देवेन मेवाड़ी

खड़कदा – देवेंद्र मेवाड़ी की कहानी

कहानी की कहानी – 4

बखतऽ तेरि बलै ल्यूंल. तेरी बलिहारी जाऊं बखत (वक्त). कितना कुछ चला जाता है बखत के साथ. अब बताइए, आज कौन जानता है कि खड़कदा भी थे कभी? लेकिन, खड़कदा थे और खूब थे. आते-जाते लोग दुआ-सलाम करते, “और, खड़कदा हाल-चाल कैसे हैं? बनाना हो दो गिलास कड़क चाय.”

“खड़कदा नमस्कार, हो. एक गिलास और बढ़ा देना.”

कोई सड़क पर से ही घोड़े के साथ चलते-चलते कह रहा होता ‘नमस्कार हो, नमस्कार खड़कदा!” खैर, इंटरकालेज के विद्यार्थियों का तो अड्डा ही हुआ वह.

लेकिन, बखत बदल गया, लोग भी बदल गए और वह पाथर-छांई छत वाला खड़कदा का मकान भी जिसकी छत पर कभी कद्दू और काकड़े (खीरे) सूख रहे होते. सूखी घास के पूलों का चट्टा लगा रहता.

लेकिन,आज भी बीते समय के कैनवस पर खड़कदा मौजूद हैं और उनकी वह धुंवाती, छोटी-सी चाय की दूकान भी, और वह बूढ़ी काली कुतिया भी.

आधी सदी से भी पहले उत्तर प्रदेश सूचना एंव जनसंपर्क विभाग की मासिक पत्रिका ‘त्रिपथगा’ में छपी थी मेरी यह कहानी- ‘खड़कदा’. आज इसका पुनर्पाठ.

खड़कदा

देवेंद्र मेवाड़ी

दुमंजिली, छोटी-सी सुंदर पहाड़ी चाय की दुकान, कालेज के मुख्य गेट से थोड़ा ही नीचे, ऊपरी मंजिल में किनारे से एक जलती अंगीठी जिसके ऊपर एक केतली पानी हर समय उबलता रहता. दीवार के सहारे से लगे एक तख्त में पान के पत्तों की गड्डी और दो मिट्टी की पुरानी हाड़ियों में कत्था और चूना इधर दीवार के सहारे एक लकड़ी का संदूक और उधर के किनारे पर एक काला-सा छोटा-सा टीन का बक्स. और जिनके सहारे दुकान अपना महत्व रखती है वह है-कुछ बीड़ी व सलाई के ब्रुश और कुछ खुले डिब्बे दो-चार तख्तों पर. यही है उस छोटी-सी कोठरी की छोटी-सी झांकी-और इसी अंगीठी के कोयले एक चिमटे से ठीक करते हुए और आग फूंकते हुए हमें बैठा मिलेगा- अपना खड़कदा.

हां! हमारा अपना ही है वह और वह भी कालेज के प्रत्येक लड़के का. कालेज में प्रवेश लेने पर यदि सर्वप्रथम किसी छात्र का परिचय किसी व्यक्ति से होता है तो वह है – हमारे छात्र-प्रिय-खड़कदा. इसी कोठरी में हर समय छात्रों की भीड़ लगी रहती है और कहीं अगर बातों का अंत नहीं होता है तो वह केवल इसी छोटी-सी चाय-बीड़ी की प्रिय कोठरी में. दुनिया भर की गप्पें यहां लगती हैं और लड़के आते-जाते हैं लेकिन, इन बातों का कहीं अंत नहीं होता है. मुंह में नारियल की नली रखे थोड़ी-थोड़ी देर में धुंआ खींच कर खड़़क दा खांसते रहते हैं. साथ ही बातों में सक्रिय भाग लेते रहते हैं और लड़के चिपटे से कोयला उठा कर हिंदुस्तान बीड़ी के कस खींच-खींच कर हुल्ला हंसी में मस्त रहते हैं, या मुंह में पान दबा कर एक अंधेरे की ओर पीक थूक-थूक कर हंसी ठिठोली करते हैं. यही एक ऐसा स्थान है जहां पर छात्र बारी-बारी से सुरक्षा प्राप्त करते हैं और अध्यापकों की दृष्टि से बिल्कुल अदृश्य हो जाते हैं.     

