यह लेख चन्दवरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ ग्रन्थ के बीसवें अध्याय ‘पद्मावती समय’ का कथासार है. ‘पद्मावती समय’ ‘पृथ्वीराज रासो’ के 69 अध्यायों में से एक अध्याय है. इस अध्याय में कुमाऊं का जिक्र मिलता है और कुमाऊं का राजा कुमोदमणि बताया गया है. इस अध्याय में पृथ्वीराज द्वारा कुमोदमणि के युद्ध का भी जिक्र है अध्याय में राजा कुमोदमणि और उसके सैनिकों को अत्यंत वीर बताया गया है. साल 1964 में प्रकाशित ‘पद्मावती समय’ डॉ. हरिनाथ टंडन की रचना है. किताब के आवरण चित्र पर लिखा गया है – चन्दवरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ (पद्मावती समय). काफल ट्री में यह लेख डॉ. हरिनाथ टंडन की किताब से साभार प्रकाशित किया जा रहा है – सम्पादक
(Kumaon in Historical Books)
‘पद्मावती’ समय का कथा सार
पूर्व दिशा में समुद्रशिखर नामक एक विशाल दुर्ग था. यादववंशी राजा विजयपाल वहाँ का शासक था. वह अत्यन्त शक्तिशाली राजा था. उसके पास अथाह सम्पत्ति, विशाल सेना तथा विस्तृत प्रदेश था. समुद्र पर्यन्त उसका यशोगान हुआ करता था. वह अद्वितीय वीर था और सन्नद्ध रह कर समस्त पृथ्वी के राज्य- वैभव की रक्षा किया करता था. उसके दस पुत्र और पुत्रियाँ थीं. पद्मसेन नामक उसकी सुन्दरी रानी थी. उसके गर्भ से पद्मावती नामक एक अनिन्द्य सुन्दरी कन्या ने जन्म लिया.
पद्यावती चन्द्रकला के समान सुन्दर थी. यह रति के समान आकर्षक तथा अनुराग उत्पन्न करने वाली थी. पशु-पक्षी, जड़-चेतन, सुर-नर सभी उसके सौदर्य को देख मुग्ध हो जाते थे. उसके शरीर में समस्त सामुद्रिक लक्षण थे. वह चौंसठ कलाओं, चौदह विद्याओं तथा छः अंगों में निष्णांत थी. वह रति के समान सुन्दर और वसन्त श्री के समान उल्लसित यौवन वाली थी.
एक दिन वह अपनी सखियों के साथ राजभवन के उद्यान में भ्रमण कर रही थी कि उसने एक शुक देखा. उस शुक को देख वह मोहित हो गई. पद्यावती के रक्ताभ अधरों को बिम्बाफल समझ शुक लोभ में आकर जो उस पर झपटा तो पद्मावती ने उसे पकड़ लिया. और प्रसन्न होकर अन्तःपुर में ले जाकर एक स्वर्ण के पिंजड़े में बन्द कर दिया. पद्मावती अपना सारा खेल-कूद भूल तन्मय हो उस शुक्र को ‘राम-नाम’ पढ़ाने में तल्लीन रहने लगी. शुक ने पद्मावती के अपरूप सौन्दर्य तथा वयः सन्धि की अवस्था को देख प्रफुल्ल मन से शंकर और गोरा से प्रार्थना की कि इसे पृथ्वीराज वर के रूप में प्राप्त हो.
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वह शुक उद्भट विद्वान था इसलिए पद्मावती को अनेक प्रकार की कथाएं सुनाया करता था. पद्मावती हर समय उसी के साथ वार्तालाप करने को लालायित बनी रहती थी. एक दिन पद्मावती ने उस शुक से उसके देश तथा उस देश के राजा का नाम पूछा. शुक ने उत्तर देते हुए बताया कि हिन्दुस्तान में दिल्ली नामक एक गढ़ है जहाँ इन्द्र का अवतार अद्वितीय वीर पृथ्वीराज राज्य करता है. वह सांभर के चौहान वंश का सोलह वर्षीय युवक है. वह सांभर नरेश सोमेश्वर का पुत्र है. देवता के रूप में उसने अवतार लिया है. उसके योद्धा तथा सामन्त उद्भट योद्धा है. उसने सुल्तान शहाबुद्दीन गोरी को तीन बार बन्दी बनाकर उसकी सारी प्रतिष्ठा धूल में मिला दी है. वह अचूक शब्द-भेदी बाण मारने वाला ऐसा धनुद्धर है जिसके धनुष पर लोहे की प्रत्यंचा चढ़ती है. वह बलि के समान दृढ़ प्रतिज्ञ, कर्ण के समान दानी, शत सहस्र हरि-श्चन्द्रों के समान शीलवान, विक्रमादित्य के समान साहसी और शुभ कर्म करने वाला, दैत्य के समान वीर और अंशधारी पुरुष (अवतार) के समान धैर्यशाली है. उसके तेज से चारों दिशाएँ प्रतिभासित होती रहती है. वह रूप में काम- देव का अवतार है. शुक द्वारा पृथ्वीराज का यह वर्णन सुन पद्मावती रोमांचित हो उठी और पृथ्वीराज पर आसक्त हो गई.
