1900-1902 के बीच कोसी नदी से सटे हुये गांव सकार में ‘दास’ घराने के एक हरिजन टेलर मास्टर के घर जन्मा था गोपाल राम. इस खानदान में गाथा गायन अतीत से चला आया था. यह लोग बौल गायन तथा जागरी गाथा के आचार्य माने जाते थे. दादाजी हुड़के पर कोई ‘बौल’ गाथा गाते तो पिताजी ‘दुतारि’ बजाकर उनके बोलों को दोहराते. पास ही बैठा हुआ एक सात-आठ वर्ष का बच्चा बड़े ध्यान से सुध-बुध खोकर बालसुलभ कल्पनाचित्रों में समस्त गाथा का अंतर्दर्शन करता था.
यह दास परिवार हुड़किया बौलों, जागरों और मालिकों के घर संस्कारों में भी समय-समय पर आमंत्रित किया जाता था. अतः गोपी को यह सब विधाएं जन्म घुट्टी में घुली हुई सी मिल गयी.
गोपीदास के दादा और पिता बड़े कला प्रेमी और कलाकारों के प्रसंशक थे. जहाँ से भी कुछ मिल जाता उसे ले लिया करते और इस तरह अपने गाथा गायन के भंडार को समृद्ध बनाते रहते.
एक बार सकार गांव में एक बिष्ट ठाकुर चौखुटिया-गेवाड़ से आये. वह मालूशाही राजा के बैराठ प्रदेश से थे. अपने राजा की वंशावली एवं समस्त गाथा उन्हें पूरी याद थी. गायन में भी वह पारंगत थे. सकार गांव में इस ठाकुर गायक को पूर्ण सम्मान एवं श्रद्धा मिली. उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि केवल मालूशाही गाने के लिये ही उन्हें डोली में बैठाकर सम्मान के साथ सकार गांव लाया गया जहाँ वह लगभग छः महीने रहे और आसपास के इलाके को राजुला मालूशाही के गीतों से सराबोर करते रहे. गोपी के दादा और पिता अनन्य भाव से उस अतिथि गायक की सेवा करने लगे और उसकी कला के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गये. उस अतिथि गायक के आने का पूरा लाभ हुआ बालक गोपी को. जिसकी रग-रग में केवल आठ बरस की उम्र में ही राजुला मालूशाही की बैराठी कथा समा गयी. इसीलिए बाद में गोपीदास मालूशाही गायन में बैराठी शैली के अधिकारपूर्ण गायक के रूप में प्रतिष्ठित हो गये.
अतिथि गायक के चले जाने के बाद उनकी गायी हुई गाथा का अभ्यास दास परिवार में चलने लगा. दादा गाते, पिता दोहराते और बालक गोपी सुनता और याद करता रहा. इस प्रकार चौदह-पन्द्रह वर्ष की अवस्था में गोपी को सम्पूर्ण गाथा तथा बैराठी गायकी का यथेष्ट ज्ञान हो गया.
गोपी की ख्याति बढ़ने लगी. दादा दिवंगत हो चुके थे. पिता अपने किशोर पुत्र को हमेशा बढ़ावा देते रहे. वह गोपी से बार-बार मालूशाही सुनते और कभी-कभी उसकी गायकी में सुधार और जोड़-तोड़ करते रहते. इसप्रकार गोपी गाता रहा और मंजता रहा. अपने प्रतिभावान बेटे को गाथा गायन और टेलर मास्टर का पुस्तैनी काम छोड़कर कलाकार पिता ने भी संसार से विदा ली.
धीरे-धीरे किशोर अवस्था में यौवन का उन्माद भरने लगा. किशोर गोपालराम, युवक ‘गोपीराम मालूशाही वाला’ बन गया. वह सभी जगह प्रशंसा और ख्याति पाने लगा. उन्नीस-बीस बरस का यह युवा कलाकार पूरे बारामंडल परगना में प्रमुख मालूशाही विशेषज्ञ के रूप में अपनी पहचान बना चुका था. विशेष ग्राम उत्सवों, ब्याह-शादी के मौकों पर रात्रिकालीन मनोरंजन के लिये गोपीराम को बुलाया जाने लगा.
