पिछली कड़ी: कहो देबी, कथा कहो – 28, पंतनगर के सन्नाटे में धांय-धांय
चारों ओर निराशा का माहौल दिखाई देता. गोलीकांड के बाद पहले तक के शांत, सुरक्षित पंतनगर में भय, आतंक और अविश्वास की सरगोशियां सुनाई देने लगीं. अपनी कालोनी में परिवार की सुरक्षा के लिए हम भी लाठियां लेकर रात-रात भर पहरा देने लगे- जागते रहो! अफवाहें फैलतीं कि घरों में भी रात-बिरात चोरी डकैती या मारपीट हो सकती है. बाद में मैंने दोनों बेटियों के साथ पत्नी को उसके मायके भेज दिया. घर में मैं अकेला रह गया.
विश्वविद्यालय में फिर एक नए कुलपति आए. उजड़े हुए दयार में फिर बहार लाने की कोशिशें शुरू हुईं. उनमें से एक कोशिश थी-स्वस्थ मन और शरीर के लिए योग और ध्यान. मुझे योगासन करने का पहले से शौक था और उन दिनों के उस तनाव भरे माहौल में रोज सुबह योगासन लगाया करता था. विश्वविद्यालय में योग और ध्यान की कक्षाएं शुरू होने से अब एक अनुभवी गुरु से विधिवत योगासन और ध्यान सीखने का सुअवसर मिल गया. वे अनुभवी गुरू थे शिवानंद आश्रम, डिवाइन लाइफ सोसाइटी, ऋषिकेश के स्वामी आध्यात्मानंद जी. वे हर रोज चार-पांच सत्रों में योगासन सिखाने लगे. मैं भी प्रथम सत्र यानी प्रातः पांच बजे के सत्र में शामिल हो गया. अच्छी बात यह थी कि इसका संबंध किसी जाति, धर्म या क्षेत्र से नहीं था. इसलिए इस शारीरिक शिक्षा की कक्षा में किसी भी जाति, धर्म का कोई भी विद्यार्थी या कर्मचारी भाग ले सकता था.
स्वामी अध्यात्मानंद जी ने योगासनों को करने की विधि तो बताई ही, उनके वैज्ञानिक पहलू भी समझाए. हम कठोपनिषद की ‘ओऽम सहनाववतु सहनोभुनक्तु, सहवीर्यं करवावहै’ की प्रार्थना से योगासन शुरू करते. शरीर को लचीला बनाने के लिए पहले सूर्य नमस्कार का अभ्यास करते. बारहों मुद्राओं को समझाने के साथ ही उन्होंने हर मुद्रा में श्वास-प्रश्वास की बात भी समझाई कि किस मुद्रा में सांस भीतर लेनी है, किसमें सांस बाहर छोड़नी है और किसमें सांस रोक कर कुंभक करना है. फिर उन्होंने हर मुद्रा के साथ सूर्य को मन ही मन नमस्कार करने का अभ्यास कराया. सूर्य नमस्कार की बारह मुद्राओं के लिए सूर्य के नाम के बारह नमस्कार के मौन स्वर हम मन में दुहराते-ओऽम मित्राय नमः, रवये नमः, सूर्याय नमः, भानवे नमः, खगाय नमः, पूष्णे नमः, हिरण्यगर्भाय नमः, मरीचये नमः, आर्काय नमः, भास्कराय नमोनमः!
हम जब सूर्य नमस्कार करते तो हमें स्वामी जी के मधुर कंठ से भैरवी के सुर में नमस्कार के ये शब्द गूंजते हुए सुनाई देते. प्रातः पूर्व दिशा में सूर्य का उदय होता और हम खुले मैदान में सूर्य को नमस्कार कर रहे होते. फिर कुछ योगासन लगाते, प्राणायाम करते और योगमुद्रा में मन को शांत करते. हर योगासन के बाद क्षणिक शवासन लगाते. वृहदाण्यक की ‘ओऽम पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्ण मुदच्यते’ प्रार्थना के साथ सत्र पूरा हो जाता. (कब्बू और शेरा)
कोर्स के समापन के अवसर पर विश्वविद्यालय के गांधी सभागार में सूर्य नमस्कार और योगासनों का प्रदर्शन किया जाता. इसके लिए बारह लोगों की टीम चुनी जाती. उस प्रार्थना टीम में ग्यारह विद्यार्थियों के साथ मुझे भी चुना गया. योगासनों की मेरी पुस्तक पर स्वामी जी ने मेरे लिए अंग्रेजी में आशीर्वचन लिखे थे.