पद्मावती शनैः-शनैः बाल्यावस्था को पार कर यौवनवती हो गई. यह देख उसके माता-पिता चिन्तित हो उठे और उन्होंने उसके लिए उपयुक्त वर की खोज में ध्यान लगाया. उन्होंने अपने कुल पुरोहित को बुलाकर सारी बातें समझाई और आज्ञा दी कि वह किसी शीलवान् शुद्ध कुल के श्रेष्ठ राजा का चयन कर उसके साथ पद्मावती की सगाई पक्की कर आए. राजा ने उस कुल पुरोहित को लग्न तथा दान की सामग्री दे प्रस्थान करने की आज्ञा दो. यह समाचार सुन समुद्रशिखर में उल्लास छा गया और मंगल वाद्य बजने लगे.
शिवालिक पर्वत श्रेणी में कुमाऊं नामक एक दुर्ग था. यहाँ कुमोदमणि नामक राजा राज्य करता था. वह अथाह सम्पत्ति और विशाल सेना का स्वामी था. उसे पद्मावती के लिए उपयुक्त वर समझ विजयपाल के कुल पुरोहित ने नारियल प्रतिष्ठित कर तथा मणिरत्नों से चौक पूर्ण कर कन्या का वाग्दान कर दिया. राजा कुमोदमणि ने सहास्य लग्न स्वीकार कर ली. सारे नगर में आनन्द की दुन्दुभियाँ बजने लगीं.
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राजा कुमोदमणि अनेक राजाओं एवं गढ़पतियों को सपरिवार निमन्त्रित कर खूब धूमधाम के साथ बारात सजाकर पद्मावती को व्याहने चला. उसके साथ उसकी सेना चली जिसमें दस हजार अश्वारोही, पाँच सौ हाथी तथा असंख्य पैदल थे. उधर समुद्रशिखर में विभिन्न प्रकार के वाद्य तथा शहनाइयाँ बज रही थीं. सारा नगर उत्साह एवं उल्लास से ओत-प्रोत हो रहा था. बारात के स्वागत के लिए अत्यन्त सुन्दर मण्डप तथा तोरण बनाए गए. विवाह की इन तैयारियों को देख पद्मावती बहुत व्याकुल हो उठी. उसने शुक से एकान्त में कहा कि तुम तुरन्त दिल्ली जाओ और पृथ्वीराज को बुला लावो. उसने पृथ्वीराज के लिए सन्देश भेजते हुए कहलवाया कि प्राण रहते पृथ्वीराज ही मेरे प्रिय बने रहेंगे इस मौखिक सन्देश के अतिरिक्त उसने पृथ्वीराज के लिए एक पत्र भी लिख कर दिया जिसमें मुहूर्त, दिन, सम्वत् आदि लिखकर आगे लिखा कि जिस प्रकार कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण किया था उसी प्रकार तुम निश्चित दिवस को नगर के पश्चिम में स्थित शिव मंदिर से प्रातः पूजा के समय मेरा, अपहरण करो.
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पद्मावती के पत्र को लेकर शुक वायुवेग से दिल्ली जा पहुंचा और उस पत्र को पृथ्वीराज को दे दिया. पृथ्वीराज ने पत्र को पढ़ तुरंत समुद्रशिखर को चलने की तैयारियां करनी प्रारम्भ कर दीं. उसने चामुंढराय को दिल्ली का भार सौंपा और स्वयं समस्त शूरवीर सामन्तों तथा चन्दबरदायी को साथ लेकर पूर्व दिशा की ओर प्रयाण कर दिया.
जिस दिन राजा कुमोदमणि अपनी बारात के साथ समुद्रशिखर पहुंचा, उसी दिन पृथ्वीराज भी वहाँ आ पहुँचा और उसी दिन शहाबुद्दीन गौरी को भी पृथ्वीराज के इस अभियान को सूचना प्राप्त हुई. इस सूचना को पाकर शहाबुद्दीन अपने साथ अत्यन्त क्रूर एवं भयंकर लड़ाके सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर पृथ्वीराज का मार्ग रोकने के लिए चढ़ दौड़ा शहाबुद्दीन के इस आक्रमण की सूचना चन्दबरदायी ने पृथ्वीराज को दी.
