कुमाऊनी होली में है ब्रज का प्रभाव
कुमाऊँ में अधिकतर त्यौहार मौसम चक्र के बदलने या फिर फसलों को बोने या फिर उन्हें काटने के बाद ही मनाये जाते रहे हैं. इस तरह हमारे त्यौहार हमें जीवन चक्र की बारीकियों से अवगत ही नहीं कराते बल्कि उसके साथ हमें भावनात्मक रूप से जोड़ते भी रहे हैं. यही भावनात्मकता हमें हर त्यौहार को उल्लास, उमंग, मस्ती और गीत संगीत के साथ मनाने को प्रेरित करती रही है. कुछ ऐसी ही है कुमाऊनी होली की परंपरा. (Kumaoni Holi Tradition)
उल्लास, रंग और उमंग का नाम ही होली है. वैसे होली को लेकर कई पौराणिक प्रसंग हैं. पर कुमाऊँ की होली का वर्तमान स्वरूप बहुत पुराना नहीं है. राजा कल्याण चंद के समय दरबारी गायन के संकेत मिलते हैं. कुमाऊँ की होली गायकी में ब्रज का प्रभाव बहुत ज्यादा है. इसके अलावा इसमें कन्नौज व रामपुर की गायकी का प्रभाव भी स्पष्ट देखा जा सकता है. रामपुर व कन्नौज का प्रभाव डेढ़ सौ वर्ष से कुछ अधिक पुराना माना जाता है. जब इसकी शुरूआत उस्ताद अमानत हुसैन ने रामपुर (उत्तर प्रदेश) से आकर अल्मोडा में की थी. कुमाऊँ में पौष मास के प्रथम रविवार से होली गायन की शुरुआत हो जाती है. यहां दो तरह की होलियों की परम्परा है. एक है ‘बैठ होली’ और दूसरी है ‘खड़ी होली.’ खड़ी होली व बैठकी होली में दो-तीन दर्जन से अधिक महिलाएं व पुरुष वाद्य यंत्रों के साथ एक समूह बनाकर हर घर, गांव के मंदिर व चौपाल में भक्तिभाव से ओत-प्रोत होकर होली गीत गाते हैं. कुमाऊनी होली पर चारू चन्द्र पांडे का लेख
कई राग-रंग
बैठ होली के गीत कई प्रकार के राग-रागिनियों में ढले होते हैं. पुरानी होलियों को गायन परम्परा के माध्यम से ही लोक में जिंदा रखा गया. जिस कारण से सैकड़ों होलियों के रचियताओं का कोई पता नहीं है. वे केवल लोक परम्परा के माध्यम से सामूहिक रूप से गाये जाने के कारण ही सदियों से आज तक गूँज रहे हैं. प्रारम्भ में इनका स्वरूप कैसा रहा होगा? कोई नहीं जानता. पर इतना तो तय है कि ये इस रूप में तो नहीं ही रहे होंगे, जैसा आज इनका है. बैठ होली मुख्य रूप से काफी, श्याम, कल्याण, खमाज, पीलू, बिहाग, जयजयवन्ती, झिंझोटी, शहाना, पकज, देश, भैरवी आदि रागों में गायी जाती है. होली के गीतों को गाने से पहले धमार गाने का लोक प्रचलन है. माना जाता है कि जिस राग की होली चांचरी में गाई जायेगी, उससे पहले उसी राग में धमार सुनाया जाता है. इसमें झलकत ललित त्रिभंग श्री रंग, जब धरी रे मुरलिया, मनसुख लाओ मृदंग, नाचत आई चन्द्रावलि पग बांध घुँघरवा”, सखियां ले आई गुलाल, होरी खेल रहे हैं नन्द नन्दन ज्यू से’ आदि होलियां गाई जाती हैं.
