पहली बार केदारनाथ गया तो वहां के हाल देख पर्यावणविद सुंदरलाल बहुगुणाजी का कहा याद आया कि ग्लेशियर धीरे-धीरे मरुस्थल में बदल रहे हैं. नए उत्तराखण्ड को प्रकृति और पर्यावरण की कोई परवाह नहीं. न ही आपदा प्रबंधन की कोई चिंता किसी को है. सुंदरलाल बहुगुणाजी चले गए लेकिन उनकी बातें आज भी सवाल करती महसूस होती हैं. अब हिमालयी क्षेत्रों में जब भी जाना होता है तब वहां के हालातों को देख उनकी बातें सच जैसी महसूस होती हैं.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
बागेश्वर जिले में सुंदरढूंगा घाटी का रास्ता ठीक हो जाएगा की आश लगाए तीन महिने निकल गए लेकिन रास्ता सिर्फ जिला पंचायत की बैठकों के साथ ही उनके बहिखातों में ठीक होकर फिर से न दिखनी वाली विचित्र आपदा में ध्वस्थ हो जा रहा था. इस दौरान कई पर्वतारोही मित्र इस घाटी से जब लौटकर आए तो उन्होंने रास्ते के अदभुत नजारे दिखाए. एक जगह पर तो उनकी टीम चट्टानों पर छिपकली की तरह चिपकते हुए रेंग जैसी रही थी और नीचे सुंदरढूंगा की बर्फिली नदी उन्हें निगलने को आतुर हो रही थी. एक जगह पर साठ डिग्री का ढलान लिए तिरछे पहाड़ के खिसकते मलवे में रस्सी थामे लोग आ-जा रहे थे. ये जगह पिंडर घाटी के जातोली गांव से कठहलिया के बीच में ‘डूगिंयाडॉन’ नामक जगह पर है.
वर्ष 2013 की आपदा ने यहां पर करीब किलोमीटर भर का रास्ता निगल लिया था, तब से इस रास्ते को ठीक करने का बीड़ा जिला पंचायत पर है. विधायक, जनप्रतिनिधि के साथ जिला पंचायत मिलकर तब से इस रास्ते को ठीक करने के नाम पर अपनी पुश्तों के लिए जोड़ने में जुटी पड़ी है. रास्ता नहीं बनना था सो नहीं बना. आगे कब तक बनेगा इस बारे में नेता-ठेकेदारों की दया हुई. इस रास्ते को बनाने के बजाय कठहलिया से उप्पर के सुंदर मखमली बुग्यालों को काटकर जबरदस्ती रास्ते बना दिए गए हैं लेकिन टूटे रास्ते की सुध किसी को नहीं है.
इन हालातों के चलते सुंदरढूंगा घाटी में जाने के विचार को आगे खिसका दिया. बेचैन मन हर पल हिमालय की ठंडी वादियों के सपने दिखाने में लगा रहा. इस बीच चारधाम यात्रा की बंदिशे हटी तो केदारनाथ के लिए साथियों में हामी बन गई और पांच की संख्या दस में तब्दील हो गई. 15 अक्टूबर 2021 को मौसम साफ था. वैसे भी अक्टूबर की शुरूआत से ही मौसम गुनगुना हो जाता है. बागेश्वर से सुबह सात बजे सोनप्रयाग के लिए दो वाहनों में हम निकल पड़े. ग्वालदम से पांचेएक किलोमीटर बाद ताल नामक जगह पर ‘होटल हरियाली ताल ढाबा’ में ही नाश्ते करने का तय हुआ. गढ़वाल के इस मार्ग में ग्वालदम से कर्णप्रयाग के बीच में होटल-ढाबों से अकसर खट्टा अनुभव ही मिला.
तुंगनाथ की एक बार की यात्रा में, नाश्ता आगे साफ-सुथरी जगह में करेंगे की बात पर हम नारायण बगड़ पहुंचने को हुए तो डॉ. राजीव उपाध्याय के भाई विनीत उपाध्याय ने पेट दबाते हुए मासूम नजरों से हमें देखा तो वहां शुरूआत में ही अमृत मेडिकोज की छत में एक रंगबिरंगी झोपड़ीनुमा ढाबा दिखा तो गाड़ी वहीं किनारे पर टिका ली. ‘प्रिंस होटल एवं रेस्टोरेंट’ में नाश्ते के लिए वहां गए तो ढाबे के अंदर का ढांचा ही समझ में नहीं आया. नाश्ते की बात का कोई उत्तर जैसा नहीं मिला. बमुश्किल समझ में आया कि दुकान स्वामी के हिसाब से अब दोपहर का टाइम हो गया, नाश्ता नहीं, खाना मिलेगा और वह भी नॉनवेज और वेज. हमारे हिसाब से कुछ नहीं मिले पाएगा. खाना तैयार होने लग गया इस बीच प्रिंस होटल के मालिक ने दो फोटो एल्बम हमारे सामने रखते हुए कहा- सर.. हमारा होटल जो है ना पूरे उत्तराखंड में फेमस है. इसमें देखो काफी सारी फोटोज हैं. कई दिग्गजों ने यहां खाना खाया है.
