कहो देबी, कथा कहो – 45
पिछली कड़ी – कहां थे मेरे उजले दिन
“हां, तो कहो देबी. फिर क्या हुआ? तुम किसी नाटक की बात कर रहे थे?”
“हां तो सुनो, मैं नाटक की बात करने आला अफसर हरवंत सिंह जी के पास गया. दिल्ली का कटु अनुभव अब भी मुझे याद था, लेकिन अपना संकल्प भी याद था कि मैं नाटक में भाग जरूर लूंगा.”
“तो हुआ क्या?”
“हुआ, यह कि मैं जब आला अफसर के पास गया तो देखा वे चश्मा लगा कर बहुत गौर से एक फाइल को पढ़ रहे हैं. उन्होंने चश्मे के शीशों से आंखें उठा कर मुझे देखा और बैठने का इशारा किया. मैं बैठ गया. कुछ देर बाद उन्होंने उस फाइल पर कुछ लिखा और मेरी ओर मुखातिब हुए, “यस, मेवाड़ी?”
मैंने कहा, “सर, कुछ दिन पहले एक प्रोग्राम में आपने कहा था- यहां चंडीगढ़ में कोई सांस्कृतिक स्पिरिट (भावना) नहीं दिखाई देती. असल में स्पिरिट तो है, लेकिन कलाकार बिखरे हुए हैं. उनको जोड़ दिया जाए तो हमारा अंचल भी सांस्कृतिक गतिविधियों में बहुत अच्छा काम कर सकता है.”
“कौन जोड़ेगा उन्हें?”
“मैं. अगर आप अनुमति दें तो मैं सभी बिखरे हुए कलाकारों को जोड़ सकता हूं. लेकिन, एक बात और है सर.”
“क्या?”
“हम जो नाटक तैयार करेंगे, उसमें मैं भी भाग लेना चाहता हूं.”
“डोंट टैल मी दैट (क्या कह रहे हो). तुम? मेवाड़ी, तुम्हारे मुंह से आवाज तो निकलती नहीं, और कह रहे हो नाटक में भाग लेना है. यू नो, यू आर चीफ मैनेजर? (जानते हो, तुम मुख्य प्रबंधक हो). सीनियर मैनेजमेंट में यहां तक पहुंचते-पहुंचते कला, साहित्य और सांस्कृतिक जैसे शौक खत्म हो जाते हैं. तुम्हारा मतलब है, तुम में यह शौक अभी बचा हुआ है?”
“हां सर, बचा हुआ है. एक बात और है, अभी तक हमारे बैंक में सीनियर मैनेजमेंट के किसी अधिकारी ने नाटक में भाग नहीं लिया है. अगर आप मुझे अनुमति देते हैं तो हमारा अंचल ही यह पहल करेगा. दिस विल क्रिएट हिस्ट्री.” (यह घटना इतिहास रचेगी)
“आइ एम इंट्रस्टेड इन क्रिएटिंग हिस्ट्री.” (मैं इतिहास रचना चाहूंगा)
“मतलब आप मुझे अनुमति दे रहे हैं?” मेरी आंखों में चमक जाग गई.
“यस, गो अहैड,” उन्होंने कहा.
मेरा मन खुशी से भर उठा. केबिन में आकर मैं चुपचाप बैठ कर सोचने लगा- इतने सारे विभागों की जिम्मेदारी इन्होंने मुझे सौंपी है. दिन भर फाइलें आती रहती हैं. फिर भी मुझे नाटक में भाग लेने की अनुमति क्यों दी होगी? तभी मुझे अहसास हुआ कि यह तो मुझ पर उन्होंने अपना भरोसा जताया है. उन्हें इस बात का भरोसा होगा कि यह आदमी नाटक में भले ही भाग ले लेकिन इसका काम नहीं रूकेगा.
इससे मेरी जिम्मेदारी और भी अधिक बढ़ गई. मैंने तय किया कि मैं रिहर्सल से लौट कर दफ्तर में वरिष्ठ अधिकारियों के साथ दोपहर का भोजन नहीं करूंगा बल्कि उस समय फाइलें निपटाऊंगा. अनुमति मिल जाने पर मैंने साथियों से चर्चा की. चंडीगढ़ से बाहर के कलाकारों से भी बात की गई. मंचन के लिए नाटक की खोज शुरू हुई. कुछ नाटकों की पटकथाओं पर भी चर्चा की गई.