एक ओर यह सब और दूसरी ओर कई अनुभवी शिक्षक और वैज्ञानिक निराशा के उस माहौल में नई दिशाओं की ओर उड़ान भरने के लिए अपने पंख तौल रहे थे. जिस किसी को नई दिशा दिखी, उसने उड़ान भर ली. कई शिक्षक-वैज्ञानिक दुनिया के कई देशों में बड़े पदों पर पहुंच गए हालांकि उनमें से किसी के लिए भी पंतनगर को भूलना संभव नहीं था.
लेकिन, मैं क्या करता? अमेरिका की विस्कांसिन यूनिवर्सिटी में पढ़े, जनसंचार के विशेषज्ञ मेरे सह-निदेशक डॉ. अब्दुल वहीद खान कहा करते थे- जिस स्तर का काम आप हिंदी में कर रहे हैं, अगर अंग्रेजी में कर रहे होते तो कहां पहुंच गए होते. मगर मैं तो अपनी पत्रिका ‘किसान भारती’ से प्यार करता था. कृषि संचार में पत्रकारिता का कोर्स शुरू हुआ तो मैं ग्रेजुएट विद्यार्थियों को पत्रकारिता भी पढ़ाने लगा. विश्वविद्यालय से अंतरंग लगाव भी था. हर कुलपति से काम के लिए शाबासी भी मिलती थी. मगर था वहीं, जहां ग्यारह साल पहले आया था.
मनुष्य ही था मैं, इसलिए मेरा मन भी उड़ान भरने को मचलने लगा. लेकिन, मचलने से क्या होता, बाहरी रोजगार के लिए मेरी अर्जियां विश्वविद्यालय प्रशासन फारवर्ड ही नहीं करता था. तभी, एक और नए कुलपति आए और मेरी बाहरी रोजगार की दो अर्जियां फारवर्ड हो गईं- एक बैंकिंग सेवा चयन बोर्ड, दिल्ली को जनसम्पर्क तथा प्रचार प्रबंधक पद के लिए और दूसरी संघ लोक सेवा आयोग से कृषि मंत्रालय के विस्तार निदेशालय में संपादक पद के लिए. कुछ समय बाद दोनों जगहों से इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया. इंटरव्यू दिया और दोनों जगह चुन लिया गया. बैंकिंग सेवा चयन बोर्ड से पंजाब नैशनल बैंक के लिए चुना गया. नौ रिक्तियां थीं लेकिन यह एक ही चयन हुआ और इस तरह मेरे लिए पंजाब नैशनल बैंक के द्वार खुल गए. पहले यही नियुक्ति पत्र मिला. इसलिए विश्वविद्याल में इस्तीफा देकर मैं मार्च 1982 में वाया दिल्ली लखनऊ के लिए रवाना हो गया. दिल्ली में सप्ताह भर प्रधान कार्यालय के अलावा एक विज्ञापन एजेंसी और बैंक शाखा में नया अनुभव लेकर मैं तहजीब के शहर लखनऊ पहुंच गया.
पत्नी लक्ष्मी, भतीजी नीलम और तीन बेटियां पंतनगर में थीं. लक्ष्मी के पैर भारी थे और हम परिवार में नए सदस्य के आगमन का भी इंतजार कर रहे थे. पंतनगर और हल्द्वानी में मेडिकल चैक-अप भी करा रहे थे. मार्च शुरू में जब मैं पंतनगर से चला गया तो यह तय हुआ कि डॉक्टर की राय मिलते ही मैं चला आवूंगा. लेकिन, समय निकलता रहा. जून आखिरी सप्ताह में हल्द्वानी में चैक-अप कराने पर डॉक्टर ने पत्नी को राय दी कि काफी समय हो चुका है, इसलिए अब आर्टिफिशियल पेन देकर प्रसव कराना पड़ेगा. लेकिन, इसके लिए पति को मौजूद रहना जरूरी है तभी आपरेशन किया जाएगा. पत्नी को पता था, नई नौकरी में छुट्टियां नहीं मिल पाएंगीं और फिर यहां देखभाल भी कौन करेगा?
