आजादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी कुमाऊं की यात्रा पर आने से लगभग 15 साल पहले ही 1915 – 16 में हरिद्वार और देहरादून आ चुके थे. तब स्थानीय लोगों ने गांधी जी को आर्य समाज में बोलते हुये देखा और सुना था. जब कुमाऊं में स्वतंत्रता आन्दोलन की अगुवाई करने वाले कुमाऊं परिषद के वरिष्ठ नेताओं व कार्यकर्ताओं को गांधी जी के देहरादून व हरिद्वार जाने की जानकारी मिली तो वे 1918 में गांधी जी से मिले और उनसे कुमाऊं की यात्रा करने का अनुरोध इस आधार पर किया कि उनकी यात्रा से कुमाऊं में स्वतंत्रता आंदोलन तेज ही नहीं होगा बल्कि लोगों को अधिक से अधिक संख्या में आंदोलन में भागीदारी के लिये भी प्रेरित करेगा. गांधी जी ने कुमाऊं परिषद के नेताओं को कुमाऊं की यात्रा करने का भरोसा तो दिलाया, पर वे लगभग एक दशक बाद ही कुमाऊं की यात्रा पर आ सके.
कुमाऊं आने का मन भी उन्होंने तब बनाया जब उन्हें पता चला कि 14 जनवरी 1921 को बागेश्वर में सरयू के तट पर कुमाऊं के लगभग 40,000 हजार लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ खुली बगावत करते हुये ” बेगार ” न करने की शपथ ली और बेगार करने वाले लोगों के नाम वाले हजारों रजिस्टरों को सरयू में बहा दिया. इस आंदोलन की सफलता की बातों ने गांधी जी को कुमाऊं यात्रा के लिये प्रेरित किया, लेकिन इसके बाद भी कुमाऊं की यात्रा करने में उन्हें 8 वर्ष से ज्यादा लग गये. इतनी बड़ी राजनैतिक लड़ाई जीत लेने के बाद लोगों में स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रति एक नई ऊर्जा का संचार हुआ. इस आन्दोलन की सफलता ने ही बद्रीदत्त पान्डे को ” कुमाऊं केसरी ” का सम्बोधन दिया. इसके बाद सन् 1926 में कुमाऊं परिषद् का विधिवत विलय कांग्रेस में कर दिया गया. इस विलय के बाद ही स्वतंत्रता के जनजागरण के लिए कांग्रेस के कई बड़े नेताओं ने कुमाऊं का दौरा करना शुरु किया. परिषद के कांग्रेस में विलय के लगभग तीन साल बाद महात्मा गांधी ने कुमाऊं का दौरा किया.
महात्मा गांधी दो बार कुमाऊं की यात्रा पर आये थे. उन्होंने अपनी पहली यात्रा 13 जून 1929 को बरेली से हल्द्वानी होते हुये की. वे कुमाऊं की यात्रा के लिए गुजरात के साबरमती आश्रम से 11 जून 1929 को चले थे. गांधी जी नैनीताल 14 जून 1929 को पहुँचे. जिसके बाद महात्मा गांधी ने 14 जून की दोपहर को नैनीताल में एक सभा को सम्बोधित किया. उनके आगमन पर पहली बार महिलायें जुलूस और सभा में शामिल हुई. गांधी जी स्थानीय लोगों से बेहद प्रभावित हुए. सभा के लिए मल्लीताल में डिप्टी कमिश्नर से अनुमति ली गई थी. सभा के व्यवस्था की जिम्मेदारी गोविन्द बल्लभ पन्त, गंगा दत्त मासीवाल, कुँवर आनन्द सिंह, बच्ची लाल, इन्द्र सिंह नयाल, भागुली देवी को दी गई थी. सभा के बाद पहली बार ब्रिटिश सरकार ने नैनीताल के माल रोड में राजनैतिक जुलूस निकालने की अनुमति दी. जिसके बाद वे 15 जून को भवाली पहुँचे. वहॉ गांधी जी ने पहली बार सभा को सम्बोधित करते हुए 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन करने का संकेत दिया. भवाली की सभा में जवाहर लाल नेहरु और आचार्य कृपालानी ने भी अपने विचार व्यक्त किए. उसके बाद रात्रि विश्राम के लिए कस्तूरबा गांधी और अपने बेटे देवदास गांधी के साथ ताकुला ( नैनीताल ) में रुके. इसके अलावा उनके साथ जवाहर लाल नेहरु, जमनालाल बजाज, मीरा बहन, जमशेद जी टाटा, उनके सचिव प्यारे लाल, आचार्य कृपालनी और सुचेता कृपालानी भी थे.
