नवरात्र का समय था. हम कुछ दोस्त माँ के दर्शन के लिए गार्जिया मन्दिर गए थे. मन्दिर में दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं की लंबी कतार लगी थी. हम सब भी उस कतार में शामिल हो गये. मौसम सुहाना था. बहुत दिनों बाद हम सब साथ थे और इस वजह से बहुत खुश भी. हँसी-मज़ाक का दौर चल निकला था. यूँ ही हंसी-ठिठोली में कब दर्शन के लिए हमारी बारी आ गई पता ही न चला. (Story by Deepali Suyal)
दर्शन कर हम सब दोस्त बाहर आए और कोसी नदी तट के आस-पास के सुन्दर नजारों का आनंद लेने लगे.
तभी मेरी नज़र मन्दिर के आख़िरी छोर पर एक दुकान पर जा टिकी. दुकान ज्यादा बड़ी नहीं थी. एक छोटी सी झोपड़ी में तख्त लगा कर छोटा-मोटा पूजा का सामान रखा था बेचने के लिए. बस इतना था किसी की शाम की दो रोटी का इंतजाम हो जाए. उस दुकान में एक औरत बैठी थी. उसके हाव-भाव देखकर लग रहा था कि वह किसी के इंतजार में है. उसकी आँखें मन्दिर की तरफ से आने वाले रास्ते पर टिकी थी.
दोपहर के बारह बज चुके थे, तभी एक महिला हाँफती सी दुकान की तरफ बढ़ी आ रही थी. उम्र यही कोई पचास-पचपन के लगभग. फटे, पुराने कपड़े, चेहरे पर झुर्रियाँ. हाथ में उभर आये चोट के निशानों को वह अपनी फटी हुई साड़ी से छुपाने की कोशिश कर रही थी. चेहरे पर उदासी पसरी थी. देख कर लग रहा था शायद रात से भूखी भी है.
झुर्रियों भरे चहरे पर डबडबाई आंखें. आंसुओं भरी आंखें देखकर मेरा हृदय भी द्रवित हो उठा. मेरी उत्सुकता बढ़ गई कि आखिर ये स्त्री इतनी व्याकुल क्यों है? सभी दोस्त सेल्फी लेने और मस्ती करने में व्यस्त थे पर मेरा ध्यान उस महिला पर ही था.
उसके दुकान में पहुँचते ही इंतजार कर रही महिला ने कुमाऊनी में पूछा “किले आज देर कसिक है गई तूके मंजू ईजा?”
डबडबाई आँखों से उसने सिसकते हुए जवाब दिया “किले बे! रात बटी राडिक पिणम लाग रौं. का बटी एछी सर हाथक चुड़ी नी धरी उन, चरियो ले मओ बटी धर दी, रघौड दी बे रात मैके. अब शरीरम ऊ जान नी रयी कमला ईजा.”
“रात भर न खाण खान दी उन हमुके, ना सितण दी. डबल टक जतुक छी सब छीन हैली.”
मैं मन ही मन सोचने लगी ये शादी भी महिलाओं की जिंदगी का बड़ा बबाल है.
तभी इंतजार में बैठी महिला बोल उठी. “पै तुन के कयी नी उहुणी को तो.” “मील राडिका! यों दिन देखण लिजी तैके पैद कर रै छी.”
“पाल पोस बटी इतुक ठुल कर रै छी.”
“चार चैलिया बाद तू है रै छै.” “कै कै नी सोच रौ छी मैन त्यर लिजी?”
“दिन रात मईया हूं कैछी, एक भौ दी दे मैके.”
“कामक ना काजक राडिका.” “न खुद कमाण लाग रै छै, ना हमुकै खाण दिण रै छै…”
“यस च्यल बटी च्यल नी हैछी कतुक भल हुन, आरामल रौट तौ खै ली छी हम.”
“मर जौल यौं सरकारक, यौं शराबक को आग घालण है रौ…” और वह रोने लगी.
इतना सब सुन कर मैं सुन्न सी हो गई. बेटे की चाहत का नशा भी न जाने कितनों का घर उजाड़ देता है. हमारे पहाड़ की तो क्या कहें अब.
ईजा कैंजा की थपकियों के साथ उभरते पहाड़ में लोकगीत
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बैलपड़ाव, कालाढूंगी, नैनीताल में रहने वाली दीपाली सुयाल ने पी. एन. जी. पी. जी. कॉलेज रामनगर से राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर किया है. कविताएँ, कहानियां लिखती हैं.
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बेटे की चाहत का नशा घर ही नहीं उजाड़ रहा बल्कि बेटियों की संख्या भी उजाड़ रहा है
बेहतरीन प्रस्तुति ! पहाड़ के दर्द को आपने अपनी कलम से उकेरा है।
बहुत सुंदर... बेटे की चाह जिंदगी तबाह
इस पहाड़ी बोली का हिन्दी मे भी अनुवाद करना था
सुंदर अभिव्यक्ति यदि कुमाऊंनी का अनुवाद भी साथ लिखती तो बेहतर होता