एक सिंह रैंदो बण, एक सिंग गाय का
(Madho Singh Bhandari)
एक सिंह ‘माधोसिंह’ और सिंह काहे का
जिन रणबांकुरे श्री माधोसिंह भण्डारी के लिये आज भी सारे गढ़वाल में उपरोक्त उक्ति प्रचलित है, उनके जन्म और मृत्यु का ठीक-ठीक पता नहीं लगता लेकिन इतना मालूम है कि महाराज महीपतिशाह के समय में ये उनके प्रधान सेनापति थे और उन्हीं के राज्य-काल में इनकी मृत्यु भी हुई. लेकिन स्वयं महाराज महीपति शाह की तिथियों का अभी तक निश्चयात्मक रूप से निरूपण नहीं हो पाया है. टिहरी राज्य वंशावली के अनुसार उनका शासन काल सन् 1527 ई० से सन् 1552 ई० तक था. श्री हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार उन्होंने सन् 1626 ई० से सन् 1646 ई० तक राज्य किया. लेकिन उपरोक्त दोनों ही तिथियाँ ठीक प्रतीत नहीं होतीं.
श्रीनगर के केशोराय के मठ पर उनका एक शिलालेख सन् 1625 ई० का अंकित है. साथ ही उनके उत्तराधिकारी महाराज पृथ्वी पतिशाह के विषय में यह ज्ञात है कि उन्होंने सन 1640 ई० से सन् 1669 ई० तक राज्य किया. इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञात है कि उनसे पहिले के शासक महाराज दुलारामशाह का एक दान-पत्र सन् 1580 ई० का है. अतः यह निश्चित है कि महाराज महीपतिशाह का शासन-काल सन् 1581 ई० से सन् 1640 ई० तक रहा होगा. लेकिन इतना लम्बा राज्य काल साधारणतया सम्भव नहीं. कुमाऊँ के इतिहास से पता लगता है कि वहाँ के राजा लक्ष्मीचन्द ने पहली बार सन् 1567 ई० में गढ़वाल पर आक्रमण किया था और उन दिनों यहाँ महाराज महीपतिशाह शासनारूढ़ थे. अतः उनका राज्य-काल लगभग सन् 1566 ई० से सन् 1640 ई० तक मानना ही सर्वाधिक उचित होगा. इन तिथियों के अनुसार, श्री माधोसिंह भण्डारी की मृत्यु-तिथि सन् 1635 ई० के लगभग बैठती है इसलिये यह भी अनुमान किया जा सकता है कि इनका जन्म सन् 1585 ई० के लगभग हुआ होगा. अतः उपलब्ध सामग्री के अनुसार इनका जीवन चरित्र इस प्रकार था-
श्री माधोसिंह भण्डारी का जन्म सन् 1585 ई० के लगभग वर्तमान टिहरी गढ़वाल जिले के मलेवा ग्राम में एक प्रतिष्ठित भरडारी परिवार में हुआ था यह गाँव कीर्तिनगर से दो मील नीचे अलकनन्दा के दाहिने किनारे पर स्थित है. एक प्रचलित पंवाड़े के अनुसार इनके पिता लखनपुर के निवासी प्रसिद्ध भड़ ‘सोरावारा कालो भण्डारी’ थे. उनके विषय में यह कथानक है कि महाराज मानशाड़ के समय में दिल्लीपति शहंशाह अकबर, सिर मौर के राजा मौलिचन्द और चम्पावतगढ़ के गुरु ज्ञानीचन्द ने मिलकर गढ़वाल नरेश से अनुरोध किया कि- तुम्हारे उत्तराखण्ड में तपोवन है, जहाँ ‘आज’ धान बोने से ‘कल’ तैयार हो जाते हैं; उसको गढ़वाल, कुमाऊँ, सिरमौर व दिल्ली में बराबर-बराबर बांट दिया जाय.” (यह ‘तपोवन’ अभी भी मुनी-की-रेती से एक मील उत्तर की ओर गंगा के किनारे स्थित है और धानों के लिये प्रसिद्ध है. लेकिन मेरी सम्मति में केवल इतने छोटे भूमिखण्ड के लिये चार राज्यों के बीच बंटवारे की माँग नहीं की जा सकती थी. सम्भवतया उनका इशारा वर्तमान देहरादून की सम्पूर्ण घाटी से रहा होगा.