स्थानीय लोगों ने उनका बहुत ही गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था. इस दौरान गांधी जी लाला गोविंद लाल साह के ताकुल स्थित ” मोती भवन ” में रहे. गांधी जी के व्याख्यान से प्रभावित अनेक महिलाओं ने तब आजादी के आंदोलन के लिये अपने जेवर उतार कर उनके चरणों में रख दिये. गांधी जी ने यहां एक भवन की आधारशिला भी रखी थी. जिसे बाद में गांधी मंदिर कहा जाने लगा. कई लेखों और शोध पत्रों में कहा गया है कि इस भवन को 1935 या इसके आसपास या देश की आजादी के बाद काफी देर में गांधी मन्दिर नाम दिया गया, पर गोविन्दलाल साह के नाती और नैनीताल समाचार के सम्पादक राजीव लोचन साह इस बात को तथ्यहीन मानते हैं और कहते हैं कि जब 1929 में गांधी जी ने अपनी नैनीताल यात्रा के दौरान इस भवन का शिलान्यास किया तो वह तब से ही गांधी मन्दिर कहा जाने लगा था. इस भवन के माध्यम से आजादी के दिवानों के लिये एक ऐसे स्थान का चयन करना था, जहॉ लोग एकत्र होकर स्वतंत्रता आंदोलन की रुपरेखा तय कर सकें. दरअसल गांधी जी भी 1921 के बागेश्वर के कुली बेगार आंदोलन की सफलता से बहुत ही प्रभावित थे. तब ही गांधी जी घोषणा की थी कि वे शीघ्र ही कुमाऊं की यात्रा पर जाना चाहते हैं और कुमाऊं की बहादुर जनता को धन्यवाद देने के साथ ही उसके साहस को सलाम करना चाहते हैं.
स्वतंत्रता के लिये हर रोज तेज होते आंदोलन के कारण गांधी जी को कुमाऊं की यात्रा पर आते-आते लगभग 8 साल लग गये. ताकुला ( नैनीताल ) में गांधी जी ने महिलाओं को चरखा कातने के लिये प्रेरित ही नहीं किया बल्कि उन्हें चरखा चलाने का प्रशिक्षण भी दिया. गांधी जी ने लोगों में आजादी के आंदोलन के प्रति जाग्रति भी पैदा की. कस्तूरबा गांधी ने महिलाओं को विशेष रुप से सम्बोधित किया और उन्हें स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रियता से भाग लेने के लिये प्रेरित भी किया. इसके बाद गांधी जी भवाली होते हुये 17 जून 1929 को ताड़ीखेत ( अल्मोड़ा ) पहुँचे. यहां उनका स्वागत हरगोविन्द पंत, मोहन लाल साह, गोविन्द बल्लभ पन्त, हरिदत्त काण्डपाल, देवसिंह कुवार्बी, रामदत्त पान्डे, बद्रीदत्त पान्डे आदि ने किया. गांधी जी 18 जून को अल्मोड़ा पहुँचे. यहां नगरपालिका द्वारा सम्मान में एक मानपत्र भी गांधी जी को सौंपा गया. उन्होंने स्वतंत्रता के लिए अलख जगाने वाले हरीश चन्द्र जोशी के घर में रात्री विश्राम किया था. जो रानीधारा में रहते थे.
