां उतर अक्सर हम नीचे उतरते चले जाते.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
वो बिम्ब, वह स्थान और कई सूरतें मुझे बड़ी अच्छी तरह याद हैं. कितनी सीढ़ियां उतर जाते. आर्ट्स ब्लॉक फिर साइंस ब्लॉक फिर और नीचे. तब खूब सारे पेड़ पौंधो से भरा शीशे से ढका बड़ा सा कमरा देखते. वह ग्लास हाउस था. वहां नारायण कका की ड्यूटी रहती जिनका पूरा नाम नारायण सिंह था. मुझे याद है वो उस ग्लास हाउस के भीतर ले जा हमें वहां उगाए कितने ही पौंधे दिखाते और बताते भी कि इससे ये बनता है वो बनता है. ये दवा वाले पौंधे हैं. ये जंगली फूल हैं. ये सब देख मुझे अपने मामा का गांव गरमपानी याद हो जाता जहाँ जड़बील से ले सिलटूना तक मेरी नानी जिसे हम आमा कहते थे खूब घुमाती और नंगे पाँव चलते-चलते बताती जाती कि ये बिराम्ही है इसकी पांच पत्ती रोज चाब लो तो दिमाग खूब तेज हो जाता है. ये तीमुरा हुआ और वो झाड़ उसे हाथ मत लगाना उसकी फली को छुएगा तो खुजली लग जाएगी. और सिसुण तो हुआ ही जिसकी पीली ककड़ी खाने में बड़ी स्वाद होती.
डी एस बी में अपने घर के दायीं तरफ पी एल टी की तरफ चढ़ती सीढियाँ तो मेरे भीतर कहीं चिपक सी गई हैं जो बार बार मन को कहीं चढ़ाने लगतीं हैं. फिर फिर कुछ घटनाओं की याद दिला देतीं हैं. सिर्फ मेरे साथ ही ऐसा नहीं होता. ईजा, महेश दा, दिनेश दा, माया दी, गंगा सिंह, हरकिशन गुरू जी न जाने कितनी बार यहाँ की कोई याद दोहराते और वो सब मेरे मन में छपती जातीं.लगता आज अभी इस घर के दालान पर खड़ा हूं. नीचे सीढ़ी दार क्यारियां हैं जिनमें न जाने कितने किस्म की लता बेल उगीं हैं. फूल खिले हैं, गैंदा है, हज़ारी है, कोस्मोस है, सफेद और गुलाबी रंग के गुलाब हैं. पइयाँ के पेड़ हैं.
लाइब्रेरी के पीछे के मैदान में कई लोगों के साथ बैठे ख्यालीराम ताऊ जी जब भी मुझे हाथ का इशारा कर नीचे अपने पास आने का इशारा करते हैं तो मैं तुरंत अपने घर से पीएलटी की सीढ़ियां चढ़, फिर नीचे भूगोल विभाग के पिछवाड़े की ओर जाने वाली कई सीढ़ियां उतर आगे चलते पोस्ट ऑफिस की ओर उतर जाता हूं. पोस्ट ऑफिस से पहले एक बड़ा सा पेड़ है जिस पर सफेद बड़े से कमल की तरह के फूल खिलते हैं और उनमें से झरती खुश्बू सब तरफ फैली है. इसे मैगनोलिया कहते हैं जो पच्चीस-तीस फुट ऊँचा तो होगा ही.अब इसके बगल से गुजर भीतर की ओर जाने वाले ऊपर की बिल्डिंग से ढके रास्ते से होते मैं उस ग्राउंड पर पहुँच जाता हूं. यहाँ आते पप्पू को भी धाल लगाता हूं जो हमारे ऊपर वाले आउट हाउस से मुझे देख रहा है. वह तुरंत आ जाता है साथ में कुशाल का बड़ा लड़का जीबू भी जो मेरे ही बराबर है.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
