कहो देबी, कथा कहो – 28
पिछली कड़ी: कहो देबी, कथा कहो – 27, आसमान टूट पड़ा
क्या नहीं था तब!
वर्ष 1975 तक पंतनगर विश्वविद्यालय में 36 प्रमुख विषयों में स्नातक और 11 विषयों में स्नातकोत्तर तथा पीएचडी. शैक्षिक कार्यक्रम शुरू हो गए.शांत वातावरण में बसा पंतनगर हमारा शांतिनिकेतन था. उस पर गर्व करने के लिए भी बहुत कुछ था- वह देश का प्रथम कृषि विश्वविद्यालय के साथ ही एक आत्मनिर्भर विश्वविद्यालय भी था.
अपने पूरे रख-रखाव का खर्च वह अपने 10,500 एकड़ फार्म का व्यावसायिक उपयोग करके पूरा कर रहा था. फार्म की आय पहले महज 10 लाख रूपए थी, फिर वह 22 लाख रूपए हुई, 1974 तक एक करोड़ और 1975 तक 1 करोड़ 40 लाख हो गई. यह बेहतर प्रबंधन का फल था. पता लगा वर्ष 1966 तक शैक्षिक कर्मचारी लगभग 100 और विद्यार्थी करीब 1100 थे. तब केवल तीन स्नातक और दो स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलते थे.
क्या नहीं था तब! दीक्षांत समारोह से शैक्षिक सत्र शुरू हो होता था. बार-बार यह संकल्प दुहराया जाता था कि देश का यह प्रथम कृषि विश्वविद्यालय हर क्षेत्र में प्रथम रहेगा, सबसे आगे रहेंगे हम. यह शैक्षिक श्रेष्ठता का केन्द्र होगा और मार्गदर्शक बनेगा.
तभी देश में सत्ता परिवर्तन हो गया. नई सरकार, नए कुलपति. डॉ. धरमपाल सिंह कुलपति बने जो कानपुर के प्रसिद्ध कृषि विज्ञान संस्थान में लंबे अरसे तक निदेशक रहे थे. उनके पढ़ाए कई छात्र देश-विदेश में नाम कमा रहे थे. आशा जगी कि ऐसे अनुभवी कृषि शिक्षक और प्रशासक के आने से विश्वविद्यालय और अधिक प्रगति कर सकेगा.
उन्होंने भी एक दिन मुझे अपने आफिस में बुलाया. बैठा कर बोले, “मुझे आपके काम के बारे में पता है. आपकी पत्रिका ‘किसान भारती’ को एग्रीएक्सपो-1997 में कृषि पत्रिकाओं की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार मिला है. मैं सोचता हूं कि जो लोग अच्छा काम करते हैं, उन्हें प्रोत्साहन जरूर मिलना चाहिए. आपको भी इंसेंटिव मिलेगा. वह कब और किस रूप में मिलेगा, यह मैं सोचूंगा. लेकिन, यकीन रखिए, आपको प्रोत्साहन मिलेगा.”
मैं हैरान. उनसे यह मेरी पहली मुलाकात थी और मैं उन्हें जानता तक नहीं था. फिर भी मेरे बारे में वे इतना सोच रहे हैं. मुझे वहां नौकरी करते आठ साल हो चुके थे. तभी उन्होंने एक लिफाफे से किसी पत्रिका के अंक निकाल कर मुझे दिए. मैंने देखा, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आई.सी.ए.आर. की हिंदी कृषि पत्रिका ‘खेती’ थी.
कुलपति ने कहा, “आई.सी.ए.आर. से यह पत्रिका मुझे भेजी है. वे साल में छपे इसके सबसे अच्छे लेख पर पुरस्कार देते हैं. मैं तो इन्हें पढ़ ही रहा हूं, मैं चाहता हूं कि आप भी इन्हें पढ़ो. यह आपका विषय है. फिर मैरिट के हिसाब से एक से पांच तक नंबर देकर बताइए कि इनमें से आपको पांच श्रेष्ठ लेख कौन-से लगे. मैं भी अपनी सूची बनाऊंगा. देंखें आपकी मेरी सूची कितना मैच करती है. ठीक है?”
“ठीक है सर” कह कर मैं प्रसन्न मन लौट आया. तीन-चार दिन में लेखों को पढ़ कर और अपने हिसाब से पांच श्रेष्ठ लेखों की सूची बना कर अंक उन्हें लौटा दिए.