गांधी जी 19 जून को और फिर ताड़ीखेत पहुँचे. यहां गांधी जी कस्तूरबा गांधी व अपने साथियों के साथ तीन दिन रुके. उन्होंने ताड़ीखेत विद्यालय के वार्षिकोत्सव में भी भाग लिया. स्थानीय लोगों ने गांधी जी और उनके साथियों के रुकने के लिये तीन दिन में ही एक कुटिया का निर्माण यहां पर किया था. यह ऐतिहासिक कुटिया आज उपेक्षा का शिकार है और खण्डर की तरह हो गई है. यहां उनके साथ स्वतंत्रता सेनानी देवकी नंदन पांडे भी थे. ताड़ीखेत का प्रेम विद्यालय तब तक स्वतंत्रता आंदोलन की गतिविधियों का केन्द्र बन चुका था. अपने तीन दिन के प्रवास में गांधी जी ने क्षेत्र के लोगों में स्वतंत्रता आंदोलन की अलख भी जगायी. उनसे मिलने के लिये तब ताड़ीखेत में सल्ट, भिकियासैंण, देघाट सहित आस-पास के हजारों लोग पहुँचे थे.
ताड़ीखेत में तीन दिन रहने बाद गांधी जी ने अल्मोड़ा को प्रस्थान किया और वे अल्मोड़ा से बोरारो होते हुये 21 जून को कौसानी पहुँचे थे. कौसानी में गांधी जी का स्वागत लाला रामलाल, लाला जीवन लाल और देवकी नंदन पांडे ने किया. कौसानी जाते हुये ही बापू ने चनौदा में एक जनसभा को भी सम्बोधित किया था और लोगों में स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति एक नये जोश की भावना पैदा की. शान्तिलाल त्रिवेदी और सरला बहन ने बापू के निर्देश पर इसके बाद 1937 में खादी आश्रम की स्थापना चनौदा में की. जो आज भी ” गांधी आश्रम ” के नाम से वहॉ चल रहा है. गांधी आश्रम के निर्माण के लिए गॉव वालों ने तब 30 नाली जमीन दान में दे दी थी. इससे पता चलता है कि उस समय लोगों में स्वतंत्रता आन्दोलन व गांधी जी के प्रति किस तरह का जज्बा था.
यहां के बने हुये खादी के कपड़े देश के विभिन्न प्रान्तों में जाते हैं और अपनी गुणवत्ता के लिये एक अलग पहचान रखते हैं. कौसानी से 22 जून को गांधी जी बागेश्वर गये और वहॉ के डाक बंगले में पहुँचे. विक्टर मोहन जोशी के आग्रह पर अल्मोड़ा से कौसानी तक कार से आये बापू ने कौसानी से बागेश्वर तक की यात्रा पैदल व डोली में बैठकर पूरी की. बापू के बागेश्वर पहुंचते ही स्वतंत्रता आंदोलन में लगे आंदोलनकारियों का जोश जैसे सातवें आसमान पर था. गांधी जी के स्वागत में पूरे बागेश्वर बाजार को तोरण द्वारों से सजाया गया था. स्वागत के दौरान ही एक अभूतपूर्व जुलूस पूरे बाजार में निकला. एक छोटी सी सभा में बद्रीदत्त पांडे ने उन्हें 300 रुपये चंदे के रुप में एकत्र किये हुये दिये. जिला पंचायत के डाक बंगले में उन्होंने रात्रि विश्राम किया.
