हमारे देश में यह ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ के किताब और फिल्म दोनों संस्करणों के सुपरहिट हो जाने का ज़माना है जब आप सेक्स के बारे में कम से कम एक हद तक खुल कर बात कर सकते हैं. यह किताब आज बहुत सारे सभ्य घरों में पाई जाती है और इसे देख कर किसी की भौंहें टेढ़ी होती नज़र नहीं आतीं. (Marquis de Sade Sexuality)
नैतिकता को साहित्य और लेखन में हमेशा एक निषिद्ध विषय माना गया है. सेक्स को आनंद का मार्ग मानने वालों को इतिहास में कड़ी सजाएं दी गईं अलबत्ता सभ्यता के इतिहास में इस विषय पर असंख्य किताबें लिखी गईं हैं जिनमें से कुछ को कल्ट का दर्ज़ा मिला तो कुछ को प्रतिबंधित किया गया और उनके लेखक सामाजिक बहिष्कार के शिकार हुए. (Marquis de Sade Sexuality)
सेक्स में कल्पना को असीमित छूट और हिंसा को जगह दिए जाने के सबसे बड़े हिमायती आदमी का नाम था मार्क्विस दे साद जिसका जन्म आज से लगभग तीन शताब्दी पहले आज ही के दिन 1740 में फ्रांस के एक कुलीन परिवार में हुआ था. उसके लिखे इरोटिक उपन्यासों से प्रेरित होकर भाषाविदों को उसके नाम पर सेक्सुअल हिंसा के लिए सेडिज्म शब्द का निर्माण करना पड़ा. आज किसी दूसरे को पीड़ा देकर आनंद उठाने वाले क्रूर शख्स को आम भाषा में सेडिस्ट कहा जाता है. यह शब्द अपने इसी अनुवाद के साथ सीधा सीधा हिन्दी भाषा में भी आ गया है अलबत्ता मार्क्विस दे साद के बारे में बहुत कम लोगों को मालूम है.
सभ्य संसार के अधिकाँश लोगों ने मार्क्विस दे साद के काम को भद्र जनता के लिए अनुपयुक्त माना और ईशनिंदा के समतुल्य बताया. उसे बार बार पागलखानों और कैदखानों में रखा गया और उसकी किताबों पर तकरीबन दो शताब्दियों तक बैन लगा रहा.
साद के लिखे साहित्य को हम आधुनिक क्लासिक बन चुके ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ का अठारहवीं शताब्दी का संस्करण मान सकते हैं अलबत्ता उसकी किताब ‘फिलोसोफी ऑफ़ द बेडरूम’ के शुरुआती चार-पांच पन्ने पढने के बाद आपको ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ बच्चों की किताब लगने लगेगी.
दे साद के जीवन के बारे में जितनी अफवाहें उस ज़माने के फ्रांस में फैलीं उठी शायद किसी और आदमी को नसीब नहीं हुई हों. उसके घर चलने वाली सामूहिक रासलीलाओं के किस्से दबी जुबान में दुनिया-जहान में सुने-सुनाये जाते थे. जेल में रहते हुए उसने अपने अनुभवों को ‘120 डेज़ ऑफ़ सोडोम’ के नाम से लिखा और ‘जस्टीन’, ‘जूलिएट’ और ‘द क्राइम्स ऑफ़ लव’ जैसी किताबें लिखीं जिन पर आज दुनिया भर के विश्विद्यालयों में शोध हो रहा है. हमारे सबसे बड़े आधुनिक विचारकों ने उसकी रचनाओं को अपने दार्शनिक ग्रंथों में जगह दी और दुनिया के सबसे बड़े फिल्मनिर्माताओं ने उसकी कहानियों पर फ़िल्में बनाईं.
उसकी रचनाएं आमतौर पर भूमिगत तरीके से छपा करती थीं और कई बार तो लोगों को उनके वास्तविक लेखक का नाम तक पता नहीं होता था. सन 1801 में नेपोलियन ने उसे गिरफ्तार करने के आदेश दिए थे. यह अलग बात है कि वह पिछले तीस सालों में जेल और पागलखाने के अनेक चक्कर लगाने के बाद भी नहीं ‘सुधरा’ था.
उसके मरने के बाद उसके बेटे ने सारी बची हुई पांडुलिपियाँ नष्ट कर दीं और बदनामी के डर से उसके खानदान के लोगों ने अपने नाम के आगे दे साद लगाना बंद कर दिया. यह अभी कुछ साल पहले हुआ है कि उसके अंतिम जीवित बच रहे एक उत्तराधिकारी, काउंट ह्यू दे साद ने अपने इस बदनाम पूर्वज के नाम का इस्तेमाल करते हुए वाइन और महिलाओं के अंतर्वस्त्रों को दे साद के ब्रांड के नाम से बाजार में उतार कर लम्बी रकमें पीटना शुरू किया है.
हम चाहे अपने को कितना ही सभ्य कह लें, सेक्स की विकृतियों को लेकर हमारे समाज में आज भी बेहद दोगला नजरिया देखने को मिलता है. इंटरनेट पर सबसे ज्यादा बिकने और देखी जाने वाली पोर्नोग्राफी आज दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में से एक बन चुकी है. जैसा मैंने शुरू में कहा था यह सेडिज्म का जश्न मनाने वाली ‘फिफ्टी शेड्स ऑफ़ ग्रे’ का ज़माना है.
साद को लेकर अच्छी बातें भी कही गईं लेकिन बहुसंख्य पढ़े-लिखे लोगों ने उसे अछूत माना. जो भी हो अगर ‘टेस्ट ऑफ़ टाइम’ नाम की कोई चीज़ होती है तो मार्क्विस दे साद उस पर लगभग तीन सौ सालों से खरा उतरा है. और जिस दिशा में हमारा समाज जाता दिख रहा है, लगता नहीं आने वाली कुछ पीढ़ियों तक मार्क्विस दे साद का नाम भुलाया जाने वाला है.
-अशोक पाण्डे
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1 Comments
Ravindra tewari
शानदार आलेख,सेक्स को लेकर जनमानस में जो संकोच है लेख उस संकोच को दूर करने की कोशिश में सफल है।