निर्माण के दिन
वर्ष भर बाद 1970 में ‘किसान भारती’ मासिक के संपादक रमेश दत्त शर्मा के विश्वविद्यालय छोड़ देने के बाद मैं और मेरा एक साथी उसका संपादन करने लगे. कुछ समय बाद ‘किसान भारती’ के संपादन की पूरी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी गई. तब पत्रिका और मैं संचार केंद्र का हिस्सा बन गए.
हड़ताल के उसी दौर में एक ओर जहां विद्यार्थियों की मांगों और सुझावों पर विचार किया जा रहा था, वहीं विश्वविद्यालय ने देश के चर्चित और सनसनीखेज अखबार ‘ब्लिट्जः हिंदी संस्करण के संपादक, मुद्रक तथा प्रकाशक और विश्वविद्यालय के श्री ए.एन.पांडे के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया. इस अखबार में विश्वविद्यालय के खिलाफ मिथ्या आरोप लगाते हुए लेख छापा गया था. तब ‘ब्लिट्ज’ के प्रधान संपादक और जाने-माने पत्रकार आर. के. करंजिया ने कुलपति को लिखा था कि ‘ब्लिट्ज’ किसी निर्दोष के खिलाफ आरोप नहीं लगाता और अगर किसी तरह की गलत सूचना या गलतफहमी के कारण ऐसा हो गया हो तो भूल सुधार छापने में भी पीछे नहीं रहता.
कुलपति ने सच्चाई जानने के लिए श्री करंजिया को स्वयं विश्वविद्यालय में आकर पता करने की सलाह दी थी लेकिन तब श्री करंजिया यूरोप और पाकिस्तान के दौरे पर थे. विश्वविद्यालय को उनकी ओर से उत्तर नहीं मिला, इसलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 500 तथा 501 के तहत मानहानि का मुकदमा दर्ज़ कर दिया गया.
छात्रों, अभिभावकों और विश्वविद्यालय के अधिकारियों की बातचीत से छात्र आंदोलन का समाधान हो गया और दोषी पाए गए चंद छात्रों को स्वयं मात्र एक माह के लिए सत्र छोड़ने का सुझाव दिया गया ताकि उनका साल बर्बाद न हो. सब कुछ ठीक चल रहा था कि चार-पांच छात्रों ने 13 दिसंबर 1972 को अचानक तोड़-फोड़ का काम कर डाला. अनुशासन समिति ने उन्हें विश्वविद्यालय से रेस्टिकेट यानी निष्कासित करने की सिफारिश की लेकिन कुलपति ने निष्कासित करने के बजाय उन्हें स्वयं स्थाई रूप से विश्वविद्यालय छोड़ने का सुझाव दिया ताकि उन छात्रों पर निष्कासन का दाग न लगे और उनका भविष्य बर्बाद न हो.
वे अक्सर कहते थे कि हम घर से दूर आए इन विद्यार्थियों के माता-पिता की तरह हैं. गलती की सजा मिलनी चाहिए ताकि वे सही मार्ग पर चल सकें, लेकिन उनका भविष्य बर्बाद नहीं होना चाहिए. इसलिए ‘पंतनगर पत्रिका’ की खबरों में भी वे रेस्टिकेट या निष्कासन जैसे शब्द इस्तेमाल न करने की हिदायत देते थे. मैं देखता था कि कड़े अनुशासन वाले एक कठोर व्यक्ति के मन में अपने विद्यार्थियों के लिए कहीं-न-कहीं कितना स्नेह है.
एक घटना से यह और साबित हो गया. वह रविवार का दिन था. मैं नहा-धोकर बरामदे में कोई किताब पढ़ रहा था कि तभी जीप से सिक्योरिटी का एक आदमी आया और बोला, “आपको वीसी साब ने अभी बुलाया है.”
