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कहो देबी, कथा कहो – 3

पिछली कड़ी

वह पहली उड़ान

मैंने आत्म निर्भर बनने के लिए अपनी पहली उड़ान भरी. रहने की जगह खोजने के लिए अपने सहपाठियों के साथ बात करनी शुरू कर दी ताकि जाड़ों की छुट्टियों के बाद डेरा बदल सकूं. हरीश जोशी ने कहा, “देवी काटेज में हमारे पास आ जाओ. दो कमरे का सेट है. अभी मैं और पांडे जी रहते हैं. तुम आ जाओगे तो हम दोनों भीतर के कमरे में साथ रह लेंगे.”

बात पक्की हो गई. छुट्टियों में घर गया तो, ददा को भी बता दिया कि अब अलग रहना चाहता हूं. अलग रहना ही ठीक होगा.

जाड़ों की छुट्टियां खत्म हुईं तो मैं नैनीताल लौटा. रोहिला लाज जाकर सामान बांधने लगा तो मुखिया सीनियर ने कहा, “सामान क्यों बांध रहे हो?”

मैंने कहा, “डेरा बदल रहा हूं.”

“क्यों?”

“आप ही ने तो कहा था छुट्टियों के बाद यहां नहीं रहने देंगे.”

“चाहो तो कुछ समय और रह सकते हो.”

“नहीं, अब मुझे नहीं रहना है.”

“कहां लिया कमरा?”

“अभी कहीं पक्का नहीं किया है. कुछ दिन दोस्तो के साथ रहूंगा, फिर देख लूंगा.”

“घर में बता दिया?”

“हां.”

“बच्चू तुम्हें, नैनीताल की हवा लग गई है. यहां के लड़कों के साथ रहोगे तो बिगड़ जाओगे. अभी जा क्या रहे हो, बाद में पछताओगे.”

मैंने कहा, “देखा जाएगा.” मेरे मन में उन लोगों के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी. मैं सिर्फ उनके साथ बिताए समय को भूल जाना चाहता था. मैंने किराए का हिसाब करके, कुली बुला कर सामान उठाया और देवी काटेज चला गया. वहां आगे के कमरे में अकेला रहने लगा. पढ़ने-लिखने के लिए एकांत मिल गया. अक्सर अकेले ही घूमने-फिरने अथवा एकांत में चुपचाप बैठे रहने की आदत थी, इसलिए अपना नाम ‘देवेन एकाकी’ रख लिया.

कक्षा में एन.सी. यानी नवीन भट्ट और के.सी. मतलब कैलाश पंत मेरे अच्छे दोस्त बन गए. के.सी. तल्लीताल बाजार के गंगा निवास में रहता था और एन.सी. अपने दाज्यू लोगों के साथ पुलिस लाइन में. हम लोग शाम को मिलते और मालरोड का एक चक्कर लगाते. एक दिन वे दोनों बोले, “आज से हम तीनों एक हैं. चलो, तीनों लोग हाथ मिला कर अटूट दोस्ती की कसम खाएं.” हम तीनों ने हाथ जोड़ कर दोस्ती पक्की कर ली. फिर दोस्ती की पहली चाय पीने की बात तय हुई. सामने दुकान में गए. के.सी. ने आर्डर दिया, “तीन हाफ फ्राई, तीन चाय.”

देवेंद्र मेवाड़ी और नवीन भट्ट, नैनीताल, 1964

पहला हाफ फ्राई आया. साथ में कांटा-छुरी. उसे मेरे सामने रख दिया गया. दो फिर आए. उन दोनों ने कहा, तुम नए दोस्त हो, इसलिए तुम शुरू करो. मैं? मैंने तो कांटा-छुरी कभी देखा भी नहीं था. डबल रोटी की स्लाइस पर रखे हाफ फ्राई का पीला गोला थर-थर कर रहा था. छुरी या कांटा लगते ही बहने लगेगा. अचानक विचार आया. मैंने कहा, मैं ही क्यों? हम तीनों दोस्त हैं, इसलिए तीनों एक साथ खाएंगे. मैंने कनखियों से उन्हें देख कर छुरी-कांटा उठाया, उनकी ही तरह स्लाइस के किनारे कांटा चुभा कर छुरी से काटा और कांटे में टुकड़ा फंसा कर बाएं हाथ से मुंह तक ले गया. अंत में चारों ओर से कटी स्लाइस में उनकी ही तरह तिरछा कांटा फंसा कर हाफ-फ्राई के अंडे का थरथराता गोला गड़ाप से मुंह में डाल लिया. कांटा लगने से बस जरा-सा जरदी प्लेट पर आई. लेकिन, छुरी-कांटे की उस पहली परीक्षा में मैं पास हो गया था. यह केवल मैं ही जानता था.

