यूं तो चिल्किया से दशौली, डौणू, भदीणा का कोई सीधा नाता नहीं था. प्राइमरी की पढ़ाई करने ग्राम डौणू और भदीणा से यहां कोई नहीं जाता था. भदीणा से चिल्किया जाने का कोई सीधा-साधा रास्ता (घोड़िया रोड) भी नहीं था. यहां का रास्ता गाड़-गधेरे, नदी-नाले, गंगलोड़े, नदी में बह कर आये बड़े-बड़े पेड़ों के बीच पथरीली राहों को खोज कर बनता था. बरसात में नदियों के पाट बढ़ जाते थे इसलिए आदमियों के चलते रहने (पग मार्क) से ग्वेट की तरह बने रास्ते भी बह जाते थे. छोटे-मोटे भूस्खलनों के कारण भी 100-200 मीटर की रेंज में पहाड़ी रास्तों का पता ही नहीं लगता था. यह तल्ला दानपुर का क्षेत्र था. चिल्किया पहुंचने का रास्ता ग्राम लाभाघर, चेटाबगड़ (वर्तमान राज्यपाल महाराष्ट्र का गांव), किसमिल, मछ्येरा, बुड्यारीखेत, ल्वेटा होते हुए जाता था. ये सब खेतीहर गांव थे. (Memoir By Girija Kishore Pathak)
विकास नाम की किसी चीज ने यहां तब तक कोई उपस्थिति दर्ज नहीं करायी थी. भदीना से चिल्किया के बीच भदीणगाड़ और महरगाड़ दो नदियां बहती थी. बरसाती बहाव में भी खेती-पाती, जंगल, पशुओं के चारे, व्यापार-व्यवसाय, स्कूल की पढ़ाई-लिखाई के लिए रहवासियों को इन नदियों को पार कर आना-जाना पड़ता था. तीव्र बहाव में हर साल कितने जानवर, औरतें और बच्चे बह जाते थे.
ग्रामीण सेल्फ-हेल्प मोड पर इन नदियों में 70-80 फिट लंबा चीड़, बांज, फल्यांठ या कटौंज के पेड़ की एकल लकड़ी का ऊपरी भाग चौकोर कर नदी के ऊपर डाल देते थे. इसको लठ्ठा पुल कहा जाता है. यह लठ्ठा पुल लगभग एक फुट चौड़ा बनाया जाता था. यह सामान्यत: पेड़ के तने की साइज़ पर निर्भर करता था. स्कूल आते-जाते इस लठ्ठा पुल से उफान भरी पहाड़ी नदी को हमें पार करना पड़ता था. अगर पार करते समय लठ्ठे से नीचे नदी पर नजर पड़ी तो समझ लीजिये चक्कर खाकर गिरना ही नियति है. गिरना माने मौत. बाबू बताते थे कि कुछ साल पहले इसी लठ्ठा पुल को क्षेत्र के श्रेष्ठ विद्वान शंकर दत्त शास्त्री अपने पुत्र के साथ पार कर रहे थे. बीच लठ्ठे में नदी के तीव्र प्रवाह के कारण उनके साथ स्कूल जा रहा बेटा संतुलन नहीं बना पाया और चक्कर खाकर नदी में गिर पड़ा. नदी का भीषण बहाव उसे कहां ले गया पता ही नहीं चला. लठ्ठा पुल पार करने में हमारी जान हथेली पर आ जाती थी. प्राण सूख जाते थे. यह लगभग कुछ उसी तरह था जैसे नट लोगों के बच्चे रस्से को शौर्य और साहस से पार करते हैं.
इन कारणों से चिल्किया पढ़ने जाना न तो भौगोलिक रूप से और न ही वैचारिक रूप से सुगम्य था. परन्तु बाबूजी यहीं मासाब थे. ऐसी परिस्थितियों में इस सुरम्य परन्तु दुर्गम जगह को जीवन की प्रथम पाठशाला चुनने का मुझे मौका मिला. बाबू जी का नाम था हरी दत्त पाठक पर परन्तु पूरे इलाके में लोग उन्हें हरिदत्त पंडिज्यू कहकर संबोधित करते थे.