मैदान में कुर्सी पर बैठे बड़े ताऊ यानी ख्याली राम जी आ इधर कह मुझे तुरंत अपनी गोद में बैठा लेते हैं और खूब लाड़ करते हैं. खूब बात करते हैं और कहानी भी सुनाते हैं. इतनी कहानियां तो घर में मुझे आमा और माया दी भी नहीं सुनाती. अक्सर बड़े ताऊ के साथ एक और ताऊ होते जिनके हाथ में हमेशा कोई मोटी मोटी किताब होती. उनकी आवाज बड़ी कर्री होती. बातें भी खूब करते थे.क्या क्या पूछते. बड़ा हो कर क्या बनेगा? क्या पढ़ना अच्छा लगता है. मैंने तो साफ कह भी दिया था कि मैं ड्राईबर बनूंगा और हर बखत गाड़ी चलाऊंगा. पढ़ने और पहाड़े रटने में तो मेरा लोथ निकल जाता है. एक बार उन्होंने मुझे एक रंग बिरंगी खूब सारे चित्रों वाली किताब भी दी और कहा इसे देखना. छोटे दद्दा यानी दिनेश दा से मैंने पूछा था कि वो जिनके सर में बाल नहीं हैं गंजू हैं वो कौन हैं जिनने मुझे आज ये किताब दी तो दिनेश दा ने बताया कि वो हमारे कॉलेज में सर है पढ़ाते तो हिंदी हैं पर उनको संस्कृत, उर्दू अंग्रेजी सब आती है. उन्होंने दो सब्जेक्ट में एम ए किया है. पी एच डी भी हैं. वह कविता भी लिखते हैं और गजल भी. उनकी लिखी बहुत सारी किताब हैं.उनका नाम डॉ वी एन उपाध्याय है. यानी विश्वम्भर नाथ उपाध्याय. उन्होंने इतना पढ़ लिख दिया है कि गुरू गोरख नाथ की बात करते करते सीधे यह समझाने लगते हैं कि अपनी इन्द्रियों को वश में कर अवधूत कैसे बनें.
ये वह समय था जब में गोरखा लाइन में पढता था और दिनेश दा कई बार मुझे क्लर्क्सक्वाटर तक छोड़ देते थे. वहां उनका एक जिगरी यार रहता था. कई सालों बाद जब यहीं डीएसबी के इंटर सेक्शन से मैं इंटर कर रहा था तो मेरे गुरू तारा चंद्र त्रिपाठी जी क्लास में उन्हीं डॉ उपाध्याय का खूब जिक्र करते. त्रिपाठी जी तो जो बताते वह सीधा दिमाग में घुस जाता. पहले ही दिन उन्होंने मुझे क्लास में सबसे आगे की सीट पर बैठा दिया था. त्रिपाठी जी सिर्फ कोर्स वाली हिंदी ही नहीं निबटाते थे. वह हमेशा ऐसी बात बताते जो नई सी होती और बहुत कुछ सोचने पर विवश करती. अपने गुरू का जिक्र कर कहते कि गुरू तो वही जो घमासान मचा दे कपाल में.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
ये डॉ विश्वम्भर नाथ उपाध्याय जी थे जिन्हें त्रिपाठी जी अपना गुरू बताते थे जो तब राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर में प्रोफेसर बन चले गए थे. त्रिपाठी जी हमें समझाते थे कि साहित्य,समाज और इसके शास्त्र के बीच जो नया नजरिया है उसका दृष्टिकोण प्रगतिशील, दार्शनिक और सोसाइटी के ऐटिट्यूड की मौलिक स्थापनाओं की जरुरत से जुड़ा है. डॉ उपाध्याय की यही सोच है कि साहित्य और अकेडमिक लेवल पर हम प्रगतिशील, प्रयोगवादी और उदारवादी ऐटिट्यूड पर चलें. अब जानते हो तुम कि डॉ उपाध्याय ने रिसर्च किस पर की? तंत्र पर. और हैं भी पूरे तांत्रिक. उन्होंने मार्क्स को भी गहरा समझा है.मार्क्स ही क्या वह किसी भी विषय की व्याख्या और उसमें गहरे घुसने की कुव्वत रखते हैं. अब देखो यहीं नैनीताल में रहते उन्होंने एक संस्था बना दी साहित्य संगम जिसमें लेखक और कवि शारदा संघ और कभी आर्य समाज मंदिर में आपस में मिल बैठ अपनी रचनाएं सुनाते.
