उत्तराखंड में भू-कानून की विसंगतियों को दूर करने के लिए उच्च स्तरीय समिति का गठन “भू सम्पदा विनियमन एवं विकास नियमावली” से संबंधित है. भूमि के जटिल मामलों को सुलझाने के लिए समिति ने अभी तक किये गए प्रयासों का सुविचारित अध्ययन करने के साथ जो मापदंड अभी तक अपनाये गए हैं उनका अनुभव सिद्ध अवलोकन करते हुए भूमि कानून की नई नीति सामने आनी है.
(Land law in Uttarakhand Report)
उत्तराखंड भू सम्पदा नियामक प्राधिकरण (रेरा) ने समूचे परिदृश्य को ध्यान में रख जो सुझाव प्रस्तावित किये हैं उनसे यह संकेत मिलता है कि अभी तक लागू भूमि कानूनों में व्यापक फेर-बदल होने चाहिए. ऐसे में कई पूर्ववर्ती नियमों में संशोधन तय है. नये बदले हुए भूमि कानून से उत्तराखंड से बाहर के लोगों द्वारा यहाँ जमीन खरीदना काफी कठिन हो जायेगा. समिति द्वारा विचारार्थ ऐसे कई सुझाव इस दिशा में भू- कानूनों के कठोर होने की संभावना भी जगाते हैं.
भू-सम्पदा नियामक प्राधिकरण द्वारा सिफारिश की गई है कि सभी पहाड़ी जिलों में ग्राम सभा स्तर पर एक समिति बनाई जाये. खरीद- फरोख्त से पहले जमीन खरीदने वाला, जमीन खरीदने के प्रस्ताव को इस समिति के सामने रखे. ग्राम सभा की सीमा के भीतर जमीन खरीदने वाला बाहरी व्यक्ति ग्राम सभा के स्तर पर गठित समिति से अनापत्ति प्रमाण पत्र ले जिसके बिना भूमि को क्रय करना संभव न होगा.
उत्तराखंड में भूमि की अनियंत्रित खरीद-बेच ने कई समस्याओं को जन्म दिया है. यहाँ कृषि में बोया गया वास्तविक क्षेत्रफल मात्र 14%है. ऊसर व कृषि अयोग्य भूमि 5.27 %, कृषि के अलावा अन्य उपयोग की भूमि 2.97% व कृषि बेकार भूमि 5.80% है. साथ ही यहाँ स्थाई चारा गाह व अन्य चराई भूमि 4.09% तथा अन्य वृक्षों, झाड़ियों, बागों का क्षेत्र 3.88% है वर्तमान परती भूमि 0.20% व अन्य परती भूमि 1.20% है.
राज्य बनने के बाद से जमीन की कीमतें बेहिसाब चढ़ी हैं तो कृषि भूमि का गैर कृषि कार्यों में उपयोग बेरोकटोक बढ़ा. इस समस्या को सुलझाने के लिए सरकार ने 12 सितम्बर 2003 को एक अध्यादेश जारी किया था. यह हिमाचल प्रदेश में लागू कानून की भांति था. कुछ वर्गों के द्वारा इस कानून का विरोध होने पर विधानसभा में संशोधित अधिनियम का प्रारूप रखा गया. विधान सभा ने एक उपसमिति बनाई जिसकी संस्तुतियों के आधार पर उत्तराँचल अनुकूलन एवं उपान्तरण आदेश, 2001(संशोधन) अधिनियम, 2003 पारित किया गया.
पूर्ववत उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में भूमि बंदोबस्त 1960 से 1964 की समय अवधि में किया गया था. चालीस वर्षों तक चले बंदोबस्त का समापन वर्ष 2004 में हुआ. तब उत्तराखंड सरकार ने नया भू आदेश जारी किया. पहले सरकार व आम जनता के बीच भूमि से सम्बंधित लेन-देन या लिखा-पढ़ी बंदोबस्त कही जाती थी. इसमें हर गांव की पूरी जानकारी, जमीन की किस्म, नाप-बेनाप जमीन, जमीन से प्राप्त उपज के साथ उसके हिस्सेदार, उसकी सीमा व सिरतान, आसामी तथा खायकर का विवरण दर्ज होता रहा. यह सारी जानकारी, विवरण और सूचनाएं जहां दर्ज होतीं उसे ‘फांट’ कहा जाता. भूमि के वर्गीकरण के आधार पर मालगुजारी तय होती. अपने गांव से मालगुजार वसूली कर पटवारी को देता. पटवारी इसे सरकारी खजाने में जमा करता. सरकारी आगम का यह मुख्य भाग होता.
