साधो हम बासी उस देस के – 3
-ब्रजभूषण पाण्डेय
टुच्ची और हमारी सारी उम्मीदें तो बस ग्रू के करम पर टिकी थीं. सो उसकी ख़ुशी में ख़ुश होने का सफल दिखावा करने के अतिरिक्त हमारे पास कोई दूसरा चारा नहीं था.
‘क्या बात है ग्रू क्या बात है! जीयो. आसिक की नज़र जो है साली सबसे पहले पहुँच जाती है. ‘
टुच्ची ने झूठी तारीफ़ के पुल बाँधे और आँख मार कर कलेजा थाम लिया.
ऐसे मौक़ों पर ट्रक छाप शायरियां भड़भड़ा कर आतीं. उसी में से एक कंटीली चीज़ निकाल कर भुआली ने मारा.
‘उधर वो चाल चलते हैं
इधर हम जान लेते हैं
नज़र पहचानने वाले
नज़र पहचान लेते हैं.’
भुआली बस मुस्कुरा कर रह गया. दिखाना तो वो यह चाहता था कि इस खेल का माहिर से माहिर खिलाड़ी उसके आगे पानी भरता है लेकिन देहाती लौंडों के पास कन्या विषयक मुआमलों में कांफिडेंस नामक आवश्यक तत्व की जो कमी होती है उसका वह क्या तोड़ निकाले? लड़कियों को देखते ही स्नायुतंत्र में जो अकस्मात् परिवर्तन होते वो चीख़ चीख़ कर मुनादी करते कि बेटा होगे तुम बड़े तोपची लेकिन इस समय तुम्हाई फटी हुई है.
हमने सनीमा का पिलान मुल्तवी कर दिया. क्योंकि ग्रू जो हौ हिलने वाला तो अब हुआ नहीं. अभी तक उसके मोहोब्बत का फसाना फिसलती दृष्टियों से भड़क उठने वाली भावनाओं तक ही सीमित था.
वैसे भी आसिकी के इस चरण में ताड़ीकरण ही सबसे मनपसंद कार्यक्रम हुआ करता है. क्योंकि आगे का क़दम बेहद जोखिम भरा होता है. ख़तरा लड़की के इनकार,गाली और चप्पल से स्वागत तक ही सीमित नहीं होता. लड़की अगर थोड़ी दब्बू नहीं हुई और घर पर कंप्लेन कर दिया तो पनही पखाउज तक का इंतेजाम हो जाता. घर मोहल्ले की बेज्जती बोनस में.
इसलिए अधिकांश प्रेम प्रसंगों में ये जो ख़तरनाक ख़तरनाक रोमांटिक सीन होता वो आदमी खुदई अपनी क्रिएटिव लिबर्टी से गढ़ लिया करता.
जैसे ये कहना कि ‘कल तुम्हारी भाभी ने अपने छुटंकू भाई के हाथ चिठीयां पठाई गुरू. कहती हैं कि जो है खीर बनाना सीख रही हैं काहे से कि उन्हें कहीं से पता लग गया है कि हमें खीर बहुत पसंद है. हमारी बहन मुन्नी से पूछ लीं एक दिन बातों बातों में. ‘
अब ऐसी बातों पर सुनने वाला धेला बराबर भरोसा नहीं करता. क्योंकि सबको पता होता तथाकथित भाभी काँटा कुसा लिए अपने सुहागरात के लिए बनाए जा रहे बेडशीट पर फूल काढ़ना सीख रही हैं.
ख़ैर हम तो भुआली के जिगरी थे. हमें सब सच सच पता था और हम कोटि पर के बरम बाबा की किरिया खा कर इस युगांतरकारी घटना मे पूर्ण सहयोग देने को प्रतिबद्ध थे.
सो पहला काम हुआ उपयुक्त स्थान की तलाश जहाँ से भुआली जब तक ज़रूरत हो नैन संभाषण करते रहें और हम लोग औरों की नज़र में भी ना आएँ.
क्योंकि ज़माना वो था कि गाँव का कोई भी मानुस जिसकी कुल जमा योग्यता यह कि महालुच्च होने के बावजूद वो आपसे 4-5 साल बड़ा है आपको ठोक सकता था.