लेकिन, उधर छात्रों और मजदूरों के बीच असंतोष बढ़ रहा था. वे अपनी मांगें दुहरा रहे थे. कैम्पस में क्षेत्रीयता और जातीयता की बू आने लगी थी. हमारा वी.सी., हमारे लोग जैसी बातें सुनाई देने लगीं जो धीरे-धीरे पुरबिया और पश्चिमी यानी जाट बनाम नॉन-जाट की शक्ल में तब्दील हो गईं. पंतनगर के वातावरण में भीतर-भीतर तनाव बढ़ने लगा. छात्रों के बीच झड़पें हुईं. मजदूरों के नारे सुनाई देने लगे. यह अफवाह भी फैला दी गई कि पूरब के छात्र मजदूरों का साथ दे रहे हैं.
आखिर वह हो गया जो नहीं होना चाहिए था
एक दिन सन्नाटे में बंदूकों की आवाज गूंज उठीं- धांय! धांय! धांय!
दिन था,बृहस्पतिवार, 13 अप्रैल 1978. पंतनगर के कैम्पस में पीएसी आ चुकी थी. हम अपने ऑफिसों में थे, बच्चे स्कूल में. पता लगा, मजदूर जुलूस निकाल रहे हैं. छात्रावासों के सामने अर्धचंद्राकार रोड पर उनका जुलूस नारे लगाते हुए आगे बढ़ रहा है- इंकलाब! जिंदाबाद! हमारी मांगें पूरी हों!
तभी हमारे ऑफिस में कोई आया. उसने कहा, “बाहर नहीं निकलना है, बहुत खतरा है. 456 छात्रावास के सामने चैराहे पर सड़क के किनारे पीएसी के जवानों ने पोजीशन ले ली है. 456 छात्रावास के कुछ छात्र उसकी ऊंची छत पर खड़े होकर चौराहे की ओर देख रहे हैं. कुछ खिड़कियों से देख रहे हैं. मुझे तो बहुत डर लग रहा है, न जाने क्या होने वाला है.” मैं कृषि महाविद्यालय में अपनी केबिन में था. बहुत फिक्र हुई कि अगर कुछ हो गया तो बच्चों का क्या होगा? उन्हें स्कूल से कौन लाएगा?
फिर कोई बदहवाश होकर आया और उसने कहा, “पुलिस ने मजदूरों पर फायरिंग कर दी है. चौराहे पर खून-खराबा हो गया है. मैं 456 छात्रावास में था. वहां से चौराहे पर मजदूरों को गिरते और सड़कों पर खून देख कर एक-दो लड़कों को चक्कर आ गया और उल्टियां हो गईं. मैं पीछे से भाग कर आया हूं.”
हम परेशान हो गए. कृषि महाविद्यालय के भीतर सुरक्षित थे लेकिन वहां से कुछ दिखाई नहीं देता था. फिर खबर आई कि पुलिस वालों ने सामने कालोनी में भी फायरिंग की है. वे घायल मजदूरों को कालोनी में खोज रहे हैं.
भारी दहशत का माहौल था
मृत और घायल मजदूरों को ट्रकों में भरकर ले जाया जाने लगा. पुलिस कालोनी में भी जा रही है. हमारी ‘ट’ कालोनी में क्या हो रहा होगा? तभी किसी ने खबर दी कि पुलिस लौट गई है. हम बाहर निकले. मैंने भी अपनी सायकिल पकड़ी और सीधा बच्चों के स्कूल ‘बालनिलयम’ की ओर भागा. वहां से तीनों बच्चों- ऋचा, मोहन, बानी को सायकिल में बैठाया और ‘झ’ कालोनी के बीच से सीधे ‘ट’ कालोनी में अपने क्वार्टर में पहुंचा.
वहां पत्नी लक्ष्मी परेशान थी. उसने बताया, वह सामने छोटी मार्केट में स्टेशनरी की दूकान पर गई थी कि गोलियों की धांय-धांय आवाज सुनाई दी. वह भाग कर क्वार्टर पर आई. हमने देखा सड़क पर लंबे, चौड़े और भयानक दिख रहे पीएसी के जवान गश्त करने लगे. लगता था जैसे उन्होंने जिरह बख्तर पहन रखा हो. उनका चेहरा बहुत खूंखार दिखाई देता था. वे लोगों को गन्ने के फार्म में जाने से रोक रहे थे.
