सर्वप्रथम पाली पछाऊँ शब्द की व्युत्पत्ति कत्यूरी शासन काल में हुई. उत्तराखण्ड में कत्यूरी शासनकाल के दौरान कत्यूरी शासकों की एक शाखा यहाँ आकर बस गई और लखनपुर कोट अपनी राजधानी बनाई. इसकी स्थापना के विषय में विद्वानों के अलग-अलग मत हैं. जहाँ बद्रीदत्त पाण्डे जी का मानना है कि पाली पछाऊँ में कत्यूरी शासकों का आगमन लगभग छठी शताब्दी में हुआ, वहीं एटकिन्सन महोदय कहते हैं कि लखनपुर अथवा वैराट की स्थापना की अवधि 13 वीं शताब्दी के आस-पास रही होगी. समय-समय पर चंद, गोरखा एवं ब्रिटिश राजनीतिक शक्तियाँ उत्तराखण्ड पर शासन करती रहीं, परन्तु पाली पछाऊँ किसी न किसी रूप में महत्वपूर्ण बना रहा. अनेक इतिहासकारों ने यहाँ के राजनीतिक इतिहास को लिपिबद्ध किया है, किन्तु सर्वसाधारण अधिकांस कलमों से अछूता ही रहा. (People of Pali Pachaun)
पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण पाली पछाऊँ के लोगों का जीवन चक्र व घर-गृहस्थी, कृषि एवं पशु-पालन के इर्द-गिर्द ही घूमा करती थी. लोगों में औपचारिक शिक्षा का सर्वथा अभाव था. इसके लिए न तो उनके पास धन था, न ही समय. सामान्यतया उच्च वर्गीय ब्राह्मण लोग ही शिक्षा ग्रहण करते थे तथा राजदरबारों में पुरोहित अथवा लेखाकारों के रूप में कार्य किया करते थे. आम लोग कृषि, पशुपालन अथवा स्थानीय स्तर के उद्योगों से ही अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर जीवनयापन कर लेते थे. अधिकांश लोग अपने पारम्परिक व्यवसायों को ही अपनाते थे, इसलिए उन्हें औपचारिक शिक्षा की अधिक आवश्यकता भी महसूस नहीं होती थी.
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प्राचीनकाल में वर्तमान की भांति प्रकाश की समुचित व्यवस्था नहीं थी. स्थानीय संसाधनों से ही रात्रि में रोशनी का प्रबन्ध किया जाता था. ईन (एरंड) की फलियों को ओखल में कूट-पीसकर उसका तेल निकाला जाता था, इससे रात्रि में दिये जलाकर रोशनी की जाती थी. कालान्तर में मिट्टी का तेल (केरोसीन) प्रचलन में आ जाने से उसे लैम्प में डालकर घर प्रकाशित किए जाने लगे. माचिस का प्रयोग इस विहंगम पर्वतीय भू-भाग पर कुछ समय पूर्व ही प्रारम्भ हुआ है, इससे पूर्व झुल (एक प्रकार के जंगली पौधे की सूखी पत्तियां) को राख के साथ मसल कर मुलायम बना संचित कर लिया जाता था, उसे ड्यासी (सफेद पत्थर) पर रखकर अगेले (एक विशेष प्रकार का लोहे का टुकड़ा) से उस पर चोट की जाती थी, उस प्रहार से पत्थर से जो चिंगारी निकलती थी, उससे झुल आग पकड़ लेती थी, जो काफी देर तक टिकी रहती थी. समस्त ग्रामवासी इसी विधि से एक स्थान पर आग जलाकर अपने-अपने घरों को ले जाया करते थे. आग जलाने के लिए सबसे अधिक छिलुक (चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी) का प्रयोग होता था, जिस क्षेत्र में चीड़ के पेड़ नहीं होते थे, वहाँ भीमल के पेड़ की पतली-पतली टहनियों को दो-तीन सप्ताह के लिए पानी के पोखरों में भीगने के लिए रख दिया जाता था, तदुपरान्त् टहनियों से रेशे अलग कर लिए जाते थे, उन रेशों से रस्सियों का निर्माण किया जाता था तथा टहनियों को चूल्हे में आग जलाने तथा मशालों के रूप में प्रयोग में लाया जाता था. आग मांगने की प्रथा बहुतायत में प्रचलित थी. माचिस न होने के कारण आग को बुझने नहीं दिया जाता था. सगड़ (अंगेठी) में कुछ कोयलों को राख के नीचे दबा दिया जाता था और आवश्यकता पड़ने पर उसमें से आग निकाल ली जाती थी.
