प्रायः सुनसान सा रहने वाला लछुली की ईजा का घर-आंगन, आज एकाएक गांव के लोगों से खचाखच भरा था. यह भीड़ किसी उत्सव की न होकर उन लोगों की थी जो लछुली की ईजा को अन्तिम विदाई देने पहुंच रहे थे. बेटा घर के कोने पर अपनी माॅ के निर्जीव पड़े शरीर के सिरहाने बैठकर सुबक- सुबक रो रहा था. गांव के कुछ घरों से ’’काले कव्वा काले , घुघुती माला खा ले’’ की बच्चों की आवाजें जैसे उसे चिढ़ा रही थी. आज उतरैणी त्योहार का दूसरा दिन था, हर बार उसकी माॅ ही तो गांव के घरों से उसके लिए घुघुते लाती थी , तब उसको भी उतरैणी का त्योहार का अहसास होता. अभी गांव के लोगों के आने का सिलसिला जारी था. महिलाऐं शव के पास बैठकर अपने अपने तरीके से गम का इजहार कर रही थी. ज्यों ही एक बुजुर्ग महिला मृतका के बेटे देवी के सिर पर हाथ (मलासते) फिराते हुए बोली ’’ शिबौ ऽ ऽ आब कसिक रौल य देबी इकलै? ( हे भगवान अब यह देबी अकेले कैसे रहेगा ?)’’ देबी और जोर से सिसकियां भरने लगा. साथ में बैठी अन्य महिलाएं भी अतीत के किस्से दुहराते हुए माहौल का और अधिक गमगीन करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थी. कोई कहती – ये तो एक दूसरे का सहारा थे, तो दूसरी कहती इसे तो हरदम चिन्ता ही अपने देबी की रहती थी, अब कहाँ गयी वो माया-ममता ? इतना सुनना था कि देबी जोर से फफक-फफक कर रोने लगा। देबी के दहाड़ मारने की आवाज सुनकर हिम्मत दा ने जोर की झिड़की दी – “निकल जाओ इस कमरे से सारी महिलाऐं. तुम लोग देबी को हिम्मत देने के बजाय उसे रूलाने पर तुले हो.” हिम्मत दा की इस डांट से क्षण भर के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया. Lachhuli ki Ija Story Bhuvan Chandra Pant
बाहर खड़े युवक अन्त्येष्टि की तैयारी में लगे थे. आखिर उसका था भी कौन जो यह जिम्मेदारी संभाले. देबी के ताऊ एक मात्र उस बिरादरी के मुखिया थे, जो दीवाली के बाद परिवार सहित दिल्ली गये हुए थे. हिम्मत दा आगे आया , उसने अन्त्येष्टि के सामान के लिए गांव के किसी सयाने को बाजार भेजने की बात कही. उसका इतना कहना भर था, कि लोग अपनी ओर से 100, 200, 500 रूपये, जिसकी जैसी सामर्थ्य थी , हिम्मत दा के पास जमा करने लगे. लछुली की ईजा का अपना व्यवहार था कि देखते देखते 8000 रूपये से भी ज्यादा जमा हो गये. अन्त्येष्टि के लिए इतनी रकम पर्याप्त थी. कुछ लोगों ने सलाह दी कि मितव्ययिता बरतते हुए शेष बचा पैसा देवी के काम आ जायेगा. वहीं दूसरे लोगों ने तर्क दिया कि उसके निमित्त आया पैसा उसी काम में खर्च होगा. आज लोगों का ’प्रेम’ अनायास ही उमड़ पड़ा था, लोगों ने दिल खोलकर अपनी-अपनी ओर से सहयोग देने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. हो भी क्यों न ? लछुली की ईजा मधुर स्वभाव और उसकी पहुंच जो गांव के हर घर तक ठैरी. Lachhuli ki Ija Story Bhuvan Chandra Pant