बहुत सोचने के बाद हमें सबसे उपयुक्त स्थान लगा कोने वाले पीपल के पेड़ के नीचे का चबूतरा. दरअसल यहाँ गाना बजाना चलता रहता था. पूरे क्षेत्र के स्थानीय कलाकारों के लिए यह एक लोकप्रिय प्लेटफ़ार्म था. सब तरह के गायक आते. क्लासिकल लोग तान तोड़ते तो लचका बिरहा गाने वालों की भी कमी नहीं थी. श्रोता सिर झटकारते और जाँघ पर ताल देते रहते, दस बीस पचास रूपए हारमोनियम ढोलक पर चढ़ते रहते. तब कलाकार और लहरा कर आलाप लेता, ढोलक की टाँकी और पक्की सुनाई पड़ती.
वैसे हमें संगीत के इस फार्मेट से कोई लेना देना नहीं था. हमारे लिए गाने का मतलब था नासिका के प्रयोग से रोमांस रस की सृष्टि करते कुमार सानू. बेहद औसत बेवक़ूफ़ी से भरे हे हे हो हो ला ला ला के आलाप के बाद वो गाते सोचेंगे तुम्हें प्यार करें कि नहीं. तब बेहद कंगाली के बाद भी मान मनौव्वल करती एक एक हीरोइन सबको दिखने लगती, छाती के पास सेंसेशन तेज़ हो जाता.
ख़ैर हमें क्या करना था. हम जा कर गोल बैठी मंडली के सबसे किनारे खड़े हो गए ताकि इधर का नज़ारा लिया जा सके.
‘ग्रू कुछ इसारा मारो. अइसे ख़ाली ताकते रहने से घंटा कुछ नहीं उखड़ने वाला. ‘
टुच्ची ने बोला और मैनें सर हिला कर सहमति दी. लेकिन भुआली बस चुपचाप देखता रहा. ना कुछ बोला ना हम लोगों पर गरमाया. भाभी अपनी बुआ के साथ क़ाबिल और कामयाब सिल के चुनाव में व्यस्त थीं.
इधर एक शास्त्रीय गायक देर से एक ही लाइन आलाप में दुहरा रहा था- ‘पिया नहीं आयो. ‘तबले पर बैठे नाथ बाबा उसके सम दिखाने की प्रतीक्षा में चुप बैठे थे. लोगों का वाह वाह भी धीमा पड़ रहा था. कुछ ने तो सुरती मलने के लिए चुनौटियां तक निकाल ली थीं.
इधर भाभी थीं कि चाँद कटोरी वाले नैन उपर उठा ही नहीं रही थीं. बस मसाला पीसने की चिंता में लगी थीं. बताओ भला इतनी घरेलू लड़की से प्यार नहीं हो जाएगा यार.
अंत में हमने भुआली का मैटर आगे बढ़ाने और भाभी का ध्यान खींचने के लिए एक तरकीब निकाली. टुच्ची थोड़ा कतरी काट कर भाभी के पास वाली दुकान पर गया और वहाँ से भुआली ग्रू को संबोधित कर ज़ोर से चिल्लाया-
‘का ग्रू? का हाल चाल? आप यहाँ है और हमलोग कबसे आपका इंतेजार कर रहे हैं. ‘
अबकि भाभी ने निगाहे करम उपर उठाई और लोगों से इंतेजार करवाने वाले महत्वपूर्ण व्यक्ति की ओर देखा. निगाहें मिली और झटका खा गयीं. सामने मैरून कलर के रूआ छोड़ते स्वेटर के उपर अँगोछा लपेटे घुर्चियाई आँखों वाले भुआली खड़े थे. कही गयी वज़नदार बात और उपस्थित व्यक्तित्व में कहीं मेल नहीं था. आँखें फिर गोत ली गयीं.