शारदा संघ में तो मुझे बप्पा जी भी अपने साथ ले जाते थे. हफ्ते पंद्रह दिन में अक्सर छुट्टी की शाम वहां संगीत के कार्यक्रम होते थे. रात देर रात तक गाना होता रहता और वो भी शास्त्रीय संगीत. होली तो पूस के बाद से ही गायी जाने लगती थी जिसमें बप्पाजी भी बैठे सर हिलाते रहते. मेरी समझ में तो कुछ आता नहीं था इसलिए मैं अक्सर सो जाता. बप्पाजी तब गंगा सिंह के साथ मुझे घर भेज देते. ऐसे ही आर्य समाज में भी कितने ही प्रवचन होते हवन भी किया जाता. वहाँ बाँके लाल कंसल जी थे जिनकी किताबों की दुकान में बप्पाजी और मोहन कका खूब गप बाजी लगाते. हम भाई बहिनों के लिए खूब तस्वीरों वाली किताब भी ली जाती. कई बार मौडर्न बुक डिपो भी ले जाते जहाँ जाना मुझे ज्यादा अच्छा लगता था. वहाँ चंदा मामा तो मिलती ही थी साथ में केक बिस्कुट पेस्ट्री भी सजी दिखती. बस उन्हें टूंगते रहो तो कुछ न कुछ बप्पा जी खरीद ही देते.
(Memoir of DSB by Prof. Mrigesh Pande)
छुट्टी के दिन मूड होने पर महेश दा जब घूमने के लिए साथ चलने को कह दें तो बहार ही आ जाती. कभी वह लोंग व्यू ले जाते जहां हमारे ताऊ जी रहते थे. कभी राजभवन के रास्ते जाते तो कभी तल्ली ताल के डी कर्नाटक की दुकान से सीधे ऊपर कलेक्ट्रट की चढ़ाई चढ़ सेंट मेरी कान्वेंट के बगल से ऊपर सीढ़ी चढ़ लोंगव्यू पहुँचते. उस घर के आगे भी खूब बड़ा दालान था और खूब गमले जिन में फूल खिले रहते. वहां पहुँचते ही बड़ी ताई खूब खुश हो जाती और मुझसे कहती ईजा को क्यों नहीं लाया. अब उनको क्या कहता? ईजा और माया दी के साथ तो महेश दा कभी नहीं घूमते. उन्हें छोटे दद्दा ही साथ ले जाते.
लोंग व्यू जाने को मैं हमेशा उत्सुक रहता. वहां ताई जी तरह-तरह की चीजें खिलाती तो थी हीं सबसे बड़ा आकर्षण होता अतुल दा का कमरा जहाँ वो लिखते पढ़ते थे. इतनी ढेर किताबें सब करीने से रखी. टेबल कवर भी सफेद, बिस्तर की चादर भी सफेद. टेबल लैंप, कागज, पैन और दूरबीन भी. दूरबीन को गले से लटका मैं बाहर घूम घूम दूर के पहाड़ देखता. वहां आभा दिद्दी थीं, मोहन और पूनम से मेरी खूब बात होती. पूनम की ड्राइंग बहुत अच्छी थी. खेल खेल में ही वह कागज में रंग बिरंगे चित्र बना देतीं. ड्राइंग का सुर मुझे भी चढ़ता पर मैं ब्रुश में रंग ले ले सब फतोड़ा फतोड़ कर देता. इससे बढ़िया मुझे फोटो खींचने का काम लगता था. महेश दा यूँ ही अक्सर मेरे गले में अपना भारी रूसी कैमरा लटका देता और फिर बताता कि कैसे घिर्री घुमा के क्लिक करनी है. कैमरा कैसे काम करता है यह बात तो बहुत सरल कर मुझे अतुल दा ने ही समझाई थी. ज्यादा लाइट हो तो लेंस का छेद छोटा रखेंगे और कम लाइट में उसे बढ़ा देंगे. ऐसे ही चिड़िया उड़ेगी तो शटर एक बट्टा दो सौ पांच सौ जायेगा और कोई स्थिर चीज हो तो एक बट्टा साठ या एक सौ पच्चिस. सब फिजिक्स का खेल है. उन्होंने ही मुझे बताया था कि उनके विभाग में उनके जो प्रोफेसर हैं डॉ पंत वो फिजिक्स में कुछ नई सी रिसर्च कर रहे हैं. देश ही नहीं विदेशों में भी उनके काम को लोग हैरत से देख रहे हैं.