त्योहार कोई भी हो – हरेला, उतरैणी, बसन्तपंचमी, होली, दिवाली या घी संग्रात लछुली की ईजा का दोपहर बाद घर की देहरी पर दस्तक देना त्योहार का एक हिस्सा बन चुका था. हमारे घर में तो जब तक दोपहर के बाद वो न आये त्योहार भी आधा अधूरा सा ही लगता. हर त्योहार पर उसके हिस्से का खाना अलग से निकाल कर रखना, घर की आदत में शुमार हो चुका था. यों भी ईजा उसे अटक-विटक (मुसीबत के समय) घर के सदस्यों की नजरें बचाकर चोरी-छिपे आटा, चावल, तेल, चाय, चीनी आदि दे दिया करती थी. निहायत गरीब परिवार से ताल्लुक रखने वाली लछुली की ईजा लोगों के खेतों में, मेहनत मजदूरी करती और पति किशनराम भी किसी तरह मजदूरी कर अपना परिवार पालते. किशनराम तो वर्षों से हमारे खेतों में जुताई का काम भी करते थे. किशनराम की दूसरी शादी की ब्याहता बनकर आई थी वह. सामान्य कद-काठी, सांवला रंग ,गोल चेहरा , कोई 40 के की वय की लछुली की ईजा. त्योहार के दिन गजब की चमक दिखती उसके चेहरे पर. शायद बालों में तेल लगाने का मुहूर्त उसके लिए किसी त्योहार पर ही आता. करीने से सजे संवरे बालों के साथ माथे पर चिपकी एक बड़ी सी बिन्दी और नाक से माथे तक पिट्ठया की लम्बी लकीर, यही थी उसकी त्योहार मनाने की निशानी. बोलने में गजब की मिठास ठैरी लछुली की ईजा की जुबान पर. सुनती थोड़ा ऊंचा थी , इसलिए कभी कभी कुछ पूछो तो उत्तर कुछ और ही मिलता . छोटे से छोटे बच्चे को भी को भी तू शब्द से संबोधित करना जैसे उसके शब्दकोष में था ही नहीं. शिष्टता इतनी कि उनका एक हाथ बार-बार सरकने वाले घूंघट को नीचे गिराते रहने में ही व्यस्त रहता. खुले मुंह से कभी बात नहीं करती, बात करते समय क्या लगभग हर वक्त एक हाथ से धोती का पल्लू लगाकर मुंह को ढके रहती. हम बहुत छोटे थे तब, तो भी वे नान पौण ज्यू तथा ईजा को पन्थ्याण ज्यू के संबोधन से पुकारती. तब मुझे ये मालूम नहीं था कि पौण ज्यू व पन्थ्याण ज्यू शब्द भी पन्त से ही बनता है, बस हम तो इसे यों ही आदरसूचक शब्द मानते थे. Lachhuli ki Ija Story Bhuvan Chandra Pant
कभी नाम मोतिमा देवी रहा होगा , लेकिन अब उसकी पहचान लछुली की ईजा के रूप में ही हो चली थी. यों भी गांव-देहात में शादी के बाद औरत की अपनी स्वतंत्र पहचान मायके की चौखट से विदा होते ही गुम हो जाती है, या तो वह फलाने की ब्वारी या दुल्हैंणी के नाम से पुकारी जाती है और बच्चा जनने के बाद तो फलाने की ईजा ही उसकी स्थाई पहचान बन जाती है.
गांव के हर घर में आने जाने से पूरे गांव की खबर उसके पास रहती. खबरिया के तौर पर नये नये समाचारों के आधे-अधूरे सूत्र तो उससे मालूम हो जाते , लेकिन उसके कान ऊंचा सुनने के कारण खबर की सच्चाई जानने की मशक्कत आपको खुद करनी होती. गांव के किस घर में क्या चल रहा है, पता होते हुए भी किसी घर की अन्दरूनी बातों को कुरेदने का यदि आप दुस्साहस करें तो वह सब कुछ जानते हुए भी ‘कसप’ (मुझे नहीं पता) कहकर पल्ला झाड़ लेती. उसकी यही खूबी के कारण गांव के हर घर के द्वार उसके लिए सदैव खुले रहते.