खैर इस मामले को लेकर मतभेद पैदा हो गया. अन्य में दिल्ली से ‘मुगल’ व ‘पठान’ और कुमाऊँ से ‘कालु’ और ‘कत्युरा’ नाम के चार भड़ श्रीनगर भेजे गये कि जिसके भड़ जीतेंगे वह ‘तपोवन’ का स्वामी समझा जायेगा. इस मुसीबत के मौके पर राज दरबार को काला भंडारी की याद आई और वे बुलाये गये. उस अवसर पर उन्होंने ऐसी वीरता व बुद्धिमत्ता प्रदर्शित की कि दो भड़ों को तो नगर में ही पटक कर मार डाला और शेष दो भड़ डर के मारे स्वयं गंगाजी में डूब मरे. उस विजय पर सारे राज्य में हर्ष मनाया गया और श्री ‘सोणवारण कालो भंडारी’ को आदर-सम्मान के साथ एक बड़ा इलाक़ा जागीर में प्रदान किया गया.
इस प्रकार इनके कुल में ही वीरता और पराक्रम का वातावरण विद्यमान था. उसी वातावरण में पलकर इन्होंने अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा और युद्ध परिचालन की विद्या प्राप्त की और अनुमानतः जब महाराज महीपतिशाह सन् 1566 ई० के लगभग गद्दी पर बैठे उसके कुछ वर्षों के अन्दर ये श्रीनगर-दरबार की सेना में प्रविष्ट हो चुके थे.
(Madho Singh Bhandari)
महाराज महीपतिशाह एक अतुलनीय पराक्रमी राजा सिद्ध हुए. उनका प्रायः सारा समय क्षेत्र में ही बीता. पूर्व की सीमा पर कुमाऊँ नरेश राजा लक्ष्मीचन्द ने आठ बार हमले किये और प्रत्येक बार उनका जोरदार मुकाबला किया गया. उत्तर को तरफ से तिब्बतियों ने आक्रमण किया उन्हें भी करारा जवाब दिया गया. पश्चिम में गढ़वाल राज्य की सीमा सतलज नदी तक पहुँचाई गई. उन सब युद्धों में विजयी होने के कारण ही उन्हें “गर्वभंजन” के नाम से याद किया जाता है. कहना न होगा कि उन सब युद्धों में उनके दाहिने हाथ श्री माधोसिंह भण्डारी ही थे.
पूर्वी सीमा पर अनवरत गढ़वाल राज्य की रक्षा करने के अतिरिक्त उस काल की महत्वपूर्ण घटना तिब्बत से युद्ध है. नीती घाटी से पार तिब्बत में दापा एक प्रसिद्ध मण्डी है. उन दिनों वहाँ का सदर प्रायः प्रति वर्ष अपने दल-बल को लेकर हिमालय के इस पार आ जाता और पैनखंडा व दशौली के परगनों में लूटपाट मचाता लेकिन जब गढ़वाली सेना उसका पीछा करती तो वह भाग कर हिमालय के पार निकल जाता. उसे दंड देने के लिये महाराज ने स्वयं अपने नेतृत्व में सेना का संगठन किया और श्री माधोसिंह भंडारी को सहायक सेनाध्यक्ष के रूप में साथ लेकर नीतीघाटी की ओर चल दिये. इधर की सेना अभी हिमालय के दर्रे में प्रविष्ट ही हुई थी कि दापा के सरदार ने दूसरी ओर से सेना लाकर मार्ग अवरुद्ध कर दिया. ऐसे कठिन शीत के स्थान पर युद्ध छिड़ जाने से गढ़वाली सेना संकट में पड़ गई.