मैं सकते में! वीसी क्यों बुला रहे हैं? खैर, तैयार हुआ और अपनी साइकिल से उनके निवास तराई भवन पहुंचा. कुलपति बैठे कुछ पढ़ रहे थे. मुझसे बैठने को कहा. एक पत्र और कागज के दो-तीन पेज मुझे देकर बोले, “इसे पढ़िए.” मैंने शीर्षक पढ़ा, ‘आइ हैंग माई हेड इन शेम.’ अंग्रेजी में लिखा वह पूरा लेख पढ़ा. उनकी ओर देखा तो वे बोले, “विश्वविद्यालय में यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई है. इस विश्वविद्यालय में यह अविश्वसनीय है लेकिन एक दुखी पिता ने लिखा है, इसलिए सही होगा. अनुशासन समिति जांच कर रही है.”
वह पत्र मथुरा से एक दुखी पिता ने भेजा था और लिखा था कि उनका पुत्र छात्रावास में छात्रों द्वारा अवर्णनीय और घोर अभद्र व्यवहार के कारण उनके पास वापस आ गया है. आप मुझे नेक सलाह दें कि उसे कैसे वापस भेजूं?
कुलपति ने उस पत्र को पढ़ कर वह उत्तर लिखा था. उन्होंने मुझसे कहा, “इस पत्र का पूरा ब्लॉक बनवा कर छाप दें और साथ में मेरी भावनाएं भी प्रकाशित करें. मेरे इस नोट का हिंदी में अनुवाद करके मुझे दिखा दें.
मैंने घर लौट कर उस नोट का अनुवाद किया और जाकर उन्हें दिखाया. मैंने शीर्षक का अनुवाद किया था, “और, मेरा सिर शर्म से झुक गया.”
उन्होंने पढ़ते हुए कहा, “पहले मेरा सिर नहीं शर्म रखें. मेरा सिर नहीं, शर्म इज मोर इंपोर्टेंट.”
फिर उन्होंने पूरा अनुवाद पढ़ा और पढ़ कर बोले, “बाकी सब ठीक है.”
अपने नोट में उन्होंने बहुत व्यथित मन से लिखा था कि एक दुखी अभिभावक का यह पत्र पढ़ कर शर्म से मेरा सिर झुक गया. कैम्पस के सभी प्रबुद्ध जनों की भी यही स्थिति होगी. यदि ऐसी अविश्वसनीय घटनाएं होती रहीं तो जल्दी ही इस विश्वविद्यालय की नेकनामी और उच्च प्रतिष्ठा अतीत की बात बन जाएगी….
यह भी लिखा था कि यद्यपि अनुशासन समिति ने इन छात्रों को स्थाई रूप से विश्वविद्यालय से निष्कासित करने की सिफारिश की थी और न्याय की नियामकता की दृष्टि से यह सिफारिश ठीक थी, फिर भी छात्रों को स्वयं विश्वविद्यालय छोड़ने का एक अवसर दिया जाए ताकि वे अपने जीवन के एक नए अध्याय की शुरूआत कर सकें और अपने भविष्य को बचा सकें.
और, यह भी कि विश्वविद्यालय परिवार के हम सभी सदस्य अपने हृदय को टटोलें और कैम्पस से इस प्रकार की बुराई को सदा के लिए समूल नष्ट करने का संकल्प करें. यदि हम ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो हमारा सिर हमेशा-हमेशा के लिए शर्म से झुक जाएगा.
‘पंतनगर पत्रिका’ का यह अंक भी हर माह की तरह सुबह-सुबह सभी छात्रावासों और विभागों में वितरित कर दिया गया.
