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किनारे किनारे दरिया (बान डायरी)

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काव्यांश प्रकाशन ऋषिकेश उत्तराखण्ड से प्रकाशित शिव प्रसाद जोशी की पठनीय पुस्तक ‘‘किनारे किनारे दरिया (बान डायरी) इत्तफाक से मेरे हाथ में आयी. यह डायरी लेखक ने जर्मनी प्रवास के दौरान बान शहर में अपने रोज़मर्रा के अनुभवों पर लिखी है. उनके लेखन की एक झलक मैं पहले देख चुकी थी. घर पहुंचकर उत्सुकता से मैंने ज्योंहि किताब खोली तो कवर पेज पर ही पंकज बिष्ट की टिप्पणी को पढ़ते हुए मेरी इस डायरी को पढ़ने की रुचि बढ़ गयी.
(Kinare Kinare Dariya)

पुस्तक की शुरुआत ही काव्यात्मक है. ‘‘बान एक शहर न होता तो शायरी में एक चिड़िया का घोंसला होता. जैसे कोई चिड़िया अपना घोंसला बनाकर यहां-वहां उड़ती रहती है और हवाएं और धूप और बारिशें और पेड़ और नदी… वे इसे रोज संवारते हैं और सहेजते हैं… प्रकृति अपने शहर को कितना प्यार कर सकती है ये देखना हो तो बान को देखना चाहिए.’’  बान को दुनिया का आठवां आश्चर्य बताने के लिए भी लेखक अपने कवित्व का ही सहारा लेता है.

जर्मनी के बान शहर के साथ बहती राइन नदी से प्रभावित लेखक ने इसके इतिहास, मिथकों, तथ्यों, उसके किनारे बसे शहरों, सहायक नदियों आदि का वर्णन तथा जर्मनी के वाशिंदो के लिए इसके महत्व को बहुत कम शब्दों में जिस तरह से प्रस्तुत किया है, वह पाठक तक खूबसूरती से संप्रेषित हो जाता है. भीड़ के बीच अकेले भटक रहे लेखक के उदास खालीपन को भरने की जददोज़हद में बान डायरी गद्य की काव्यात्मक प्रस्तुति लगती है. ‘‘… क्या मैंने यह जीवन खोज लिया है. क्या मैं ही वो पहला मुसाफिर हूं जो दूसरी दुनिया में आ गया है. मैं असमान में देखता हूं और उसमें झांककर अपना घर देखता हूं अपना गांव अपने लोग. असमान की टोकरी से मैंने कुछ तारे निकाले एक नदी निकाली और यहां बिछा दिया.‘‘  व्यक्ति से समिष्टि को जोड़ने की गज़ब पारंगतता ही इस लेखन की खासियत है. सूदर जर्मनी की राइन नदी के किनारे जीवन की तलाश करता लेखक एक पल में ही इराक, अमेरिका, अफगानिस्तान की टकराहट से बराबद हो रहे लाखों लोगों के बारे में चिन्तित होता हुआ अगले ही पल हिन्दुस्तान पहुंचकर हिमालय से निकल कर टिहरी के वाशिंदों को जीवन देती भिलंगना नदी से संवाद करने लगता है, जो उसके गांव के किनारे -किनारे बहती है.

ओेरहान पामुक के ‘माई नेम इज रेड’  नाम के उपन्यास का जिक्र करते हुए लेखक प्रकृति और मनुष्य के पर्यावरणीय संबधों में पेड़ को उसके आदिम रूप में ही रहने दिये जाने का आग्रह सामने लता है. लेखक शिव संगीत के प्रति अपने प्रेम और अनुराग को प्रकट करते हुए रागों के प्रभाव में अपनी बात को भी लयबद्ध तरीके से व्यक्त करते हैं ‘‘…. ज्यादा सच्चा, ज्यादा करुण, ज्यादा उदार, ज्यादा साहसी और ज्यादा प्रेम में छटपटाता मनुष्य भीतर से प्रकट होने लगता है…’’  यह पढ़ते हुए उनके भीतर से गूंजती संगीतमय आवृत्ति पाठक के भीतर भी बहने लगती है. 
(Kinare Kinare Dariya)