उन्होंने निश्चय किया कि लखनऊ ही चले जाना बेहतर रहेगा. हालांकि कभी भी प्रसव हो जाने की आशंका भी थी. मगर जाएं कैसे? मेरी अनुपस्थिति में ही उन्होंने अपने मायके के भाई दानसिंह और मेरे चचेरे भाई खीम सिंह से बात की. पैकिंग के लिए पेटियां मंगा कर घर भीतर चुपचाप खुद पैकिंग की. भतीजी नीलम बी.ए. प्रथम वर्ष में थी और परीक्षा सिर पर थी. पत्नी ने रुद्रपुर से ट्रक मंगवाया और उसमें लखनऊ के लिए सामान चढ़वा दिया. अब जाएं कैसे? रेल की केवल एक बर्थ वेटिंग में मिल सकी. रात भर का सफर, साथ में बेटियां. पत्नी ने तय किया कि दो साल की छोटी बेटी को साथ लेकर वे मेरे चचेरे भाई खीम के साथ ट्रेन से लखनऊ जाएंगीं और भाई दान सिंह व वीरेंद्र दोनों लड़के दस-बारह साल की बड़ी बेटियों के साथ ट्रक में पंतनगर से लखनऊ को चलेंगे. रात भर का सफर. भतीजी नीलम अलग रोती रही कि वह भी साथ चलेगी, ऐसी हालत में कैसे जाएंगी? लेकिन, उसकी खुद की वार्षिक परीक्षा होने वाली थी. उसका पंतनगर रहना जरूरी था ताकि साल बर्बाद न हो. इसलिए उसे फिलहाल भाई खीम सिंह के घर पर रखने का निश्चय किया. दोपहर बाद तीन बजे ट्रक लखनऊ को रवाना कर दिया गया. (डीएसबी की एनसीसी कथा)
लक्ष्मी, छोटी बेटी और खीम के साथ पांच बजे रिक्शे में नगला रेलवे स्टेशन की ओर निकली. एक हाथ में सूटकेस, दूसरे से बिटिया को संभाले पटरियां पार कर ही रही थी कि प्लेटफार्म से लोग चिल्लाए, ‘जल्दी आओ! इंजन आ रहा है.’ सामने देखा, धड़-धड़, धड़-धड़ करता इंजन चला आ रहा है. खैर, पटरियां पार हो गईं और वे प्लेटफार्म पर पहुंचीं. ट्रेन का इंतजार कर ही रहे थे कि यूको बैंक में काम करने वाले पड़ोसी परगाईं जी भागे हुए आए और लक्ष्मी के हाथ में रूपए पकड़ा कर बोले, “मैं लखनऊ गया था, वहां से मेवाड़ी जी ने ये रूपए भिजवाए हैं. मैं आपके क्वार्टर में गया तो वह बंद था. पता लगा आप लोग रेलवे स्टेशन गए हुए हैं. इसलिए भागा हुआ यहां चला आया.” जब बर्थ न मिलने के बारे में पता चला तो उन्होंने टीटी से बात की. उन्हें हालात समझाए और बर्थ देने का अनुरोध किया. किसी तरह पत्नी और खीम के लिए दो बर्थ मिल गईं. तब बर्थ सख्त और लकड़ी की होती थीं. ट्रेन चलने के बाद टीटी ने लक्ष्मी के पैरों की ओर देखा तो उनमें भारी सूजन देख कर खीम से पूछा कि इन्हें क्या हुआ है? खीम ने उसे पूरी बात समझाई. टीटी ने सहानुभूति दिखाई और सुबह हो जाने पर भी उन पर किसी को बैठने नहीं दिया.
उधर लखनऊ में सुबह-सुबह अचानक दोनों बेटियों और साथ में दान सिंह और वीरेंद्र को देख कर मैं घबराया. उनसे पूछा, “मम्मी कहां है?”
