मौखिक होने के कारण लोकगीत परपंराओं की अनेक चीजें अछूती रह जाती हैं. मसलन कुमाऊनी लोकगीतों के दौरान में कहे जाने वाले दोहे. अक्सर ऐसा देखने को मिलता है जब लोक कलाकार छबीली या अन्य लोकगीत गाते तो उसकी शुरुआत दोहे से करते थे.
(Kumaoni Dohe Kumaoni Folk)
लोक कलाकारों द्वारा गाये जाने वाले इन दोहों की शैली कुमाऊनी होती. जनमानस के समझने के लिये दोहे में पूर्णतः स्थानीय प्रतीकों का प्रयोग होता. जैसे एक दोहा कुछ इस तरह से है –
सदा न फूले तोरई, सदा न सावन होय
सदा न जोभन थिर रहे, सदा न जीवै कोय
उपदेश आधारित इस दोहे में ऐसे प्रतीक प्रयोग में लाये गये हैं जो स्थानीय जनता को आसानी से समझ आ सकें. दोहे की परिभाषा अनुसार मात्राओं की गणना करने पर भी कुमाऊनी शैली का यह दोहा बिलकुल सही है.
(Kumaoni Dohe Kumaoni Folk)
कुमाऊं के छबीली गायकों ने कबीर और तुलसी जैसे कवियों के दोहों को भी अपनी भाषा के अनुरूप ढालकर गाया है. एक उदाहरण कुछ इस तरह है –
कविरा संगत साधु की, हरै और की ब्याध
ओछी संगत नीव की, आठों पहर उपाध
तुलसी दया न छोड़िये, जब लग घट में प्रान
कबहूं दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान
दोहों में ऐसे विषय भी शामिल किये जाते जो उनके श्रोताओं के करीब होते. जैसे पहाड़ के लोग लम्बे समय से बाहर जाकर नौकरी किया करते. ऐसे में एक लोक कलाकार अपने श्रोताओं का मर्म पकड़ता हुआ एक दोहा कुछ इस तरह शुरू करता है –
नदी किनारे रौखड़ा, धोबी कपड़ा धोय
तुम दिल्ली हम आगरा भेट कहां से होय
वर्तमान में लोक कलाकारों को मात्र मनोरंजन करने वालों की दृष्टि से देख जाता है. इस वजह से शायद अब इस तरह के उपदेशात्मक दोहे कुमाऊनी लोकगीत परम्परा से पूरी तरह विलुप्त हो चुके हैं. दूसरा लोककला समाज का विषय है. वर्तमान में लोककला समाज से हटकर मंच का विषय हो गयी है. जब किसी लोककला का हिस्सा उसका समाज ही न हो तो उसमें समाज की बातें आने का सवाल ही नहीं है.
(Kumaoni Dohe Kumaoni Folk)
नोट – यह लेख वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी ‘जुगल किशोर पेटशाली’ की पुस्तक ‘कुमांउनी लोकगीत’ में लिखे दोहों के आधार पर लिखा गया है.
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