रोहतक के कलाकार साथी हरीश गेरा, नवनीत बहल लिखित ‘कुमारस्वामी’ नाटक की पांडुलिपि खोज लाए. उसे पढ़ कर देखा गया. और, अंत में तय किया गया कि इस बार ‘कुमारस्वामी’ नाटक ही तैयार किया जाए. जब मैंने उनसे नाटक में मुझे भी कोई रोल देने का अनुरोध किया तो सभी कलाकार साथी बहुत खुश हुए. इस तरह अंचल में सांस्कृतिक हलचल शुरू हो गई. हम लोगों ने प्रहसन यानी लघु नाटक के लिए पंजाबी भाषा में मिर्ज़ा-साहिबा को चुना. शास्त्रीय और सुगम संगीत तथा वाद्य वृंद के कलाकार भी तैयारी करने लगे. समूह गीत की भी तैयारी शुरू हो गई.
हम लोग पंचकूला के क्षेत्रीय स्टाफ कालेज में रिहर्सल में जुट गए. मैं अपने नियम के अनुसार रोज दोपहर का भोजन न करके अंचल कार्यालय जाकर अपने मातहत विभागों की फाइलें पढ़ता, उन पर जरूरी टिप्पणियां लिखता. उसके बाद फिर रिहर्सल के लिए पहुंच जाता. छुट्टी का पूरा दिन रिहर्सल में लगाते. नाटक के लिए पात्रों का चयन किया. मुझे कृष्ण संप्रदाय के मठाधीश विकल स्वामी की भूमिका मिली. शैव संप्रदाय के प्रमुख कर्माधीश की भूमिका के लिए अरविंद सूद को चुना गया. रमेश सुमन बने कुमारस्वामी. बाकी साथियों ने आचार्य नंद, श्रद्धानंद, जीवनस्वामी, वैद्य और साधुओं तथा शिव भक्तों की भूमिकाएं निभाईं. टीम के ही साथियों ने पार्श्व संगीत की जिम्मेदारी भी संभाली. मैं उस बीच एक दिन के लिए दिल्ली आया और अपनी छोटी बेटी मानसी से ‘कुमारस्वामी’ नाटक के पत्रक के लिए प्रतीकात्मक रेखांकन तैयार करवाया.
‘कुमारस्वामी’ का पहला शो चंडीगढ़ के दर्शकों से खचाखच भरे टैगोर थियेटर में आयोजित किया गया. वहां कुछ अनुभवी नाट्य निदेशक और नाट्यकर्मी भी मौजूद थे. इस बीच हमने तय किया कि ‘मिर्ज़ा साहिबा’ प्रहसन में भाग लेने वाले कलाकारों को छोड़ कर ‘कुमारस्वामी’ के कृष्ण संप्रदाय के हम मुख्य पात्र सिर के बाल घुटवा लेंगे. इसलिए शाम को पंचकूला में एक नाई की दूकान पर जाकर मैंने, कुमारस्वामी का अभिनय कर रहे रमेश सुमन, हरीश गेरा तथा साधु बने साथियों ने चुपचाप बाल घुटवा लिए. फिर हम लोगों की नजरों से बच कर सीधे टैगोर थियेटर के ग्रीन रूम में पहुंचे.
नाटक का पहला दृश्य काशी नगरी का था जहां कृष्ण भक्त शिष्य आश्रम की सफाई करके मठाधीश विकल स्वामी की प्रतीक्षा कर रहे थे. ‘भजगोविंदम भजगोविंदम’ के मधुर पार्श्व संगीत के बीच मठाधीश विकल स्वामी यानी मैंने अपने विश्वस्त शिष्य आचार्य नंद के साथ आश्रम में प्रवेश किया और बैठ कर गीता के एक श्लोक की व्याख्या की.