पर्वतीय अंचलों में कपड़े धोने के लिए साबुन का प्रयोग आजादी के कुछ दशक बाद प्रारम्भ हुआ. पूर्व में इस कार्य के लिए छोइ (छने हुए राख को पानी में देर तक उबालने की प्रक्रिया) का प्रयोग किया जाता था. उबले हुए राख के पानी के गुनगुने होने पर उसमें रात भर कपड़ों को भिगो दिया जाता था. सुबह होने पर भिगोये हुए कपड़ों को सुविधानुसार गाड़, गधेरे, नौले, धारे इत्यादि पर जाकर झुंगर के भूसे से खूब रगड़-रगड़कर साफ किया जाता और स्वच्छ पानी से छला कर आस-पास ही झाड़ियों या पत्थरों में सुखाने के लिए छोड़ दिया जाता. दिन भर के काम से निपटकर शाम को कपड़े सूखने के बाद ही घर ले जाये जाते थे. आमतौर पर कपड़े 10-15 दिन के अंतराल में धोए जाते थे. इसी प्रकार बाल धोने के लिए भी भीमल के रेशे और रीठे का प्रयोग होता था.
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भारतवर्ष के अन्य भागों की भांति ही पाली पछाऊँ के समाज में भी छुआछूत की जड़ें काफी मजबूत रही हैं. गाँव में ब्राह्मण व क्षत्रिय जातियों तथा शूद्रों की बस्तियाँ अलग-अलग हुआ करती थी. आमतौर पर सवर्णों के लिए शूद्रों का छुआ अन्न-जल वर्जित होता था, परन्तु शूद्र वर्ग में सवर्णों के प्रति कोई द्वेषभाव नहीं होता था. वे समाज के नियमों को अपना कर्तव्य समझकर उनका पालन करते थे. सभी मिलजुल कर प्रेम से रहते थे और अपने-अपने कार्यों के प्रति पूर्ण निष्ठावान रहते थे. इसी प्रकार रजस्वला नारी को भी अछूत माना जाता था. उसका घर के किसी भी सदस्य अथवा वस्तु को छूना वर्जित था. दूध पीने वाले शिशुओं को भी वस्त्र उतार कर उसे दिया जाता था तथा लेते समय उन पर दूर से ही गौमूत्र छिड़ककर वापस लिया जाता था. जिस मार्ग से वह आती-जाती थी, उस पर भी शुद्धिकरण हेतु गौमूत्र का छिड़काव किया जाता था. पांचवें दिन के स्नान के पश्चात् ही उसे गृहप्रवेश तथा खाद्य वस्तुओं को छूने की अनुमति दी जाती थी. प्रसूता नारी के लिए भी अनेक विधि-निषेध थे. उसे भी नवजात शिशु के नामकरण तक रजस्वला की भांति ही अछूत माना जाता था. कुमाऊनी भाषा में उसे जद्गाली/जद्ग्यायी कहा जाता था. जब तक प्रसूता द्वारा शिशु को दुग्धपान कराया जाता था, तब तक उसे भोजन सम्बन्धी अनेक प्रकार के परिवर्जन (परहेज) करने पड़ते थे. अधिकांशतः उसे मात्र नमक और रोटी ही खाने को दी जाती थी. चिकनाई युक्त कोई भी खाना वर्जित होता था. इसी प्रकार मृतक क्रियाकर्म करने वाले व्यक्तियों के स्पर्श का भी परिहार किया जाता था. उपरोक्त वर्णित तथ्यों के अनुरूप ही मानव जीवन का प्रत्येक पक्ष निश्चित नियमों और मान्यताओं पर आधारित होता था. प्रत्येक लोकविश्वास का कठोरता से पालन करवाने के लिए उसे शुभाशुभ फलादेशों से जोड़ दिया गया ताकि कोई उनका उल्लंघन न करें.