उन दिनों गढ़वाल के बाद क्षत्रियों में रोटी और भात दोनों एक ही समान वस्त्र उतार कर चौके में पकाने और खाने की प्रथा थी लेकिन कठिन शीत के कारण नीती दर्रे में ऐसा करना असम्भव सा हो गया. महाराज ने पहले तो कुछ और जातियों को ‘सरोला’ बना कर खाना पकाने वालों की संख्या बढ़ाई लेकिन इससे भी कार्य नहीं चला क्योंकि उनको भी वस्त्र उतारकर ही खाना पकाना पड़ता था. अन्त में श्री माधोसिंह भण्डारी के सुझाव पर उन्होंने यह घोषणा कर दो कि रोटी ‘शुचि’ समझी जाव और त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) बिना वस्त्र उतारे चौके से बाहर भी एक दूसरे के हाथ की पकी हुई रोटी खा लें. इस आज्ञा के निकलते ही सेना की कठिनाइयाँ कम हो गई. यह विश्वास है कि तभी से समस्त गढ़वाल में रोटी को ‘शुचि’ मानने की प्रथा चल पड़ी.
आखिर गढ़वाली सेना ने इस ज़ोर का आक्रमण किया कि तिब्बती सेना के पैर उखड़ गये और वह पीछे हटती हटती घाटी के पार तिब्बत के ढालू मैदान में पहुँच गई. उस विजय के फलस्वरूप दापाघाटी का किला और मन्दिर गढ़वाल राज्य में शामिल किये गये और उत्तरी सीमा तिब्बत में सतलज नदी तक नियत की गई.
इनके सुझाव पर महाराज महीपतिशाह शीघ्र ही मुख्य सेना के साथ दापाघाट से लौट आये लेकिन यहाँ के किले में दो क्वाल जनरलों के सेनापतित्य में कुछ सेना स्थायी रूप से यहीं नियुक्त कर दी गई. उनमें से एक जनरल का नाम श्री भीमसिंह बर्त्वाल था तिब्बत का जलवायु गढ़वाली सैनिकों के अनुकूल नहीं पड़ा अतः स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण कई सैनिक वापिस गढ़वाल लौट आये और कुछ यहीं मर गये लेकिन ये जनरल अपनी बची खुची सेना के साथ उस प्रान्त का शासन चलाते रहे. उधर दापा के भूतपूर्व तिब्बती सरदार के पुत्र राजधानी ल्हासा जा पहुँचे और दलाई लामा से सहायता की प्रार्थना की. उन्होंने एक बड़ी सेना उनके साथ कर दी, जिसे लेकर उन्होंने अकस्मात दापागढ़ पर हमला बोल दिया. इधर उन दो बर्त्वाल जनरलों के पास बहुत कम सेना बची हुई थी लेकिन फिर भी वे बड़ी वीरता के साथ लड़े और वहीं अपने सब साथियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए. उनके साहस और वीरता की मित्रों ही ने नहीं, बल्कि शत्रुओं ने भी प्रशंसा की. कहते हैं कि उन दोनों वीर गढ़वाली जनरलों की दो तलवारें अभी तक दापाघाट के बौद्ध-मन्दिर में मौजूद है, जहाँ भगवान बुद्ध की मूर्ति के साथ-साथ प्रति दिन उनकी भी पूजा की जाती है. शत्रु द्वारा वीरता की पहिचान और पूजा का इससे अच्छा उदाहरण शायद ही अन्यत्र कहीं मिलेगा.
पूर्वी और उत्तरी सीमाओं की वीरतापूर्ण रक्षा के अतिरिक्त श्री माधोसिंह भंडारी को एक विशेष महत्वपूर्ण कार्य पर नियुक्त किया गया. इन्हें आदेश दिया गया कि ये गढ़वाल राज्य की उत्तरी और पश्चिमी सीमायें निश्चित करें और उनकी सुरक्षा का प्रबन्ध करें. इस कार्य के लिये इन्हें सेना की एक टुकड़ी दी गई थी और आदेश दिया गया था कि जितना आगे तक ये सीमा को बढ़ा सकें, बढ़ायें. इसका स्पष्ट मन्तव्य यह था कि आवश्यकता पड़ने पर ये विरोधी स्थानों पर युद्ध करके क़ब्ज़ा करें और तब वहाँ सीमा की स्थापना करें और कहना न होगा कि इन्होंने इस दिशा में यथेष्ट सफलता प्राप्त की. इनके द्वारा बनवाए हुए सीमा-सम्बन्धी चबूतरे अभी भी हिमालय की चोटियों और घाटियों में यत्र-तत्र दिखाई पढ़ते हैं.