के.सी. हीरो राजेंद्र कुमार का बहुत बड़ा फैन था. उसी के बालों का कट, वही चाल-ढाल और बोलने का वही अंदाज. कमीज के दो बटन खुले रहते जहां से उसके सीने के काले घने बाल दिखाई देते. वह फिल्मों में जाने का सपना देखता था और हमें भी वह सपना दिखाया था. एक बार तो हम लोगों ने कोई विज्ञापन देख कर कला मंदिर में बढ़िया फोटो खिंचवाए और एक-एक फिल्मी नाम चुन कर अर्जी भी भेज दी थी. उसका कभी कोई जवाब नहीं आया. शाम को मालरोड पर निकलते तो के.सी. भूरा ट्वीड का कोट, वोस्टेड की पेंट और बढ़िया कमीज पहनता था. पालिश किए हुए चमक मारते जूते. हाथ में एक छोटे झबरीले डागी की चेन. मैं अपने ब्लैजर और पेंट में, एन.सी. स्वेटर, कमीज, पेंट में. हम तेजी से मल्लीताल तक जाते और लौट आते. रास्ते में तमाम योजनाएं बनाते कि चलो ये करेंगे, वो करेंगे.

हम बी.एस-सी. प्रथम वर्ष की परीक्षा में पास हो गए. नए सत्र में रहने के लिए नई जगह कमरा खोजना पड़ा. संयोग से एन.सी. के दोनों दाज्यू ट्रांसफर होकर बाहर जा रहे थे. हम दोनों ने साथ रहने का निश्चय किया. कमरे की तलाश में हम कालेज की ओर जाने वाले रास्ते के निकट ‘राक हाउस’ में पहुंचे. अंकल सचदेवा और आंटी से बात हुई. वे किराए पर कमरा देते नहीं थे, लेकिन हमसे बात करने के बाद उन्होंने हमें बगल का एक कमरा किराए पर दे दिया. घर में उन दोनों के अलावा सोलह-सत्रह साल की बेटी ‘किकी’ थी जो बोल नहीं पाती थी. एक छोटा-सा प्यारा बेटा था ‘पीकू’. बड़ी बेटी टूटू की शादी हो चुकी थी. हम जीव विज्ञान के छात्र थे. इसलिए उन्होंने पीकू से हमारा परिचय कराते हुए कहा, “ये डाक्टर अंकल हैं. इनसे जब भी बात करोगे तो कहना ‘डाक्टर अंकल’…”

जिस कमरे में हम रहते थे, उसके ऊपर किचन था और दूसरे अन्य कमरे में उनके यहां काम करने वाले सेवक रहते थे. उनमें पीटर भी था. आंगन में सेब का पेड़ था जो खूब फल कर हमें ललचाता था. कई बार रात के अंधेरे में हमने भी उसके मीठे फल चखे और छिलके गद्दे की नीचे छिपाए. सामने आंगन में हम कई बार बैडमिंटन भी खेलते थे – आपस में या कभी-कभी किकी के साथ भी. मैं बीच-बीच में कहानी लिखने की कोशिश करता रहता था. गांव और इंटरकालेज की तमाम यादें दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती रहती थीं. चित्रों में लेखकों को कुर्ता पहने हुए देखता था. मैं भी एक हलका, सफेद कुर्ता खरीद लाया. अक्सर उसे पहन कर कहानी लिखता था.

छुट्टी के दिन दोपहर बाद कभी-कभी आवाज आती- ‘मूंगफली! करारी मूंगफली!’ नवीन पैसे टटोल कर भाग कर जाता और मूंगफली ले आता. वह एक दुबला-पतला पचासेक साल का आदमी था और सिर पर एक कट्टे में मूंगफली लेकर चलता था. कंधे पर तराजू का पल्ला लटकता रहता. एक दिन मैं नवीन के साथ गया. हमने मूंगफली ली. बाद में नवीन से पूछा, “तुम मूंगफली वाले की आवाज जब भी सुनते हो तो मूंगफली लेने क्यों दौड़ पड़ते हो? ”

“तुम विश्वास करोगे देवेन, यह आदमी सुना है इसी नैनीताल में कभी लखपति था. लेकिन, सब कुछ गंवा दिया. अब दो रोटी के लिए मूंगफली बेचता है. वैसे बहुत अच्छे आदमी हैं ये.”

