साधो हम बासी उस देस के – 1
-ब्रजभूषण पाण्डेय
हजरात हजरात हजरात! ये एक गांव की कहानी है. गंगा के निर्मल और सोन के विस्तृत पाटों वाले प्रवाह के मध्य जो जीवनदायिनी छोटी नदियाँ बहतीं – कर्मनाशा, दुर्गावती, कुदरा. उन्हीं में से एक के अरारों में अटका एक छोटे चट्टी सा गाँव.
गाँव में अंग्रेज़ों के ज़माने का सिंचाई का एक दफ़्तर था जिसमें कुछ बाबूनुमा छोटे अफ़सर बैठ कर कुर्सियाँ तोड़ा करते और मेठ अमीनों से बनवा कर बंगले में उगी ताज़ी सब्ज़ियों के रसदार दम और गोश्त लिट्टी की बढ़िया दावतें उड़ाया करते. गाँव वाले भी बाहर से आए लोगों या रिश्तेदारों को गाँव के पुराने अंग्रेज़ अफ़सरों की कहानियाँ कहते.
“एहि जगहिया महंगू पलवा के खाल साहेब खिंचवा लिए थे. बंगलवा के दीवार से सट के दिशा मैदान से फारिग होत रहे सारे (साला), ना हो चचा?”
बहुत सारे लोग इसका लोड भी लेते और ख़ुद को इस गाँव मे जन्म ना ले पाने के परम वैकुण्ठ लाभ से वंचित मान यहाँ के निवासियों की क़िस्मत से रश्क करते या करने को बाध्य कर दिए जाते. निःसंदेह इसका सारा श्रेय बकैती कला में प्रवीण और मार्तंड की डिग्री प्राप्त कर चुके यहाँ के महान निठल्ले लोगों को जाता जो चौक की खपरैलों वाली दुकानों में चीकट हो रही लकड़ी वाली चौकियों पर पसरे पान कचरते, बतकूचन करते और सद्य:आविष्कृत जुमलों को 2-3 महीने के लिए समूचे गाँव का आधिकारिक जुमला घोषित करते.
सुदूर पश्चिम से उदारीकरण के जबर ढोल की धीमी थपक सुनाई देने लगी थी. किन्तु गाँव अभी जगा नहीं था.
वैसे भी विकास का डग्गामार रथ उस इलाक़े मे कम से कम 10 वर्ष प्रति शताब्दी की देरी से पहुँचा करता. अभी भी महज़ पच्चीस किमी दूर स्थित कस्बाई बाज़ार से दवाई, बीज, खाद-मान, सौदा-पत्तर और शादी ब्या के टैम गहने कपड़े ख़रीदने के लिए अलसुबह सात बजे निकलना पड़ता था क्योंकि बसें पूरे दिन में केवल तीन बार थीं और आख़िरी बस शाम तीन बजे बस अड्डे को नितप्रतीक्षारत लफंटर प्रेमी सा छोड़ किसी निर्मोही प्रेमिका की तरह निकल पड़ती थी.
यह एक गाँव था – पुरईन के कमज़ोर हल्के पतों के नीचे स्थिर और शांत जल सा साँस लेता – एक आधा कच्चा बचा गाँव, एकदम कचखराह.
ये बदलाव के संधिवर्ष थे. अर्थतंत्र ने करवट ले ली थी. खुली खिड़कियों से हवाओं की हल्की झुरझुराहट अंदर आने लगी थी किंतु अब भी गांव का गंवारपन, लौंडों की लौंडियाही और देहातियों का भुच्चपन जीवित थे. उदाहरण के लिए यद्यपि बैलों की घंटी और हरवाहों का ख़ुद को उनकी माँ और बहन का फ़लाना ढेकाना बताये जाने का सरस वार्तालाप गुज़रे दिनों की बात हो गए थे और खेती बाड़ी में ट्रैक्टर और हार्वेस्टर तक इस्तेमाल किए जाने लगे थे. शादियों में जलने वाला पेट्रोमेक्स और उसका फ़िलामेंट बाँधने वाले विशेषज्ञ अप्रासंगिक हो रहे थे और उनका स्थान हर आधे पौने घंटे पर बंद होते भक्क भक्क करते जेनरेटर और काले कीड़ों की हमलावर झुंड से ग्रस्त किर्र किर्र कर जलते दूधिया उजले ट्यूबलाइटों ने ले लिया था. सुबह नौ बजे की बस से बाँह पर गेल्हा दिए अद्धी का झक्क सफ़ेद घुटनों से नीचे तक का कुर्ता पहने गोबर के कंडों से अटी दीवारों वाले ब्लाक आफिस पहुँचकर दलाल राजनीति के महान प्रणेताओं की नयी पौध तैयार हो रही थी.