चंद विद्यार्थियों की इन छिटपुट अनुशासनहीनता की घटनाओं से हट कर तब विश्वविद्यालय में एक से बढ़ कर एक धीर-गंभीर और मेधावी छात्र भी थे जिन्होंने आगे चल कर विभिन्न क्षेत्रों में अपना और विश्वविद्यालय का नाम रोशन किया. इनमें से दो-चार छात्र कभी-कभी मुझसे मिलने घर पर आया करते थे. उनमें से मेरठ का मैकेनिकल इंजीनियरी का एक छात्र था अरूण तिवारी जो ‘पंतनगर पत्रिका’ के लिए हिंदी में विद्यार्थियों के सांस्कृतिक तथा साहित्यिक कार्यक्रमों और खेलकूद की गतिविधियों की रिपोर्टिंग किया करता था. हम दोनों कला और साहित्य की चर्चा किया करते थे. महान चित्रकार वॉन गॉग और पॉल गोगेन के चित्रों के लिए मेरा मोह देख कर वह एक दिन आया और मेरे पढ़ने के कमरे की दीवार पर पॉल गोगेन की एक पेंटिंग की काफी बड़़ी प्रतिकृति चिपका गया. अरूण ने बाजार से आर्टशीट खरीद कर, उन्हें चिपका कर लंबी पट्टी का रूप दे दिया था और उस पर गोगेन की पेंटिंग की कॉपी बना दी थी. यह वही अरूण तिवारी हैं जिन्होंने आगे चल कर राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के साथ ‘विंग्स ऑफ फायर’ सहित पांच पुस्तकें तथा अपनी कई अन्य पुस्तकें लिखीं. वे मिसाइल साइंटिस्ट और प्रोफेसर बने.
एक और विद्यार्थी खेम ऐंथानी सुदूर पहाड़ों के कपकोट के एक गांव से मैकेनिकल इंजीनियरी पढ़ने पंतनगर आया था. बाद में उसने आई.आई.टी., कानपुर से एम.टैक किया. नामी कंपनी आई टी सी इंफोटैक इंडिया प्रा.लि. में सूचना प्रौद्योगिकी (आई टी) के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट पद तक पहुंच कर रिटायर हुए.
एक बार एक सीधे, सरल नवागंतुक विद्यार्थी ने सहमते हुए मेरे केबिन में झांका. भीतर बुला कर बात की तो पता लगा, वह गंगानगर, राजस्थान के एक ग्रामीण इलाके से कृषि पढ़ने आया है. मेरी केबिन के बाहर देवेंद्र मेवाड़ी नाम देख कर उसे लगा, मैं भी राजस्थान से हूं. घर से दूर होने के कारण उसे अपनापन लगा और मिलने चला आया. मैंने उसे बताया कि मैं राजस्थान से तो नहीं हूं लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. आज से तुम मेरे दोस्त हो. घर आते रहना. उसे जब भी अकेलापन लगता, घर पर मिलने आता. धीरे-धीरे उसने कई भाषा-भाषी दोस्त बना लिए. पंतनगर से बी.एस.सी. करने के बाद एक चीनी मिल में नौकरी की, फिर एक चाय बागान में. फिर अमेरिका, यूरोप होते हुए भारत आकर इवेंट मैंनेजमेंट की अपनी एजेंसी खोल कर इस क्षेत्र में खूब नाम कमाया.
मैंने कम्यूनिकेशन पाठ्यक्रम में दो वर्ष तक पत्रकारिता का कोर्स पढ़ाया. मेरे उन विद्यार्थियों में से एक, मधुबनी के पी. एन. सिंह सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सदा आगे रहते थे. ग्रेजुएशन के बाद उनका चयन दूरदर्शन में हो गया और वे स्टेशन डायरेक्टर पद तक आगे बढ़े.
यह तो केवल मेरे निकट सम्पर्क में आए चार छात्रों की बात है. पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय के तमाम छात्रों ने देश और दुनिया में अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताएं हासिल कीं.
उस दौर में विश्वविद्यालय के अनेक शिक्षकों तथा वैज्ञानिकों ने भी राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्धियां हासिल कीं. तराई क्षेत्र में पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय को हरित क्रांति का अग्रदूत बताने वाले विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. नार्मन अर्नेस्ट बोरलाग लगभग हर साल विश्वविद्यालय में आते थे और वहां अनुसंधान केन्द्र में गेहूं की फसल पर किए जा रहे प्रयोगों का जायजा लेते थे. एक बार दीक्षांत समारोह में उन्हें तथा ख्यातिप्राप्त वैज्ञानिक डॉ. बी.पी. पॉल, प्रोफेसर बोशी सेन आदि को ‘डॉक्टर ऑफ साइंस’ यानी ‘विज्ञान वारिधि’ की मानद उपाधि से विभूषित किया गया था. मुझे तब हिंदी में उनके प्रशस्ति-पत्र तैयार करने का सौभाग्य मिला था.