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ग्राम भदीणा से चिल्किया के ग्वेट-गधेरों और पथरीली राहों का यह सफर मैंने 6 बरस की उम्र में बाबू जी के साथ तय किया. दुर्गम पहाड़ी रास्ते की यह दूरी 12-15 किमी. रही होगी. महीने में दूसरे, तीसरे शनिवार को गांव आना फिर रविवार को वापस चिल्किया जाने का क्रम चलता राहत था. इस प्रकार दो दिन में आने जाने में 24 किलोमीटर का रास्ता पिट्ठू के साथ तय करना सरल नहीं था. बाबू जी अध्यापक थे फिर भी इतनी कम उम्र में इतनी पढ़ाई का बोझ उन्होंने इस नन्हीं जान के सिर पर क्यों डाला होगा यह बात मैं आज भी नहीं समझ पाता.
पाठशाला में प्रवेश से पहले बाबू जी के मार्गदर्शन में घर पर ही स्वाध्याय से मैंने पव्वा, अद्धा, ड़ेड़ो, ढाम और 20 तक का पहाड़ा कंठस्थ कर रखा था. हिन्दी में बारहखड़ी लिखना-पढ़ना ठीक से आता था. हां, डेकामीटर, हेक्टोमीटर और मीटर की पहेली मेरे समझ में नहीं आती थी. टूड़ी या बांज के लकड़ी की पाठी (लकड़ी की स्लेट) में नकतुरे या नीगालू की कलम से सफेद मिट्टी (कमेट) के धोल में डुबो कर अक्षर लिखे जाते थे. उसे मोसे (कोयला और पानी) से पोतने के बाद घोटे (ओवलर्स्टोन) से चमकाने के वाद ही पाठी में सुंदर लिखावट बनती थी. चमकीली काली पाठी के चिकने सतह (कनवास) पर सफेद कमेट के अक्षर चमकते थे. कागज, पेन, होल्डर स्याही-दवात और कापी का प्रारंभिक शिक्षा में कोई रोल नहीं होता था.
इस तरह प्रारम्भिक ज्ञान के आधार पर जुलाई 1965 को 6 बरस की उम्र में मुझे सीधे कक्षा-3 में प्रवेश मिला राजकीय प्राइमरी पाठशाला चिल्किया में. चिल्किया तिब्बत सीमा से 70 किलोमीटर पीछे पूर्वी राम गंगा और महरगाड़ के संगम पर बसा भोटिया जनजाति का एक गांव था. इस क्षेत्र में कुछ क्षेत्रीय, कुछ शिल्पकार कुछ भोटियों के सहयात्री सेवक शिल्पकार और कुछ नेपाली डोट्याल रहते थे. साधारणतः कुमाउं के अन्य भागों की अपेक्षा दानपुर के महिला-पुरुष दोनों कर्मठ होते हैं. पुरुष भी खेती-पाती, गाय-भैंस, भेड़-बकरी, मौन (मधुमक्खी) पालन में विशेष रुचि रखते हैं. शौक्याड़ियां (भोटियों की पत्नियां) गृहकार्य और ऊन सम्बन्धी व्यवसाय में ज्यादा मशगूल रहती थीं.
इस प्राइमरी में भकुन, च्यूरखेत, किसमिल, मच्छार, चिल्किया और 2-3 अन्य छोटे-छोटे गांवों के बच्चे पढ़ने आते थे. लड़के-लड़कियां मिलाकर कुल 60-70 बच्चे पढ़ते थे. जब शौका जौहार चले जाते थे तो ग्रीष्म में यह संख्या कम हो जाती थी.