अपने कमरे की खिड़की के प्रति भले ही लेखक भावुक दिखता है, लेकिन इस भाव को गहराई से समझें तो खिड़की एक नज़र की माफिक लगती है यहां पर, खिड़की हमें वही दिखाती है जो हम देखना चाहते हैं. हमारे चारों ओर जो घट रहा होता है, यदि हम उसके प्रति संवेदनशील होते हैं तो हम प्रभावित होते हैं. वह खिड़की ही है जिसकी संवेदना को खोले बिना हम सही मायनों में इन्सान हो ही नहीं सकते. मार्क्स, ब्रेख्त, बिठोफ़ेन को याद करते हुए असल में लेखक निराशा में भी आशा का संचार करने की कोशिश करता है. सिंफ़नी के उस्ताद बिठोफ़ेन की कला को उजागर करते वह जर्मनी की हर धड़कन, हर कृत्य, हर भाव और पल-प्रतिपल बदलते वर्तमान को इतिहास से जोड़ने के बेहतरीन प्रयास में अपने पाठक को भी शामिल कर उन दृश्यों से एकाकार कर लेता है.

किसी भी देश समाज के सांस्कृतिक ताने-बाने को समझना हो तो मुफीद जगहें होती हैं गांव और शहर के स्टेशन. गांव जहां सांस्कृतिक तौर पर बंधे होते हैं और वहां परवाह किये बिना जीना सम्भव नहीं होता है और इसके बन्धनों को तोड़ने में सदियां लग जाती हैं. वहीं शहर के स्टेशन और इसके ईर्द-गिर्द बहता उनमुक्त बेपरवाह तलछट का जीवन तमाम पाबन्दियों से परे होता है, उसमें ठहराव नहीं होता वह बहता रहता है. यह बहाव दिखता है शिव के लेखन में भी ‘‘यह शहर रोज़ बदल रहा है यकीनन. लेकिन जो चीजे़ बदल रही हैं वे जा कहां रही हैं. क्या कोई दूसरा शहर सृजित हो रहा है. छोड़ी हुई चीज़ों का. फेंकी गयी चीज़ों का…’’ जिसे मैं रात में देखता हूं दरअसल वह बासी हो चुका शहर था…’’  यहां लेखक के मन के अन्तर्द्वन्द्व दिखता है जो कि अगली सुबह नए जीवन की प्रेरणा के साथ सैटल होने लगता है और लेखक डायचे बेले रेडियो और उसके आसपास के वातावरण से ही करीबी नहीं महसूस करता बल्कि बान को अधिक गहराई में देखने के लिए खुद को तैयार करता है. इस गहरे देखने में ही एक ओर कौए का वर्णन इस कृत्रिम और ठहरी हुई दुनिया का प्रतीक लगता है जिसमें लेखक की तरह ही हम सब भी भ्रम में जी रहे होते हैं. वहीं दूसरी ओर कबूतर ओर चिड़िया की सहजता को समेटता लेखक जीवन्तता और गति के महत्व को कम नहीं होने देता है. ‘‘… कबूतर लोगों की गतिविधियों को भी चुग रहे हैं. वे इनका क्या करेंगे. क्या वे उनसे नया शहर बना रहे हैं. क्या कोई दूसरा बान भी है. कबूतरों का बनाया हुआ. पर कहां. बान में बाकी चिड़िया बहुत कम दिखती हैं. आप पहचानने वाले हों तो उन्हें पहचान कर बता सकते हैं मैंने यह चिड़िया फलां जगह देखी और आश्चर्य मेरे पीछे-पीछे यहां भी चली आयी है …’’

जर्मनी की आज की पीढ़ी पर बाजारवाद के प्रभाव को बहुत बारीकी से देखती है लेखक की नज़र. शिव की नज़र ने जो देखा है यह समाजिक सरोकारों वाली नज़र ही देख सकती है. खुद को हम के झुरमुट में देखते वह बान की आम गतिविधियों,  समाज, परिवार,  सांस्कृतिक बनावट और सम्पूर्ण वातावरण को समेटते हैं और माहिर कलाकार की तरह ज़मी आसमां को तारों से सजाते हर लम्हा कैद कर लेना चाहते हैं अपने भीतर. इसके बीच में लेखक बादल के प्रतीक को पकड़े हुए उस अन्तरविरोध को अपने कथ्य से उजागर करता है, जिससे वह जूझ रहा है. ‘‘… बादल कृपया कुछ देर हट जाओ. आकाश को और ध्यान से देख लेने दो. इस सर्वव्यापी टिमटिमाहट में जीवन की उम्मीद कर लेने दो. बादल नहीं मानता. आपके देखते-देखते आकाश खाली हो जाता है. सारे तारे गायब हो जाते हैं….’’ इसी पैरे का अन्त होता है‘‘… बादल तुम अवसाद के बादल हो. तुमने बिठोफ़ेन को जाने दिया. जल्द ही बर्फ के बादल बनो. जल्द ही धूप की आहट के बादल बनो…’’  यहां पर लेखक की अपनों के बीच जाने की बैचनी स्पष्ट देखी जा सकती है. लेकिन वह अपने पीड़ा के साथ दृश्य, अदृश्य पात्रों, करीब और दूर आती आहटों, प्रकृति के बदलावों में डूबने का साहस भी रखता है तो उससे बाहर निकलते हुए भी कमजो़र नहीं पड़ता है. हालांकि इस समृद्ध शहर से जुडे़ गरीबी और अभावों के वर्गीय विभेद की कुछ झलक को भी लेखक की नजर पाठकों से रू-ब-रू करा पाती तो यह पुस्तक और अधिक व्यापक और गहरी हो जाती.   
(Kinare Kinare Dariya)

