गांव की प्रचलित कहावत है, वड़ (Division stone) माने झगड़ जड़. जब दो भाइयों के बीच में जमीन का बंटवारा होता है तो खेतों के बीच बंटवारे के बाद विभक्त जमीन में एक पत्थर गाड़ दिया जाता है जिसे वड़ कहते हैं. भाइयों में जमीन के बंटवारे पर एक बार वड़ डाल दिया जाता है तो यह वड़ हमेशा के लिए दो भाइयों की जमीन की सीमा रेखा बन जाती है. इस वड़ (सीमा रेखा ) के कारण खेती किसानी में परिवारों में बहुत झगड़े,लड़ाइयां, मुकदमे देखने को मिलते हैं. यह कहानी घर- घर की है. इसी पर कुमाऊं क्षेत्र के गांव में कहावत है कि भै छुटि स्वार यानी भाईयों में बटवारा हुआ उसके बाद वह मात्र आपके पड़ोसियों की तरह हैं. बंटवारे में जितने भाई उतने किरदार उसमें भी जितने निठल्ले-नल्ले उतने जंजाल.
(Memoir by Dr Girija Kishore Pathak)
सच कहे तो यह कहानी घर- घर की ही नहीं राष्ट्रों के बीच की भी रहती है. जमीन का वड़ (particine line) एक तरह से झगड़े की जड़ है. भारत-पाकिस्तान, भारत- चीन और भारत -बांग्लादेश के सीमा विवाद भी भाईयों के *वड़* विवाद की तरह पुश्त दर पुश्त चल रहे हैं.
जब हम बहुत छोटे थे तो देखते थे आमा (दादी) गांव की खेती -बाड़ी उसके विभाजन और उस पर कब्जा रखने की बातों से बहुत परेशान रहती थी. आमा की मूल समस्या उसके देवर -जेठों के बच्चों और *स्वार – बिरादरों* द्वारा मनमाने ठंग से वड़ का निर्धारण होता था. आमा बताती थी कि पूरे क्षेत्रों में झगड़े की जड़ यही वड़ थे. वह कहती थी कि हमारे गांव में 2 ऐसे महत्वपूर्ण पुरुष थे जिनका काम अल्मोड़ा,सोर (पिथौरागढ), और बागेश्वर जाना, वहां जाकर अपनी नई जमीन वर्ग 4 के लिए दरकास्त लगाना और तथा वड़ के झगड़े पर राजस्व कोर्ट में हर बार एक नई एप्लीकेशन डाल देना, होता था. उनकी इस करतूत से गांव के आधे लोग राजस्व न्यायालयों में लाइन लगाकर खड़े रहते थे.
इन दो महानुभावों की विशेषता यह थी कि पूरे अल्मोड़ा,पिठौरागढ की कचहरी के अर्जुनमेस ( complaint writers ), कानूनगो, नायब तहसीलदार,तहसीलदार और एसडीएम स्तर के अधिकारियों से इनके सौहार्दपूर्ण संबंध रहते थे.इनके सौहार्दपूर्ण संबंधों और दैनिक शिकायतों के कारण पूरा गांव त्रस्त रहता था या यूं कहें कि ये दोनों मिलकर पूरे गांव के लोगों को चक्कर घिन्नी बनाकर रखते थे. आमा कहती थी कि बाबू मास्टर थे, बेचारे, उन्हें स्कूल के बच्चों की पढाई छोड़ कर महिने में 10 दिन तो अल्मोड़ा,पिठौरागढ की कचहरियों में खड़ा रहना पड़ता था. न जाने उस जमीन के कितने मुकदमे बाबू ने अल्मोड़ा और सोर की कचहरी में लड़े थे. यह बात उनको भी याद नहीं. तो अनावेदक की उपस्थिति के लिये राजस्व न्यायालय तय करता था उसे मुकरण कहते थे. आमा ने उस जमीन में कब्जा और खेती करने के दौरान बहुत यंत्रणाए झेली थी.
उनके जेठ- देवरों के लड़के कई बार खड़ी फसल ही काट लें जाते थे .कई बार तो खेत में बैल जुते होते थे तो जमीनी हिस्से को विवादास्पद बताकर ये लोग बैलों का जुत्तौड़ (जुए और हर को जोड़ती रस्सी) काट जाते थे. इस सीन को देख कर हलिया भाग जाता था. जिससे दिनभर की बुआई बंद और खेती का कार्य समाप्त. जमीन के वड़ के झगड़े के कारण आपसी संबंध अत्यधिक कटु हो जातेथे दबाव बनाने के लिए यहां तक कि पानी के धारे के रास्ते में वे कांटे डाल देते थे. उनसे कुछ बोलो तो पिटो. डर ये था कि हाथ उठाने से भी वे सब परहेज नहीं करते थे. ये सब बताते- बताते दादी की आंखें टपकने लगती थीं जिन्हें छुपाने के लिए वह तत्काल पल्लू से आंखें पोछ लेती थी. फिर बात का संदर्भ बदल देती थीं.