नाटक धीरे-धीरे आगे बढ़ा और भूमि के एक छोटे से भाग पर अधिकार जमाने के लिए कृष्ण भक्त और शिव भक्त संप्रदायों के बीच आपसी कलह बढ़ता गया. उसी बीच मनुष्य जीवन के उद्धार का सपना संजो कर एक सीधा-सादा युवक कुमार ‘कुमारस्वामी’ बन गया. महान आचार्य ‘कुमारस्वामी’. काशी की नगरी में धर्माधिकारियों के वैमनस्य और आमजन की कठिनाइयों को देखकर वह आमरण अनशन पर बैठ गया. वह धर्म के नाम पर हो रही हिंसा, राग-द्वेष, कटुता, धार्मिक उन्माद और धर्म की राजनीति का प्रत्यक्षदर्शी होता है और वही धर्म की राजनीति अंत में उसकी बलि ले लेती है.
नाटक पूरा हुआ. रात्रि भोज का भी इंतजाम किया गया था. बाहर निकलते ही लोग कलाकारों के बारे में पूछने लगे. वे मठाधीश विकलस्वामी को भी खोज रहे थे लेकिन मैं छिपता-छिपाता एक पेड़ के पीछे चुपचाप खड़ा हो गया. मुझे उस ग्लैमर से डर लग रहा था. मैंने अपनी कार के सारथी से कहा कि वह कतार में लग कर जल्दी से खाना खा ले और फिर मुझे मेरे घर पर छोड़ दे. वह मुझे पंचकूला में मेरे घर के एकांत में छोड़ गया जहां मैंने चुपचाप मशरूम की सब्जी तैयार की, आटा गूंध कर रोटियां बनाईं और खाना खाकर चुपचाप लेट गया. यह सोच कर बहुत सुकून मिला कि भले ही एक दिन मुझे नाटक में भाग लेने की अनुमति नहीं मिली थी, लेकिन आज अनुमति भी मिली और नाटक का सफल प्रदर्शन भी हो गया.
कुछ दिनों बाद हम वह नाटक और अन्य प्रस्तुतियों को लेकर अखिल भारतीय प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए दिल्ली रवाना हुए. वहां पहाड़गंज के न्यू क्रिस्टल होटल में रूके. प्रतियोगिता आई टी ओ के निकट प्यारेलाल भवन में आयोजित की गई थी. नाटकों की कड़ी प्रतियोगिता में हम भी कुछ कर दिखाने का ज़ज़्बा लेकर वहां पहुंचे. हमने वह ज़ज़्बा दिखाया. हमारी मेहनत रंग लाई और ‘कुमारस्वामी’ को निर्णायकों ने सर्वश्रेष्ठ नाटक घोषित किया. तालियों के बीच उन्होंने घोषणा की कि मठाधीश विकलस्वामी मंच पर आ जाएं. मैं भीड़ में चुपचाप किनारे खड़ा था. घोषणा सुन कर मंच पर पहुंचा. निर्णायकों ने मेरे अभिनय की तारीफ की और एक निर्णायक ने किनारे ले जाकर धीरे से कहा, “बेस्ट एक्टर का खिताब भी आपको ही देना था लेकिन आपके नाटक को पहला स्थान मिलने के कारण वह दूसरे अंचल के कलाकार को दे दिया.” मैं विनम्रता से हाथ जोड़ कर पुनः दर्शकों की भीड़ में आ गया और असहज होकर सोचता रहा कि काश यह बात मुझे न बताई जाती. मनुष्य ही हूं इसलिए लगा कि जो मुझे मिलना था, वह किसी और को दे दिया. यह टीस मन में बैठ गई. फिर खुद को समझाया कि सुनो कालाआगर गांव के लड़के, तुम्हारे नाटक को पहला स्थान मिल गया है, क्या यही कम है? रात को होटल लौट कर भी मन बेचैन रहा और साथियों के साथ सफलता के जश्न में पूरी जिंदादिली से शरीक न हो सका. खुशी की बात यह थी कि हमारे प्रहसन ‘मिर्ज़ा साहिबा’ को भी दूसरा स्थान मिल गया. मैंने चंडीगढ़ लौट कर आला अफसर हरवंत सिंह जी को बताया कि उनकी अनुमति ने इतिहास रच दिया है!