कुमोदमणि की बारात के आगमन का समाचार सुन समुद्रशिखर के समस्त राजकुमार बारात की अगवानी के लिए अपने-अपने घोड़ों को सजाने लगे. समस्त स्त्रियाँ गौखों तथा छजों पर बैठ बारात को देखने लगीं. उधर पद्मावती इस दृश्य को देख अपने राजभवन में अत्यन्त व्याकुल हो रही थी और व्यग्र होकर दिल्ली से आने वाले मार्ग की ओर टकटकी लगाए बैठी थी. इसी समय शुक ने आकर उसे पृथ्वीराज के आगमन की सूचना दी. इस समाचार को सुन पद्मावती प्रसन्न हो उठी. उसने अपने मलिन वस्त्र त्याग सोलह श्रृंगार किए और मोतियों से भरा स्वयं का थाल सजा अपनी सखियों के साथ आरती करने के लिए मन्दिर की ओर प्रस्थित हुई. मन्दिर में जाकर उसने शंकर पार्वती की पूजा कर उनकी प्रदक्षिणा की और फिर उनके चरणों पर गिर पड़ी. वहीं उपस्थित पृथ्वीराज को देख उसने मोहित मुग्धा के समान अपने वस्त्र से घूंघट कर लिया.
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पृथ्वीराज ने पद्मावती का हाथ पकड़ उसे घोड़े पर बैठाया और दिल्ली की ओर रवाना हो गया पद्मावती के अपहरण का समाचार सुन समुद्रशिखर नगर में युद्ध के नगाड़े बज उठे. सारी सेना ने पृथ्वीराज का पीछा किया तो अश्वारोहियों ने आगे बढ़ कर पृथ्वीराज को जा घेरा. यह देख पृथ्वीराज ने अपना घोड़ा मोड़ा और उसके योद्धा शत्रु के साथ भिड़ गए. भयंकर संग्राम हुआ शत्रुओं की पराजय हुई और विजय प्राप्त कर चौहान- नरेश दिल्ली की ओर रवाना हुआ.
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पृथ्वीराज के बागे बढ़ते ही शहाबुद्दीन पृथ्वीराज को पकड़ने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर अपनी सेना सहित आगे बढ़ आया. उसने अपने अश्वारोहियों के साथ पृथ्वीराज को चारों ओर से घेर लिया. भयंकर रण-वआद्य बजने लगे. दोनों पक्षों के समस्त योद्धा युद्ध के लिए सन्नद्ध हो गए. यह देख पृथ्वीराज ने अपनी तलवार निकाल ली और भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो गया. दोनों पक्ष प्राण हथेली पर रख लड़ने लगे. हार-जीत का कोई निर्णय नहीं हो पाता था. सारा रण- क्षेत्र योद्धाओं, घोड़ों एवं हाथियों के छिन्न-भिन्न अंगों से पट गया. यह देख पृथ्वीराज भयंकर रूप से कुपित हो शत्रु सेना पर टूट पड़ा. उसके सामन्त गण भी भयंकर हुँकार कर शत्रु सेना का विनाश करने लगे. धूल उड़ने से रणक्षेत्र में अंधेरा छा गया. इसी समय पृथ्वीराज ने युद्ध करते हुए शहाबुद्दीन की गर्दन में अपना धनुष डाल उसे पकड़ लिया और बन्दी बना, शत्रु सेना को छिन्न-भिन्न करता हुआ दिल्ली की ओर बढ़ गया. इस युद्ध में शहाबुद्दीन की सेना के पांच सौ चुने हुए मीर तथा पृथ्वीराज के पचास राजपूत योद्धा खेत रहे. पृथ्वीराज की विजय हुई.
शहाबुद्दीन को बन्दी बना चौहान-नरेश ने गंगा पार की और दिल्ली के निकट दुर्गा मंदिर में जा पहुंचा. वहाँ पहुँच उसने शुभ मुहूत में पद्मावती के साथ विवाह किया. फिर शहाबुद्दीन को दण्ड दे तथा मुक्त कर उसने अपने राज-भवन में प्रवेश किया. चारों ओर नगाड़े बजने लगे. चन्द्रमुखी मृगनयनी सुन्दरियों ने अपने राजा का स्वागत किया और स्वर्ण थाल सजा कर उसकी आरती उतारी और मंगल गीत गाने लगीं. पृथ्वीराज ने मस्तक पर मुकुट धारण किया और माथे पर तिलक लगाया. इसके उपरान्त हिन्दुओं में श्रेष्ठ पृथ्वीराज आनन्द के साथ अपने अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए.
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