मृत्यु के बाद आदमी कहां जाता है? इस प्रश्न ने मानव सभ्यता को हजारों सालों से असमंजस में डाला है. दुनिया भर में होने वाले अलग-अलग और अनूठे मृत-संस्कार और उनकी जटिल बारीकियां और विवरण इस बात को साबित भी करते हैं. मृत्यु के उपरान्त होने वाले ये संस्कार आवश्यक माने जाते हैं. लेकिन यह भी सत्य है कि हर व्यक्ति उतना भाग्यवान नहीं होता कि उसे उचित मृत-संस्कार मिल सके. कुमाऊं और गढ़वाल में लोक-मान्यता है कि ऐसे अभागे लोग मृत्यु के बाद भी यहीं धरती के वायुमंडल में आत्मा की सूरत में भटकते रहते हैं. इसे लोकमानस में व्याप्त भय कहा जाय या विश्वास, हमारे पहाड़ों में इन भटकती आत्माओं की अच्छी खासी तादाद है जिनकी संतुष्टि और निराकरण के लिए तमाम परम्परागत उपाय सदियों से मौजूद हैं. कहीं-कहीं तो इन्हें देवताओं के समतुल्य मान कर पूजा जाता है. इस परालौकिक संसार पर एक निगाह डाली जाय. (Masan Anchri Khabees and Airi in Uttarakhand)
मसाण
यह एक उग्र प्रकृति की भयंकर डरावनी प्रेतात्मा होती है. इनके विषय में कहा जाता है कि ये उन युवकों की प्रेतात्माएं होती हैं जो अप्राकृतिक मृत्यु को प्राप्त होते हैं और जिनकी सद्गति, आनुष्ठानिक क्रिया-कर्म नहीं किये गए होते हैं. ये अगतिक आत्माएं शमशान भूमि के आस-पास भटकती रहती हैं. इन्हें नदी के एक संगम से लेकर दूसरे संगम तक का अधिपति माना जाता है. ये युवतियों व बालकों में आविष्ट होकर उन्हें पीड़ित करती है. इनसे आक्रान्त होने पर व्यक्ति गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाता है, अनर्गल बाते करने लगता है और दवा का भी उस पर कोई असर नहीं होता. इनसे मुक्ति पाना काफी कठिन होता है. विवाह आदि के अवसर पर इन क्षेत्रों से होकर जाने वाली वधुओं के सिर के ऊपर से अक्षत व पैसा परख कर उनके निमित्त पीछे की और फेंकना आवश्यक होता है. अन्यथा वह उनमें आविष्ट होकर उन्हें पीड़ित कर उन्मत्त बना देते हैं. इनसे छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय होता है – ‘रखवाली’ एवं ‘झाड़ा-ताड़ा.’ (Masan Anchri Khabees and Airi in Uttarakhand)
अल्मोड़ा जनपद के परगना फल्दाकोट में काकड़ीघाट के निकटस्थ स्थान कंडारखुआ नामक स्थान पर कोसी नदी के तट पर इसका मंदिर भी स्थापित है.
आंचरी / माचरी
ये प्रेतयोनिक देवियां है. इनके विषय में माना जाता है कि जो कन्याएं माचरी/ कुमारी अवस्था में अतृप्त लालसाओं के साथ असमय में ही कालकवलित हो जाती है वे आकाशीय वायुमण्डल में एवं पर्वत शिखरों पर भटकती रहती है तथा अपनी अतृप्त वासनाओं की पूर्ति के लिए अदृश्य छाया के रूप में युवती स्त्रियों को ग्रस्त करके उन्हें उन्मत्त अथवा व्याधिग्रस्त कर डालती है. उन्हें इनके प्रभाव से मुक्त कराने के लिए मंत्र तंत्रों या झाड़े-ताड़े का सहारा लिया जाता है, अथवा जागर लगाकर देवता का अवतरण कराकर उनके प्रभाव को दूर करने का विधान किया जाता है. इनका सम्बन्ध देवयोनिक अप्सराओं एवं मातृकाओं से भी माना जाता है. इन्हें ऐड़ी देवता के साथ चलने वाली उसकी परिचारिकाएं भी माना जाता है. इनकी पूजा में श्रृंगार प्रसाधन की वस्तुएं बिंदी, कंघा, चूड़ी आदि चढ़ाई जाती है.