कुमाऊं और गढ़वाल में जमीन के बंदोबस्त का आरम्भ 1815-16 में गार्डनर ने कुमाऊं से शुरू करवाया. ट्रेल ने 1816 में गढ़वाल में बंदोबस्त करवाया. ट्रेल ने कुमाऊँ में 1817, 1820, 1823, 1828 व 1833 में बंदोबस्त करवाया तो बैरन ने 1840 में गढ़वाल तथा 1844 में कुमाऊं में बंदोबस्त करवाया. इसी तरह बैकेट ने 1863 में गढ़वाल का तो बैकेट और रामजे ने कुमाऊं में बंदोबस्त करवाया. 1893 में फिर गढ़वाल का बंदोबस्त पौ के द्वारा व 1928 में इबटसन द्वारा किया गया. 1899 में कुमाऊं का बंदोबस्त गूज ने करवाया. इसप्रकार 1815 से 1928 की समय अवधि में ग्यारह बंदोबस्त ब्रिटिश सरकार ने करवाये थे. तदन्तर उत्तर प्रदेश भू राजस्व अधिनियम, 1901 में प्रदेश में मालगुजारी और राजस्व अधिकारियों के अधिकार वर्णित किए गए. उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन विनाश व भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 उत्तराँचल हेतु 2003, 2004 व 2005 में संशोधित कर लागू किया गया. इस अधिनियम का अनुकूलन एवं उपान्तरण उत्तराखंड में 2006 व 2007 में संशोधित किया गया. इस बीच, “कुमाऊं एवं उत्तराखंड जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था कानून 1960” सम्पूर्ण कुमाऊं एवम गढ़वाल मण्डल में लागू रहा लेकिन इसमें ऐसे कुछ इलाके शामिल नहीं हैं, जिनमें “उत्तरप्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था कानून 1950” लागू था. इसके साथ ही जिला नैनीताल के तराई और भावर गवर्नमेंट इस्टेट्स व नैनीताल जिले में तराई और भावर उप-मण्डल के भावर गांव भी शामिल न थे.
कुमाऊं व उत्तराखंड जमींदारी विनाश व भूमि व्यवस्था अधिनियम 1965 की विभिन्न धाराओं के अंतर्गत भू राजस्व हेतु 30 कूजा फॉर्म निर्धारित किये गए थे जिसमें अनुकूलन व उपान्तरण आदेश अधिनियमों व नियमावली के अंतर्गत वादों की सुनवाई व उन पर निर्णय लिया जाता है.
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उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के दूरस्थ व दुर्गम होने के साथ अंतरसंरचना की दुर्बलता को ध्यान में रख जनता को अधिक सुविधा देने के उद्देश्य से उत्तराखंड सरकार ने 2003-04 में 29 नई तहसीलों व 06 नई उप तहसीलों को खोला गया जिससे ग्रामीण इलाकों के लोगों को अपनी भूमि सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाने में सुविधा रहे. पर्वतीय इलाके में अधिकांशतः परिवारों के खेत एक ही स्थान पर न हो कर दूर-दूर बिखरे व अलग-अलग रहते हैं जिससे पहाड़ में खेती करना अधिक श्रम साध्य हो जाता है. इस बात को ध्यान में रख सरकार द्वारा वर्ष 2004 में भूमि सुधार परिषद बनाई गई जिसका उद्देश्य ग्रामीण खेतिहरों को स्वेच्छा से चकबंदी की ओर प्रेरित करना था. इसके अध्यक्ष अल्मोड़ा जिले के सगनेटी गांव के पूरन सिंह डंगवाल बनाए गए जिन्हें राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त था.