किंतु इतना कुछ होने के बावजूद अब भी उतरवारे के बजरंगबली के मंदिर और दक्खिनवारे के शिवाले में सामूहिक मंगरवारी और सोमारी गायी जा रही थी. किसी के छत ढलाई के दिन मज़दूरों की आवश्यकता अब भी नहीं पड़ती थी . धान बीचड़ की रोपनी एक सामूहिक कार्यक्रम था जिसमें पूरा गाँव बढ़ चढ़ कर भाग लेता. नयी आयी मारुति की वैन जो अब खटाराशिरोमणि होने का बिन माँगा स्टेटस प्राप्त कर चुकी है तब उसका सन्न से बेआवाज निकल जाना तमाम विस्मयादिबोधक अव्ययों के प्रयोग के साथ विमर्श का मुख्य विषय था. दिल्ली परदेस थी और बंबई कोई पापियामेंतो किसम की भाषा बोलने वालों का सुदूर स्थित दुर्गम विदेश. गेहूँ सरसों चना और मसूर की परैया वाले सीवानों में हवाएँ अब भी लुच्च शोहदा थीं और ‘गलियों में पंछी पंख बिना रितु वसंत बिना और गाँव लंठ बिना’ की काव्यात्मक ठसक साथ लिए लफुआ कही और मानी जाने वाली एक विशिष्ट प्रजाति घुमा करती .
ऐसे ही एक गाँव में बैटरी ओस्ताज के खोखे और यहाँ के एकमात्र मौर्य शेरेटन के दर्जा प्राप्त होटल से हाथ में चहा भरा जग और अख़बार में लपेटी पकौड़ियाँ ले कर निकलते भुआली ग्रू ने अपने सहपाठी और चेले टुच्ची सरदार से रंगबाजों वाली विशिष्ट अदा से पूछा-
“का रे असों मेलवा में बडकी चर्खी नाहीं गिरल हौ का?”
ऐसा नहीं था कि उन्हें पता नहीं था. बाप की अविरल गालियों का प्रसाद पाते रहने के बावजूद वो उक्त मेला-स्थल का सुबह से तीन चक्कर आफिसियल दौरा कर आए थे किंतु वे टुच्ची सरदार को संवाददाता से अधिक हैसियत देने के मूड मे नहीं थे. वैसे भी यदि दो बार बोर्ड और दो बार सप्लीमेंटरी परीक्षाओं की उनकी बारात मरजाद ना ठहरती तो टुच्ची सरदार को उनके साथ क्लास बंक करने और नदी किनारे मुंजवारी घुमने का सौभाग्य हरगिज़ प्राप्त नहीं होता.
“नाहीं ग्रू, अइसन नाहीं हौ.” और चेले ने उंगली से तीन का इशारा किया जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी कोई महत्वपूर्ण गुप्त सूचना पास कर रहे हों. “तीन ठो वीडियो भी.” टुच्ची ने अतिरिक्त जानकारी बिना डिमांड के सप्लाई की.
पहले से भन्नाए ग्रू अबकि उखड़ गए –
“अबे चुप सारे (साले) नाहीं तो. तीन नहीं छै.तीन तो सोलहे तरीखवां तक थे बे. बीरू वीडियउवा वाले को बरवा के तरे वाली जगहिया बलिस्टर चा ही तो दिलवाए हैं.”
चेले को उड़ता देख ग्रू ने जल्दी से उसके पर क़तरे और उसे उसकी सही औक़ात याद दिलाई यानी ज़मीन सुँघाई.
लेकिन टुच्ची अपनी जगह दिखाए जाने के बावजूद ज़रा भी हतप्रभ नहीं हुआ. भुआली ग्रू की सत्ता समवयस्कों में सर्वमान्य थी और टुच्ची को इसपे कोइ एतराज़ नहीं था क्योंकि बक़ौल भुआली ग्रू ख़ुद ‘जब तक तुम सारे नाहीं तो बुलाकी चुआते घुम रहे हो हम दुनिया बेच खाए बैठे हैं.’
“त चलल जाए ग्रू फिर?” टुच्ची ने लपक कर भुआली गुरू के कंधे पर हाथ रखा.
इस मनभावन प्रस्ताव को स्वीकार ना कर पाने की विवशता भुआली के तैलीय त्वचा वाले विषमबाहु तिरभुज जैसे चेहरे पर बस क्षण भर को झपकी.