खबीस
यह एक दैत्याकार भयंकर प्रेतयोनिक दुष्टात्मा होती है जिसे जंगलों व चरागाहों का अधिपति माना जाता है. इसके विषय में मान्यता है कि यह अँधेरे सघन वनों एवं पहाड़ों की गुफाओं में निवास करता है तथा पशु मानव आदि अनेक रूप धारण करके चरवाहों की बोली बोलता हुआ यात्रियों का पीछा करता है. इससे भयतीत होने वाले व्यक्ति पर वह आविष्ट हो जाता है, व्यक्ति की दशा विकृत हो जाती है. पता लगने पर इससे मुक्ति दिलाने के लिए पहले किसी डंगरिये को बुलाकर उससे ‘रखवाली’, ‘झाडा-ताड़ा’ कराया जाता है बाद में जागर लगाकर पशु बलिपूर्वक इसकी पूजा करके इसे संतुष्ट किया जाता है. (Masan Anchri Khabees and Airi in Uttarakhand)
ऐड़ी
यह कुमाऊं का एक बहुपूजित लोक देवता है. देवकुल में इसका महत्वपूर्ण स्थान है, सैम व गोरिया के समान इसकी पूजा सम्पूर्ण क्षेत्र में प्रचलित है. प्रमुख रूप से पशुचारक वर्ग का देवता माना जाता है. एटकिंसन के अनुसार यह दिन में घने जंगलों में छिपा रहता है और रात्रि में उल्टे पैर वाली परियों के साथ वनों तथा पर्वत शिखरों पर विचरण किया करता है. माना जाता है कि रात्रि में इसके सम्मुख जाने पर दर्शक की तत्काल मृत्यु हो जाती है. इसके सम्बन्ध में कहा जाता है कि इसकी आंखें माथे पर होती है, इसके चार हाथ होते हैं जिनमें धनुध, बाण, त्रिशूल, गाजा, लौह-दण्ड धारण किए रहता है. यात्रा में यह पूरी सज-धज के साथ पालकी में बैठकर निकलता है. जिसके साथ दो कुत्ते भी होते हैं और घड़े में घण्टी बंधी होती है जो बजती रहती है. पालकी के दायें-बायें आंचरी-चांचरी नाम की दो चुड़ैल अंगरक्षिकाएं भी रहती है. (Masan Anchri Khabees and Airi in Uttarakhand)
जागरगाथा के अनुसार ऐड़ी को ‘अर्जुन’ का अवतार माना जाता है. ऐड़ी को तुरन्त फलदायी व वरदायी देवता माना जाता है. यहां आकार निःसंतान लोग सन्तान के लिए, अन्याय से पीड़ित न्याय के लिए तथा पशुचारक पशु की रक्षा के लिए मनौतिया करते हैं. पशुचारक वर्ग का देवता होने के कारण इसी वर्ग में इसकी अधिक मान्यता पायी जाती है. पशुओं के प्रसव होने पर प्रसवाशौच की अवधि के बाद उनके प्रथम दुग्ध को नियत रूप से इसे अर्पित किया जाता है, कभी-कभी प्रत्यक्षतः देखा भी गया है कि इसके कुपित होने पर दुधारू पशुओं के थनों से दूध के स्थान पर रक्त क्षरण होने लगता है. चैत्र तथा असोज की नवरात्रियों में इसकी पूजा का विशेष महत्व माना जाता है. ऐड़ी के प्रतीक त्रिशूल व इसके वाणों के प्रतीक पाषाण खण्डों को उनके अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति नहीं छू सकता. इसकी पूजा में दूध, मीठा रोट, नारियल तथा अन्य पकवान उसे चढ़ाये जाते हैं कभी-कभी बकरे की बलि भी दी जाती है. बकरे के माथे पर रोली का टीका लगाया जाता है और गले में माला पहनाई जाती है.
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(प्रो. डी. डी. शर्मा की पुस्तक ‘उत्तराखण्ड के लोकदेवता’ के आधार पर तैयार आलेख)
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ऐड़ी देव ब्यानधुरा बाबा को भूत बनाकर पेश करने वाले एक दिन अवश्य अपने कर्मो के फल भोगेंगे।