दूसरे दिन शाम को पॉच बजे फिर एक बड़ी सभा बागेश्वर में हुई. उस सभा में 5 हजार से ज्यादा लोग उपस्थित थे. बापू के बागेश्वर पहुंचने की सूचना मिलने पर हजारों की संख्या में आंदोलनकारी बागेश्वर को कूच कर गये. सारे स्वतंत्रता आंदोलनकारी नुमाइश मैदान में एकत्र थे. जहां वन्दे मातरम व भारत मां की जय जयकार के नारों से आकाश गुंजायमान हो रहा था. जनता के जोश व उत्साह से बापू बेहद प्रभावित हुए. बापू ने नुमाइश मैदान में एकत्र जनता को संबोधित करते हुए पहले तो कुली बेगार प्रथा समाप्त करने के लिए बागेश्वर की जनता के साहस की न केवल प्रशंसा की बल्कि उन्हे धन्यवाद भी दिया. सभा के बाद गांधी जी को एक बार फिर से लोगों द्वारा दी गयी 600 रुपये की थैली भेंट की गयी. स्वतंत्रता आंदोलनकारियों के अनुरोध पर बापू ने नुमाइश मैदान में स्वराज भवन की नींव भी रखी. लोगों ने स्वराज भवन में आंदोलन की गतिविधियों को संचालित करने के साथ- साथ सूत कताई का भी कार्य किया .
उपस्थित जनसमूह को अपने संबोधन में बापू ने कहा कि स्वराज ही हमारा लक्ष्य है इसके बगैर भारत का विकास नहीं हो सकता है. जिसका वहां मौजूद जनता ने ” भारत माता की – जय ” नारे के साथ समर्थन किया. बाद में बागेश्वर में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर पहुंचा. अगले दिन 24 जून को बापू ने बागनाथ मंदिर के दर्शन किये और फिर अपने कौसानी प्रवास को प्रस्थान किया और 2 जुलाई 1929 तक वहॉ रहे. बागेश्वर में बापू को जीत सिंह टंगड़िया द्वारा निर्मित चरखा भी भेंट किया गया. उस चर्खे की विशेषता यह थी कि वह कम समय में ज्यादा ऊन कात लेता था. उस चर्खे को देखकर तब गांधी जी ने कहा था कि यह चर्खा स्वदेशी आंदोलन को आगे बढ़ाने में बहुत मदद करेगा. वर्धा पहुँचने के बाद बापू ने विक्टर मोहन जोशी को एक पत्र लिखकर एक और चर्खा भेज देने को लिखा और यह भी लिखा कि वे चर्खे कीमत चूका देंगे. गांधी जी ने उस चर्खे का नाम ” बागेश्वरी चर्खा ” रखा था. जीत सिंह टंगड़िया ने बाद में उस चर्खे में और बदलाव किया. जो कताई के साथ ही बटाई का कार्य भी कर लेता था. उन्होंने 1934 में अपने घर में ” चर्खा आश्रम ” की ही स्थापना कर दी थी. अपनी बागेश्वर यात्रा के दौरान बापू को विक्टर मोहन जोशी ने बहुत प्रभावित किया. लौट कर उन्होंने ” यंग इंडिया ” में अपने लेख में लिखा, ” अल्मोड़ा के इसाई कार्यकर्ता श्रीयुत विक्टर मोहन जोशी इसाई समाज के उत्कृष्टतम पुष्पों में से एक हैं. जिन्होंने असहयोग आंदोलन में अपने त्याग, कष्ट और सहिष्णुता से प्रमाणित किया कि वे किस धातु के बने हैं ! ”
कौसानी में महात्मा गांधी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ” अनासक्ति योग ” को पूरा किया था और उसकी प्रस्तावना भी लिखी. अनासक्ति योग की प्रस्तावना उन्होंने 24 जून 1929 को लिखी. अनासक्ति योग को गांधी जी ने मूल रुप से गुजराती में लिखा था. बाद में इसका हिन्दी में रुपान्तर सोमेश्वर पुरोहित ने किया और इसे नवजीवन प्रकाशन मन्दिर,अहमदाबाद ने प्रकाशित किया. हिन्दी में प्रकाशित अनासक्ति योग की अब तक एक लाख से अधिक प्रतियॉ बिक चुकी हैं. कौसानी में पूरे 10 दिन व्यतीत करने के बाद गांधी जी यहां के प्राकृतिक सौंदर्य से इतने अभिभूत हुये कि उन्होंने कौसानी को भारत के स्विटजरलैंड की संज्ञा ही दे दी.
