पहाड़ों में एक समय ऐसा भी था जब अपनी बेटी के लिये घर देखने आया पिता टेढ़ी नजर से आंगन में बंधे बैल की जोड़ियों पर जरुर नज़र मारता था. उसके हष्ट-पुष्ट शरीर से वह परिवार की आर्थिक स्थिति और अपनी बेटी के भविष्य का आंकलन भर कर लेता था. Life of Oxen in the Mountains
आज के समय में पैदा होते ही बैल को अपना जीवन बचाना मुश्किल है और किसी तरह बच भी गया तो जीना मुश्किल है. घरों में बछड़ा पैदा होते ही उसके किसी तरह मरने की कामना कर दी जाती है.
सालों पहले तक बैल किसी परिवार के धन-धान्य एवं वैभव का प्रतीक माना जाता था. बछड़े के पैदा होने के ग्यारहवें दिन उत्सव का माहौल होता था. घर में खीर बना कर या मठ्ठे में चावल डालकर गांव के जो भी व्यक्ति घर आता उसे खिलाया जाता था. इसी दिन बैल का नाम भी रखा जाता जो पूरी जिन्दगी भर उसका साथ रहता. यूं ही तो गांव के बच्चों का पहला दोस्त उनके आंगन का बैल ही नहीं होता था.
उसके रंग, आकार, मां आदि के आधार पर उसके एक से एक नाम हुआ करते. कोई कलवा, कोई झबरवा, कोई झल्लू, तो कोई हीरा. ये नाम भी अक्सर बच्चे ही रखा करते.
उत्तराखंड के समाज में तो बल्दिया एकादशी जैसा त्योहार मनाया जाता था. जिस दिन बैलों को हल जोतने से मुक्ति मिलती है. बैलों को बढ़िया भोजन करवाया जाता है. उनके लिए विशेष तौर पर उड़द की खिचड़ी बनायी जाती है. बोलों के सींगों पर तेल की मालिश की जाती है और उन्हें फूलों की माला पहनायी जाती है. Life of Oxen in the Mountains
जीते जी तो बैल अपने मालिक के काम आता ही है लेकिन उसके बाद भी उसकी खाल का प्रयोग पहाड़ों में खूब किया जाता था. पहाड़ के प्रमुख वाद्ययंत्रों को बनाने में बैल की खाल ही उपयोग में लाई जाती थी.
आज जैसे ही बछड़ा पैदा होता है उसे मारने के लिये या तो भूखा छोड़ दिया जाता है या बहुत ज्यादा दूध या छाछ पिला कर मार दिया जाता है. अगर किसी तरह वह बच भी जाता है तो उसके किसी चट्टान से गिरने की ही कामना की जाती है. पहाड़ों में खेती के लिये छोटे ट्रेक्टरों के प्रवेश ने बैलों की स्थिति और भी दयनीय कर दी है. पहाड़ों में जन्मा श्रमशक्ति का प्रतीक बैल, कभी सौभाग्यशाली माना जाता था अब अपने ही जीवन के लिये लड़ता है. Life of Oxen in the Mountains
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बहुत ही सुन्दर और सत्य रचना है aapki