नौर्मन गिल ने बैलाडोना की खेती 1910 से ही शुरू कर दी थी. उस समय बैलाडोना का (एटरोपा बैलाडोना), की खेती, स्थानीय हकीम औषधि के लिये थे. इसके बीज को मई में बोने से जुलाई में 12 फीट ऊँचा पौधा मिलता था. उम्मीद थी कि यह प्रजाति 8000 से 9000 फीट की ऊँचाई वाले क्षेत्रों पर खूब पनपेगी. गिल ने कुमाऊँ में बोने हेतु एटरोपा बैलाडोना का बीज विदेशों से मंगा कर नैनीताल तथा चौबटिया में बोया.
(Medicinal Farming History Kumaon)
1911-12 की वार्षिक रिपोर्ट में नैनीताल कचहरी गार्डन में एक साल वाली जड़ का उत्पादन 3570 पौण्ड प्रति एकड़ था और इसमें ऐल्कलॉयड की मात्रा 0.4 थी. दो वर्ष की जड़ों का उत्पादन 3545 पौण्ड प्रति एकड़ था और ऐल्कलॉयड की मात्रा 0.45 थी. गिल ने बाद में चौबटिया में बड़ी मात्रा में बैलाडोना की खेती की . 1918-19 की रिपोर्ट से ज्ञात होता है कि चौबटिया में छ: एकड़ भूमि से बैलाडोना की 11 टन सूखी पत्तियां तथा 2 टन जड़ों का उत्पादन हुआ और यहां के बैलाडोना में एलकलॉइड की मात्रा 0.59 थी, जो अन्य जगहों से उत्पादित बैलाडोना से दो गुनी थी. लन्दन के क्रोफ्रोर्ड को मार्केट में चौबटिया के बैलाडोना की अन्य देशों से आये बैलाडोना की अपेक्षा दोगुनी कीमत मिली. गिल का कहना था कि अगर सरकार चाहे तो कुमाऊँ सारी दुनिया के लिए बैलाडोना का उत्पादन कर सकता है. उन्हीं दिनों इस फार्म से रसायनिक उद्योगों द्वारा इसकी पत्तियां, जड़ें तथा बीज विक्रय किये गये. चौबटिया तथा सौनी ड्रग फार्मों को खोलने का उद्देश्य इन फार्मों से कम्पनियों को कच्चा माल और उत्तराखण्ड को जड़ी-बूटी की खेती करने की तकनीक देना था.
नार्मन गिल ने चौबटिया गार्डन में ही बैलाडोना की पत्तियों को सुखाने के लिए एक प्लांट भी लगाया. 1918-19 में ऑल इण्डिया एक्जबिशन कलकत्ता में इस बगीचे की जड़ी-बूटियों तथा जैम-जैली को दो गोल्ड मेडल मिले. इसकी सराहना भारत सरकार तथा समाचार पत्रों ने भी की.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भारत में केन्या से पायरेथ्रम कच्चे माल के रूप में आना बन्द हो गया, तो सरकार ने सैन्य कारखाने की पूर्ति हेतु चौबटिया में इसकी खेती करने का निर्णय लिया. इस हेतु 1944 में रानीखेत में छावनी के जंगल के पश्चिम की ओर पचास एकड़ भूमि लीज में लेकर पायरेथ्रम के फूलों की खेती शुरू की. फूलों से मलेरिया के मच्छर मारने की दवा बनती थी. बड़ी मात्रा में फूलों की सप्लाई सेना के दवा कारखानों को की गई. 1946 में इस योजना को बन्द कर दिया गया. योजना बंद होने पर यहां 15 एकड़ में सेव का बाग लगाया गया, जो मॉडल गार्डन कहलाता है और शेष भाग में सेंट्रल नरसरी खोली गई.
डा० लक्ष्मण रौतेला का मत है 1922 में पांचों उद्यान, जो कुमाऊँ गवर्नमेंट गार्डन्स कहलाते थे, कमिश्नर कुमाऊँ की देखरेख से हटाकर कृषि विभाग, लखनऊ के अन्तर्गत कर दिये गये और इसको ए.ई.पी. गैरीसन, डिप्टी डायरेक्टर की देखरेख में दिया गया. इसी वर्ष गिल बीमार पड़ गये और इलाज हेतु इंग्लैड चले गये. वहीं 1924 में उनकी मृत्यु हो गई.
गिल की मृत्यु के बाद चौबटिया उद्यान संकटों से घिर गया. समुचित देखरेख न होने के कारण उद्यान अनिचितता के कगार पर आ गया. गिल की सारी लाभदायक योजनाओं का खात्मा हो गया, उद्यान घाटे में चलने लगा. सरकार ने सबसे पहले जैम फैक्टरी को बन्द किया. इसका असर बैलाडोना की लाभकारी खेती पर भी पड़ा. कुछ साल बाद सरकार ने उद्यान को मुमताज हुसैन, बरकत बाग रानीखेत का एक हजार रूपये वार्षिक पर, यहां के कर्मचारियों (सुपरिटेंडेंट तथा ऑफिस स्टाफ को छोड़कर) के वेतन का भुगतान तथा उद्यान को नुकसान न पहुंचाने की शर्त पर, पट्टे पर दिया.
1932 में लीज खत्म हुई तो सरकार ने इसे वापस ले पुनः कृषि विभाग को सौंप दिया. कुछ प्रगतिशील बागवानों की रुचि को देखते हुए सरकार ने यहां पर टेम्परेट फ्रूट रिसर्च स्टेशन खोलने का विचार किया और प्रांतीय कृषि शोध कमेटी को आई.सी.ए.आर. से आर्थिक सहायता प्राप्त करने हेतु योजना तैयार करने को कहा. भारत सरकार ने इसे 50-50 के अनुपात में स्वीकृति दी. (50 प्रतिशत प्रदेश सरकार तथा 50 प्रतिशत भारत सरकार).
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शोधकेन्द्र का विधिवत उद्घाटन 10 जुलाई 1934 को हुआ. इस समय बागवानी विशेषज्ञों की कर्मठ टीम थी, जिसमें आर.एस. सिंह (हार्टीकल्चरिस्ट), जो बाद में कृषि निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए, एन. के. दास (सॉयल केमिस्ट), यू. बी. सिंह (मायकोलॉजिस्ट) तथा आर.एन. सिंह (इन्टोमॉलाजिस्ट) प्रमुख थे. इस टीम की मेहनत से संस्था का नाम विदेशों तक फैला. इस टीम के बाद के वर्षों में भारत सरकार यहां के शोधकार्य से संतुष्ट नहीं थी.
1954 में आई.सी.ए.आर. ने इसे धन देना बन्द कर दिया. संस्था में ब्रिटिश काल से ज्यादा बागवानी विशेषज्ञ, कर्मचारी, साज सामान तथा 12000 पुस्तकों की अच्छी लायब्रेरी भी है. गिल के बाद आर. डी. फोरडम, मोरगुन, सुपरिटेंडेंट निपयुक्त हुए. जे.जी. बर्न्स उद्यान के अंतिम अंग्रेज सुपरिटेंडेंट रहे. बर्न्स के बाद 1947 में डी.एन. श्रीवास्तव ने उद्यान का चार्ज लिया. वह एक अच्छे प्रशासक थे. उन्होंने उद्यान का कार्य सुचारू रूप से चलाया.
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नोट- वरिष्ठ इतिहासकार अजय रावत की किताब ‘उत्तराखंड का समग्र राजनैतिक इतिहास‘ से साभार.
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