तब से ही कौसानी को प्राकृतिक सौंदर्य के मामले में ” भारत का स्विटजरलैंड ” कहा जाने लगा. आज भी यह सवाल प्रतियोगी परिक्षाओं में अक्सर पूछा जाता है कि भारत का स्विटजरलैंड किसे कहा जाता है ? गांधी जी ने जिस स्थान पर तब “अनासक्ति योग ” की प्रस्तावना लिखी थी, उस स्थान पर कौसानी में आज गांधी स्मारक निधि द्वारा संचालित ” अनासक्ति आश्रम ” है. जहॉ हर साल हजारों पर्यटक पहुँचते हैं. कौसानी के बारे में एक लेख लिखकर गांधी जी ने तब ” यंग इंडिया ” में भेजा था. जो 11 जुलाई 1929 के अंक में प्रकाशित हुआ था. जिसमें गांधी जी ने लिखा, ” हिमालय की स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, उसका मनोहर दृश्य, चारों तरफ फैली हुई सुहावनी हरियाली, यहां आपकी किसी भी अभिलाषा को अपूर्ण नहीं रखती. मैं सोचता हूँ कि इन पर्वतों के दृश्यों तथा जलवायु से बढ़कर होना तो दूर रहा, इसकी बराबरी भी संसार का कोई और स्थान नहीं कर सकता है “.
इसी लेख में उन्होंने आगे लिखा,” इन पर्वतों में रहने के पश्चात् मुझे अब तो पहले से भी अधिक आश्चर्य होता है कि हमारे देशवासी स्वास्थ्य लाभ के लिये क्यों यूरोप की यात्रा करते होंगे?” कौसानी से हिमालय का भव्य और मनोहारी रुप दिखायी देने पर गांधी जी लिखते हैं,” कौसानी में सूर्य के प्रकाश में नाचती हिममंडित शिखर श्रेणी का दर्शन करते हुये मैं यह सोच रहा था कि हिमालय के इन धवल शिखरों को देखकर भिन्न-भिन्न कोटि के लोगों के मन में क्या विचार आयेगा? ” अल्मोड़ा के प्राकृतिक सौंदर्य के बारे में उन्होंने लिखा,” अल्मोड़ा आकर अलबत्ता मैं इस बात की कल्पना कर सका कि हिमालय क्या है? यदि हिमालय न होता तो गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और सिंधु भी न हों, हिमालय न हो तो ये नदियॉ भी न हों और भारत सहारा रेगिस्तान बन जाय.” दो जुलाई को वे कौसानी से चले और 3 जुलाई को रामनगर पहुँचे और वहॉ से काशीपुर के लिये चले. इसके बाद गांधी जी 4 जुलाई 1929 को काशीपुर से दिल्ली प्रस्थान कर गये थे. अपनी इस यात्रा के दौरान जी ने 26 स्थानों पर भाषण दिए और सभी भाषण स्वदेशी, स्वावलम्बन, आत्मशुद्धि, खादी प्रचार और समाज में व्याप्त कुरीतियों पर को त्यागने से सम्बंधित थे. गांधी जी कुमाऊं भ्रमण के दौरान उनके जो स्थानीय नेता शामिल रहे, उनमें प्रमुख तौर से बद्री पान्डे, गोविन्द बल्लभ पन्त, हीरा बल्लभ पान्डे, मोहन सिंह मेहता, मोहन जोशी, रुद्रदत्त भट्ट, चिरंजी लाल आदि लोग थे. जिनकी इस दौरे के बाद गांधी जी से निकटता भी बढ़ी.