तभी एक मजदूर नेता दो-एक साथियों के साथ भागता हुआ वहां आया और चिल्लाया, “इन राक्षसों ने मजदूरों को मार दिया है. कई मजदूर बुरी तरह घायल हैं. अब ये सबूत मिटाने के लिए सामने गन्ने के इस फार्म में उन्हें जला रहे हैं. फार्म में इन्होंने आग लगा दी है! आप लोग अपने किचन गार्डन में पानी लगा दो.”
गश्त कर रहे उन खूंखार पुलिस वालों ने बंदूकें उनकी ओर तानीं और वहां से पीछे हटने का इशारा किया. तब तक हमने देखा कि गन्ने के फार्म से काला धुंवा निकलने लगा है. गन्ने का वह फार्म मेरे क्वार्टर के ऐन सामने से शुरू होता था. पत्नी ने भाग कर किचन गार्डन में प्लास्टिक के पाइप से पानी लगा दिया. फार्म में गन्ने की फसल धू-धू कर जलती रही और आसमान में काला धुंवा उठता रहा.
यह पुलिस की चाल थी
बाद में गश्त दे रहे पुलिस वाले अचानक पलटे और रोड में खड़े पुलिस के ट्रक में सवार होकर जैसे अचानक आए थे, वैसे ही गायब हो गए. फिर यह अफवाह फैल गई कि यह पुलिस की चाल थी. गन्ने के फार्म में आग लगा कर सभी लोगों का ध्यान बंटा दिया. मजदूर नेताओं ने सोचा, वहां मजदूरों के शव मिलेंगे. इसलिए वे भाग कर उस ओर आए. उनकी देखा-देखी काफी लोग भी चले आए. उसी बीच रास्ता साफ देख कर चौराहे पर से शव और घायल एक साथ ट्रकों में भर कर पीएसी की फायरिंग स्क्वैड के जवान उन ट्रकों के साथ वहां से चलते बने. सड़कों पर मौत का सन्नाटा छा गया.
हम कुछ साथी बाद में उस चौराहे के सामने की कालोनी में गए. सभी परिचित लोग थे. वहां महिलाएं दहशत से भरी हुई थीं. उन्होंने बताया, “पहले वे भी घरों के बाहर ही खड़ी थीं, मजदूरों का जुलूस देखने के लिए. फिर अचानक कुछ अलग से, लंबे, चौड़े पुलिस वाले आए और चौराहे के आसपास सड़क पर पोजीशन लेकर खड़े हो गए. शुरू में आंसू गैस के कुछ गोले भी चलाए जिनका धुंवा फैला.
फिर पुलिस वालों ने हमसे कहा, भीतर जाएं आप लोग. भीतर ही रहें, खिड़की-दरवाजों पर खड़े न हों. मजदूर आए. कुछ नहीं था उनके पास. खाली हाथ थे. इन पुलिस वालों ने घुटना मोड़कर पोजीशन ली और भटा-भट फायरिंग करने लगे. हमने भी सुना था, पुलिस प्लास्टिक की गोलियां चलाएगी. लेकिन, सड़क पर तो घायल होकर मजदूर मर कर गिरने लगे. तब पता लगा, पुलिस वाले असली गोली चला रहे हैं.”
“फिर?”
“फिर क्या, मजदूरों में भगदड़ मच गई. वे जान बचाने के लिए घरों में शरण लेने लगे. कुछ घायल यहां भी आए. उन राक्षसों में कोई दया-ममता नहीं थी. एक घायल को तो यहीं बाहर संगीन घोंप कर मार दिया. यह देखिए कितना खून पड़ा है. एक मजदूर भीतर आकर किचन में छिप गया था. खून के निशान देख कर वे राक्षस आए तो घसीट कर उसे ले गए. खून के निशानों से इस तरह घायल मजदूर पकड़े गए और उन्हें ट्रक में ठूंस कर वे चलते बने.”
पुलिस की बर्बरता
मुझे बाद में एक परिचित ऐसा भी मिला जिसे घायलों और शवों के साथ ट्रक में डाल दिया गया था. खून में तो लिपटा ही था, उसने भी निढाल पड़कर मरे हुए का बहाना किया. डर था कि अगर हिला-डुला तो मारा जाएगा. अंधेरा होने तक ट्रक चलता रहा. फिर किसी जंगल में सुनसान जगह पर रुका. मौका पा कर वह अंधेरे में ट्रक के पीछे से उतरा और पेड़-पौधों के पीछे छिप गया. सुबह जान कर वापस लौटा.