“अरे बिजइया पिछवाड़ा में पानी धुकले हौ सारे. एक ठो आइल हौ पसरामपुर के ममवा अउर डिभिया के भिरगुन ओझवा. मंडली जमल हौ आ हमरा एथी में डंडा. तिली चाय तऽ तिली पान. दरिद्दर कवना राज के.”
भुआली ग्रू ने दाँत पीस कर एथी की भौगोलिक स्थिति अपने शरीर में हाथ से दिखाई और पहले मुँह को लोटा की तरह फुलाया और फिर सुई सा नुकीला बना फुफकार सी छोड़ी.
यहाँ बता देने की हरगिज़ आवश्यकता है कि ये बिजइया उर्फ़ बिजय उर्फ़ बिजय परसाद भुआली ग्रू के पूजनीय पिताजी थे जो गालियों की पाताल से आकाश तक मार करने की ख़तरनाक रेंज वाली मिसाइलों और गरियाने की विभिन्न शैलियों के पेटेंटविहीन आविष्कारक थे. वे माचो बेंचो से हट कर रूद्रचो जैसी आधात्यामिक गाली गढ़ सकते थे. सबसे बढ़ कर यह कि उनकी गालियाँ क्लासीफाइड क़िसम की होतीं जिन्हें वे अपने श्री मुख से समय समय पर निकालते रहते. जैसे साहित्यिक छंदों में निबद्ध गालियाँ,वैज्ञानिक ढंग की ज्ञानोत्पादक गालियाँ इत्यादि. कुछ गालियाँ निहायत क्लासिक होतीं जो काल की सीमा का अतिक्रमण कर अठराजा अठराजी (परदादा परदादी के परदादा परदादी) तक जा पहुँचती थीं. वे नाच कर, लेट कर, बथान से, खरिहान से कहीं से गरिया सकते थे. वो गाली मे रो गा सकते थे और रोने गाने में गाली दे सकते थे.
क़ायदे से होना तो यह चाहिए था कि उन्हें इस महान योगदान के बदले नोबेल दे दिया जाता और किसी इनभरसिटी-फिनभरसिटी में ससम्मान अतिथि लेक्चरार की हैसियत से बुलाया जाता लेकिन साला गुणी आदमी की इज़्ज़त ज़माने ने धेला तो कभी की नही. चचा ग़ालिब ऐसे ही थोड़ी ना मरे ग़ुरबत में. सो फिलहाल इस पुण्य प्रसाद को पाने का सौभाग्य भुआली ग्रू और उनकी इकलौती भूरी भैंस को प्राप्त था. कभी कभी छूटा-छटका माल मटेरियल कच्ची दीवारों के पार पड़ोसियों के आँगन तक जा पहुँचता.
“ई बुढवा तऽ दिन प दिन सनकल जाता हो रजेसर के माई.” बिलटन बो भउजी कुढ़ती.
“जवान तवान बिटियनो के लेहाज नइखे एकरा.”रजेसर की माई मुंह बिचकातीं.
किंतु ऐसी विकट परिस्थितियों मे भी मेला तो गुरू मेला था. उसका आकर्षण रोकना तो बरमा वेष्णु महेस के बस मे नाहीं था साला आदमी कौन गली के हो रहा.
“चल पड़वा के देख. बोला ले ओहू के अगर कमेसरा के लइकिया के ताके से फ़ुरसत मिल गइल हौ तऽ.”
किंचित रुक कर भुआली ग्रू फुसफुसाए.
“हम बताएँ ग्रू ई पाड़े तऽ गए हाथी के एथी में झाल बजाने. लौंडिया तेज़ है. बता देत हंई.”
टुच्ची ने ग्रू का मन भाँप कर तान छेड़ी और फिर से एकस्ट्रा जानकारी जोड़ी. लेकिन इस बार भुआली गरमाए नहीं. उन्हें इस सूचना में शायद विशेष इंटरेस्ट नहीं था और जल्दी से बाप और रिश्तेदारों से निपट कर मेला जाने की हड़बड़ी भरा प्रेशर भी था सो वो जल्दी से कट लिए.
और साहिबान कद्रदान! ठीक आधे घंटे के बाद-छब्बीस जनवरी की बीमार धूप वाली शाम ने, लाल खड़ंजे वाली सड़क ने और नदी तीरे के भुतहवा पीपर ने देखा – तीन १४-१५ साल के लौंडे नीचे हाफ पैंट और उपर हाथ से बुना पुराना स्वेटर पहने कुड़कुड़ाते और चोरों की तरह सरसराते मेलास्थल की ओर निकलते जा रहे हैं.
( जारी )
बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.
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