‘कुरू-कुरू स्वाहा’, ‘कसप’, ‘क्याप’ तथा ‘हमजाद’ जैसे गंभीर उपन्यासों के रचयिता, साहित्य अकादमी से सम्मानित साहित्यकार और ‘हम लोग, ‘बुनियाद, ‘हमराही’ तथा ‘गाथा’ जैसे अपने बहुचर्चित दूरदर्शन धारावाहिकों से करोड़ों लोगों की प्रशंसा पाने वाले बहुपठित बहुश्रुत मनोहर श्याम जोशी विज्ञान में गहरी रूचि रखते थे. उनके लिए कहा जाता था कि लोकप्रिय विज्ञान के क्षेत्र की कोई भी बहुचर्चित पुस्तक उनके पास मिलेगी और वे उसे पढ़ चुके होंगे. ‘द डबल हेलिक्स’ पुस्तक के साथ यही हुआ.
डीएनए के खोजकर्ता जेम्स वाटसन, फ्रैंसिस क्रिक और मौरिस विल्किंस को 1962 में शरीर क्रिया विज्ञान (चिकित्सा) का नोबेल पुरस्कार मिल चुका था. 1968 में न्यूयार्क में जेम्स वाटसन की आत्मकथात्मक पुस्तक ‘द डबल हेलिक्स’ प्रकाशित हुई. जोशी जी पढ़ने के लिए बेचैन! वरिष्ठ विज्ञान लेखक कैलाश साह ने एक दिन बताया, “जोशी जी के पास ‘द डबल हेलिक्स’ आ चुकी है और वे पढ़ चुके हैं.” उनके जरिए हम भी ‘द डबल हेलिक्स’ के दर्शन कर सके. लेकिन, हिंदी के पाठक को डी. एन. ए. के बारे में कैसे पता लगे? तो, संपादक मनोहर श्याम जोशी ने डीएनए की खोज कथा और उस खोज की भावी संभावनाओं के बारे में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में अपने पाठकों के लिए स्वयं लिखा. इसी प्रकार अनेक ज्वलंत वैज्ञानिक विषयों पर वे यदा-कदा लिखते रहते थे.
सामयिक विषयों पर विज्ञान संबंधी लेख लिखने के लिए वे विज्ञान लेखकों से आग्रह भी करते थे. जनवरी 1969 का तीसरा सप्ताह रहा होगा. मैं पूसा इंस्टीटयूट में अनुसंधान कार्य से जुड़ा हुआ था. फोन पर उन्होंने गांधी शताब्दी पर फरवरी प्रथम सप्ताह में प्रकाश्य अंक के लिए वैज्ञानिक लेख भेजने को कहा. मैं चौंका- गांधी जन्म शताब्दी और विज्ञान? उनसे कहा तो बोले, “क्यों, विज्ञान में अहिंसा पर लिखो. जे. बी. एस. हाल्डेन के विचार दो.” हाल्डेन की पुस्तकें खोजीं. उन्हें पढ़ा और लिखा. उस महान वैज्ञानिक से वाया जोशी जी मेरा वही पहला परिचय था.
2 फरवरी 1969 के अंक में मेरा लेख प्रकाशित हुआ- ‘विज्ञान में अहिंसाः गांधी और हाल्डेन’. लेकिन, आश्चर्य तो तब हुआ जब उसी अंक में गपशप स्तंभ के अंतर्गत स्वयं जोशी जी की रचना ‘दुर्वासा का सुयोग्य उत्तराधिकारी’ पढ़ी जिसकी शुरूआत यों थीः “जे. बी. एस. हाल्डेन, जिनके विज्ञान और अहिंसा संबंधी विचार इसी अंक में अन्यत्र प्रकाशित हैं, उस जाति के जीव थे जिसे अंग्रेजी में ‘करैक्टर’ और हिंदी में ‘एक ही’ कहा जाता है.” प्रसिद्ध वैज्ञानिक जे. बी. एस. हाल्डेन पर लिखी वह अद्भुत रचना थी. वे चाहते तो अंक में उनकी ही रचना काफी थी लेकिन फिर नए विज्ञान लेखक को लिखने की दीक्षा कैसे देते?