घर पर पहुंचते ही घर के आंगन के एक कोने में बैठने की एक निश्चित जगह उसने खुद की तय की हुई थी. जब त्योहार बनाने के बारे मेें पूछा जाता, तो इतनी विस्तार से बताना शुरू कर देती कि हम बच्चे बड़ी दिलचस्पी से कनसुणा (कान लगाकर सुनना) लग जाते. सामान्य दाल भात बनाने के उपक्रम को ही वह इतना विस्तार दे जाती , जिसमें दुकान से चावल लाने, बीनने, अध्याण रखने , दाल बनाने, उसे छौंकने तथा छौंकने में इस्तेमाल किये जाने वाले छौंक से लेकर, वह कब लायी, कहाँ से व कितना सामान लायी सब कुछ विस्तार से बताती जाती. एक-एक कर सबको खिलाने व खाने का ब्यौरा देने में ही 10-15 मिनट चले जाते. आज सोचता हॅू कि यदि लछुली की ईजा सजीव घटनाक्रम को लिखना जानती तो अच्छी कहानीकार बन सकती थी. उसकी इस दास्तान के सुनते-सुनते ईजा उसके लिए एक थाली में दाल-भात तथा त्योहार पर बने पकवान परोसकर उसके सामने रख देती. लछुली की ईजा खाने की थाली को सरकाकर, खाते समय हमारी ओर को पीठ फेर लेती और हमसे नजर बचाकर पकवानों को अपनी पोछिने (आंचल) में छुपा लेती और स्वयं दाल-भात खाकर तृप्त हो जाती. शायद पकवानों को वह अपने परिवार के साथ मिलकर खाना चाहती थी. परिवार में पति किशनराम के अलावा दो बेटियां लछिमा और राधा तथा छोटे दो बेटे देबी और ललित थे. पति किशनराम भी एक निहायत भोले भाले इन्सान थे , हमेशा दूसरों के आगे हाथ फैलाने की मजबूरी ने शायद उनको इस कदर नजर उठाकर देखने और जवाब देने की हिम्मत जुटा पाने लायक छोड़ा ही नहीं था.
पूरे बीस साल का अन्तर था, दोनों पति-पत्नी में. उसके पति किशनराम उम्र के उस पड़ाव पर आ चुके थे, जब मेहनत मजदूरी करना उनके बूते के बाहर हो चला था, ऊपर से दमा की बीमारी ने उन्हें बुरी तरह घेर लिया था. शुक्र था कि वे अपनी दोनों बेटियों के हाथ पीले कर चुके थे. पति की बीमारी तथा दोनों बेटों की उम्र बहुत छोटी होने से अब पूरे परिवार की गुजरबसर की जिम्मेदारी अकेले लछुली की ईजा पर आ चुकी थी. लोगों के खेतों में काम कर जो कमाती उसी से रूखा-सूखा कभी मिलता और कभी परिवार को भूखे पेट ही सुलाना पड़ता. लेकिन बच्चों के शारीरिक डीलडौल से कोई नहीं कह सकता था कि वे कई दिन भूखे ही सोते हों और कुपोषित हों. गांव के हर घर में लछुली की ईजा का आना जाना बदस्तूर अब भी जारी रहा . कभी मेहनत मजदूरी से कुछ कमा लेती अन्यथा काम न होने पर कभी स्वयं खेतों की निराई-गुड़ाई के काम में हाथ बंटाने लगती तो रहम खाकर गांव वाले उसे शाम का चूल्हा जलाने की जुगत तो करा ही देते. बरसात व जाड़ों में जब झड़ पड़ते, मेहनत मजदूरी का काम नहीं होता, तब भी वह बरसात से बचने के लिए जूट के बोरे की घोघी बनाकर पहुंच जाती और पूरा दिन लोगों के घरों में गुजार देती और घर लौटते वक्त शाम के राशन का जुगाड़ किसी घर से हो ही जाता. Lachhuli ki Ija Story Bhuvan Chandra Pant