मूंगफली वाला सिर पर मूंगफली का कट्टा रखे सड़क से नीचे उतर कर आवाज दे रहा था, “करारी मूंगफली! ”

अब हमारे पास अपना कमरा था, इसलिए वहां तीनों दोस्त मिलने लगे. उन दिनों डी.एस.बी. कालेज में नाटकों की जबरदस्त प्रतियोगिता होती थी. एक दिन के.सी. ने कहा, “अब हम तीनों दोस्त पढ़ाई के अलावा भी कुछ ऐसा कर दिखाएंगे कि बाकी लड़के देखते रह जाएं.”

“क्या कर दिखाएंगे?” हमने पूछा.

“नाटक करेंगे. इस बार हम एक ऐसा नाटक तैयार करेंगे, ऐसी एक्टिंग करेंगे कि सबको पता लग जाए, नाटक क्या होता है. हम नया नाटक लेंगे. देवेन तुम्हें तो लिखने का शौक है. नाटक तुम लिखोगे.”

“मैं? किस विषय पर?”

“सामाजिक विषय होगा. मैं बताऊंगा,” के.सी. ने कहा.

उसने बताया, नाटक में क्या-क्या होगा. भूमिकाएं भी तय हो गईं. मैं पिता की, वह नायक की और एन.सी. सेवक की भूमिका निभाएगा. केवल तीन पात्र. मैंने सोचा, मैं? लोगों को देख कर तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसकती है. लेकिन, के.सी. ने भूमिकाएं तय कर दीं तो कर दीं. मैंने नाटक लिखा- ‘आखिर क्यों?’. के.सी. को पसंद आ गया. उसमें उसने कई डायलाग जुड़वाए. फिर मेकअप का सस्ता सामान आया-गोंद और चाय की पत्ती. मुंह पर गोंद लगा कर चाय की पत्तियां चिपका लेते थे. एक चाकू की जरूरत थी. तल्लीताल बाजार में एक भोटिया व्यापारी के सामान में से चाकू जुटाया गया. एक नकली पिस्तौल ली गई और हमारे कमरे में रिहर्सल शुरू हो गई. एक दिन के.सी. देर में आया. मैंने मेकअप कर लिया था. बाल भी फैले हुए थे. एन.सी. से कहा, तुम देखते रहना.

मैं चुपके से सीढ़ियां चढ़ कर किचन की ओर गया. दो खानसामा बैठे थे. मैंने नशे की आवाज में कहा, “रोटी दे दो!”

वे दोनों चौंक गए. एक ने कहा, “हट! हट! कहां से शराबी आ गया. चल, बाहर निकल!”

मैंने कहा, “बहुत भूख लगी है बाबू जी. एक रोटी दे दो.”

“शराब के लिए पैसे हैं, रोटी नहीं खरीद सकता?” उसने डांटा.

फिर उसने कुमायूंनी में अपने साथी से कहा, “तू इसे बातों में लगाए रख. मैं बाहर को धक्का देता हूं.”

वह मेरे पास आने लगा. मैंने अचानक पिस्तौल तान दी और कहा, “खबरदार! गोली मार दूंगा. तुम गरीब आदमी को रोटी भी नहीं दे सकते? मैं तो रोटी खाकर ही जावूंगा.”

उसने हार कर हाथ जोड़ दिए. बोला, “हम तो खुद ही गरीब आदमी हैं भाई, तुम्हें क्या खिलाएंगे. हाथ जोड़ता हूं, इस समय चले जाओ!”

मैं उस पर नजरें गड़ाए धीरे-धीरे उल्टे कदमों से सीढ़ियां उतरा. नीचे एन.सी. का हंसते-हंसते बुरा हाल था. के.सी. देर से आया था. सारी बात सुनी तो बोला, “देखा? हमारी तैयारी ठीक चल रही है. हमारी मेहनत का पता लग गया.”

हम दूने जोश-खरोश से नाटक की तैयारी में जुट गए. यह बात और है कि उस साल नाटक प्रतियोगिता हुई ही नहीं और हमारी तैयारी भी आधे-अधूरे में छूट गई.