“वह ट्रेन से आ रही हैं.”
दान सिंह ने कहा, “हम सामान लेकर ट्रक से आए हैं. ट्रक बाहर खड़ा है. दीदी बच्ची को लेकर खीम के साथ ट्रेन से आ रही है.”
मैंने घबरा कर कहा, “इस हालत में? डेलीवरी होने वाली थी?”
वे लोग क्या कहते? मैं बाहर निकला ताकि स्टेशन जाकर उन्हें ले आऊं. लेकिन, सोचा ट्रेन तो आ चुकी होगी. मैं टैम्पो से स्टेशन की ओर जाऊंगा और पता लगा, वे यहां घर पर पहुंच गए हैं. इसी उहापोह में महानगर के वायरलैंस चौराहे के पास खड़ा रह गया. तब तक देखा लक्ष्मी बच्ची को गोद में उठाए टैम्पो से उतर रही है. पैरों में चप्पल या जूता कुछ नहीं पहना था. मैंने कहा, “इस तरह नंगे पैर क्यों चल रही हो?”
“घर चलो, बताती हूं.”
घर भीतर आए तो पता लगा दोनों टांगों में भारी सूजन हैं. पैर इतने सूज चुके थे कि उनमें चप्पल या जूता पहना ही नहीं जा सकता था. मैंने कहा कि तुरंत चल कर चैक-अप करा लेते हैं. लक्ष्मी ने कहा, “बहुत भूख लगी है. मेरे पास आलू, पूड़ी हैं. मैं पहले कुछ खा लेती हूं.”
उसने एक-दो एक-दो पूड़ी खाईं और फिर हम रिक्शा लेकर फातिमा हास्पिटल की ओर भागे. वहां जाकर नर्स से बात की. उसने चैकअप किया और कहा कि यहां पहले कार्ड बनता है, तभी डेलीवरी कराई जाती है. कार्ड में समय-समय पर दी गई दवाइयों और इंजैक्शन का ब्यौरा दिया रहता है. हमारे पास तो कार्ड था नहीं. मैं वापस घर पर गया और अपनी मकान मालकिन मिसेज किदवई को अपनी परेशानी बताई. वे तुरंत मेरे साथ रिक्शे में फातिमा हास्पिटल गईं और वहां डॉक्टर सक्सेना से बात की. डॉक्टर ने नर्स के साथ लक्ष्मी को स्ट्रेचर में लिटा कर पूरे चैक-अप के लिए भिजवा दिया. फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोलीं, “किस गांव से आ रहे हो? पत्नी की इतनी बुरी हालत है, क्या वहां डॉक्टर नहीं होते? हालत यह है कि हमें अभी आपरेशन करना होगा. अगर तुम्हारी पत्नी को कुछ भी हुआ तो इसकी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी. इस फार्म पर दस्तखत करो. मैं पता लगती हूं कि डॉक्टर भट्टाचार्य हैं कि नहीं. वे आ जाएंगे तो आपरेशन में मदद मिल जाएगी. तुम्हारी किस्मत ठीक हुई तो शायद वे मिल जाएं.”
यह कह कर उन्होंने डॉक्टर भट्टाचार्य को फोन किया. पता लगा, वे लंदन में प्रैक्टिस कर रहे थे लेकिन वहां से अपने देश लौट आए. उन्हें काफी अच्छा सर्जन माना जाता था. खैर, फोन पर डॉक्टर भट्टाचार्य मिल गए और उन्होंने कहा वे तुरंत आ रहे हैं. अस्पताल में किसी महिला को डेलीवरी के लिए तैयार किया जा रहा था. मेरी पत्नी का इमरजैंसी केस मान कर उसे पहले आपरेशन के लिए लैबर रूम भेज दिया गया. नर्स ने आकर पत्नी के कपड़े मुझे सौंप दिए. मैं सिर्फ बदहवास और हताश हो सकता था, हुआ. इंतजार करता रहा. लंबे इंतजार के बाद पता लगा कि बेटा हुआ है और पत्नी अभी होश में नहीं आई है. मैं उदास बैठा रहा और पत्नी के स्वास्थ्य के लिए दुआ करता रहा. बार-बार पूछता था कि क्या मैं उससे मिल सकता हूं? डेढ़-दो घंटे बाद मुझे क्षण भर मिलने दिया गया. तब पत्नी होश में आई ही थी लेकिन लगता था जैसे तंद्रा में है.