लेकिन भुआली के लिए तो यह क्रांतिकारी दिन था. क्षण भर को उठी इस दृष्टि को उसने अपनी आँखों के कशकोल में चट दाबा और फ़टाक से शटर गिरा दिया. जैसे जनक की पुष्पवाटिका में हुआ था. ‘दीन्हें पलक कपाट सयानी. ‘
हालाँकि इस पूरे भगीरथ प्रयास का एक फ़ायदा यह ज़रूर हुआ कि भुआली का घूरना नोटिस किया जाने लगा. लड़की बीच बीच में मुँह बिचकाने के लिए ही सही इधर भी ताक लेती. भुआली के बदन में तमाम रसायनों का स्राव होने लगा था. ख़ून दौड़ती नसों में रवानी लौट आयी थी.
इधर टुच्ची इस अभियान से वापिस लौट आया था. भुआली अभी कुछ कहने की फ़ुरसत में तो नहीं था लेकिन टुच्ची के लिए बेहद आत्मीयता के भाव उसकी आँखों में ज़रूर उतर आए थे.
‘अरे भुअलिया. जो चूना ले के आव तऽ.’
भुआली के एक दूर के फूफा ने अचानक देख लिया और खैनी के लिए चूना सप्लाई की आकस्मिक ज़रूरत को पूरा करने का फ़रमान थमा सुना दिया. रंग प्रसंग में अचानक विघ्न पड़ गया.
भुआली के हिसाब से ये फूफा पदधारी व्यक्ति इत्ता खड़ूस था कि उसके आदेश को किसी और के सर टरकाया भी नहीं जा सकता था.
इसलिए टुच्ची को अपने बिदमान होने की निसानी के तौर पर छोड़ भुआली हमें ले कर पान की गुमटी की तरफ दौड़ा.
‘ई फूफवा सारे अपना भउजाई के ही रखले हौ. एक महीना से भिखमंगा मतीन आ के गिरल हौ सारे. इहाँ आ के नवाबी छांटत हौ टुकडखोर.’ भुआली भुनभुनाया.
ख़ैर हम दौड़ कर पान की दुकान पर पहुँचे लेकिन वहाँ पान की ही लाइन लंबी थी फ़्री में चूना माँगने वालों को कौन पूछता. यहाँ एक एक पल में सदियाँ कैसे बीत रही थीं या तो सायर मुन्ना लाल रस्तोगी जानें या भुआली.
तीन बार हरकारा देने पर भी जब पान वाले ने नहीं सुना तो भुआली नीचे से सरक कर गुमटी की गद्दी के पास पहुँचा जहाँ एक लड़का पान में बाबा जर्दे का घटिया पाउडर झोंक रहा था.
गाँव के बड़े बुज़ुर्गों को कनखियें से ताड़ कर भुआली उससे धीरे से फुसफुसाया.
‘अरे ललवा. मारबऽ ना तऽ तोर टिकरी उड़ जाइ. एतना देर से बोलत हईं कान में अलकतरा भरे हो?’
इस फुसफुसाहट मे साफ़ धमकी थी जिसका तत्काल असर भी हुआ. दुकान वाले ने डिब्बे में चुपचाप चूना भर दिया. ऐेसे मामले निपटाने में भुआली ओस्ताज था ओस्ताज. हम लपकते वहाँ से भागे और तीर की तरह अड्डा ए मोहोब्बत पर पहुँचे.
उधर सिलबट्टे का भाव भाभी ने पटा लिया था लेकिन अब वो परेशान निगाहों से इधर उधर देख रही थीं.
‘का रे? का हुआ?’ भुआली ने टुच्ची से पूछा.
‘अरे जबसे ग्रू गए हो तुम तबईं से भाभी इधर उधर बदहवास हो देख रही हैं. ‘
अब यह निहायत मक्कारी से भरी अतिरेक प्रशंसा थी जिस पर नार्मल मानसिक हालत में कोई भरोसा नहीं करता. लेकिन मोहोब्बत में ऐसी रंगीन फंतासियां मान लेने को दिल विवश करता है भाई. सो भुआली की आँखों में तड़प लहरा गयी. मानो कह रहा हो अब पल भर को ना छोड़ेंगे तुम्हें जाने तमन्ना मरते दम तक.