प्रमोशन लेकर चंडीगढ़ तो चला गया था लेकिन दिल्ली और चंडीगढ़ दोनों जगह के घरेलू खर्चों के कारण आर्थिक दबाव बहुत बढ़ गया था. कठिनाई आए और उसमें मेरी परीक्षा न हो, यह कैसे हो सकता था? फाइलें देख रहा था कि एक दिन चपरासी कार्मिक प्रभाग का एक पत्र थमा गया. उसमें लिखा था कि श्री मेवाड़ी का परिवार नोएडा के बैंक फ्लैट हिमगिरि में ही रह रहा है. दिल्ली अंचल कार्यालय ने लिखा है कि उनसे विगत महीनों का लगभग 64,000 रूपए का किराया तुरंत वसूल करके भेजा जाए. मैं पत्र पढ़ कर हैरान रह गया क्योंकि मैं शुरू से ही यह अनुरोध कर रहा था कि मुझे फ्लैट का स्टैंडर्ड किराया बता दिया जाए ताकि मैं उसकी व्यवस्था कर सकूं. लेकिन, मुझे इस बारे में कभी भी कुछ नहीं बताया गया. और, अब अचानक इतनी बड़ी धनराशि जिसकी एकमुश्त व्यवस्था करना मेरे लिए बहुत कठिन था. प्रमोशन पर चंडीगढ़ आने से मेरे वेतन में केवल ढाई-तीन सौ रूपए का इजाफा हुआ था जबकि सारथी का वेतन, अपना और अपने परिवार का दो जगह का घरेलू खर्च मुझे ही पूरा करना था. सोचता रहा कि क्या करूं? शनिवार को भागा हुआ नोएडा गया, पत्नी से चर्चा की और हमने पिछले वर्षों में इनकम टैक्स बचाने के लिए खरीदे गए नेशनल सेविंग्स सर्टिफिकेट (एन एस सी) तुड़वा कर किसी तरह वह धनराशि जुटाई और उसे अंचल कार्यालय में जमा कर दिया.
कई बार तो हालात पर हंसी आती थी लेकिन भीतर कहीं दर्द भी होता था. एक बार सारथी सुखदेव के साथ दफ्तर को चला. मध्य मार्ग से आगे जा ही रहे थे कि अचानक गाड़ी बंद हो गई. सुखदेव ने उतर कर देखा, जांचा तो पता लगा कि पेट्रोल खत्म हो गया है. मैं टाई कस कर आराम से भीतर बैठा हुआ था. उसने पास आकर कहा, “साब जी, पेट्रोल खतम हो गया है.” मैंने कहा कोई बात नहीं, अभी ले लेते हैं. जेब में हाथ डाला तो कुछ भी नहीं था. सारथी सुखदेव ने भी अपनी जेबें टटोलीं. उसके पास दो रूपए निकले. मैं बाहर उतरा और हम दोनों ने गाड़ी को धक्का लगा कर सड़क के किनारे खड़ा कर दिया. मैंने उसे भाग कर दफ्तर में मेरे साथी से सौ रूपए लेकर आने को कहा. वह लौटा तो हम दोनों गाड़ी को धक्का लगाते हुए पेट्रोल पंप तक ले गए और सौ रूपए का पेट्रोल डलवाया. दफ्तर पहुंच कर मैंने बैंक की अपनी पेट्रोल स्लिप निकाली और उसे फिर पेट्रोल भरवाने के लिए भेजा.
एक बार हाईवे पर पानीपत के बाजार से निकल रहे थे. तभी मेरी नजर एक कंपनी के शोरूम पर पड़ी. गर्मी बहुत थी. मुझे एक कैप की जरूरत थी. इसलिए सोचा उस शोरूम से कैप खरीद लूं. सारथी से गाड़ी रूकवाई और यह कह कर शोरूम में गया कि जरा एक कैप लेकर आता हूं. थोड़ी देर बाद खाली हाथ लौटा तो उसने पूछा, “साब जी, क्या हुआ? कैप नहीं मिली?”
मैंने कहा, “कैप तो बहुत थीं. पसंद भी आई. लेकिन, उसका दाम पूछा तो मुझे लगा कि उतने पैसों में तो कोट खरीदा जा सकता है.” हम दोनों हंसते हुए आगे बढ़ गए.