(Memoir by Dr Girija Kishore Pathak)
मैं तो समझ ही नहीं सकता कि अकेले दादी ने गांव की जमीन की रक्षा,उसके विभाजन,उसके बंटवारे और उसमें खेती कर परिवार पालने जैसे कार्यों को पूरा करने के लिए कितनी यंत्रणाएं झेली होंगी. उस जमीन पर कब्जा रखने के लिए कितना मानसिक तनाव झेला होगा. हां, यहां पर यह बताना भूल गया कि हमारे दादा जी को ययावरी बहुत पसंद थी. उन्हें जमीन जायजा खेती-बाड़ी का बहुत लोभ नहीं था.भारत भ्रमण उनका अद्भुत शौक था. 3 बार तो वे कैलाश मानसरोवर की यात्रा जवाहर के शौकों के साथ कर चुके थे. उनकी मूल दृष्टि थी कि बच्चे अच्छी तरह पढ लिख जाएं इस लक्ष की प्राप्ति के लिए उन्होंने अपने सभी बच्चों को बनारस, लाहौर और हरिद्वार जैसे शिक्षा केन्द्रों को भेज दिया. उसी यायावरी में शायद आजादी के 1-2 साल के अंतराल में एक तीर्थाटन में उनका निधन हो गया. मृत्यु का समाचार भी बाबू जी को कई महीनों बाद मिला और उसके बाद सनातन धर्म के अनुसार बाबू जी ने उनका क्रिया कर्म किया.
मुझे आश्चर्य होता है अकेली दादी उस जमीन पर खेती करने उसके वड़ के झगड़ों से निपटने और अपने ही स्वार-बिरादरों के लगाये मुकदमों से लड़ने के लिए जब तक जिंदा रही तब तक चट्टान की तरह खड़ी रही. उसने वीरांगना की तरह खेती-बाड़ी के बल पर बच्चे, नाती-पोते सबकी परवरिश की और सबके सपनों को पंख दिए. 1978 में दादी हम सब को छोड़ कर चली गयी.
आमा का हम सब को छोड़ कर जाने का मतलब था हमारे परिवार की खूंटी का उखड़ना. बाबू जी और उनके सब भाई दादाजी के बेहतर शिक्षा प्लान के कारण भारत के विभिन्न में संस्थानों में बेहतर सेवा करने लगे.उनके नाती पोते विश्व के विभिन्न देशों में उनकी यश पताका सफलता पूर्वक फैलाने में सफल रहे हैं. दादी की परवरिश और दादा जी का पुण्य भाव सबको फलित हो रहा है.
(Memoir by Dr Girija Kishore Pathak)
दादी के इस हिम्मत और हौसले से मैं समझ पाया कि पुरष होने से उसमें पुरुषार्थ नहीं आ जाता. षुरुषार्थ उसे कहते हैं जो बिपरीत परिस्थिति में परिवार,समाज और राष्ट्र का रक्षाकवच बन सके. आमा रक्षाकवच थी. उसके पुरुषार्थ के चर्चे आज भी गांव में चलते है.
रही बात उस जमीन की जिसको आमा अपनी भावनाओं, अपनी संवेदनाओं और अपने विचारों से सींचती रहती थीं, जिसके लिए लडती रहती थीं और जिस वड़ की रक्षा के लिए वह चट्टान की तरह खड़ी रहती थीं वह जमीन आज बंजर है. वड़ जिनके कारण झगड़ा होता था वह एक मुर्दे की तरह सुषुप्ति की स्थिति है औैर वह मकान जिसमें दादी ने हम सब की परवरिश की थी वह खेत जिनमें वड़ खिसकाने , खेती के लिए जुतौड काटने के कई किस्से दादी सुनाती थी आज वह या तो बंजर है या कुछ वही लोग उससे जिविका चला रहे हैं जो गांव में बचे हैं. मकान के पत्थर शेष हैं. सारे मकानों में सिसोड़ (विछ्छू घास) अंगड़ाई ले रहा है.सबसे गजब की बात कि लगाए गए ताले में भी बिच्छू घास जम गई हैं.
समय का चक्र है वड़ खिस्काने वाले,दरखास्त न्यायालय में लगाने वाले और राजस्व न्यायालय में मुकदमा ठोकने वाले आज सब प्रभु को प्यारे हो गए हैं लेकिन वह जमीन वहीं पर है सारी पीढ़ियों को मुंह चिढ़ाते हुए जैसे बोलती है कि क्या पाया? क्या खोया? इसका हिसाब कौन लगाये.
हां, मैंने एक कदम जरुर उठाया कि अपने दादी के आंसुओं की स्मृति में छोटा सा घर उस जमीन पर आवाद किया है यद्यपि हम वहां कम ही जा पाते हैं लेकिन वह घर दादी की प्रति हमारी श्रद्धांजलि का एक प्रतीक है. उनके मन में पीड़ा थी कि जिसके लिए वह वीरांगना की तरह लड़ी उस कूड़ी -बाड़ी को पूरी पीढ़ी छोड़ कर चली गई. कभी -कभार जब हम गांव जाते हैं तो दादी की स्मृति आंखों की नमी को रोक नहीं पाती. वह हमारे बीच नहीं हैं पर हमारी स्मृतियों में राज करती हैं और रोज मन को नयी उर्जा और जीवन को नई प्रेरणा देती हैं. मैं उनकी क्षमता, संधर्ष, और उनके पुरुषार्थ को नमन करता हूं. (Memoir by Dr Girija Kishore Pathak)
मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक भोपाल में आईपीएस अधिकारी हैं.
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