आशंका संभावना और उम्मीद से जूझता लेखक पाठकों को अपने और करीब लाने में सफल होता दिखता है. बहुत कम शब्दों में भाषा की पुनर्खोज करता हुआ वह स्वयं ही व्याकरण की आवाजाही में टहलता हुआ उसको जीवन्त कर देता है. ‘‘ मैं पानी मांगता और वो भाषा मुझसे क्रिया मांगती. दफ्तर के कुछ मित्रों ने मज़ाक में कहा था कि भाई ये जर्मन भाषा विकट है. सपने में आती है नृत्य करने…  यह सपाट कथन नहीं, बल्कि इंसानी सहजता का बेहतरीन पीस है. अंतर्राष्ट्रीयता के आकांक्षी शिव अपने सहपाठियों के इन्सानी मूल्यों को सम्मान देते हुए उनकी खूबियों के रंग से जितना खूबसूरत कोलाज बनाते हैं. उतने ही कलात्मक तरीके से वह  अपने कार्यस्थल डायचे वेले रेडियो के अपने सहयोगियों के हुनर की बारिकियों से भी पाठकों को रूबरू कराते हैं. झुरमुट के जिस खाके को उन्होंने खींचा है वास्तव में दुनिया को ऐसा ही होना चाहिए, अपने अस्तित्व के साथ सब में समाहित हो जाना.

अपने में ही भटकता,  अपने ही भीतर कुछ ढूंढता लेखक पूरी दुनिया में बाजार और उपभोक्तावाद के प्रभाव से बढ़ती अमीरी-गरीबी की खाई के कारणों से जूझते हुए दिखता है. दुनिया को बदलने, बेहतर दुनिया के निर्माण का विचार और उस रास्ते की तलाश में वास्तव में लेखक अपने ही द्वंद्व में भटक रहा है. वह जब इथोपियाई दोस्त मोंटी के उनके नाम के उच्चारण पर नाज़ करता है तो यहां पर संवेदनशीलता का कोमल रूप झलकता है और उस दर्शन को समझने की पीड़ा भी उजागर होती है जिसमें वह स्वयं ही उलझा हुआ है. पूरे कथ्य में अलग-अलग रूपों में पाठक लेखक के द्वंद्व में डूबता-उतरता उसकी पीड़ा को महसूस करने की कोशिश करने लगता है.

‘‘भूख मनुष्यों के पास जाने से इंकार करती रही है. वो उन्हीं के पास ज्यादा मंडराती है जिनके पेट भरे हैं. जो खा पीकर डकार ले रहे हैं. भूख को भी क्या कोई भूख है. वो एक आग को बुझाकर एक शैतान आग के लिए ईंधन जुटाने की तैयारी करती है. वो अमेरिका की, वियतनाम की, अफगानिस्तान की भूख है. वो उसकी क्यूबा की समूचे लातीन अमेरिका की और उसकी अफ्रीकी भूख रहती आयी है…’’  यह शिव के राजनीतिक सरोकार और उनकी विश्व दृष्टि है. अमरीकी साम्राज्यवादी, शोषण मुनाफे और बाज़ार की भूख मिटाने के लिए निरन्तर पिछड़े देशों को तबाह करता है. अपने निजी अनुभवों को साझा करते हुए लेखक का यह मानवीय और वैश्विक संबोधन महत्वपूर्ण है. भूख का बिम्ब सार्वभौमिक है और जरूरी अवदान है इन्सानी जीवन के लिए यहां पर भी लेखक की जनपक्षधर पैनी निगाह अपना पक्ष तय करती है. ‘‘राजनीतिक वर्चस्व जाति और धर्म की भूख जिन पर झपटती आ रही है सदियों से उन्हें हम क्या जानते हैं या देख पाते हैं या जानकर भी अनजान बन जाते हैं और रास्ता बदल देते हैं…’’ यह प्रश्न है उन सबके लिए, जो आंखें मूंद लेते हैं अपने ईर्द-गिर्द हो रहे शोषण और अन्याय से या फिर उस पर ध्यान ही नहीं देना चाहते या फिर उससे बचकर निकल जाना चाहते हैं, ताकि उनका अपना जीवन प्रभावित न हो. लेकिन जब पूरी दुनिया में फासीवाद का बोलबाला हो, मानवीयता नष्ट की जा रही हो,  स्वतन्त्रता,  समानता,  भाईचारे के लिए लड़ने वाले विचारों को कैद किया जा रहा हो, प्रतिरोध की आवाज़ों को दबाने के लिए निज़ाम चौकन्ना हो तो ऐसे वक्त में चुप्पी अपराध ही मानी जानी जायेगी.