एक प्रचलित पंवाड़े के अनुसार, उसी मुहिम में इन्होंने ज्वालापुर (हरिद्वार) में एक मजबूत किला बनवाया था तथा सिरमौर तक गढ़वाल राज्य की सीमा बढ़ाई थी. इन्हीं सेवाओं के उपलक्ष्य में इन्हें महाराज महीपतिशाह ने “मारकनाथ का डाँडा, मगरा का सेरा, कालौं की कोटी, लालुड़ीगढ़ और जाखीगढ़ ( बधाण)” की जागीरें प्रदान की तथा एक ताम्रपत्र भी दिया था .
अनुमानतः सन् 1635 ई० की बात है. सीमा की स्थापना करते हुए ये पश्चिमोत्तर दिशा में छोटी चीन पहुँचे. यह स्थान सतलज की घाटी में तिब्बत की सीमा से मिला हुआ है, और आज कल हिमांचल प्रदेश के महासू जिले में सम्मिलित है. कहते हैं कि कई वर्षों तक कठिन शीत में कार्य करने के कारण इनका स्वास्थ्य बिगड़ चुका था और यहाँ पहुँच कर तो रोग ने इन्हें बुरी तरह घेर लिया. जब इन्होंने देखा कि इनका अन्त समय समीप आ गया है, तो इन्होंने अपने साथियों से कहा- “खबरदार, मेरे मरने की खबर किसी पर प्रकट न करना, अन्यथा तुम लोग यहाँ विरोधियों के बीच हो, वे चारों ओर से आकर तुम्हें समाप्त कर देंगे. और तब महाराज तक कौन सूचना पहुँचायेगा? इसलिये तुम लड़ते रहना और धीरे-धीरे पीछे हटते आना, ताकि शत्रु एकबारगी हमला न कर सके. मेरी लाश को तेल में भूनकर कपड़े से लपेट देना और एक बक्स में बन्द कर के हरिद्वार लेते जाना वहीं मेरा दाह-संस्कार करना .”
साथियों ने इसी आदेश के अनुसार कार्य किया हरिद्वार लौटकर इनके शव की अन्त्येष्टि किया सम्पन्न की और फिर श्रीनगर पहुँचकर सारा समाचार सुनाया. इस दुर्घटना से महाराज को बहुत दुख हुआ और उनके आदेशानुसार सारे राज्य में शोक मनाया गया.
मलेथा की गूल का निर्माण
इन वीर पुरुष का स्थायी स्मारक मलेथा की गूल के रूप में अभी तक विद्यमान है. इस गूल को निकालने के बारे में कई जनश्रुतियाँ हैं. पहली जनश्रुति के अनुसार-
इनकी दो पत्नियां थीं. उन्हें इन्होंने दो अलग-अलग गांवों में रखा हुआ था. एक पत्नी के गांव में खूब ‘सेरा’ था और धान आदि की फसलें अच्छी हुआ करती थीं. दूसरी मलेथा में रहा करती थी. उन दिनों वहां सिंचाई का प्रबन्ध नहीं था और इसलिये समतल होते हुए भी वहाँ साधारण खेती ही हो पाती थी. कहते हैं कि एक बार वे बहुत दिनों के बाद मलेथा आए तो पत्नी ने ताना दिया कि- मेरे यहाँ ‘सेरा’ नहीं, बासमती का भात नहीं इसीलिये तो तुम मेरी सौत के पास ही पड़े रहते हो. तुम यहां क्यों आने लगे? वह बात इन्हें चुभ गई और मलेथा में गूल लाकर तथा वहाँ ‘सेरा’ बनाकर इन्होंने अपनी प्रतिज्ञा पूरी की.