रात-रात भर लोग सुनते और मुग्ध हो जाते थे. इस तरह विशेषकर ग्राम्याओं के बीच मोहिला और सुरीला गायक चर्चा का विषय बन गया. एक दिन तरह-तरह की अफवाहों से घिरा हुआ गोपीराम सचमुच ही लोगों की चर्चा का विषय बन गया.
शायद पास के गांव कि एक विशिष्ट वर्ग की कोई कुमारी नवयौवना गोपी की कला पर निछावर हो गयी. मूक समर्पण धीरे-धीरे मिलन यामिनियों में बदल गया. उच्च वर्ग गोपीराम के खून का प्यासा हो गया. अंत में युवक गायक को अपनी सुवा के हठ और अनुरोध से असीम बल मिल गया. वह अपनी सुवा का हाथ पकड़कर पैत्रक गांव को हमेशा के लिये छोड़ गया क्योंकि वहां के लोगों को अपनी सूरत भी दिखाना उसके लिये वर्जित था. दुष्ट ग्रामीणों ने घोषणा की थी कि यदि गोपाल राम उस क्षेत्र में कभी देखा गया तो उसके टुकड़े-टुकड़े कर कोसी में बहा दिये जाएंगे.
गांव से निष्कासित हो गया प्रेमी युवक गोपालराम ‘मेघदूत’ के विरही यक्ष की तरह लेकिन अकेला नहीं, अपनी सुवा के साथ. उसकी सुवा बेझिझक होकर उसको सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो गयी. इस तरह बिना किसी रस्म के उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया.
अब भूख प्यास और अभाव से भरे दिन आये. युगल प्रेमी इधर-उधर छुपते रहे और भटकते रहे. बैरी गायन लगभग मूक हो गया और गोपालराम केवल एक टेलर मास्टर के रूप में ग्रामीणों के कपड़े सीता रहा और भटकता रहा. कभी वह हल्द्वानी तो कभी रामगढ़, तो कभी कौसानी तो कभी सोमेश्वर आदि स्थानों में चक्कर काटने लगा. जान का भय था और रोटी की तलाश थी अतः कलाकार की कला अपनी प्रेयसी के बहलाने तक सिमट गयी. दिन भर के श्रम से थककर रात्रि की उदास और निःस्तब्ध वेला में किसी गोठ या किसी छाने या झोपड़े में गोपालराम अपनी प्रियतमा को मालूशाही के आंसू भरे गीत सुनाता और दोनों अपने बिछड़े हुये प्रियजनों को रोते, सिसकते और सो जाते.
गोपाराम की सुवा-प्रियतमा-अर्धांगिनी अपने प्यारे जीवन साथी के कष्ट न देख सकी. वह मन ही मन मान बैठी की उस अभागन के प्यार ने ही गोपाल की ख़ुश और मस्त जीवन में अभाव तथा यातना का विष घोला है. वह बेचारी भीतर ही भीतर पश्चाताप तथा वेदना की आग में धीरे-धीरे झुलसती रही. वह बुझती रही किन्तु अपनी वेदना को प्रायश्चित के रूप में पालती रही. वह घुलती रही और अंततः क्षय रोग से ग्रस्त होकर कुछ वर्षों तक अपने साथी का साथ निभाकर वह चिरअनंत की ओर चली गयी. छोड़ गयी अपनी अन्वार, अपने रुप-रंग के एक शिशु बालक को और छोड़ गयी अपने एकाकी साथी के वर्षों से उपेक्षित, धुआं खाये हुड़के को.
टूटा हुआ गोपीराम अपने हुड़के को साथ लेकर कौसानी की ओर चला गया. ओसीली संध्याओं और जुन्हाई रातों में हुड़का फिर घुमकने लगा. आसपास के ग्रामों के आँगन में राजूला मालूशाही की प्रेम कथा गूंजने लगी तथा असंख्य श्रोताओं को मंत्र मुग्ध करने लगी और गोपाल राम टेलर राजूला मालूशाही की गाथ का प्रख्यत गायक गोपीदास बन गया क्योंकि कौसानी गांव के आस-पास के सभी ग्रामीण उसे गोपीदास के नाम से पुकारने तथा जानने लगे. उसका यही गायक नाम अधिक प्रचलित होता गया. यही नाम गोपालराम ने भी ह्रुदय से स्वीकार किया लेकिन स्वीकार क्यों किया संभवतः उसकी दिवंगत जीवन सहचरी का नाम गोपी या गोपुली रहा हो या उसे पत्नी के नाते अपनी राशि का नाम देकर गोपाल भी गोपुली या गोपी कहता हो और इसप्रकार वह अपने को अपनी प्रियतमा का दास कहलाना ही पंसद करता था. क्योंकि अब तो वह उसके कंठ में छुपी रहती थी और रूपांतरित हो चुकी थी दर्दीले स्वरों में.