लेखक की बैचेनी पूरी पुस्तक में घनीभूत रूप में जाहिर होती है. ‘‘ …आकांक्षा और मौन का, उम्मीद और निराशा का, प्रेम और इंतजार का. नदी पर एक नाव की तरह मेरा कमरा रखा हुआ है और ये नदी मेरे घर जा रही है. मैं कई हजार किलोमीटर दूर, विदेश में हूं और अपने घर जा रहा हूं. कमरा जितना अंदर बुलाता है उतना ही बाहर को उलीचता रहता है जैसे मैं नहीं सैलाब हो…’’  लेखक ने अपने भीतर मौजूद सैलाब को वैश्विक दृष्टि देने का प्रयास किया है जिसमें वह सफल भी हुआ है. यह दृष्टि संभवतः उनके विश्व स्तरीय विविध पुस्तकें और साहित्य पढ़ने ही नहीं बल्कि उसको गुणने का परिणाम भी कही जा सकता है. इस डायरी को पढ़ने के दौरान ही मुझे शिव के कविता संग्रह रिक्त स्थान और अन्य कविताएं की जानकारी भी मिली और उनके शुद्ध पद्य को झांकने के क्रम में कुछ देखा कुछ अभी बाकी है.

लेखक की नज़र कभी स्थिर नहीं दिखती. एक स्थान पर वह बाबरी मस्जिद की त्रासद घटना को याद करता हुआ संवेदनशील पत्रकार है. तो दूसरे स्थान पर उसकी विश्व दृष्टि अफगानिस्तान से ईराक फिर अफ्रिका से होते हुए वापस पश्चिम बंगाल के सिंगूर से मुज़फ्फरनगर के दंगों तक पहुंच जाती है. उसके भीतर एक मुकम्मल इन्सान होने, एक मानवीय दुनिया में जीने की सदईच्छा दिखती है लेकिन वह यह भी जानता है कि यह राह कठिन है, इसलिए उसकी छटपटाहट में स्वभाविकता है.

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आइन हिरसी अली की आत्मकथा ‘इनफिदेल’ पढ़ते हुए भी लेखक साम्राज्यवादी राष्ट्रों के अधीन उत्पीड़ित कौमों, विशेषकर स्त्रियों के शोषण के आयामों को सामने लाने की कोशिश करता है जो कि लेखिका के मुख्य सरोकार हैं. लेकिन इसके साथ ही वह इस लेखन की सीमा को चिन्हित करते हुए शोषण और उत्पीड़न के आयामों को और अधिक व्यापक फलक पर देखे जाने का आग्रह भी रखता है. इतिहास भूगोल की बातें करता हुआ वह इराक की युवा पत्रकार के साहस और जज्बे को भी शिद्दत से याद करता है, जो युद्ध से तबाह कर दिये गये लोगों की कहानियों को दुनिया के सामने लाने के लिए तत्पर दिखती हैं. यहां पर लेखक उस पत्रकार से अपनी तुलना करते हुए जिस अपराधबोध को व्यक्त करता है वह आज के दौर की सत्तापरस्त बिकी हुई पत्रकारिता पर प्रहार है. ‘‘…. मैं डेस्क पर बैठकर इराक की कापी से कितना न्याय कर पाता हूं. क्या मैं बिटवीन द लाइन्स जाकर वहां किसी अली या सलीम को खोज पाता हूं या किसी सहर को. क्या मैं खबर को उस तरह से देख पाता हूं जैसे कि वह लड़की देख रही है जो गोली,  धुएं बमों और बारूदी सुरंगों के कीच रिर्पोटिंग करने जाती है और किसी को नहीं पता है कि वो कौन है…’’ लेखक के कथ्य के विस्तृत फलक का आधार वास्तव में उनके द्वारा पढ़ा और उसको आत्मसात किया गया उम्दा जनपक्षधर साहित्य है. भगीरथी से राइन को जोड़ता हुआ लेखक कई बार नास्टोलिजिक होता है. हालांकि उदासी में भी वह अपने ईर्द-गिर्द के कंपन के प्रति सचेत दिखता है. सच कहूं तो अन्त आते-आते तक एक तरह का खालीपन और उदासी को मैंने भी महसूस किया और मैं लम्बे समय तक खामोश हो गयी थी, इस पुस्तक को महज दो बैठकी में पढ़ने के बाद. ‘‘बान में बिताये समय की और अपने काम की जो यादें हैं वे तो हैं ही, उसके अलावा किताब है, संगीत है एक तस्वीर है एक की-रिंग है, महात्मा बुद्व की एक छोटी सी प्रतिमा है अंगूठे जितनी, जो वहीं बान के किसी कोने में छूट गयी है और किसी को मिल गयी है, नीले रंग का एक बड़ा सा छाता है जिस पर हमारा आकाश और उसके नक्षत्र अंकित हैं.’’
(Kinare Kinare Dariya)