जब 1970 में डॉ. बोरलाग को नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो जब तक लोग उनके बारे में जानकारी खोजते, मैंने उन पर लेख लिख कर फोटो सहित हिंदी की कई प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं को भेज दिए. डा. बोरलॉग के बारे में मेरे ही लेख सबसे पहले धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, दिनमान, रविवार, दैनिक हिंदुस्तान, दैनिक आज आदि में प्रकाशित हुए. वह मेरी ‘एक्सक्लूसिव स्टोरी’ साबित हुई. इसका कारण यह था कि मैं डॉ. बोरलॉग के काम के बारे में पूसा इंस्टिट्यूट के दिनों से ही रूचि के साथ पढ़ा करता था. वे तब गेहूं तथा मक्का प्रजनन की अंतर्राष्ट्रीय संस्था सिमिट, मैक्सिको में काम करते थे. पंतनगर में संयोग से उन्हीं दिनों डॉ. बोरलॉग के दोस्त और सहयोगी वैज्ञानिक डॉ. आर. ग्लेन एंडर्सन आए हुए थे. मैंने उनसे और विश्वविद्यालय के जाने-माने गेहूं प्रजनक डॉ. जितेंद्र श्रीवास्तव का इंटरव्यू लेकर तत्काल ‘धर्मयुग’ को भेजा था, जो रंगीन पारदर्शियों के साथ उसमें छपा.
तब विश्वविद्यालय से मैं नियमित रूप से अनुसंधान की उपलब्धियों के बारे में प्रेस विज्ञप्तियां भी जारी किया करता था. समाचार पत्रों में आए दिन वे समाचार प्रकाशित होते रहते थे. उसी दौर में मैंने सेवा में रहते हुए राजस्थान विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा भी हासिल किया था.
‘किसान भारती’ के लिए मैं कृषि और पशुपालन के सामयिक विषयों पर विशेषज्ञों से लेख लिखवाता, उन्हें आसान भाषा और रोचक शैली में ढालता. पत्रिका को मैं वैज्ञानिकों और किसानों के बीच एक मजबूत पुल बनाने की कोशिश करता था. तराई के प्रगतिशील किसानों पर मैंने एक नियमित कॉलम भी शुरू किया. धीरे-धीरे किसानों से संवाद बढ़ता गया. वे पत्रिका से जुड़ते गए और वर्ष में दो बार लगने वाले रबी और खरीफ के किसान मेले में संपादक से भी मिलने लगे.
एक बार इसी तरह एक किसान ने आकर मेरी केबिन में झांका. मैंने कहा, “आइए, आप कौन?”
“इंद्रासन सिंह हूं.”
मैंने उन्हें बैठाया और मुस्करा कर कहा, “इंद्रासन तो एक धान का नाम है यहां तराई में.”
वे बोले, “मैं वही हूं.”
मैंने चौंक कर देखा तो बोले, “मैं इधर इंदरपुर गांव का रहने वाला हूं. वह धान मैंने अपने खेत में कई साल की मेहनत से तैयार किया. वह किसानों को पसंद आ गया और वे उसे उगाने लगे. मेरे नाम पर उन्होंने उसका नाम इंद्रासन रख दिया. बस ये बात है.”
वैज्ञानिकों की तरह धान की नई किस्म तैयार करने वाला एक लोक वैज्ञानिक मेरे सामने बैठा था. मैंने उनसे पूरी बातचीत की और फिर उस बातचीत को ‘किसान भारती’ के अगले अंक में प्रकाशित किया.