कौसानी में दर्जीगिरी का काम रोटी खाने के लिये और राजूला मालूशाही का गायन अपनी अदृश्य संगिनी को सुनाने के लिये करते हुए गोपीदास ने शेष जीवन व्यतीत किया और इस तरह वह दिन बैराठ घराने के यशस्वी गायक श्री गोपीदास ने अपने दर्दीले कंठ को महाशून्य की निस्तब्ध नीरवता में विलीन कर दिया. गोपीदास नहीं रहे. शेष रह गयी उनके मधुर कंठ की स्वर लहरी, इने-गिने कुछ टेपों, स्पूलों और कैसेटों में आबद्ध होकर स्वर्गीय श्री गोपीदास न तो प्रांतीय राजधानी न ही देश की राजधानी में और न ही लोकोत्सवों में अथवा प्रांतीय पर्वों में बुलाये गये. किन्तु वह गूंजते रहे असंख्य ग्रामीणों एवं ग्राम्याओं की कंदराओं में.
हाँ, यह सत्य है कि आंसू पोछाई के रुप में उनके गायन का कुछ अंश मैंने सन 1958 में ध्वनि आलेखित किया और नाम-मात्र के लिये उन्हें पत्रम-पुष्पम अर्पित किये थे यह भी सत्य है कि पर्वतीय लोक संस्कृति के मर्मज्ञ मोहन उप्रेती ने गोपीदास की राजुला मालूशाही को ध्वनि आलेखित करके संगीत नाटक अकादमी नई दिल्ली में मूल्यावशेष के रुप में सुरक्षित कर दिया है. मैं डॉ माइजनर के काम को सराहता हूँ और घोषणा करता हूं कि यदि भविष्य में गोपीदास का नाम विश्व के गाथा गायकों में आयेगा, तो उसका श्रेय डॉ माइजनर को जायेगा और जाना भी चाहिये क्योंकि गोपीदास को मूल रूप से सुरक्षित रखने में उन्होंने अब तक बहुत परिश्रम किया है.
गोपीदास ने कभी भी परम्परा से हटकर नहीं गाया और न ही अपनी गायकी में इधर उधर के प्रभाव पढ़ने दिये. वह आँख में हरी पट्टी बांधे तांगे के उस घोड़े का अनुसरण करते रहे जो कि अपने सन्मुख पथ की लोक पकड़ चलता रहता है, आजीवन वही गाते रहे जो उन्होंने अपने पैत्रक गांव सकार में उस मेवाड़ी ठाकुर गायक के मुंह से सुना था जिसे आगे सुनाया दादा तथा जिसमें संशोधन किया उसके टेलर मास्टर पिता ने.
1 जनवरी 1975 में कौसानी के शिखर से उनका स्वर लुढ़क गया और कोसी व गोमती की घाटी में डूब गया. दो धाराओं के जल में घुल गया और खेतों की माटी में भीग गया. जनजीवन से उभरा स्वर उसी में विलीन हो गया.
किन्तु उसके ध्वनि आलेखित बोल हमेशा गूंजते रहेंगे उनके हृदयों में जो उन्हें सुनेंगे. किन्तु मेरे अंतर्मन की घाटियों में उन स्वरों के अतिरिक्त वह बोल भी गूंजता रहेगा जो गोपी ने 1975 में मुझसे बोले थे –
“हाँ साहब! वह पैठी है मन के भीतर.”
आज से कोई ढाई दशक पहले ‘पहाड़’ द्वारा एक महत्वपूर्ण मोनोग्राफ छापा गया था. ‘गोपी-मोहन’ नामक इस मोनोग्राफ का सम्पादन विख्यात लोक-कला कर्मी बृजेन्द्र लाल साह ने किया था. इसमें गोपीदास के अलावा एक और महान कुमाऊनी लोकगायक मोहन सिह रीठागाड़ी पर भी आवश्यक सामग्री थी.
(‘पहाड़’ पुस्तिका ‘गोपी-मोहन’ से साभार)
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