मेरा यह मानना था कि भाभी अपने गाँव की तरफ जाने वाले किसी रेत भरे ट्रैक्टर की तलाश में थीं जिस पर सिलबट्टे को लाद कर घर ले जाया जा सके.
भुआली ने मेरी ओर घूर कर देखा जैसे इस कोमल भावना को कुचलने के बदले वो मुझे सज़ा ए मौत का फ़रमान सुनाने वाला हो. लेकिन मेरा मत था कि अगर गुरू इस नाज़ुक वक्त पर कन्या की मदद कर दें तो एक स्थायी छाप उसके हिरदय पर छोड़ने में सफ़ल हो जाएं. प्रैक्टिकल दृष्टि से ग्रू को ये सुझाव पसंद आया और उसने मेरी सज़ा में थोड़ी मुरव्वत बख़्शी.
लेकिन किसी अपरिचित लड़की को भीड़ भाड़ में सीधे मदद आफर करने का रिवाज तब नहीं हुआ करता था. इसे लफुअई भी माने जाने का रिस्क था.
हम अभी इसका कोई रास्ता ढूँढ ही रहे थे कि अचानक पीछे महफ़िल में गुलपाड़ा होने लगा. नाथ बाबा पिया नहीं आयो के गवैये पर बेतरह भड़के हुए थे और लोग उनको मना रहे थे.
‘अये माको. घंखे भय से तबया चया के बैखे हैं साया इका पिया नहीं आ रया(अर्थात घंटे भर से तबला चढ़ा के बैठे हैं इसका पिया नहीं आ रहा). ‘
‘बोय कहाँ है तेया पिया? (बोल कहाँ है तेरा पिया). ‘
गाँजा पी लेने के बाद उनके वाक्य विन्यास में ऐसे ही असंबद्ध वर्णाक्षरों का प्रवेश हो जाता. वो लाल लाल आँखें किए गरज रहे थे और गायक सहमा हुआ था.
बहुत मान मनौव्वल के बाद वो दूसरे गाने वाले के साथ दोबारा बजाने को तैयार हुए.
नया गवैया नौसिखिया था लेकिन उसके गले में लोच अच्छी थी और आवाज़ रवेदार. उसने पुख़्ता आवाज़ में गाना शुरू किया-‘टूटे नाहीं मैया जी सनेहिया के डोर रे. ‘तबले ने तिहाव के साथ तीन ताल का सम लिया. पचासों सर एक साथ झटक गए. रस बरसने लगा. चम चम चमके बीजुरी नाचैं ब्रज के मोर.
माहौल लय में आ गया तो हमने फिर अपना भटका ध्यान मोहब्बतनामे की ओर लगाया.
भुआली हम दोनों को गुस्सायी निगाहों से घूरे जा रहा था. ग्रू भन्नाया हुआ था. उसकी लख्ते जिगर किसी लौंडे के साथ हंस हंस कर बात रही थी. ई तो साला वही हुआ कि पोखर खुदा नहीं मगरमच्छों ने पैले डेरा डाल दिया.
‘अरे ग्रू कोई उसके गाँव का जानने वाला लौंडा होगा. सिल लदवाने के लिए बात कर रही होगी. ‘
टुच्ची ने समझाया.
‘अरे साला तो इसमें हंस हंस के लहरा लहरा के बतियाने की का ज़रूरत है बे? साला ई गाँव के जानने वाले भाई फ़ाई ही कांड करते हैं.’
गुरू के एक एक शब्द से अधिकार भाव टपक रहा था. जैसे उसका बस चले तो अपनी जानेमन के आस पास हवा बतास का डोलना और परवा पखेउ का उड़ना तक बंद करा दे.
अब निकट भविष्य तक में इसकी कोइ संभावना तो नज़र नहीं आ रही थी. सो फ़िलहाल खोपड़ी गरम करने के सिवा कोइ और चारा नहीं था. अचानक पहली बार भुआली का ध्यान बैकग्राउंड में चल रहे संगीत सभा की ओर गया.
गवैया लोकगीत गा रहा था-‘गोरिया बोलऽ जनी बोली करेजा लागेला.’
गुरू का बरमांड गरम था ही. वो हम पर भड़क गया.