गांधी जी की कुमाऊं यात्रा का सबसे अधिक प्रभाव महिलाओं और शिल्पकारों पर पड़ा. अल्मोड़ा में महिलाओं ने दुर्गा देवी पंत व बच्चीदेवी पंत के नेतृत्व में एक संगठन ही बना डाला और नमक सत्याग्रह में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया. नैनीताल में गांधी जी के जुलूस में पुरुषों से अधिक संख्या महिलाओं की थी. गांधी जी के प्रभाव के कारण ही 1930 के आन्दोलन में महिलाओं ने बहुत सक्रियता से भागीदारी की और भागुली देवी के नेतृत्व में जानकी देवी, पद्मा देवी, भागीरथी देवी, शकुन्तला देवी और सावित्री देवी सहित सैकड़ों महिलाओं ने नमक सत्याग्रह में हिस्सेदारी की. गांधी जी के कुमाऊं प्रवास के कारण सामाजिक छुआछूत में भी कमी आई और सामाजिक तौर पर अछूतोद्धार आन्दोलन तेज हुआ. इसी वजह से उस समय उन्हें कुमाऊं से 24,000 रुपए हरिजन कोष के लिए दान के तौर पर मिले थे. जो बहुत बड़ी घटना थी.
अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक अखबार ” शक्ति ” ने गांधी जी के कुमाऊं आगमन पर एक विशेषांक प्रकाशित किया. जिसके माध्यम से गांधीवादी विचारों का प्रचार – प्रसार किया गया. गांधी जी के कुमाऊं से वापस लौटने के बाद भी शक्ति अखबार ने 13 जुलाई 1929 ने अंक में “महात्मा जी का दौरा” शीर्षक से सम्पादकीय भी लिखा. जिसमें उनके भ्रमण के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से लिखा गया था. शक्ति अखबार ने महात्मा गांधी का एक लेख “अल्मोड़ा के अनुभव” शीर्षक से भी प्रकाशित किया. जिसमें गांधी जी ने अल्मोड़ा में जनता के साथ बिताए गए पलों का वर्णन करते हुए अल्मोड़ा की जनता के प्रति अपना स्नेह व्यक्त किया था.
स्वतंत्रता आन्दोलन में 1930 का साल बहुत ही महत्वपूर्ण रहा. आन्दोलनों की तीव्रता और उनके फैलाव ने ब्रिटिश सरकार के साथ – साथ कांग्रेस के उन उदारवादी नेताओं को भी चिंता में डाल दिया था, जो पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक नहीं थे और उन्होंने कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव को अनिच्छा से स्वीकार किया था. मजदूर व किसानों द्वारा आन्दोलन में व्यापक तौर पर भागीदारी की. इनके साथ ही वामपंथी सोच के लोग भी सक्रिय तौर पर स्वतंत्रता आन्दोलन में कूद गए थे. गांधी जी के सविनय अविज्ञा आन्दोलन की गूँज पूरे देश में थी. गांधीवादी नेतृत्व नियंत्रित जनान्दोलन में विश्वास करता था. इसके विपरीत व्यापारिक समूह नापतौल कर कदम उठाने के पक्ष में था.
दूसरी ओर भारत में रहकर व्यापार में लगे अंग्रेज आन्दोलन में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किए जाने की तीव्रता के कारण ब्रिटिश सरकार पर आन्दोलनकारियों के साथ बातचीत करने का दबाव डाल रहे थे. विभिन्न स्तर पर पड़ रहे दबाओं के बाद ही 5 मार्च 1931 को गांधी – इरविन समझौते की नींव पड़ी. इससे पहले गांधी व इरविन के बीच 17 फरवरी 1931 से 5 मार्च 1931 तक समझौते पर बातचीत करते रहे. जिसके बाद 15 मार्च 1931 को इस समझौते पर हस्ताक्षर हुए. गांधी जी ने इस समझौते के लिए एक ग्यारह सूत्री मॉग पत्र पेश किया, लेकिन जिसमें से एक भी मॉग नहीं मानी गई. यहां तक कि नमक पर लगा कर भी नहीं हटाया गया. गांधी ने जो भी रियायतें चाही थी, उन्हें पाने में वे पूरी तरह से असफल रहे. इस समझौते से कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेताओं सहित वामपंथी नेता भी दुखी थे. कुमाऊं में भी इस समझौते पर बहुत अधिक तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं हुई.