खड़कदा ढलती अवस्था के हंसमुख मजाकिया प्रकृति के कुछ दुबले व्यक्ति हैं. हम जब आए थे इन्हें यूं ही मुंह में नारियल की नली लगाए हंसते हुए बातों में व्यस्त पाया था और अपने मकान के चारों ओर झूलते नंबर 22 सेब के हरे-हरे दानों को देख-देख कर हर्षाते रहते थे. उस समय जब कोई छात्र बातें करने को नहीं मिलता यहीं पर खड़कदा अपनी आंचलिक भाषा में पर्वतीय ग्राम-गीतों की कुछ पंक्तियां गा देता था- “निबास घुघुती निवास निवास…” और उनके मकान की बगल में बने घास के ऊंचे लूट के सिरे पर बैठी घुघुती दिन की धूप में गाती रहती- “घूघूती…..घूघूती…” लगता था मानों इन दोनों गीतों में कोई महान संबंध हो. बैलों की घंटियों की आवाज जब धीरे-धीरे दूर चली जाती तो खड़कदा अपनी लड़की को वहीं बैठे-बैठे आवाज देता- ‘खष्टी!’ और उसे बैलों को हांक लाने को भेज देता, कक्षा से कोई छात्र यदि बीड़ी के कस खींचने पहुंच जाता तो खड़क दा भी गीत की अंतिम पंक्ति गाते हुए अंदर आ जाता और फिर वही अंत-हीन बातों का सिलसिला चालू हो जाता.

खड़कदा का वसंत अभी नहीं ढला था. स्त्री थी, दो लड़कियां थी और एक लड़का. लड़का प्राइमरी स्कूल जाता था, छोटी लड़की सड़क के मोड़ पर पत्थरों का मंदिर बनाती और धूल चढ़ा-चढ़ा कर पूजा करती थी. तभी दाड़िम के फूलों की बारात सजा कर गुड़िया का ब्याह करती और बड़ी लड़की बड़ी केतली में चाय के लिए पानी भर लाती. तथा स्त्री बैलों के लिए घास काट लाती, यह था उनका पारिवारिक जीवन. परिवार में एक सदस्य और था- वह थी उनकी प्यारी बिटिया जूली, जो अक्सर सड़क की ऊंची दीवार से हाथ भर आगे लाई हुई मेंड पर बैठा करती या फिर मकान की छत में रखी घास के बीच जब चार-छह बच्चे हो जाते तो रात को मकान के एक कोने में और दिन को आंगन में धूप सेंका करती.

मकान के पीछे एक नारंगी का पौधा तथा आगे कुछ सेब, एक अमरूद तथा एक कागजी नीबू था. कुछ मालटा के सुंदर पीले-पीले फलों से लदे हुए पौधे भी थे एक खुबानी का पेड़, जिसकी शाखें सड़क की ओर थीं बड़ा सुंदर लगता. इन्हीं तमाम सुंदर-सुंदर फलों को देख-देख कर खड़कदा का दिल हरा हो उठता था. इन्हीं पेड़ों के नीचे कि भूमि में उन्होंने कुछ अदरख बो डाली थी. शीत में तब खड़कदा कच्ची अदरख की गरम चाय पीकर प्रसन्न होते थे, तब इनकी जिंदगी कितनी खुशहाल थी. चूड़ीदार पायजामा, कमीज, टोपी पहने खड़कदा के अधरों पर मुस्कान ही दिखाई पड़ती थी और जवान ने तो मानों मजाकों के अलावा और शब्द न निकालने की कसम ले रखी थी. और इसी प्रकार से दो-तीन शीतों की अदरख उन्होंने चख ली, वह कुरमुरी अदरख जिसके लिए खड़कदा को जेठ की धूप ही परेशान करती और न भादों की बरसात ही. खड़कदा निचली मंजिल में दूकान ले आया जिसमें अब तक किराएदार की दूकान थी, वह छोटी-सी कोठरी एक लड़के को रहने के लिए दे डाली, सेब के पौधे सूखने लगे हैं क्योंकि खड़कदा महीने में एक-एक सूखी डाल काटते हुए दिखाई देता है, नारंगी का पौधा भी धीरे-धीरे सूख रहा है और दूकान का मुंह अब सड़क की ओर है, किंतु छिपे हुए छात्र तख्तों की कोठरी के अंदर होने से दृष्टि में नहीं आते, केवल जलेबियों से भरा थाल ही नजर आता है.