विश्वविद्यालय के सीनियर फोटोग्राफर एस. ए. खान ने बताया कि उसने किस तरह झाड़ी के पीछे छिप कर, अपनी जान पर खेल कर वारदात के कई फोटो खींचे. पुलिस वाले देख लेते तो गोली मार देते. घटना के बाद पंतनगर आए अखबारों और पत्रिकाओं के पत्रकारों से उन्होंने वे फोटो खरीदे थे. फोटो के साथ नाम देने पर जान का खतरा हो सकता था इसलिए उसने उनसे नाम न देने की गुजारिश की.
सन्नाटे में धांय! धांय! के बाद पूरे कैंपस का मंजर ही बदल गया. मौत की मुर्दनी छा गई थी. चौराहे पर मजदूरों की कुछ हवाई चप्पलें, जूते और रोटी-सब्जी बंधी, कपड़े की कुछ पोटलियां पड़ी रहीं. तब खून के दाग भी दिखाई देते थे. सामने के कुछ क्वार्टरों और छात्रावास की दीवारों पर गोलियों के निशान दिखते रहे. कैंपस में पूरी तरह अराजकता फैल गई. कुलपति गोलीकांड के बाद ही कहीं चले गए थे और पांच सप्ताह बाद लौटे.
गोलीकांड के बाद न जाने कितने पत्रकार, समाजसेवी, एक्टिविस्ट और नेता आए. सभी ने इस कांड पर दुःख जताया. इंदिरा गांधी और मेनका गांधी भी आईं. इतिहासकार शेखर पाठक, उत्तराखंड संघर्षवाहिनी के शमशेर बिष्ट, जनकवि गिर्दा, ‘नैनीताल समाचार’ के संपादक राजीव लोचन शाह और कुछ साथी गन्ने के जलते हुए फार्म के सामने मेरे क्वार्टर पर आए. वहां उनसे काफी बातें हुईं.
उन्हीं बातों के बीच अचानक साथी शेखर पाठक ने मुझसे कहा- आप पहाड़ की अपनी यादों को लिख डालिए, बाद में कहीं भूल न जाएं. सामाजिक सरोकारों से जुड़े युवा पत्रकार भारत डोगरा भी आए. तब मैंने भी ‘अमृत प्रभात’ अखबार में इस घटना पर ‘चौराहे पर चांदमारी’ लेख लिखा था.
गाय-भैंसों को कोई चारा-पानी देने वाला नहीं
कालोनी में अब दूध वाले गोरख की आवाज नहीं सुनाई देती थी. पता लगा नगला डेरी में गाय-भैंसों को कोई चारा-पानी देने वाला नहीं है. थनों में दूध भर जाने के कारण वे रंभाती थीं. तब सकारात्मक सोच के कई विद्यार्थियों ने चारे-पानी और दुध दुहने की जिम्मेदारी संभाली. इस काम में आदमी लगाए और खुद जीपों में दूध के पीपे रख कर कालोनियों में दूध बांटा. उन दिनों उजाड़ पड़े कालेजों के बरामदों में गाय-भैंसे विश्राम करती थीं. वहीं उनका गोबर भी फैला रहता. कृषि महाविद्यालय के लंबे कारीडोर में मैंने स्वयं भैंसों को जुगाली करते देखा था.
कुलपति लौटे तो कई अराजक तत्व भी कैंपस में लौट आए. विश्वविद्यालय की शांति कमेटी भंग कर दी गई. अराजक तत्व विश्वविद्यालय की गाड़ियों में हथियार लहराते नजर आ जाते थे. हद तो यह थी कि विश्वविद्यालय की एकेडेमिक कौंसिल में राइफल लेकर तराई का कुचर्चित दबंग निशान सिंह भी बैठने लगा था.
हमारा पंतनगर क्या था और क्या हो गया.
“बाब्बा हो, बड़ा विकट समय रहा होगा वह?”
“हां क्यों नहीं, शिक्षा के उस तीर्थ को उस तरह बर्बाद होते हुए देखने की तो हमने कल्पना भी नहीं की थी.”
“ठीक ही कह रहे हो, पर उसके बाद क्या हुआ?”
“उसके बाद? उसके बाद कई अनुभवी शिक्षक और वैज्ञानिकों ने देश-विदेश का रास्ता पकड़ा. मैंने भी नई उड़ान भरने का मन बना लिया. कैसे, बताऊं?”
“ओं”
(जारी है)
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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