2007 में चुनाव होने के बाद नई सरकार आई तो परिषद भी कार्यशील नहीं रह पाई. नई सरकार द्वारा नया भू-आदेश पारित किया गया जिसके अनुसार राज्य के बाहर का कोई भी ऐसा नागरिक जिसके पास उत्तराखंड में अचल संपत्ति न हो तथा वह खातेदार न हो केवल 250 वर्ग मीटर भूमि क्रय करने का पात्र होगा. स्वयं या अपने परिवार के आवास हेतु 250 वर्ग मीटर से अधिक भूमि क्रय करने के लिए उसे शासन से अनुमति लेनी होगी.
भू-कानून समिति चाहती है कि उत्तराखंड में अंतर संरचना के विकास हेतु किये जा रहे विनियोग को गतिशील करने के साथ उद्योगों की स्थापना व अन्य विकास परियोजनाओं के लिए जो भूमि जरुरी है उसे ध्यान में रख नियमों में आवश्यक संशोधन किये जाएं. इसके साथ ही अभी तक चले आ रहे भू कानून की कमजोरियों का फायदा उठा जमीन की व्यापक खरीद फरोख्त का जो सिलसिला है उस पर प्रभावी अंकुश लगे.
उत्तराखंड में भू-कानून संशोधन की प्राथमिक रपट के पीछे मुख्यतः जिन मांगों को ध्यान में रखा गया, उसमें उत्तराखंड में प्रदेश से बाहर के निवासियों द्वारा जमीन क्रय करने पर रोक लगा कर संरक्षण देना सबसे महत्वपूर्ण है. जमीन खरीदने का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है. अधिकांश पर्यटक स्थलों की जमीन को खरीद कर उन पर आलीशान रिसोर्ट एवं आवास बनाए जा चुके हैं. प्रति नाली के भाव आसमान चढ़े होने व मनमुताबिक भुगतान दे जमीन हड़पने वाली प्रवृति को लगातार बल इस कारण भी मिला कि राज्य सरकार कभी भी स्थायित्व देने वाले भूमि कानूनों के पक्ष में नहीं रही और अप्रत्यक्ष रूप से बाहर से आये भू स्वामियों व उद्योगपतियों को कई तरह के फायदे व प्रलोभन देती रही.
बेहतर अंतरसंरचना वाले उत्तराखंड के पहाड़ों में बाहर से आये भूमिपतियों द्वारा मुंहमांगी क़ीमतों में जमीन खरीदी गई. इसमें कृषि भूमि भी रही. सरकार की ओर से उद्योगपतियों को अलग अलग तरीके से भूमि भी आवंटित हुई. अधिकांश दशाओं में जैसे ही सरकार द्वारा प्रदत्त सुविधाऐं समाप्त हुईं तो उद्योगपति भी चलते बने. शहर व कसबों के साथ गावों में भी गांव वालों ने अपनी जमीन बेची और नाटकीय रूप से वह अपनी ही जमीन पर चौकीदार बने रखवाली करते नजर आए.साहस, उपक्रम और नवप्रवर्तन की सोच के अभाव से पहाड़ के कई भू स्वामियों ने खेती-किसानी,पशु,फल व सब्जी मसाले के उत्पादन में खटने से बेहतर अपनी जमीन को तुरत-फुरत बेच नकदी मिलने के विकल्प को बेहतर माना.
उत्तराखंड बनने के बाद भू-कानून के कमजोर पहलुओं का लाभ उठा बड़े पैमाने पर जमीन की खरीद फरोख्त लगातार होती रही. इन घटनाओं की पुनरावृति होने पर बार-बार यह मांग भी सरकार के आगे रखी गई कि उत्तराखंड में हिमाचल की तरह ही कठोर भूमि कानून लागू हो. इसके साथ ही भूमि खरीद से सम्बंधित धारा 143क तथा धारा 154(2) भी रद्द हो.