उन्होंने विशेष लेखमालाओं के प्रकाशन की परंपरा भी प्रारंभ की. 1968 का नोबेल पुरस्कार भारतीय मूल के डा. हरगोविंद खुराना को मिल चुका था. इसलिए आनुवंशिकी विज्ञान चर्चा के केंद्र में था. ऐसे समय में पाठकों को तेजी से प्रगति कर रहे आनुवंशिकी विज्ञान या जेनेटिक्स पर और अधिक जानकारी देने के विचार से उन्होंने 18 मई 1969 अंक से मेरी लेखमाला ‘जीवन के सूत्रों की खोजयात्रा’ प्रकाशित की, जिसके कुछ शीर्षक उन्होंने अपनी विशेष शैली में गढ़े जैसे ‘मक्खियों के ब्याह रचाए, तब जाकर ये उत्तर पाए, ‘विधाता के बही खाते की भाषा कौन पढ़ेगा?’ अंतिम किस्त ‘इक्कीसवीं सदी की झांकी’ मैंने तत्कालीन सोवियत संघ के प्रसिद्ध आनुवंशिकीविद् प्रोफेसर निकोलाई पी. दुबिनिन से इंटरव्यू के आधार पर तैयार की थी.
हिंदी में विज्ञान कथा विधा को आगे बढ़ाने में मनोहर श्याम जोशी का बड़ा योगदान है. वे विज्ञान कथाओं के रसिक थे और विश्व विज्ञान कथा साहित्य के गंभीर पाठक भी. उस समय की अत्यधिक लोकप्रिय पत्रिका ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में ‘विज्ञान कथा’ विशेषांक प्रकाशित करके उन्होंने हिंदी जगत का ध्यान इस विधा की ओर आकर्षित किया. जिस किसी विज्ञान लेखक में उन्होंने विज्ञान कथा सृजन के बीज देखे उन्हें अंकुरित होने का अवसर दिया. ‘दिनमान’ के दिनों से ही वे इस विधा में रमेश वर्मा की प्रतिभा को पहचानते थे. उन्होंने 1969 में ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में पाठकों के लिए रमेश वर्मा की वैज्ञानिक उपन्यासिका ‘अंतरिक्ष के कीड़े’ प्रकाशित की.
उन्होंने कैलाश साह को विज्ञान कथाएं लिखने के लिए प्रोत्साहित किया. उनकी मनुष्य और मशीन के रिश्ते पर लिखी गई ‘मशीनों का मसीहा’ चर्चित विज्ञान कथा ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में ही प्रकाशित और चर्चित हुई. जोशी जी ने कैलाश साह के विज्ञान कथा संग्रह ‘मृत्युंजयी’की भूमिका में लिखा, “हिंदी में अब तक विज्ञान कथा लेखन का क्षेत्र लगभग अछूता ही रहा है. शायद इसलिए कि यह काम आसान नहीं. उत्कृष्ट विज्ञान कथाओं के सृजन के लिए यह जरूरी है कि विज्ञान के आधुनिकतम आविष्कारों, उनकी संभावनाओं और वर्तमान सामाजिक परिवेश और दायित्व बोध से भली-भांति परिचित होने के साथ ही लेखक रोचक, बोधगम्य शैली का भी धनी हो.” वे विज्ञान कथाओं की भूमिका को पूरी तरह पहचानते थे. उनके शब्दों में, “पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बीच के वर्षों में विज्ञान की प्रगति इतनी तेज हो गई कि ट्रांजिस्टर और कम्प्यूटर क्रांति ने कई क्षेत्रों में विज्ञान कथा लेखकों की कल्पना को भी कहीं पीछे छोड़ दिया.
वैज्ञानिक आविष्कारों से आम आदमी आज बुरी तरह आक्रांत हैं. वैज्ञानिक ‘सच’ और विज्ञान की सम्भावनाओं से अपरिचित कोई भी व्यक्ति अपने को साक्षर नहीं कह सकता. इस संदर्भ में विचारोत्तेजक चुनौतियों का सामना दुनिया के लगभग सभी देशों के विज्ञान कथा लेखक कर रहे हैं. आर्थर क्लार्क, आइसक आसिमोव, रे ब्रेडबरी, कर्ट वानगेट के नाम विज्ञान कथाओं के माध्यम से ही अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं. इनमें आने वाले कल के बारे में दस तरह की रोचक अटकलें तो हैं ही, मशीन और मनुष्य के जटिल, अनिवार्यतः कृत्रिम रिश्ते के बारे में दार्शनिक कुतूहल का अभाव भी नहीं है.” 1979 में उन्होंने ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में मेरी पहली वैज्ञानिक उपन्यासिका ‘सभ्यता की खोज’ प्रकाशित की थी.
मनोहर श्याम जोशी हम विज्ञान लेखकों के लिए दिशा दर्शक थे. उन्होंने हिंदी विज्ञान लेखकों की एक पूरी पीढ़ी को प्रोत्साहित करके विज्ञान और विज्ञान कथा लेखन को आगे बढ़ाया.
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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखी है, जिसे आप कहो देबी, कथा कहो शीर्षक के अंतर्गत वैबसाइट में पढ़ सकते हैं.
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