वर्षों बाद यह जानकर बहुत खुशी हुई कि उन्हें नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन, अहमदाबाद की सिफारिश पर 2007 में राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने सम्मानित किया. किसान इंद्रासन सिंह के परिचय में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने यह ईमानदार स्वीकारोक्ति की, “उन्हें सार्वजनिक पहचान तब मिली, जब पंतनगर कृषि विश्वविद्यालय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘किसान भारती’ ने उनके नवाचार पर एक लेख प्रकाशित किया.” खुशी की बात यह हुई कि स्वयं ‘किसान भारती’ को भी 1977 में दिल्ली एग्रीएक्सपो-77 मेले में भारतीय भाषाओं की कृषि पत्रिकाओं में प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
एक ओर ‘पंतनगर पत्रिका’ और ‘किसान भारती’ का संपादन, साथ में पंतनगर समाचार की प्रेस विज्ञप्तियां, इसलिए काम का बहुत दबाव रहता था. लेकिन, काम अपनी रूचि का होने के कारण उसमें डूबा रहता था. सच कहूं तो वे मेरे निर्माण के दिन थे. पंतनगर में ही मैंने अनुवाद और संपादन की बारीकियां सीखीं. वहां के समृद्ध पुस्तकालय में जाकर खूब किताबें पढ़ी और जम कर लिखा.
जब काम में डूबा रहता तो अक्सर दूसरी केबिन से आकर मेरा एक साथी उलाहना भी देता रहता, “क्या डूबे हुए हैं ‘किसान भारती के काम में? ‘धर्मयुग, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ बनाएंगे इसे? यह नौकरी है और नौकरी करते रहना है. गोस्वामी तुलसीदास कह गए हैं ना कि ‘बहुत काल्ह मैं कीन्ह मजूरी!’ चलिए, चाय पीकर आते हैं.”
चाय सबसे नजदीक 456 छात्रावास के पीछे आम की छांव में बब्बू के खोखे पर मिलती थी जो चाय नहीं ‘टिल्क’ कहलाती थी. यानी, ‘टी’ और ‘मिल्क’ का क्रॉस-टिल्क! पंतनगर की संकर चाय. एक बार जो ‘बब्बू’ के खोखे की चाय और मोटे, स्पंजी आमलेट का स्वाद चख लेता, वह उसका मुरीद हो जाता. आसपास के कालेजों के शिक्षक और कर्मचारी चाय पीने वहां आते थे. जमकर काम करने के बाद वहां आकर चाय पीने से हल्का-सा ब्रैक मिल जाता था और दिमाग फ्रेश हो जाता.
मेरे चाय के साथी को दफ्तर में डाक में आई दूसरों की चिट्ठियां और अखबार खोल कर पढ़ने का अजीब शौक था. दफ्तर के साथी टोक भी देते लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ता था. एकाध बार तो एक तेज साथी ने डाक से आए एक लिफाफे को सावधानी से खोल कर, उसमें ‘दूसरों की चिट्ठियां खोल कर क्यों पढ़ता है’ के साथ ऊल-जलूल लिख कर लिफाफा उसी तरह बंद करके वहां रख दिया. चिट्ठी प्रेमी साथी ने आदतन उसे खोला, पढ़ा और चुपचाप चला गया. फिर भी उस आदत का इलाज नहीं हुआ. वे चिट्ठी पढ़ते हुए पाए जाते, कोई पूछता तो बकौल दाग़ देहलवीः
ख़त गैर का पढ़ते थे जो टोका तो वे बोले
अखबार का परचा है ख़बर देख रहे हैं
“इरशाद! वे दिन भी क्या दिन रहे होंगे, है ना?”
“ठीक कह रहे हैं आप, भुलाए नहीं भूलते वे दिन, वे लोग. सुनाऊं उन दिनों की बातें?”
“ओं, सुनाओ फिर”
(जारी है)
पिछली कड़ी कहो देबी, कथा कहो – 19
वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.
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