कभी-कभी संयोग भी समस्या को हल कर देते हैं. एक बार हमारे दफ्तर के आला अफसर ने कहा कि राज्यस्तरीय बैंकर समिति की बैठक होने वाली है. चलो, जरा हॉल वगैरह देख कर आते हैं. साथ में तीन डिप्टी जनरल मैनेजर भी थे. हम उनके साथ चंडीगढ़ के उस समय के सबसे अच्छे होटल माउंट व्यू में गए. मैं आला अफसर के साथ दफ्तर को लौटने लगा तो एक डिप्टी जनरल मैनेजर ने उनसे कहा, “मेवाड़ी हमारे साथ आ जाएंगे, इनसे कुछ चर्चा करनी है.” उसके बाद आला अफसर चले गए और उन तीनों वरिष्ठ अधिकारियों से मैंने पूछा, “क्या चर्चा करनी है सर?”
“कुछ नहीं, बैठ कर यहां ब्रेकफास्ट करेंगे.” मुझे काटो तो खून नहीं. जेब में कुछ भी नहीं था. वे मुझे होटल के रेस्त्रां में ले गए और वहां उन्होंने जम कर नाश्ता किया. मेरी हालत कुछ यों थी, ‘लिखा नहीं है यहां क़त्लगाह, जानता हूं किसलिए लाया गया हूं मैं.’ उन्होंने कई बार कहा, “आप कुछ ले नहीं रहे हैं?”
मैंने कहा, “नहीं सर, मैं घर पर नाश्ता करके आया हूं.” हालांकि मैं भूखे पेट था.
“कुछ जूस वगैरह तो ले लो?”
मैं मना करता रहा. मन में गूंजता रहा, ‘जानता हूं किसलिए लाया गया हूं मैं.’ बेयरा भी सलाम ठोक रहा था. मन में उधेड़बुन चल रही थी कि ये तो खा-पी कर बाहर निकल जाएंगे, मैं बेयरे और रेस्त्रां मैनेजर को क्या जवाब दूंगा?
इसी बेचैनी में यहां-वहां देख रहा था कि अचानक बगल में फाइल दबाए पंजाब अंचल का साथी सुरेश न जाने कहां से प्रकट हुआ. उसने धीरे से मेरे कान में कहा, “सर आपने, ब्रेकफास्ट का पेमेंट नहीं करना है.”
मैं चौंक कर उसे देखता ही रह गया. आखिर उसे कैसे पता लगा कि मैं परेशानी में हूं? बहरहाल मैंने सायास मुस्कराते हुए कहा, “बहुत धन्यवाद सुरेश जी.” न उसे पता लगा और न तीनों वरिष्ठ अधिकारियों को की उस समय मेरी जेब में बिल्कुल पैसे नहीं थे.
उन्हीं दिनों की बात है मैं देर शाम छत पर बैठ कर चारों ओर देखता तो बिजली के खंभों पर जगमगाती रोशनी मुझे गोल माला की तरह दिखाई देती. चांद का मुंह भी टेढ़ा नजर आने लगा. डाक्टर से आंखें चैक कराई तो पता लगा बाईं आंख में कैटारेक्ट यानी मोतियाबिंद बढ़ गया है, आपरेशन कराना पड़ेगा. दाहिनी आंख में आपरेशन की जरूरत नहीं थी. चंडीगढ़ के सेक्टर-8 में अमेरिकन आई सेंटर के डाक्टर मंगत से आंख का आपरेशन कराया. उस दिन पत्नी चंडीगढ़ आई हुई थी. डाक्टर मंगत ने आपरेशन करने के बाद आंखों पर पट्टी बांध दी. कुछ देर आराम करने के बाद उन्होंने मुझे अपने सामने कुर्सी पर बैठा कर कहा, “कैसा लग रहा है मिस्टर मेवाड़ी? अब मैं पट्टी खोलना चाहता हूं.”
“एक मिनट डाक्टर साहब,” मैंने हंस कर कहा, “मेरी श्रीमती जी को मेरे सामने बैठा दीजिए और फिर धीरे-धीरे पुरानी फिल्मों की तरह आंख पर से पट्टी हटाइए.”
उन्होंने हंसते हुए धीरे-धीरे पट्टी हटाई. मैंने दोनों आंखे खोल कर अपनी पत्नी की ओर देखा और कहा, “ठीक है डाक्टर साहब, मैं अपनी प्रिय पत्नी को अच्छी तरह पहचान रहा हूं!”