तीक्ष्ण ढाल के कारण रामगंगा और महरगाड़ का बहाव प्रवल था. बरसात के मौसम में दोनों नदियां उफान पर रहतीं थीं. महरगाड़ का उद्गम शिखर तथा गंगा का उद्गम सरमूल और नामिक ग्लेशियर है. चातुर्मास में इनके रौद्र रूप को देखकर डर लगता था. नदियों के जलप्रवाह की भीषण कर्कश आवाज के कारण बरसात में तो स्कूल में भी एक दूसरे की आवाज तक नहीं सुनाई पड़ती थी. जौहार के शौका जिन्हें स्थानीय लोग भोटिया कहते हैं कद-काठी में छोटे, थोड़ा चपटी नाक, कम दाढ़ी-मूंछ के कारण ये लोग मंगोलियन मूल के से लगते हैं. उनकी जौहारी बोली को शौकी बोलि कहते थे. शेष रहवासी दानपुर की कुमाऊनी बोलते थे. महिला-पुरुष स्वभाव से सहज, सरल, खेती-किसानी में मेहनती होते हैं.
शौका पुरुषों का पहनावा अन्य पुरुषों की तरह ही था पर गर्मियों में जौहार में वे ऊनी जूते-मोजे, कपड़े, कोट और संकरा पैजामा पहनते थे और महिलायें सिर से पैर तक का काला घाघरा पहनतीं थी. राजपूत और अन्य वर्ग की महिलायें घाघरा, आंगड़ी या बिलौज और सिर पर पागड़ बांधती थी. चुनरी या ओढ़नी का रिवाज नहीं था. धोती या साड़ी भी घाघरे की तर्ज पर पहनी जाती थी. बामणों के घरों की औरतें बिलौज या आंगड के साथ सीधे पल्ले की धोती पहनती थी. खेती बाड़ी में यहां गेहूं, धान सब कुछ होता था. घाटी उपजाऊ थी लेकिन भोटिये लोग खेती में कम रुचि रखते थे. उनके सिरतान खेती का काम करते थे. हुक्का और तंबाकू का प्रचलन काफी था. कहीं-कहीं महिलायें भी तंबाकू गुड़गुड़ाती मिलतीं थीं. शौका लोग काली नमकीन चाय में माखन डाल कर उसे लकड़ी के दवांगबो में फेंटते थे. उसके साथ जौ या फाफर के आटे को भून कर सत्तू बनाकर खाते थे. इस नमकीन चाय का स्वाद ही कुछ अलग होता था. रामगंगा और महरगाड़ के संगम पर अमरूद के घने जंगल थे. अमरूद की गुणवत्ता बहुत अच्छी थी. दूर-दूर के लोग इन अमरूदों को तोड़ कर ले जाते थे. शायद आज भी ये जंगल जिंदा होंगे. 1962 में चीन के थोपे गये युद्ध और तिब्बत पर कब्जे के बाद मिलम के रास्ते तिब्बत के साथ होने वाला व्यापार बंद हो गया. भोटिया समुदाय का बहुत बड़ा व्यापारिक वर्ग एकदम बेरोजगार हो गया. अब ये चिल्किया, नाचनी, थल के अतिरिक्त उत्तराखण्ड के अनेक कस्बों और शहरों में अन्य व्यापार करने लगे. उनके परिवारों का भी जौहार, मिलम और मुनस्यारी जाना कम हो गया.
रतन सिंह च्यांकू का ढाकर : चिल्किया के लोग बताते थे कि सन 1962 से पहले मुनस्यारी के रतन सिंह च्यांकू का ढाकर ब्यापार के सिलसिले में चिल्किया से जौहार जाता था. ढाकर में घोड़े, खच्चर, भेड़, काठ्याड़ (सामान ढोने वाली बकरियां) और कुत्ते शामिल होते थे. बताते हैं कि लोग रतन सिंह पांगती को च्यांकू उप नाम से बुलाते थे. च्यांकू का मतलब तिब्बती में टाइगर होता हैं. लोग बताते थे कि रतन च्यांकू बड़ा व्यापारी था उसका अन्य शौका व्यापारियों में बड़ा दबदबा था. कहते हैं कि च्यांकू का ढाकर जब मुनस्यारी-मिलम से आता-जाता था तो अन्य ढाकरों के शौका व्यापारी उसके लिए रास्ता खाली कर देते थे. इत्तफाक से रत्न सिंह के बेटे प्रताप सिंह चिल्किया में हमारे पड़ोसी थे उनका नाती भुवन मेरे साथ पढ़ता था.