‘का ई चुतिया को तब से सुन रहे हो बे तुमलोग. साला आधा घंटा से लट् लकार में गा रहा है.’
यह लोकल टिबोली थी जिसमें संस्कृत के इस धातुरूप का अर्थ होता था कि बेटा तुम गर्दभ सुर में गा रहे हो.
‘अरे ग्रू ठंड रखो. भाभी सिर्फ़ तुम्हाई है. जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू. ‘टुच्ची ने समझाने की कोशिश की.
‘चुप सारे. ग्यान ना पेलो हर बखत.’
भुआली ने डपटा.
टुच्ची ने फिर जिरह किया.
‘अइसे तो ग्रू तुम बहुते दिमाग़ लगावत हौ. अबे उस लौंडवा से कुछ लटपट होता तो बुआ के सामने बात करती?बताओ.’
इस दमदार तर्क का भुआली पर असर पड़ा और वो भावुक हो कर हमारे गले लिपट गया.
‘अब तुम्हई लोग कुछ करो हरामियों नईं तो हम कुछ कर लेंगे.’
हमें दोस्त को खोने का डर तो था ही,मेरे मन में एक और कुती चीज़ आयी-हमारे मौज मज़े के एकमात्र स्रोत के सूखने का डर.
सो हमने उसे हौसला दिया और पिलान किया कि कायरता छोड़ कर लड़की के पास चला जाए और प्रयास किया जाए यार. बैठे रहने से नईं होने वाला कुछो.
महफिल में तबला किनारे रख नाल (ढोलक और पखावज के बीच का वाद्ययंत्र) चढ़ाया जा चुका था. फाग की लहरियाँ ठंडी हवाओं में घुल रही थीं.
“पपीहा के बोली बिखधर लागे हो, मोरा सैंया बिन फगुनवा ज़हर लागे हो मोरा…”
नई बियाही गोरी नौकरी मज़दूरी करने बंगाल गये पिया को धमका रही थी कि इस बार जे नहीं आए तो देखना होरी जरती है कि गोरी जरती है. मिल की हाड़ तोड़ मेहनत से पिराए बदन पिया को तब ये पातियाँ जने कौन पहुँचाया करता था.
ख़ैर अपनी तमाम फट्टूगिरी के बावजूद हम उस दुकान तक पहुँच ही गए और ख़ुद मोलभाव का नाटक करने लगे. लड़की एक ही क्लास में पढ़ने की वजह से भुआली को पहचान तो गयी ही थी और मजबूर निगाहों से हमारी ओर देख भी रही थी. बात कभी हुई नहीं थी इसलिए वो भी असमंजस में थी कि मदद माँगे तो कैसे माँगे. हम भी किसी जुगत में लगे थे कि गुरू की बात हो जाए. तभी नीचे नदी घाट से एक रेत लदा ट्रैक्टर आता दिखा.
‘एहिजा का रे पूनमी! गांव पर चले के बा?’ ट्रैक्टर चला रहे आदमी ने पूछा.
‘हाँ हो चाचा. चले के बा. सिल लोढ़ा लेबे आइल रहनी सन. ‘
आदमी उतरा सिलबट्टे को ट्रैक्टर पर लदवाया और हमारी पूनो भाभी अपनी बुआ को चढ़ा कर बालु भरी ट्राली में ख़ुद भी सवार हो गयीं.
भुआली समेत हम सब के साहसिक अभियान को एकाएक ब्रेक लग गया. ट्रैक्टर हिचकोले खाता आगे बढ़ा जा रहा था. सिलबट्टा संभाले बैठी 13-14 बरस लड़की उँगली से बालु पर कुछ बना रही थी. पानी नीचे झर झर झरता, भींगी रेत सूखती जाती. पीछे स्वर उभर रहे थे- ‘मोरा फुलगेनवा के साध ललना.’
चार बीघे ज़मीन वाले किसान के घर जन्मी तीन बेटियों में एक नायिका गोरी भला गेंदे के फूल की साध नहीं रखेगी तो क्या कमल गुलाब के फूल की रखेगी?
( जारी )
पिछली कड़ी बारह मास विलास
बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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