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उत्तराखंड में भू उपयोग परिवर्तन की शिकायतें आम हैं. कृषि भूमि को गैर कृषि में बदल रजिस्ट्री व दाखिल ख़ारिज की क्रिया के तुरत-फुरत निबटान होते रहे. इस बंदर-बांट को व्यवहारिक बनाने का तंत्र जारी नीतियों के कमजोर व लचीले होने का फायदा उठा आपसी मिलीभगत से मोटा मुनाफा बना लेता रहा. भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने भी भूमि उपयोग की ऐसी विषमता भरी दशाओं पर चिंता व्यक्त की. एन एच -74 में घोटालों का सिलसिला अभी ताजा ही है तो ऊधम सिंह जनपद में रुद्रपुर बाई पास योजना में भी सरकार को तगड़ा चूना लगाने का खेल शुरू हो गया है. ऊधम सिंह जनपद के जिन गांवोँ में बाईपास प्रस्तावित है वहां सड़क के अलाइनमेंट के समीप कई भूस्वामियों ने घर दुकान और गोदाम बना डाले हैं जिससे सरकार से अपनी जमीन का अधिक मुआवजा वसूला जा सके.
राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने जिलाधिकारी स्तर पर ऐसी घटनाओं पर रोक हेतु यह विकल्प सामने रखा कि बाई पास में आने वाले गावों में कृषि भूमि को गैर कृषि दिखाने से पूर्व प्राधिकरण से अनापत्ति प्रमाणपत्र लिया जाए.बाईपास में आये गाँवों में किसी भी खसरा संख्या की जमीन के क्रय-विक्रय पर निगरानी रखी जाए. प्रशासन से खसरा संख्या की भूमि सम्बन्धी दस्तावेज भी मांगे गए हैं. बाईपास के निकट वाले गांवों में भू स्वामियों द्वारा जमीन के क्रय -विक्रय के साथ ही वहां किये जा रहे निर्माण तथा भूमि के उपयोग व भूमि की प्रकृति में फेरबदल की जांच भी जरुरी मानी गई.
भू कानून में फेरबदल के लिए बनी समिति ने प्रारंभिक स्तर पर उद्योगों को उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप जमीन प्रदान करने के लिए हिमाचल प्रदेश में लागू नियम कानूनों को बेहतर विकल्प माना. किसी भी अन्य प्रयोजन के लिए निर्धारित सीमा से बाहर की भूमि लीज पर दी जानी संभव है. समिति इस पक्ष पर भी अपनी प्राथमिकता स्पष्ट कर चुकी है कि भूमि पर स्थानीय निवासियों का मालिकाना हक बना रहे.
अब भू कानून समिति के अध्यक्ष का विचार है कि समिति जिन सिफारिशों को अमली जामा पहनाने जा रही है उसमें यह ध्यान रखा जाएगा कि भू कानून में ऐसे प्राविधान किये जायेंगे जिससे राज्य में औद्योगिक विकास व अन्य परियोजनाओं के नाम पर खरीदी जमीन पर अन्य गतिविधियां संभव न हो सकें. भू कानून समिति के अध्यक्ष सुभाष कुमार का कहना है कि अभी तक समिति को जो सूचनाएं मिली हैं उनमें भूमि के दुरुपयोग के खासे प्रमाण हैं. लोगों ने भूखंड लेने के बाद लम्बे समय तक उन्हें खाली रखा तथा जिस उद्देश्य से भूमि खरीदी गई वहां अन्य कार्य किये गए. उद्योग लगाने के लिए मिली जमीन की प्लॉटिंग कर उसे बेच भी दिया गया.
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भू कानून में कई ऐसे पेंच हैं जिससे नीतियाँ व्यावहारिक नहीं बन पातीं. जैसे कि भू कानून का वह प्राविधान जिसके अनुसार राज्य में जमीन खरीदने के लिए कृषि भूमिधर होने का प्रमाण होना चाहिए. ऐसा ही विवादस्पद 12.50 एकड़ से अधिक भूमि खरीद की अनुमति का शासनादेश रहा इससे सम्बंधित एक मत तो यह था कि इससे जुड़े दोनों शासनादेश रद्द कर दिए जाने चाहिए. दूसरा विकल्प यह है कि सीलिंग को यथावत रखा जाए और इसके आगे की शेष भूमि को लीज पर लेने का प्राविधान हो. ऐसा करने पर भू स्वामी का जमीन पर मालिकाना हक बना रहेगा. भू कानून समिति इस बात पर भी विचार कर रही है कि किसी उद्योग या निर्माण सम्बन्धी प्रयोजन में कितनी जमीन की आवश्यकता पड़ेगी इसका निर्धारण उद्योग व अन्य सम्बंधित विभागों को मिले. साथ ही भूमि के उपयोग की समय सीमा भी तय की जाये. सरकार द्वारा दी जमीन पर अगर उद्योग स्वामी उत्पादन की गतिविधि नहीं करता तो उससे यह भूखंड वापस ले लिया जाये.