पति किशनराम की हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी, एक ओर दमा की बीमारी ऊपर से परिवार की चिन्ता और भुखमरी. इन्हीं अभावों के बीच एक दिन किशनराम भी दुनिया से अलविदा कर गये. लछुली की ईजा अब एकदम अकेले महसूस करने लगी खुद को. आज तक पति कमा नहीं भी रहे थे, तो भी पति का साया ही उसे सहारा दे रहा था, कष्टों को झेलने का. दो छोटे बच्चे और अकेली बुढ़ापे की ओर अग्रसर औरत. रहने को एक पुश्तैनी मकान जरूर था, जो खण्डहर हो चुका था. जेठ व उनका परिवार दिल्ली में रहता था, रिटायरमेंट के बाद घर वापसी पर उसी मकान का एक हिस्सा उन्होंने गिराकर जीर्णोद्धार कर लिया था, जिसका खामियाजा उठाना पड़ा गरीब लछुली की ईजा को. पुराने मकान में तोड़फोड़ से लछुली की ईजा के परिवार के हिस्से का यह पुश्तैनी खण्डहर आने वाली बरसात में घड़ाम से जमींदेाज हो गया. वो तो भला हो ग्राम प्रधान का कि उन्होंने किसी योजना के तहत उनका एक कमरे का नया घर बनवा दिया, बहुत बड़े घर की उसे जरूरत भी क्या थी? घर की चिन्ता से तो मुक्ति मिल गयी, लेकिन परिवार के पेट की आग बुझाने कीं समस्या जस की तस थी. अपने दो बच्चों की परवरिश के लिए वह कुछ भी कष्ट उठाने को तैयार रहती, आखिर भविष्य का सहारा भी तो वही थे.
दिन यों ही कट रहे थे. देबी की उमर कोई मेहनत मजदूरी करने की तो अभी थी नहीं लेकिन घर के लिए पानी भरना व शाम को जलाने के लिए लकड़ी बटोरने में वह अपनी माँ की मदद कर दिया करता. ऐसे ही एक दिन देबी जब अपने छोटे भाई को लेकर जंगल लकड़ी लाने गया तो दुर्भाग्यवश ललित को सांप ने डस दिया , घर पहुंचते पहुंचते उसे दम तोड़ दिया.
अब दो माँ-बेटे ही परिवार में शेष बचे थे. कभी-कभी बेटियां अपने ससुराल से कुछ मदद भिजवाती, इससे दो चार दिन की राहत मिल जाती. किशोर वय का देबी भी, कभी कभी दस-पांच रूपये कमाकर लाने लगा था , इसी से दो माँ-बेटों का चूल्हा जलता. कहते हैं ना ऊपर वाले की जब मार जब पड़ती है, तो सारे रास्ते बन्द हो जाते हैं. जिस देवी के लिए लछुली की ईजा ने कमर कसी थी , वह भी अक्सर उदासीन सा रहने लगा, न घर का काम और न बाहर का. माँ ने खाना दिया तो खा लिया , गुमसुम रहकर खाली समय या तो यों ही घूमता रहता अथवा घर में रहने पर रजाई तानकर सो जाता. एक तरह से अर्द्धविक्षिप्त सा हो चुका था, वह. एक तो अभावों से भरी जिन्दगी, ऊपर से भविष्य की आशाऐं भी टूट चुकी थी, देबी की इस दशा से. लेकिन माॅ के लिए बेटे की ममता अमीरी-गरीबी नहीं देखती. स्वयं भूखा रहकर भी वह देवी के पेट की चिन्ता करती. लछुली की ईजा का गांव के घरों में जाना बदस्तूर जारी था, एक तो इस बहाने उसे दूसरों से अपना दुख साझा कर हल्कापन महसूस होता और लोगों द्वारा यदा कदा शाम को चूल्हा जलाने को कुछ न कुछ तो मिल ही जाता.