डॉ. डी. डी. पंत जो महेश दा और अतुल दा के गुरू रहे और बस अपने काम में खोए रहते हैं. तब महेश दा ने बताया था कि डॉ. पंत किरणों पर काम कर रहे हैं और दुनिया जिसे कबाड़ मान चुकी उससे अपने मतलब की मशीन निकाल उन्होंने कोई बड़ा काम कर दिखाया है. महेश दा के दोस्तों के साथ सम्पूर्णानंद भवन में मैंने पहली बार डॉ डी डी पंत का भाषण सुना था. वह इतना सरल बोल रहे थे धीरे धीरे रुक रुक कर समझाते हुए कि मुझे लग रहा था कि ये सब मेरी समझ में आ रहा है.
डी. एस. बी. के इंटर सेक्शन में पहले ही दिन भौतिक विज्ञान की पहली क्लास में जीवन चंद्र पंत सर ने इलेक्ट्रिसिटी एंड मेग्नेटिज्म के बारे में जो बताया उसमें मुझे कई साल पहले डॉ. डी. डी. पंत के भाषण की याद आने लगी. अभी तक मैं बस ये जानता था कि वह मेरे जीवन दा हैं. बड़े खूबसूरत सूट टाई में सजे पढ़ने लिखने के शौकीन और नाटकों में भाग लेने वाले. उनका नाटक मिर्जा ग़ालिब मैंने बरसों पहले ए एन सिंह हॉल में देखा था जिसमें वो दाढ़ी बढ़ाए मियाँ ग़ालिब बने थे. फिर ख़ूनी लोटा भी देखा था. जीवन दा के पढ़ाने के सरल ढंग से मुझे फिजिक्स बहुत ही भा गया. महेश दा, अतुल दा सबसे मैंने फिजिक्स की बातें सुनी थीं जो बड़ी तर्क संगत होती थीं जिनमें एक्सपेरिमेंट की भरपूर गुंजाइश होती थी.
फिजिक्स डिपार्टमेंट में लैब टेक्निशियन थे चार्ली बाबू. वह बड़ी कठिन समस्या को बड़े आराम से प्रैक्टिकल में ऐसे समझा देते कि सारा मसला चुटकियों में सुलझ जाए. उनसे मेरे ऐसे तार जुड़े कि मैं उनका सहायक हो गया.
प्रैक्टिकल के समय पूरी लैब को कैसे व्यवस्थित करना है, किस एक्सपेरिमेंट में क्या कुछ चाहिए सब अकल में घुस गया. उनकी मदद करने में मुझे खूब मजा आता. तल्ली ताल से कॉलेज आते जहां झील में तैरने के लिए कूद मारने वाले पटरे लगे रहते, उसकी परली तरफ चार्ली बाबू की आटा चक्की भी चलती थी. बाद में इसी के बगल दो दोस्तों ने यात्रा और पर्यटन की संस्था खोली जिसका नाम रखा वाई टी डी ओ. इन मित्रों में विजय मोहन सिंह खाती मुझसे सीनियर थे जिनके साथ मैंने नाटक भी किये थे और राजा साह मुझसे जूनियर. वह मेरे कक्का जी के पक्के दोस्त साह जी के सुपुत्र रहे और इंदिरा फार्मेसी के ठीक सामने लच्छी लाल साह एंड संस वाली कपड़े की बड़ी दुकान उन्हीं की थी.दोनों अपने बूते दुनिया के एक बड़े हिस्से की सैर कर आये थे. अंग्रेजी के बड़े अख़बारों में भी ये खबर छपी थी. वाई टी डी ओ के ठीक बगल में ही आटा चक्की थी. वो जमाना राशन में मिले पी एल 480 वाले गेहूं का था. मैं भी अक्सर गेंहूँ पिसाने का थैला ले जाता. चार्ली बाबू ने यहां भी सब बारीकियां और यँत्र की नजाकत समझा बुझा दी और चक्की चलाने में मैं एक्सपर्ट बन गया.
कॉलेज से लौटते बप्पाजी ने जब देखा होगा. गुस्से में ऑंखें ज्वालामुखी बना बोले, “अब चार्ली की चक्की में फुल टाइम काम शुरू कर दो. इंऑर्गनिक केमिस्ट्री में छमाही में फेल हो तुम, तुम्हारे सर नरेंद्र लाल साह जी बता रहे थे. क्यों?
(जारी)

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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