नवीन और मैंने साथ रहते हुए पढ़ने का समय निश्चित किया. सुबह, शाम और रात को हम बिस्तरे में बैठ कर चुपचाप पढ़ते थे. शाम को एकाध घंटा पढ़ने के बाद मालरोड और ठंडी सड़क का एक चक्कर लगा लेते. हमने नई चीजें सीखने का निश्चय किया. शुरुआत तैराकी से की, हालांकि घर वालों की हिदायत थी कि ताल में न जाऊं. मन में उनका आर्शीवाद मांगा अन्यथा सीखता कैसे? नवीन तैराकी के कोच साह जी को जानता था. हमने एक-एक स्विमिंग कस्ट्यूम खरीदा और साह जी से मिले. वे बोले, अभी से शुरु कर दो. तल्लीताल डाट से थोड़ा ही आगे कालेज जाने के रास्ते पर स्विमिंग प्लैंक लगे थे जिन पर खड़े होकर कई लोग गोता लगाते थे. हमारा भी बड़ा मन करता था, लेकिन तैरना आए तब न?

साह जी ने हमें एक-एक लाइफ बेल्ट दी. हमने उनमें फूंक मार कर हवा भरी, पहना और डरते-डरते किनारे पर पानी में उतरे. कोच साह जी ने भी पानी में आकर हाथ और पैर चलाने का तरीका सिखाया.

अब तो कालेज जाने से पहले हम रोज तैराकी का अभ्यास करने लगे. कई दिन तैरते-तैरते देर हो जाती और बिना खाना खाए भाग कर कक्षा में पहुंचते. उसी बीच प्लैंक से तरह-तरह की मुद्राओं में गोता लगाने वाले रमेश लाल साह से परिचय हुआ. उन्होंने हमें प्लैंक से हवा में उछल कर पैर के अंगूठे छूते हुए सिर के बल पानी में गोता लगाना सिखाया. इस तरह शरीर अंगूठी की तरह बन जाता था. मैं तो सीधे पैरों के बल पानी में कूद ही नहीं सकता था. लेकिन, इस तरह गोता लगाने में बहुत अच्छा लगा. उन्होंने ताल में ज्यादा इधर-उधर तैरने या गोता लगाने से मना किया. कहा, नीचे लंबी काई-सिवार होती है जिसमें हाथ-पैर उलझ सकते हैं. धीरे-धीरे हम तैरना सीख गए. लाइफ बेल्ट पहन कर ताल में आगे बढ़ने लगे. एक दिन हम दोनों ने तय किया कि याट-रेस की सीमा वाले ड्रम को छू कर आएंगे. हम वहां तक गए भी. लौटते समय आधे रास्ते में नवीन ने कहा, “देवेन, शायद ट्यूब में से हवा निकल रही है.” देखा, उसकी ट्यूब लीक कर रही थी. मैंने कहा, “हिम्मत नहीं हारनी है, चलो तेजी से किनारे पर पहुंचते हैं.” हम जितना तेज हो सकता था, तैरे लेकिन किनारे पर पहुंचते-पहुंचते नवीन एकाध डुबकी खा गया. किनारे पर बैठे साह जी ने देख लिया होगा. वे फुरती से पानी में कूदे और नवीन को सहारा देकर किनारे ले आए.

लेकिन, इससे हमारा उत्साह कम नहीं हुआ. बाद में तो हम दो-चार बार पाषाण देवी से पहले की चट्टानों के पास से भी ताल में काफी दूर तक तैरे. वहां, उसी जगह हमारे कालेज में पढ़ने वाला लंघम छात्रावास का एक विद्यार्थी डूब गया था और दूसरे दिन उसका शरीर चट्टानों के पास सबसे निचली सीढ़ी पर अटका हुआ पाया गया. कभी-कभार ताल में से कोई डूबा हुआ शरीर निकल कर सतह पर तैरने लगता था. एक बार जब हम तैर रहे थे, एन.एल. साह जी ने तरह-तरह के गोते लगाए. अंगूठी की मुद्रा में, समरसाल्ट करके, गिरते-गिरते फिरकी खाकर और ‘डेड मेंस डाइव’ में डंडे की तरह गिर कर. एक बार उन्होंने सबसे ऊंचे प्लैंक से छलांग लगाई और ताल में नीचे तक डुबकी लगा कर बाहर निकले. तौलिए से बदन पौंछ ही रहे थे कि तभी प्लैंकों से कुछ दूरी पर एक डूबा हुआ शरीर ऊपर निकल आया. पुलिस आ गई. शरीर बाहर निकाल कर सड़क के किनारे रखा गया. पता लगा, पालीटैक्निक का कोई छात्र था.

लेकिन, तैरने वाले तो तैरते ही रहते थे. हमारे ही कालेज का सहपाठी गोविंद सिंह बिष्ट कई साल तक ताल के आरपार यानी मल्लीताल से तल्लीताल तक तैरने में चैंपियन बना रहा.