हम लोग वहाँ लाल सिंग पाँगती के मकान में रहते थे. इसे लोग डेरा कहते थे. हमारे लिए चिल्किया का जीवन अत्यधिक कठिन था. पानी आधे किमी दूर से भर कर लाना होता था. बाबू जी जनवरी हो या जून प्रति दिन प्रात: 4 बजे रामगंगा स्नान करने जाते थे. हमारे निवास से नदी ढेड़ किलोमीटर थी. बाबू जी के वापस लौटने तक आग जलाकर चाय बनाकर रखना हमारा काम रहता था. रामगंगा में बहकर आयी लकड़ियों का ईंधन के रूप में उपयोग होता था. लकड़ियां गीली रहती थी. आग पकड़ती ही नहीं थीं, लकड़ी जलाना सबसे कठिन था. धुएं से आंखें लाल हो जाती थी. आज सोचता हूँ 6 साल की उम्र के हिसाब से यह काम कितना कठिन था. एक साल बाद बड़े भाई भुवन भी हमारे साथ आ गये. नाचनी हाईस्कूल में दसवीं में प्रवेश लिए. तब मेरा बोझ कम हो गया. अपना काम पढ़ाई के साथ भोजन की तैयारी,बर्तन धोना, झाड़ू,रसोई की लिपायी-पोतायी होता था.
दाज्यू को उनके संघर्ष ने अच्छा तैराक बना दिया था. बरसाती नदी रामगंगा और महरगाड़ को वे किताब और कपड़े सिर पर बांध कर तैरते हुए पार करते थे. एक शाम हम लोग नवरात्रियों में रामलीला देखने नाचनी के लिए रवाना हुए. असोज का महीना था. हम रामगंगा पार कर रहे थे. भुवन दाज्यू तैरना जानते थे. पिताजी ने मुझे अपने कंधे पर बैठा लिया. नदी पार कर रहे थे अचानक रामगंगा का प्रवाह बढ़ गया. दाज्यू तो तैर कर पार कर गये लेकिन बाबू बहने लगे. एक गंगलोड़े (गोल चिकना पत्थर) का सहारा मिल गया. हम दोनों बीच नदी में उसके सहारे टिके रहे. जुनाली रात (चंद्रमा का उजाला) थी. नदी का जल स्तर बढ़ता ही जा रहा था.
जिंदगी को मौत में तब्दील होता देख बाबू जी ने पास के गांव फल्याँठी से गुमान सिंह को बुलाने के लिए नदी के तीव्र प्रवाह की कल-कल बीच जोर से भाई को आवाज दी. वे गुमान सिंह को बुला लाये. गुमान सिंह नंबर एक का तैराक था. उन्होंने पहले मुझे फिर बाबू जी को इस शर्त पर पार कराया कि अगली बार गांव से भांग की अतर ला देना. उन दिनों सब्जी के लिये भांग के बीज को बोना अवैध नहीं था. बीज की माड़ने की प्रक्रिया में जो काली परत हाथों में जमती थी उसको अतर (चरस) कहते थे. हम रामगंगा में बहते-बहते बच गये. किसी तरह नदी पार हो गये और जान भी बच गयी परन्तु मेरे दिमाग में रामगंगा का खौफ बैठ गया. पता नहीं बाबू जी ने उसे बाद में अतर दिया होगा कि नहीं मुझे नहीं पता लेकिन उस दिन तो गुमान दा अपने लिए देवदूत ही था.