इधर अब काफी चीजें रख डाली हैं सेव, मिसरी, मेवों के साथ ही साथ एक टीन में कुछ पाक तथा बिस्किट भी रख डाले हैं, इसी से यहां पर चाय-बीड़ी की भीड़ लगने लगी है. आगे से दो बेंच भी टिका दी हैं. टीन की एक छोटी-सी छतरी डाल दी है जिस पर गणेश मार्का शुद्ध तेल का लेबल अभी भी चिपका है, नारियल पीने के साथ ही साथ सूंधने के लिए एक डिब्बे में तंबाकू भी रख डाली है. अब भीतर बैठे छात्रों के साथ बातें, जलेबी तलते हुए पूरी की जाती है. खड़कदा की दुकान पर भीड़ शायद कुछ और अधिक बढ़ती यदि छात्रावास के निकट सड़क पर एक नई दुकान न बन गई होती. इस दुकान के कारण अब छात्र इधर कम आते हैं. इससे निराशा हुई, दुख हुआ. खड़कदा ने एक बार फिर प्रयत्न किया लेकिन व्यर्थ गया. दुकान कई-कई दिन बंद भी रहने लगी. यों उसके बढ़ते हुए खुशहाल जीवन पर आघात हुआ और वह उदास हो उठा. वह डिब्बे की तंबाकू सूंध-सूंध कर घंटों बैठा सोचा करता या धीरे से उठ कर ऊपर किसी वृद्ध की दूकान में जाकर घंटों बातें करता. बस माथे पर तीन-चार गहरी रेखाएं बन गई और अपने खुरदरे हाथों को जब वह माथे से लगाता तो लगता मानों उसने किसी सुंदर-सी जमीन को लेकर उसमें गहरा हल चला दिया हो, पर उसमें बीज न छिड़क सका हो.

यों निराशा में ढल रहे खड़कदा की जिंदगी के दिवस और उधर उस छह बच्चों की सूखी मां जूली के जीवन में भी एक तूफान आया, उसकी कमर को लकवा मार गया. वह धीरे-धीरे हड्डियों का ढांचा रह गई. खड़कदा को उसकी हड्डियों के ढांचे से अपने जीवन का नक्शा-सा दिखाई पड़ता. एक दिन शीत पड़ा और  ठंड के मारे जूली के कंकालों में उलझे प्राण-पखेरू निकल अपनी नीड़ को गए, और उसी खाक को लेकर खड़कदा चुप-चाप बैठा घंटों सोचा करता है. अब खड़कदा का एक और छोटा-सा बच्चा सड़क पर खेलता है और उसी को देख-देख खड़कदा अपने सूखे होंठों में मुस्कान भर लेते हैं. फिर छाती पर हाथ रख कर खांसते हैं- एक वसंत आया था, जो धीरे-धीरे ढल रहा है.

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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Girish Lohani

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  • हमेशा की तरह बहुत सुंदर रचना अगली रचना का इंतजार रहेगा

  • शब्दों के मोहक चित्र बनाना कोई आपसे। बहुत सुंदर कहानी, हार्दिक बधाई।

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