रोजमर्रा के कार्यों में स्त्री-पुरुष सभी का समान रूप से सहयोग रहता था, परन्तु अधिक शारीरिक श्रम वाले कार्यों की जिम्मेदारी पुरुष वर्ग पर ही होती थी, जैसे कि आरे, कुल्हाड़े से सम्बन्धित कार्य- इमारती लकड़ी तैयार करना, पेड़ काटना, उन्हें फाड़कर बालन के लिए लकड़ी बनाना, घरों के पाखों (छतों) के लिए पाथर (स्लेटों) की व्यवस्था करना, हल चलाना, दूर-दराज के स्थानों से भारी बोझ वाला सामान लाना, घराटों (पनचक्कियों) से आटा पिसवा कर लाना इत्यादि. इसके साथ ही शीत प्रधान क्षेत्रों में चारागाहों की कमी के चलते पुरुष वर्ग ही पशुचारण के लिए प्रव्रजन करते थे. वैसे तो कृषि कार्यों जैसे बुवाई, सिंचाई, रोपाई, निराई, गुड़ाई, कटाई, मड़ाई, भण्डारण आदि में तथा पशुचारण कार्यों जैसे पशुओं को चराने ले जाना, घास कटाई के बाद सूखे घास के लुट अथवा थुपुड़ लगाना, पशुओं को बांधने व घास के गट्ठर लाने के लिए ज्योड़े (रस्सियां) बटना, खरक बनाना इत्यादि कार्यों में पुरुष महिलाओं का बराबर हाथ बंटाते थे, किन्तु कुमाऊनी लोकजीवन में कृषि कार्यों से लेकर गृहस्थी व पशुपालन आदि सभी कार्यों में पुरुषवर्ग की अपेक्षा महिलाओं पर अधिक कार्यभार था. पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खेतों में काम करना हो अथवा पहाड़ की चोटी पर चढ़कर घास, लकड़ी इत्यादि काटना तथा उन्हें सिर पर या पीठ पर लाद कर लाना, किसी भी कार्य में वे पुरुषों से पीछे नहीं रहीं. इसी क्रम में पाली पछाऊँ के लोकजीवन के प्रत्येक पक्ष को पूर्णता प्रदान करने वाली पर्वत पुत्री की दिनचर्या का उल्लेख किये बिना प्रस्तुत विवरण अधूरा है.
पर्वतीय नारी की दिनचर्या
पर्वतीय नारी की दिनचर्या इतनी व्यस्त होती थी कि प्रातःकाल बिस्तर से उठने से लेकर देर रात्रि बिस्तर में जाने तक उसके पास सांस लेने का भी अवकाश नहीं होता था. परिवार के सभी सदस्यों के भोजन की व्यवस्था से लेकर उनके सभी छोटे-बड़े कार्यों की जिम्मेदारी उसी पर होती थी. इस पर्वत पुत्री के दैनिन्दिन कार्यों की सूची कुछ इस प्रकार हुआ करती थी- सुबह दिशा खुलने से पूर्व (ब्रह्म मूहूर्त में) उठकर धारे-नौले से पानी लाना, खरिक (गौशाला) जाकर गाय-भैंस दुहना, सबके लिए कल्यो (नाश्ता) इत्यादि की व्यवस्था करना, सभी प्रकार के गृहकार्यों का निस्तारण कर पशुओं के खरिक की साफ-सफाई, उनके लिए चारे की व्यवस्था करने के लिए धुर (जंगल) जाना, जहाँ से वे चारे के लिए घास व हरी पत्तियों के अतिरिक्त पशुओं के बिछावन की भी व्यवस्था किया करती थी. कभी-कभी लकड़ी की व्यवस्था भी वहीं से की जाती थी.
उसके बाद घर आकर मध्याहन भोजन का प्रबन्ध, कपड़े-बर्तनों की साफ-सफाई इत्यादि सभी कार्यों को निपटाने में वह इतनी व्यस्त रहती कि स्वयं भोजन करने तक का समय उसके पास न होता. इस सबके बीच पुनः उसका कृषिकार्य के लिए खेत में जाने का समय हो जाता. वह गोबर की डलिया सिर पर रख, बच्चों का बचा-कुचा भोजन खाते-खाते ही अपनी कर्मस्थली की ओर चल पड़ती. सांयकाल तक खेतों में काम करने के पश्चात् वहीं से खरिक जाकर दुधारू पशुओं को दुहना, उन्हें रात्रि के लिए चारा देकर घर पहुँचना, परिवार को रात्रि का भोजन करा नित्यकर्म से निवृत्त हो, रात्रि में ही अगले दिन के लिए धान, मंडुआ, झुंगर इत्यादि को ओखल में कूटना तथा जानहर (पत्थर निर्मित हाथ से चलने वाली चक्की) में पीसकर आटा निकालना इत्यादि भी उसके नितप्रति कार्यों में शामिल हुआ करता था. इस प्रकार दिन भर की थका देने वाली दिनचर्या की समाप्ति पर ही उसे आराम के कुछ क्षण प्राप्त हो पाते थे. (People of Pali Pachaun)
मूल रूप से मासी, चौखुटिया की रहने वाली भावना जुयाल हाल-फिलहाल राजकीय इंटर कॉलेज, पटलगाँव में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास की शोध छात्रा भी.
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