किसी तरह संघर्ष के ये तीन साल बीते. मुझे अपने साथियों मे भुवन पाँगती , जीत राम, मोहन राम, किसन राम के नाम के ही नाम याद हैं. बाबू जी ने बताया की भुवन पाँगती आईटीबीपी में चला गया था. अन्य की जानकारी मुझे नहीं मिली. हमारे गाँव के ही नारायण दत्त पाठक वहाँ मेरे गुरू रहे. छात्रों के व्यक्तित्व विकास और सामाजिक गतिविधियों के संचालन में वे निपुण थे. पहले हम लोगों का डेरा ग्राम चिल्किया, फिर ग्राम च्यूरखेत में था कुछ समय बाद हम चिल्किया स्कूल भवन के कमरे में ही रहने लगे थे. नारायण मासाब पिताजी से उम्र में छोटे थे लेकिन कुछ साल पहले उनका निधन हो गया.
इस तरह अपरिपक्व मानसिकता के साथ अप्रैल 1967 में 8 साल की उम्र में मैंने पांचवीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली. जुलाई 1967 में पिताजी मुझे जूनियर हाईस्कूल पांखू कक्षा 6 में प्रवेश कराने ले गये. लेकिन उम्र कम होने के कारण प्रधानाचार्य हर सिंह ने प्रवेश देने से मना कर दिया. हर सिंह मासाब ने कहां कि 9 साल पूर्ण होने पर ही बच्चे का हम छठीं में दाखिला ले सकते हैं. मैं निराश घर लौट आया. बाबू बोले अब एक साल घर बैठो पर पढ़ाई जारी रखना. अच्छा होता एक परिपक्व मस्तिष्क के साथ मैं पांचवीं पास करता. अत्यधिक दबाव और भय में पढ़ाई नहीं रटाई होती थी. मैं सोचता हूं भवन की बुनियाद मजबूत होनी चाहिए इसलिए हमने प्राइमरी शिक्षा में अपने बच्चों को दबाव से मुक्त रखने का प्रयास किया.
इन परिस्थितियों में मेरा शिक्षण आमा (दादी) और ईजा (मां) के हवाले हो गया . गाँव घर में कोई बेराजगार और निट्ठल्ला तो रह नहीं सकता. उस समय हमारी 7-8 गायें और 2 बैल थे सो जंगल में गाय चराने और गौ सेवा का दायित्व मुझे मिल गया. सायं काल कक्षा 6 की किताबों के अध्ययन का आदेश बाबू जी दे गये थे लेकिन मुझे पढ़ाई एक तरह का बोझ लगने लगी थी. मन मायूस रहता था. फिर एक प्रश्न मन में उठता था कि जब जमीन से ही लड़ना है तो पढ़ना क्यों? इस पूरे साल मेरा कोई दोस्त नहीं था. सारे बच्चे हमारे मूल गांव दशौली या डौणू से स्कूल जाते थे. भदीणा गांव में स्कूल की सुविधा न होने के कारण खेती और गोपालन के योग्य पारिवारिक लोग ही यहां रहते थे. किसी तरह मेरा सन् 1967 का शिक्षा सत्र गाय चराने में कट गया. बहुत जल्दी जुलाई 1968 आ गया. पहले मुझे इस साल के यूं ही बर्बाद होने का बहुत गिल्ट था. लेकिन आज पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि वह साल मेरे लिए अनमोल था. रोज रसोईघर से हिमशिखर पंचाचूली, नंदा हिमालय, त्रिशूल, नंदाखाट और बणकटिया के दर्शन होते थे. इस एक साल में हिमालय के अनेकों रंग देखें. चारों तरफ झरनों (छीड़) के इर्द-गिर्द भ्यराणी में हिमालयी भंवरों के छत्तों को देखा. इस एक साल ने मेरी पहाड़ के जीवन की समझ में काफी वृद्धि की. जंगल, जंगली पेड़-पौधों, जंगली जानवरों, फ्लोरा-फौना के व्यवहार को समझा. खेती-पाती, गुड़ाई-निराई खेत-खलिहान से परिचय कराया. पहाड़ की औरत के संघर्षपूर्ण जीवन से रूबरू कराया. आमा, ईजा, दीदी, भुला के सारे कष्टों को जानने का मौका दिया. मनुष्य और प्रकृति के बीच का संबंध समझ में आया. गाय चराने के दौरान एक दिन जंगल में मेरे सामने ही बाघ बछिया के उपर गले में झपट्टा मार के ले गया. डर के मारे मेरी आवाज़ बंद हो गयी थी. बाद में काफी शोर मचाने के बाद गाँव के लोग आए. तलाशने पर एक खोह में बाघ की आधी खाई बछिया मिली.