उत्तराखंड में उद्योगों की स्थापना के लिए 12.5 एकड़ भूमि क्रय करने की सीमा के निर्धारण हेतु 21 दिसंबर 2018 व 15 जनवरी 2020 को शासनादेश किये गए थे. इससे अधिक जमीन खरीदने के लिए भी विभागों को अनुमति प्राप्त थी. भू कानून हेतु गठित समिति के सामने यह पक्ष भी विचारणीय है कि इस सीमा से अधिक जमीन खरीदने की अनुमति को रद्द किया जाये. इससे बेहतर विकल्प यह होगा कि हिमाचल प्रदेश की तरह उद्योगों को उनकी जरूरत के हिसाब से जमीन दी जाये. अन्य प्रयोजनों के लिए निर्धारित सीमा से अधिक जमीन लीज पर दी जाये. समिति यह भी चाहती है कि भूमि पर स्थानीय लोगों का मालिकाना हक बना रहे अर्थात स्थानीय भू स्वामी ऐसा होने पर भूमिहीन नहीं होगा और उसे निरन्तर आय प्राप्त होती रहेगी.
24 अप्रैल, 2020 को प्रधानमंत्री द्वारा “स्वामित्व योजना” आरम्भ की गई जिसके पूर्ण होने पर “मेरी संपत्ति मेरा हक “के अधीन भू स्वामी ऋण के साथ अन्य वित्तीय लाभ लेने हेतु संपत्ति का वित्तीय संपत्ति के रूप में उपयोग कर पायेगा. उत्तराखंड में इस योजना के अंतर्गत 7581 गांवों का चयन किया गया है जिनमें से अधिकांश गांवों का ड्रोन द्वारा सर्वेक्षण किया जा चुका है. लगभग एक लाख चौहत्तर लाभार्थियों के स्वामित्व कार्ड भी बन चुके हैं जिन्हें भू स्वामी अपने गांव के ग्राम पंचायत अधिकारी से प्राप्त कर सकता है. उत्तराखंड में 31 मार्च 2023 तक स्वामित्व योजना के लक्ष्य पूरे कर लिए जाने हैं.
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भूमि सम्बन्धी नीति के अंतर्गत अब निजी भूमि पर भी औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने की पहल हुई है. निजी औद्योगिक आस्थानों के लिए पहली बार लागू होने वाली इस नीति के अंतर्गत सरकार प्रोत्साहन के साथ कई जिम्मेदारियां भी तय करेगी. प्राइवेट इंडस्ट्रियल एरिया की प्रस्तावित नीति के लिए जिन सुविधाओं को ध्यान में रखा जाना है उसके लिए औद्योगिक संगठनों व हितधारकों से सुझाव लिए जा रहे हैं. अभी जो रुपरेखा बनी है उसके अनुसार विनियोगी या बिल्डर द्वारा 100 एकड़ जमीन में निजी औद्योगिक क्षेत्र बनाने पर उसका ले आउट तैयार करेगा. औद्योगिक क्षेत्र की कुल भूमि का 60 प्रतिशत ही निवेशकों को बेचा जा सकता है.
सरकार द्वारा प्रति एकड़ भूमि पर प्रोत्साहन दिया जायेगा. शेष 40 प्रतिशत क्षेत्र ग्रीन एरिया होगा. बिक्री हुए प्लाट की कीमत से कुछ धनराशि विकास निधि के रूप में जमा की जाएगी. प्रस्तावित नीति में औद्योगिक आस्थान बनाने के साथ प्रोत्साहन तो मिलेगा ही साथ में मरम्मत व रखरखाव की जिम्मेदारी भी तय की जाएगी. बिल्डर या निवेशक के द्वारा यदि मरम्मत के कार्यों की जिम्मेदारी नहीं ली जाती तो इन कार्यों को विकास निधि के द्वारा पूरा किया जायेगा.