एक अन्य पंवाड़े के अनुसार- जब इनके वीर पिता सोग माणकाला भंडारी की वीरता के कारण तपोवन का सेरा गढ़वाल राज्य की संरक्षकता से निकल जाने से बच गया, तब दरबार में यह विचार किया गया कि तपोवन तो राज्य के एक कोने पर मैदानों के मिलान पर स्थित है अतः वहां हमेशा शत्रु से खतरा है इसलिये राजधानी के समीप ही वैसा उपजाऊ ‘सेरा’ तैयार करने की कोशिश की जाय. श्री काला भण्डारी के तीन पुत्र थे- माधोसिंह, मदन सिंह और गजेसिंह. श्री माधोसिंह ने यह भार स्वीकार किया और सारे राज्य का निरीक्षण करने के बाद मलेथा को छांटा. यहां अपने भाइयों की सहायता और अपने बुद्धि बल से इन्होंने चन्द्रभागा की नहर निकाली व हाथी-पर-मारा-छेंड़ा तैयार किया. इस प्रकार मलेथा के चौरस ऊसर मैदान को इन्होंने तपोवन के समान ही उर्वर बनाकर दिखा दिया.
(Madho Singh Bhandari)
एक और जनश्रुति इस प्रकार है- श्री माधोसिंह गढ़-नरेश के दरबार में एक साधारण कर्मचारी थे लेकिन समय के बहुत पाबंद थे. दीवान जी अक्सर देरी से कचहरी आया करते थे. एक दिन महाराज ने प्रश्न किया- तुम देरी से क्यों आते हो, जबकि तुम्हारा ही कर्मचारी माधोसिंह ठीक समय पर आ जाता है?” ‘दीवान जी ने अपने आपको बचाने के लिए कहा- माधोसिंह के गांव में सिर्फ मंड़वा, झंगोरा, गहथ जैसे मोटे अनाज होते हैं, जिन्हें पकाने में देर नहीं लगती. लेकिन मेरे गांव में चावल, गेहूँ आदि श्रेष्ठ अनाज होते हैं उन्हें पकाने खाने में देरी हो ही जाया करती है. इस उत्तर से दीवान जी तो बच गये लेकिन स्वाभिमानी माधोसिंह के हृदय में यह बात शूल की तरह चुभ गई. इन्होंने कुछ दिनों की छुट्टी ली और अपने गाँव मलेथा जाकर वह गूल निकाली. जब ये दरबार में लौटे और महाराज को सारा विवरण ज्ञात हुआ तो वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने इन्हें ही अपना दीवान नियुक्त किया तथा प्रधान सेनापति का पद भी इनके सुपुर्द किया.
खैर कारण जो कुछ भी रहा हो, लेकिन मलेथा की गूल एक देखने योग्य वस्तु है. मलेथा गाँव के दक्षिण-पश्चिम की ओर ऊपर से पहाड़ की एक ‘धार’ नीचे अलकनन्दा तक चली गई है. और उसके दूसरी ओर एक पर्वतीय नदी बहकर नीचे अलकनन्दा में मिल जाती है. श्री माधोसिंह ने सोचा कि यदि किसी प्रकार बीच की ‘धार’ में सुरंग बनाकर उस नदी का पानी इस ओर ले जाया जाय, तो मलेथा में सिंचाई की जा सकती है. आखिर कई दिनों के प्रयत्न के बाद व मिस्त्रियों को स्वयं सहायता देकर व तरकीब बताकर ये उस कार्य में सफल हुए. इस सुरंग की लम्बाई अन्दर ही अन्दर लगभग एक फलांग है साथ ही ऊँचाई व चौड़ाई इतनी है कि कमर की सीध तक सिर झुका कर आर-पार जाया जा सकता है. उसके ऊपरी भाग में मजबूत पत्थरों की छत बनाई गई है और लोहे की कीलें गाड़कर उसे सुदृढ़ किया गया है. इस सुरंग के रास्ते लगभग पांच ‘घट’ पानी हर समय मलेथा की ओर आता रहता है और उसी के कारण मलेथा का मैदान एक उपजाऊ ‘सेरा’ बन गया है. श्री माधोसिंह भण्डारी के बल पौरुप और बुद्धिचातुर्य के कारण यह गढ़वाल भर के प्रसिद्ध ‘सेरों’ में से एक है यहाँ का तम्बाकू दोनों गढ़वालों में बिकता है.
(Madho Singh Bhandari)
भक्त दर्शन की किताब गढ़वाल की दिवंगत विभूतियाँ से साभार
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