जंगल में घुरड़-काकड़ों के झुंड देखे. उनकी आवाज पहचानी. हिमालय की सैकड़ों चिड़ियों को देखा उनके घोसले अंडे-बच्चों की जानकारी मिली. ईजा अनेक चिड़ियों की करुण कहानी सुनाती थी उनमें घुघूती, काफल पाक्र्को, न्यौली और अड़वाई की कहांनिया फोक लोर के रुप में चलती थीं. सुबह ब्रह्म मुहूर्त में एक चिड़िया अत्यधिक जोर से क्रमश:ओलि, ओलि, ओलि… चिल्लाती थी.
उसका नाम गांव में अंड़वायी बोलते थे. उसकी आवाज कर्कश और डरावनी लगती थी. ईजा बताती थी कि 100-150 साल पहले एक अड़वाल (शौका के भेड़-बकरी चराने वाले खानाबदोश लोग) की पत्नी यानि अडवायी प्रसव के दौरान मर गयी. अड़वाल ने उसे थोड़ी दूरी पर दफना दिया. प्रेत के रूप में उसकी रूह यहीं भटकती है. यहीं वह ओलि, ओलि… बोलती है. आवाज़ तो मैंने भी सुनी थी पर चिड़िया को कभी देखा नहीं. खैर, लोक कथाओं का क्या? इनका संचरण तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता रहता है. गाय-बछियों का मनुष्य के प्रति अतुल्य स्नेह को महसूस किया. इस तरह इस साल को मैं प्रकृति के प्रति हृदय में प्रेम के अंकुरण का वर्ष मानता हूं. प्रकृति ही जीवन दर्शन और अध्यात्म की पाठशाला है.
इन चार सालों की स्मृतियों को कुरेद-कुरेद कर मैंने शब्द देने का प्रयास किया है. फिर भी इतना कह सकता हूँ कि इस धरती के हर अनुभव और पीड़ा को शब्दों में पिरोना किसी के लिए भी संभव नहीं है. जिंदगी की यह पाठशाला अगम्य और अनंत है. 56 साल बाद मेरे आग्रह पर मेरे इन्टर कालेज के सहपाठी कर्नल लक्ष्मण कोश्यारी ने मेरी प्रथम पाठशाला और उस गाँव के चित्र उपलब्ध कराए. मैं उनका शुक्रिया अदा करता हूँ. बाबू जी जो मेरे स्कूल के ही नहीं जीवन पथ के प्रथम गुरु रहे हैं वे आज 95 साल के हैं. कुछ स्मृतियों को ताजा करने में बाबू जी ने भी मुझे मदद की है. ईजा 92 साल की है, बताती हैं कि तुमने छाती का दूध छोड़ा ही था कि तेरे बाबू तुझे अपने साथ स्कूल ले गये. इन दोनों को शुक्रिया कहने की धृष्टता मैं नहीं कर सकता. 6-7 साल की उम्र, एक बात बहुत अच्छी थी कि वर्तमान के संघर्ष से हम अनजान थे और भविष्य की न हमें चिंता थी न समझ.
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मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं.
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