तैरने के अलावा हमने छुट्टी के दिन ‘हाइकिंग’ करने का निश्चय किया. मल्लीताल बीच की बाजार से दो हैवरसैक यानी पिट्ठू खरीदे. हमारे पास एक थर्मस था. उसमें चाय भर कर हम कभी किसी रविवार को एकदम सुबह खड़ी धार के रास्ते चीना पीक पहुंच जाते. वहां से नीचे नैनीताल शहर या दूर हिमालय तक फैले पहाड़ों का दृश्य देखते हुए चाय पीते. इसी तरह कभी स्नोव्यू, कभी टिफिन टाप और कभी लैंड्सएंड तक हो आते. इस दौरान हम अपने विषय की चीजें देखते, जमा करते. मेरी रुचि वनस्पतियों में अधिक थी और नवीन की कीट-पतंगों और रंग-बिरंगी तितलियों में. हम हर्बेरियम बनाने के लिए पुरानी कापी के पन्नों में वनस्पतियां दबा कर लाते.

कभी लंबी सैर पर पैदल निकल जाते- नैनीताल से पाइंस और भुवाली होते हुए भीमताल या नलदमयंती ताल और सातताल तक. या कभी नौकुचिया ताल तक भी चले जाते. गर्मियों में सात ताल में खूब रंग-बिरंगे बोगेनवेलिया खिल जाते थे. पेड़-पौधे भी बहुत थे. कई तालों में डबाडब पानी भरा रहता था- नीली स्याही जैसा गरुड़ ताल, आपस में जुड़े हुए राम ताल और सीता ताल. और भी ताल थे. चारों ओर पूरा प्राकृतिक वातावरण था.

भीमताल में एक बार हम डाट के निचले कोने के पास से बीच के टापू तक तैर कर जाने का दुस्साहस कर रहे थे. तब तैरना भी अच्छी तरह नहीं आता था. किसी भले आदमी ने देखा और हमें डांट कर बाहर निकाला. हम नौकुचिया ताल की विशालता देख कर हैरान रह गए थे. दूसरी ओर से हवा चल रही थी जिसके कारण हमारी ओर लहरें चली आ रही थीं. नौकुचियाताल को देख कर हम यह तो समझ गए कि पहाड़ों की ओट और उभारों के बीच में होने के कारण किंवदंती के नौ कोने देखना तो संभव नहीं था, लेकिन एक-दो कोने तो देख ही सकते हैं. हम ताल के एक ओर किनारे-किनारे आगे चलते गए कि अचानक वैसा ही बड़ा ताल दांई ओर दिखाई देने लगा. वहां वातावरण बहुत सुनसान था, इसलिए हम वापस लौट आए.

लौटते समय बस में आ गए. भुवाली में एक विदेशी युवक डिक योल्डर से परिचय हो गया. वे तीन-चार लोग थे और तल्लीताल के एक चर्च में रह रहे थे. एक दिन डिक के साथी एलन ने चर्च में हमें देर तक गिटार बजा कर सुनाया.

हमारे एक मित्र जीवन पंत वाइ एम सी ए के सदस्य थे और वहां टेबल टेनिस खेलने जाया करते थे. मैंने और नवीन ने भी वहां की सदस्यता ले ली. हमने बैट और बालें खरीदीं और कभी-कभी वहां टेबल टेनिस खेलने जाने लगे.

हमने तय किया कि हम स्केटिंग भी सीखेंगे. स्केटिंग कैपिटाल सिनेमा से लगे रिंक हाल में होता था. वहां गए. प्रशिक्षक साह जी से मिले और सदस्यता
ले ली. अब कभी-कभी आधा-एक घंटा स्केटिंग भी सीखने लगे. मैं संतुलन बनाते-बनाते कलाइयों और कमर के बल खूब गिरा लेकिन फिर संतुलन बना कर स्केटिंग करना आ गया.

दो-एक बार घुड़सवारी भी की लेकिन वह खर्चीला शौक था, इसलिए छोड़ दिया. पिक्चर देखते तो थे लेकिन केवल गिनी-चुनी. पिक्चर देखने का जुनून नहीं था.

पढ़ाई के अलावा खाली समय में अब हमारे पास करने के लिए बहुत-कुछ था. और, देखा जाए तो ‘नैनीताल की हवा लगने’ के लिए यह क्या कम था?

“क्यों ठीक कह रहा हूं?”

“ओं”

( जारी )

वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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