बैंक से छुट्टी लेकर परिवार के साथ कहीं घूमने जाने की सुविधा का अधिक लाभ नहीं उठा पाया था. इसलिए सोचा कि परिवार के साथ दक्षिण भारत की सैर पर हो आऊं. दिल्ली आकर परिवार को साथ लिया और सागर तटों की सैर कराने के लिए उन्हें लेकर तिरूअनंतपुरम और वहां से कोवलम सागर तट पर पहुंचा. वहां एक दिन तट पर सी- रॉक होटल में रहे. अगले दिन सारथी टी.टी. जोश की गाड़ी में बैठ कर सड़क मार्ग से कन्याकुमारी ओर चले. रास्ते में रुक कर वट्टाकोटाई का गोल किला देखा. किले की प्राचीर के साथ खड़े होकर सामने फैले विशाल सागर को देखते रहे. बहुत तेज हवा चल रही थी वहां. फिर विवेकानंदपुरम में जाकर एक रात वहां रूके. अगली सुबह कन्याकुमारी से हमने सूर्योदय देखा, कन्याकुमारी के मंदिर में गए और विवेकानंद शिला पर जाकर शांति अनुभव की.
सुचिंद्रम मंदिर को देखते हुए वापस तिरूअनंतपुरम लौटे और वहां से वाया चेन्नई महाबलीपुरम पहुंचे. वहां सागर तट पर मामल्लापुरम बीच रिजोर्ट में रहे. वहां दो विशाल शिलाओं पर उकेरा हुआ गंगावतरण का दृश्य देखा. शिलाओं को काट कर बनाए गए पांडव रथ देखे और पहाड़ी पर गुफाओं में महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के साथ ही कई अन्य प्राचीन मूर्तियां देखीं. वे गुफाएं हमें दो तमिल भाषी ग्रामीण महिलाओं ने दिखाईं जो खीरा और ‘मोर’ यानी छाछ बेच रही थीं. उन्होंने तमिल में कुछ कहा जो हमारी समझ में नहीं आया. मैंने उनसे कुमाऊंनी बोली में पूछा कि क्या वे हमारी गाइड बनेंगीं? हम उनसे खीरे और मोर खरीदते रहेंगे और फीस भी देंगे.
वे गाइड शब्द समझ गईं और खुश होकर हमारे साथ चल पड़ी. यह प्रयोग बहुत मजेदार रहा. मैं कुमाऊंनी में बोलता और वे तमिल में जवाब देतीं! हम अपने-अपने हिसाब से एक-दूसरे की बातें समझते रहे. उन्होंने उसी तरह हंसते-बोलते हमें पहाड़ी पर बनी कई गुफाएं दिखाईं.
उन्हीं दिनों की बात है. एक दिन आला अफसर ने कहा कि उनके साथ, उनकी गाड़ी में हिसार तक चलना है. लंबी यात्रा थी. रास्ते में उन्होंने पूछा, “घर कहां बनाया है?”
मैंने कहा, “अभी तो कहीं नहीं बनाया है.”
उन्होंने चौंक कर मेरी ओर देखा और कहा, “रिटायरमेंट करीब है और अभी तक बच्चों के लिए छत का तक इंतजाम नहीं किया है?”
“कोशिश कर रहा हूं सर,” मैंने कहा तो वे बोले, “कोशिश नहीं आपको यह काम तुरंत करना चाहिए.”
इस घटना के बाद मैं घर खरीदने के बारे में गंभीरता से सोचने लगा. जब लखनऊ में था तो वहां आवास विकास की ओर से एक एम आई जी घर एलॉट हुआ था. उसमें बैंक का एक साथी किराए पर रह रहा था. उससे बात करके मैं एक दिन चंडीगढ़ से लखनऊ पहुंचा और उससे पूछा, “इतने दिनों से इस घर में रहते-रहते अब यह आपको अपना ही जैसा घर लगता होगा?”
साथी ने कहा, “जी हां, अपना ही घर लगता है.”