मैं प्राइवेट वार्ड में कमरे के लिए अनुरोध करता रहा लेकिन नहीं मिल सका. फिर मिसेज किदवई के पास भागा. वे आईं और उन्होंने अस्पताल प्रशासन से कहा कि वह मेरी बहू है. उसे आपने कमरा देना ही होगा. आखिर कमरा भी मिल गया. लक्ष्मी को कमरे में शिफ्ट कर दिया गया. अस्पताल में खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी. लोग घर या बाहर से खाना लाते थे. मेरे पास घर में खाना बनाने की व्यवस्था नहीं थी. उन्हीं दिनों अचानक तीन देवदूत आ गए. उनमें से एक- भुवन पनेरू, वकालत की पढ़ाई कर रहा था और दारूलशफा में रहता था. वहां से सुबह वह आता था और बत्ती के स्टोव पर चाय बना कर पिलाता था. शाम को थोड़ा खिचड़ी बना कर अस्पताल में लक्ष्मी को दे आता था. ज्यादातर दवाइयां खाली पेट ही खाई गईं. मैं ऑफिस चला जाता था और छोटी बेटी मानसी को लक्ष्मी को दे जाता था. उसकी देखभाल दिन भर वही करती थीं. बाकी दो देवदूत- मोहन जोशी और महेश पोखरिया मेरी बेटियों के एडमिशन की कोशिश में लग गए. वे ही उनके लिए बस्ते और कापी, किताबें लाए. अस्पताल से सप्ताह भर बाद डिस्चार्ज हो जाने पर पत्नी घर आ गई और उसने घर की जिम्मेदारियां संभाल लीं. जन्म के बाद ग्यारहवें दिन बच्चे के नामकरण की व्यवस्था भी उन्हीं दो देवदूतों ने की. वे एक दिन मेरे बैंक में आए थे और बोले, “मास्साब नमस्कार.”
मैं चौंका कि ये मास्साब मुझे क्यों कह रहे हैं? पूछा तो उन्होंने बताया, मैंने उन्हें ओखलकांडा इंटर कालेज में सर्दियों की छुट्टियों में कभी बायोलॉजी पढ़ाई थी. याद आया, तब मैं एम.एससी. फाइनल में था और सर्दियों की छुट्टियों में ओखलकांडा ददा के पास चला जाता था.
उसी साल की बात है, जाड़ों में बाज्यू पंतनगर नहीं आ पाए थे. उन्हें पता था कि बहू पेट से है. इसलिए फिक्र रहती थी कि क्या हुआ होगा. बहू की तबियत कैसी होगी? ठीक जिस दिन लक्ष्मी बच्चों सहित लखनऊ के लिए रवाना हुई, उसी दिन जून की भीषण गर्मी में फिक्र के मारे बाज्यू पंतनगर पहुंच गए. वहां पहुंच कर उन्हें पता लगा कि बहू और बच्चे तो पिछली शाम को ही लखनऊ चले गए हैं. वे उदास होकर वापस लौट गए. उन्हें बाद में लखनऊ से भेजी मेरी चिट्ठी से पता लगा कि उनका नाती (पोता) हुआ है और बहू-बेटा दोनों का स्वास्थ्य ठीक है.
“तो, बड़ा कठिन समय रहा होगा वह?”
“हां, कठिन तो था. बल्कि, बहुत कठिन क्योंकि नई नौकरी थी और नया अनजाना शहर भी. सब कुछ नए सिरे से करना था. बच्चे के जन्म के बाद भी पूरे परिवार को संभालना बड़ी हिम्मत का काम था. लक्ष्मी ने वह किया. मेरे लिए भी उन हालातों में चुनौतियां कम नहीं थीं. सुनेंगे?”
“ओं”
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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