बैठ और खड़ी होली की परंपरा
पौष मास के पहले रविवार से बैठ होली की शुरुआत होती है. कुछ दिन तक विष्णुपदी होली गायी जाती है. इसे निर्वाण की होली भी कहा जाता है. बसंत पंचमी के आने तक होल्यार और ज्यादा रस और रंगत में आने लगते हैं और बैठ होली में आने वाले होल्यारों की संख्या भी बढ़ने लगती है. महाशिवरात्रि के दिन शिव भक्ति से सम्बंधित होलियां ही प्रमुख रूप से गाई जाती हैं. पौष मास के प्रथम रविवार से शुरू हुई होली गायन की परम्परा प्रथम चरण व वसन्त पंचमी से दूसरे चरण और महाशिवरात्रि से होली के टीके वाले दिन तक तीसरा चरण में चलती है. प्रथम चरण में भक्तिपूर्ण गीतों, दूसरे चरण में श्रृंगार प्रधान तथा तीसरे चरण में राधा-कृष्ण की छेड़छाड़-ठिठोली से युक्त होली के गीतों को गाया जाता है. लखनऊ में कुमाऊनी होली की परम्परा
मुख्य रूप से राग आधारित होली होने के कारण बैठ होली को नागर होली के रूप में भी मान्यता मिली हुई है, क्योंकि रागों को पकड़ने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है. जब तक रागों का ज्ञान नहीं होगा, तब तक न तो आप होलियों को गा सकते हैं और न ही उनका आनन्द उठा सकते हैं. शायद इसी वजह से बुजुर्गों ने बैठ होली को ‘मसिण’ होली नाम दिया. राग आधारित बैठ होलियों में से कुछ होलियां हैं, कल तुम कहां थे कन्हाई, हमको तुम बिन नींद न आई, कैसी करत बरजोरी-मोरी बय्याँ मरोरी, नदिया किनारे मोरा गांव, होरी खेलन आना श्याम, योगी तेरो यौवन छलकत जाय, मदमस्त यौवन नैन रसीले, गोकुल गांवका छोरा, अपने ही रंग इतराये आदि.
गीत और नृत्य का अनूठा संगम
खड़ी होली में चूँकि राग का बहुत महत्व नहीं होता इसी वजह से उसे ‘मोटी होली’ भी कहा जाता है. खड़ी होलियों के गायन में गीतों के क्रम का ध्यान रखना होता है. विष्णुपदी होली से खड़ी होली के गायन की शुरुआत की जाती है. खड़ी होली की परम्परा में भी कई होलियां बैठ कर गाई जाती हैं. इसके लिये दो पक्ष बनाकर लोग बैठते हैं. एक पक्ष होली का गीत प्रारम्भ करता है और दूसरा पक्ष उसे दोहराता है. इन्हें ढोल व मजीरे की ताल के साथ स्वरबद्ध होकर गाया जाता है. खड़ी होली के गायन में विशेष तरह के नृत्य भी किये जाते हैं. इसमें हाथ, कमर व पैरों को विशेष मुद्राओं में हिलाया व घुमाया जाता है. इसमें एक व्यक्ति होली का गीत गाता है और समूह के दूसरे लोग उसे लय और ताल के साथ दोहराते हैं. होली गाने वाले को होल्यार कहा जाता है. होल्यार को होली गायन के दौरान विशेष सम्मान मिलता है.
खड़ी होली में ‘बंजारा होली’ गाने की भी परम्परा है. इसमें होल्यार द्वारा होली की शुरुआत नहीं की जाती, बल्कि दो समूहों द्वारा समवेत स्वर में होली का गायन किया जाता है. ‘गोरी प्यारो लगो, तेरो झनकारो’ जैसी होलियां इसमें गाई जाती हैं.
गाँवों और शहरों-कस्बों की होली परम्पराएँ
कुमाऊँ के पहाड़ी क्षेत्रों में तो होली गायन की पुरानी परम्परा हर छोटे, बड़े शहर-गांव में मिलती है, लेकिन यहां के मैदानी इलाकों के कुछ शहरों व गांवों में भी यह परम्परा दिखाई देती है. पहले चरण की होली शाम के समय घर के भीतर पौष की कडा़के की ठंड में सगड़ की आग तापते हुए और गुड़ की कटक वाली चाय के स्वाद के बीच गाई जाती है. खड़ी होली का गायन रंग की एकादशी से शुरू होता है. इसमें पुरुष और महिलाएँ घेरा बनाकर नृत्य करते हुए सार्वजनिक स्थलों अथवा चीर बंधन वाले स्थान पर गाते हैं. खड़ी होली की कुछ होलियों में–
‘मत भूलो यशोदा नन्दन को, मन जपलो यशोदा नन्दन को,’ ‘हाँ जी राधे यमुना अकेली मत जइयो, वहीं रहैं चित चोर राधे,’ ‘एक ओर हर खेलें होरी, एक ओर नन्दलाला बे,’ ‘मत मारो मोहन पिचकारी,’ ‘फूटे गागर भीजे चूनर,’ ‘होरी खेले नन्दा को लाल मोसें फागुन में,’ ‘वृन्दावन में रास रचो है’ आदि प्रमुख हैं.
(लेख में उल्लेखित होलियों का स्रोत डॉ. पंकज उप्रेती की पुस्तक ‘कुमाऊँ का होली गायन : लोक एवं शास्त्र’ है)
सभी फोटो: जगमोहन रौतेला
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जगमोहन रौतेला
जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं.
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