“यह घर आपका हो सकता है. आप इसे खरीद सकते हैं,” मैंने कहा और उस साथी से बात की. बातचीत में जो तय हो गया उसी सामान्य कीमत पर मैंने वह घर बेच दिया और कचहरी में उसके नाम की रजिस्ट्री कराने के बाद चंडीगढ़ को लौटा. साथी ने एक लाख रूपया नकद दिया था जिसे देखकर मैं परेशान हो गया कि उसे ट्रेन में किस तरह संभाल कर ले जाऊंगा. इतनी एकमुश्त राशि मुझे पहली बार मिली थी. ट्रेन में मैंने अपने सूटकेस को लोहे की चेन से कस कर बांध दिया और एक लाख रूपए की गड्डियां लिफाफे में लपेट कर कंधे में लटकाने वाले झोले में रखीं. उनके ऊपर तौलियां वगैरह रखकर झोला सिरहाने के पास टांग दिया. मैंने सोचा कि अगर कोई चोरी करना भी चाहेगा तो चेन से बंधे सूटकेस में कीमती सामान समझ कर उस पर हाथ डालेगा. खैर, चोर तो नहीं आया लेकिन मैं रात भर सो नहीं पाया. उस एक लाख रूपए की राशि को सही-सलामत लेकर मैं पंचकूला घर पर पहुंच गया.
मुझे लगता है, मेरे आला अफसर इस बात को नहीं भूल पाए कि अब तक मैंने घर का कोई इंतजाम नहीं किया है. इसलिए शायद उन्होंने मेरा दिल्ली तबादला कराने में मदद की होगी. जल्दी ही अंचल कार्यालय, दिल्ली के लिए मेरे तबादले के आदेश आ गए. चंडीगढ़ छोड़ते समय होटल सनबीम में भावभीनी विदाई दी गई.
मेरा युवा साथी काफी पहले ही अपने बुरे व्यवहार के लिए अफसोस जाहिर कर चुका था. तब मैंने उससे कहा था कि अगर उसे सचमुच अफसोस है तो यह संकल्प करे कि जीवन में कभी दुबारा किसी के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करेगा. उसने मुझे इस बात का आश्वासन दिया.
मई 2003 के आखिरी सप्ताह में एक दिन मैंने ट्रक से अपना सामान दिल्ली को रवाना किया और अपने सारथी गुरमेल के साथ सपत्नीक दिल्ली को रवाना हुआ. जून प्रथम सप्ताह में मैंने अंचल कार्यालय, दिल्ली में नौकरी की नई पारी शुरू की. रिटायर होने में तब केवल नौ महीने का समय शेष था.
“मतलब, नौ महीने दिल्ली के अंचल कार्यालय में रहे?”
“नहीं, मैंने बैंक में नौकरी शुरू करते समय ही ईश्वर से प्रार्थना की थी कि मैं अपने ही विषय में काम करूंगा, इसलिए मैं उसी विभाग से रिटायर होना चाहूंगा जहां से नौकरी की शुरूआत की है. यानी, जनसंपर्क तथा प्रचार विभाग से.”
“तो क्या रिटायर वहां से हुए?”
“हां, रिटायर होने से पहले अंचल कार्यालय, दिल्ली से मेरा तबादला जनसंपर्क तथा प्रचार विभाग में हो गया. लेकिन, अंचल कार्यालय, दिल्ली के भी तो वे यादगार दिन थे. बताऊं उनके बारे में?”
“ओं”
(जारी)
और भी थे इम्तिहां
समय के थपेड़े
देबी के बाज्यू की चिट्ठियां
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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3 Comments
हरिहर लाेहुमी
मठाधीश विकलस्वामी काे प्रणाम। विकलस्वामी की भूमिका में आप फिट बैठे हाेंगे। बहुत उम्दा।
हरिहर लाेहुमी
मठाधीश विकलस्वामी काे साष्टांग नमस्कार। मठाधीश विकलस्वामी की भूमिका काे आपकी शारिरिक संरचना ने भी जीवंत बनाया हाेगा।अद्भुत
काेरी तनख्वाह हर समय अभाव पर स्वाभिमान से सिर उठा कर जीने की अद्भुत कला भी सिखाती है। उसमें मेरा है की जीवन्त भावना भी रहती है।
deven mewari
धन्यवाद प्रिय हरिहर।