अन्त में मेरी बात कि पुस्तक की भूमिका में राइन नदी से जुड़ी जिस दंतकथा का जिक्र किया  गया है,  उसमें नदी के स्वप्निल बहाव में बहते हुए जो पहाड़ी दिखती है उसको खूबसूरत स्त्री की नकारात्मक और पितृसत्तात्मकता तस्वीर के रूप में गढ़ा गया है. इसका ज़िक्र करते हुए लेखक यदि अपनी टिप्पणी भी देते तो बेहतर होता. स्थापित रूढिगत प्रतिमानों को पलटने का साहस ही एक प्रगतिशील लेखक को जनपक्षधर बनाता है, ऐसा मैं सोचती हूं. राइन नदी के किनारे-किनारे लिखी गयी इस डायरी की गति के साथ जब मैं सहजता से खुद को बहते हुए महसूस कर रही थी तो कई जगहों पर मुझे लग रहा था कि कुछ छूट रहा है. आखिर जब मैंने इसको पार कर लिया और दूसरे किनारे पर पहुंच कर सोचने लगी तब महसूस हुआ कि लेखक की नज़र कुछ गहरा देखने से चूक गई है. तब महसूस हुआ कि लेखक ने बान शहर के समाज में रहते और जीते हुए उसका बारीकी से मुआयना तो किया है लेकिन उसके उजले पक्ष के साथ वह स्याह पक्ष को केवल छू पाया है. हालांकि कुछ जगहों पर बाजार के प्रभाव,  युवाओं और मध्यवर्गीय समाज के खालीपन को उकेरने का प्रयास तो किया गया है लेकिन उससे उस समाज की मुकम्मल तस्वीर नहीं उभर पाती है.

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एक अनजान देश में अपनों की याद में डूबा लेखक जिस परिवेश में रह रहा था, उस वजह से या किसी भी कारण से सही राइन के किनारे जहां तक भी वह गया,  समाज के शोषण,  गरीबी और बान शहर के टुकड़ों पर जीते जन जीवन से अपने पाठक को संवाद नहीं करवा पाया जो वर्तमान व्यवस्था का नग्न यर्थाथ होता है. जो भी रहा हो,  इतने गहरे और संवेदनशील लेखन में इसकी झलक का न होना,  मुझे इस खूबसूरत और पठनीय पुस्तक की कमी लगी है. लेकिन किसी भी संवेदनशील पाठक को यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए और लेखक की नज़र से जर्मनी के बान शहर देख आना चाहिए.

पुस्तक का नाम – किनारे किनारे दरिया (बान डायरी)
लेखक – शिव प्रसाद जोशी
प्रकाशक – काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश देहरादून
वर्ष – जनवरी 2023
मूल्य – 175 रुपये

समीक्षक –चन्द्रकला

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर नियमित लेखन करने वाली चन्द्रकला उत्तराखंड के विभिन्न आन्दोलनों में भी सक्रिय हैं और देहरादून में अधिवक्ता के तौर पर काम करती हैं.
संपर्क : chandra.dehradun@gmail.com +91-7830491584

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Sudhir Kumar

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