समिति द्वारा की जा रही संस्तुतियों में इस पक्ष में भी विचार किया जा रहा है कि भूमि से होते यदि किसी अन्य की जमीन पड़ रही हो तो ऐसे में रास्ता रोक देने या उसके मन मुताबिक दाम वसूलने की समस्या होने पर ‘राइट ऑफ़ वे’ की व्यवस्था संभव हो. जिलाधिकारी स्तर पर जमीन के क्रय -विक्रय पर रोक लगे. जहां तक शहरों के मास्टर प्लान की सीमा में आने वाली कृषि भूमि है तो उसे अक़ृषि भूमि में बदलने वाले 29 अक्टूबर 2020 को जारी शासनादेश को भी विलुप्त किया जाये. ऐसे में संभव है कि नई भू कानून व्यवस्था में उद्योगों को जमीन आवंटित करने का जिलाधिकारी को दिया अधिकार भी नहीं रहेगा. साथ ही उत्तराखंड में जमीन खरीदने के लिए उद्योगों को जो छूट और सुविधा दी गई थी वह भी निरस्त हो जाएगी. यदि उद्योग लगाने के लिए ली गई जमीन का उपयोग किसी अन्य प्रयोजन में किया जा रहा हो तो उस भूमि खंड को सरकारी कब्जे में ले लिया जाए.
उत्तराखंड में 2003 के बाद से कृषि भूमि की खरीद-फरोख्त वाले अधिनियम से नगर निगम, नगर पंचायत, नगर परिषद व कैंट इलाके को अलग रखा गया. प्राधिकरणों के वह इलाके जो नगर इलाकों से बाहर हैं उन पर यह अधिनियम लागू रहेगा. इसी प्रकार 12 सितम्बर 2003 से पूर्व धारा-129 में वर्णित उत्तराखंड के किसी भी श्रेणी के खातेदार या उत्तराखंड में अचल संपत्ति के स्वामी भी बिना अनुमति के जमीन खरीद सकता है. अनुसूचित जाति एवं जनजाति, भूमिहीन मजदूर शिल्पी तथा खेतिहर भूमिहीन मजदूर को बिना किसी अनुमति के भूमि क्रय करने की छूट दी गई. इसके साथ ही ऐसे व्यक्ति जिनकी जमीन, भूमि-अर्जन-अधिनियम-1894 के द्वारा ली गई हो या भूमि अधिनियम के अधीन किसी खातेदार में निहित हो गई हो या राज्य सरकार के किसी निगम या आवास विकास परिषद या विकास प्राधिकरण से खरीदा भूखंड अथवा मकान या दुकान हो के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं रहेगी. 2003 के अधिनियम में यह भी स्पष्ट था कि सक्षम अधिकारी द्वारा ऐसे क्षेत्र में जहां आउट प्लान अनुमोदित किया गया हो के साथ ही धार्मिक प्रयोजनों के लिए किसी व्यक्ति, सोसाइटी या ट्रस्ट द्वारा भूमि खरीदने के लिए किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी.
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राज्य की औद्योगिक नीति के अनुरूप किसी औद्योगिक विकास केंद्र, औद्योगिक क्षेत्र या आस्थान में बिना किसी अनुमति के सम्बंधित व्यक्ति या कंपनी भूमि खरीद सकता है. कृषि या औद्योगिक प्रयोजन हेतु वह व्यक्ति जो न तो उत्तराखंड में खातेदार है या 12 सितम्बर 2003 से पूर्व अर्जित किसी अचल संपत्ति का स्वामी नहीं हैं वह जिलाधिकारी की अनुमति से जमीन खरीद सकता है. दूसरी तरफ कोई व्यक्ति चिकित्सा या स्वास्थ्य परियोजना, पर्यटन हेतु शिक्षा संस्थान स्थापित करने, सांस्कृतिक गतिविधियों तथा औद्योगिक क्षेत्र से बाहर औद्योगिक इकाइयां स्थापित करने के लिए भूमि का क्रय राज्य सरकार की अनुमति प्राप्त कर कर सकेगा. कोई व्यक्ति जो भू अधिनियम की धारा 129 के अधीन खातेदार न हो या उत्तराखंड में किसी अचल संपत्ति का स्वामी न हो वह भी अधिकतम 500 वर्ग मीटर की जमीन को बिना किसी अनुमति के खरीद सकता है.