इस बार भी उतरैणी के त्योहार पर , हमेशा की तरह घर में लछुली की ईजा के हिस्से का खाना अलग से निकाल दिया गया. शाम हो गयी, लेकिन लछुली की ईजा नहीं आई. दूसरे दिन गांव के लोगों से पता चला कि वह पिछले चार-पांच दिन से तेज बुखार में है और बेटा देवी भी घर पर नहीं है. गांव के ही हिम्मत दा ने उनके पास उपलब्ध सामान्य बुखार की दवा उसें दी, बुखार थोड़ा उतरा. होश आते पूछने लगी, “मेरा देवी कहाॅ होगा ? 3-4 दिन से कुछ नहीं खिला पाई उसे.” हिम्मत दा ने ढाढस बंधाते हुआ कहा, “उसकी चिन्ता छोड़ , उसे मैं अपने साथ घर ले गया था. मेरे साथ है, रात को खिला-पिलाकर तेरे पास छोड़ जाऊंगा. तेरी कुछ खाने की इच्छा हो रही है तो मैं बनवा कर भिजवा दूंगा.” लेकिन उसने खुद कुछ भी खाने से अनिच्छा जाहिर कर दी. रात को देवी को खाना खिलाकर हिम्मत दा, लछुली की ईजा के लिए कटोरा भर दलिया बना लाया था. लछुली की ईजा के खाने से इन्कार करने पर देवी को समझा गया, कि जब इसकी इच्छा हो अपनी माँ को दलिया खिला देना.
दूसरे दिन सुबह की पौ फट ही रही थी कि देवी रोता-सिसकता “ईजा को कुछ हो गया , ईजा को कुछ हो गया” कहता हिम्मत दा के घर पहुंचा था. हिम्मत दा सब कुछ छोड़कर देवी के साथ हो लिया था, लछुली की ईजा देबी को अकेला छोड़कर संसार से विदा ले चुकी थी. गांव में खबर कर हिम्मत दा ने ही अन्त्येष्टि क्रिया का मोर्चा संभाल लिया था. अन्त्येष्टि का सामान बाजार से घर के आंगन पर पहुंच चुका था. गांव की ही महिलाओं ने शव को नहला-धुलाकर बाहर आंगन में रख दिया. देवी भी अपनी माॅ के शव के साथ ही बाहर आकर शव के करीब बैठा अपनी माँ के मृत पड़े शरीर को देख देखकर सिसकियां भर रहा था. सामने पड़े सामान पर जब उसकी नजर पड़ी तो घी के डिब्बों पर मन ललचा गया. आखिर इतना घी घर पर पहली बार जो उसने देखा था. शायद सोच रहा हो, काश! ईजा के जीते जी इतना घी उसके घर पर कभी आया होता. Lachhuli ki Ija Story Bhuvan Chandra Pant
अर्थी सज चुकी थी. वातावरण को चीरती ‘राम नाम सत्य है’ कि हृदय विदारक ध्वनि के साथ लछुली की ईजा अन्तिम यात्रा निकल पड़ी. लोकपरम्परा के अनुसार देबी ने अर्थी को कन्धा दिया और कोई 10-15 कदम के बाद बड़े बुजुर्गों ने देबी को घर लौटने को कह दिया. जनेऊ जो नहीं हुआ था देवी का, कैसे श्मशान तक साथ जाता. जहाँ से उसने अर्थी से कन्धा छोड़ा था, वहीं खड़ा होकर अपनी माँ की अर्थी को टकटकी लगाये तब तक देखता रहा , जब तक वह दूर मोड़ पर नजरों से ओझल नहीं हो गयी और फिर उल्टे पाँव उसी घर की चैखट को लौट गया जहां अब केवल और केवल वही रह गया था एकदम अकेला, असहाय और अनाथ. उसकी ईजा सौंप गयी थी उसे उन्हीं लोगों के भरोसे जिनके बीच उसने अपनी दुखभरी जिन्दगी गुजारी थी.
– भुवन चन्द्र पन्त
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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