मई 1931 में गांधी जी की दूसरी कुमाऊं यात्रा के बाद ही इस बारे में जो थोड़ा बहुत असंतोष था वह दूर हुआ. शिमला में वायसराय से मिलने के बाद गांधी जी ने कुमाऊं में किसानों की समस्या के समाधान के लिए नैनीताल आने का कार्यक्रम तय किया. शिमला से चलकर गांधी जी दूसरी बार 18 मई 1931 को तीसरे पहर नैनीताल पहुँचे. गांधी जी के साथ कस्तूरबा गांधी, देवदास गांधी, श्रीमहादेव देसाई, सेठ जमनालाल बज़ाज, मीराबाई ( मिस स्लेड ) और 6 लोग और थे. महात्मा गांधी लालकुँआ में ही रेल से उतर गए और वहॉ से हल्द्वानी होते हुए सड़क मार्ग से नैनीताल पहुँचे.तब वे पूरे छह दिन नैनीताल प्रवास पर रहे. ताकुला ( नैनीताल ) में ही उन्होंने सेठ गोविन्द लाल साह सलमगढ़िया के मोती भवन में कुछ दिन व्यतीत किये.
नैनीताल से लगभग चार किलोमीटर पहले ही हल्द्वानी रोड में ताकुला पहुँचने पर नैनीताल नगर व आस – पास के सैकड़ों लोगों ने तब गांधी जी का भव्य स्वागत किया. सारे उपस्थित महिला और पुरुष खादी कपड़े पहने हुए थे. नैनीताल पहुँचने पर गांधी जी के स्वागत के लिए सड़क के दोनों ओर नगर कांग्रेस के स्वयंसेवक कांग्रेस का झण्डा लिए खड़े थे. गांधी जी ने 20 मई को गवर्नर सर मैलकम हैली से भी मुलाकात की थी. नैनीताल में 21 मई 1931 को महात्मा गांधी व पुरुषोत्तमदास टंडन की उपस्थिति में कुमाऊं कमिश्नरी के तत्कालीन तीन जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा व ब्रिटिश गढ़वाल ( पौड़ी )के कांग्रेस कार्यकर्ताों का एक राजनैतिक सम्मेलन भी आयोजित किया गया. जो कुमाऊं परिषद् के 1926 में कांग्रेस में विलय होने के बाद पहला बड़ा राजनैतिक सम्मेलन था. उस सम्मेलन में भागीदारी के लिये गढ़वाल से ‘ गढ़देश ‘ के सम्पादक कृपाराम मिश्र ‘ मनहर ‘ , देवकी नंदन ध्यानी तथा जयानन्द भारती भी पहुँचे थे. सम्मेलन में महिलाओं ने भी भारी संख्या में भाग लिया था. जो स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति महिलाओं में तेजी से फैल रही राजनैतिक चेतना को दिखाता था. उस सम्मेलन में पारित प्रस्ताओं में सामाजिक कुरीतियों , स्वदेशी , खद्दर का प्रचार , नशाबंदी , ग्रामीण विकास , बुनकर केन्द्रों की स्थापना आदि प्रमुख थे.
संदर्भ स्रोत :- पहाड़ – अंक दो, पुरवासी के कुछ अंक, सरफ़रोशी की तमन्ना – सम्पादक व लेखक : डॉ. शेखर पाठक, स्वतंत्रता संग्राम में कुमाऊं – गढ़वाल का योगदान – डॉ. धर्मपाल मनराल, गोविन्द बल्लभ पन्त : एक जीवनी – लेखक : शम्भू प्रसाद शाह, शक्ति के तीन दशक – ज्योति साह, युगवाणी साप्ताहिक, युगवाणी ( मासिक ), शक्ति साप्ताहिक, जय उत्तराखण्ड वीर ( पाक्षिक )- 16 से 31 अगस्त 1997 अंक, जय उत्तराखण्ड वीर ( पाक्षिक ) – 16 से 31अगस्त 2000 अंक, हिन्दुस्तान, अमर उजाला, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, सहारा समय, जनसत्ता.
जगमोहन रौतेला
विविध विषयों पर लिखने वाले जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. काफल ट्री पर उनकी रचनाएँ नियमित प्रकाशित होती रही हैं.
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