उत्तराखंड बनने के बाद उद्योग, शिक्षा, पर्यटन आदि के नाम पर कई कंपनियों व ट्रस्ट के साथ ही बड़े पूंजीपतियों ने काफी अधिक भूमि को खरीदा. कई अन्य सुविधाऐं भी प्राप्त कीं पर उद्योग नहीं लगे. जो उद्योग लगे भी वह सुविधा, ऋण, अनुदान खत्म होते निष्क्रिय हो गए. यह सिलसिला नारायण दत्त तिवारी के समय से ही जारी था जिसमें औद्योगिक आस्थान बनाने में कई भारी छूट व कटौतियाँ दी गईं थीं.सरकारी सुविधाओं की खूब बंदर बांट हुई पर औद्योगिक विकास के लिए दी गई जमीन पर कल कारखाने नहीं लगे.स्क्रूड्राइवर तकनीक पर आधारित रह तैयार पुर्जे जोड़ सामान बना.2003-04 के बाद तो ऐसी दशाऐं हो गईं कि उद्योग विकास के नाम पर जो भूमि उपलब्ध हुई उसमें प्लॉटिंग काट कर ऊँची क़ीमतों पर अन्य व्यक्तियों को बेच भी दिया गया. भू कानून समिति ने इस सन्दर्भ में उत्तराखंड के सभी जिलाधिकारियों से स्पस्टीकरण मांगा. तब यह पता लगा कि कुमाऊं के छह जिलों और गढ़वाल के एक जिले में 840 निवेशकर्ताओं व फर्मों को भूमि क्रय करने की अनुमति मिली थी. इसमें 198 व्यक्तियों व फर्मों ने जिस उद्देश्य हेतु भूमि मिली उसका दुरुपयोग किया. 55 मामले ऐसे थे जिनमें सरकारी अनुमति लेने के बाद भी जमीन नहीं खरीदी गई. अब भू कानून समिति यह चाहती है कि यदि सरकार द्वारा खरीदी इस जमीन पर एक निश्चित समय तक उत्पादन नहीं होता तो दी गई सुविधा समाप्त कर जमीन सरकार द्वारा वापस ले ली जाएगी.
अब उत्तराखंड भू सम्पदा विनियमन एवं विकास नियमावली को कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद भूखंड व मकान बेचने में रियल स्टेट कारोबारी उपभोक्ता पर अपनी मनमानी नहीं कर पाएंगे. नियमावली में भूमि खरीदने व बेचने वाले पक्ष के लिए अनुबंध की नियत शर्तें हैं. क्रय-विक्रय अनुबंध हेतु एक प्रारूप बनाया गया है. इसके अधीन उत्तराखंड सरकार ने केंद्र सरकार की नियमावली को ध्यान में रख क्रेता को धोखाधड़ी से बचाने के लिए कई उपाय किये हैं. अब क्रेता द्वारा प्लाट, अपार्टमेंट व भूखंड खरीदते समय बिल्डर को दी जाने वाली बुकिंग धनराशि भी कुल कीमत में जोड़ी जाएगी. इस कीमत का भुगतान ऑनलाइन, डिमांड ड्राफ्ट या चैक द्वारा ही किया जायेगा.
अनुबंध की शर्तो के अनुसार बिल्डर द्वारा एक निश्चित समय पर कब्ज़ा देना अनिवार्य होगा. ऐसा न होने पर बिल्डर के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाएगी. दूसरी तरफ यदि क्रेता की ओर से कब्ज़ा लेने में देरी हो तो उसे रख रखाव शुल्क देना होगा. किन्ही कारणों से यदि विक्रेता परियोजना को पूरा नहीं पाता तो उसे पेंतालिस दिन के भीतर क्रेता द्वारा ली गई धनराशि वापस करनी होगी. भू संपदा नियमावली के अनुसार क्रेता को भी आवंटन रद्द करने या वापस लेने का अधिकार दिया गया है.भूमि के क्रय विक्रय से संबंधित मामलों की जाँच-परख उत्तराखंड भू संपदा नियामक प्राधिकरण या रेरा द्वारा की जाएगी जो केंद्र सरकार की गाइड लाइन का अनुसरण करती है.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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