एल्बम के कुछ पेज पल्टे. उसमें स्थानीय लोग, कुछ पुलिस वाले कुछ एसएसबी वाले कुछ सीआरपीएफ वालो के फोटोज के साथ प्रिंस होटल के मालिक की भी अंडर शर्ट में अपनी बॉडी दिखाते हुए फोटोज सजी थी. इसके अलावा उन्होंने अपने परिवार की फोटो भी उसने लगाई हुई थी. हमें कुछ समझ में नहीं आया तो एल्बम बंद कर दी. उम्मीद थी कि एल्बम में माउंटेन के बारे में या गढ़वाल के बारे में कुछ जानकारियां मिलेंगी लेकिन इस एल्बम का फसाना ही कुछ और रहा. होटल के अंदर एक टेप में न जाने किस महाराज के प्रवचन चल रहे थे जो बार-बार यही बता रहे थे कि सच की राह पर चलना है और जिंदगी को बांसुरी की तरह मस्त हो बजाना है. जिंदगी नमक की तरह होनी चाहिए. नमक में कभी कीड़ा नहीं लगता है. जिंदगी, मीठे की तरह नहीं होना चाहिए जिसमें कीड़ा लग जाता है.
इस बीच टेबल पर पानी की दो बोतल, चार गिलास, चार खाली प्लेट सज गई. कुछ देर बाद कुछ प्लेटों में जो खाना आया उसे देख लगा कि ये तो दो छोटे बच्चों के लिए भी कम पड़ेगा. लच्छा पराठा के नाम पर रोटी को लंबा बेल उसे तवे में सेककर उसमें हल्का धनिया डालकर दो टुकड़े करके हमारे प्लेट में सजा दिया गया. कुछ देर में एक बालिका जो कि होटल स्वामी की बिटिया लग रही थी एक गिलास में प्लास्टिक के चार-पांच फूलों का गुलदस्ता बनाकर टेबल पर इस तरह रख गई कि इसे फाइव स्टार समझ लेना. मानो हलाल करने की पूरी तैयारी कर ली गई हो. मिर्ची मांगी तो पता लगा होटल में मिर्ची ही नहीं है, उन्होंने अपने एक बालक को दौड़ा दिया. मिर्च ने नहीं आनी थी तो नहीं ही आई. आधा-अधूरा खाना खाने के बाद बाहर वॉश बेसिन की ओर आए तो वो भी किसी अजायब घर के एंटीक पीस की तरह दिखा. एलमुनियम के तारों के बीच हवा में झूलते वॉस बेसिन और उसके नीचे ड्रेनेज पाइप से किये जुगाड़ देख लगा कि जितनी मेहनत इस पर की गई है यदि ये नहीं भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता.
‘बिल कितना हुआ?’ पूछने पर उन्होंने आठ सौ रूपया बताया तो हम हैरत में पड़ गए. इतना महंगा क्यों है. हर जगह खाना तो पचास-साठ रूपये में मिल जाता है? इस पर प्रिंस के मालिक ने बड़ा अजीबो-गरीब उत्तर दिया- साहिब… अभी होटल में लड़के हैं नहीं ना. साले! काम ही नहीं करना चाहते हैं. इसलिए खाने में कई चीजें कम है. वैसे थाली में कुछ मीठा भी बाद में मिलता है लेकिन बनाने वाला कोई नहीं है और भी कई आइटम मिलते हैं लेकिन क्या करें काम करने के लिए कोई तैयार ही नहीं है इसलिए मजबूरी में खुद ही बना रहे हैं.
‘तो… जब खाना पूरा नहीं देते हैं तो रूपये इतने ज्यादा क्यों ले रहे हैं?’ पूछने पर उनका कहना था- अब थाली का जो रेट है वो तो हम पूरा ही लेंगे न. अब उसमें कुछ आयटम कम हैं तो मेरा क्या दोष हुआ? मन ही मन उन्हें यह दुआ देकर हम आगे चल पड़े कि चलो ठीक है साहिब आपका होटल यूं ही उत्तराखंड क्या देश-विदेश में भी फेमस होते रहे और लोग यहां आपके पास आने की बजाय उस दिन व्रत रखना ही मुनासिब समझें.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
बहरहाल! इस बार ग्वालदम के बाद ताल नामक जगह में ‘होटल हरियाली ताल ढाबा’ में तंदूर पराठे के साथ छोले और चटनी का नाश्ता लाजबाव रहा. आल वेदर रोड के चौड़ीकरण के काम के चलते यहां से कर्णप्रयाग तक की सड़क काफी डरावनी है. वैसे इस सड़क का काम दो दसक से चलते आ रहा है. विकास के नाम पर पहाड़ों को मशीनों से जिस तरह से काटा जा रहा है, उस पर पहाड़ भी अपना प्रतिशोध दिखा ही रहा है लेकिन हमारे नीतिनियंता कुछ भी समझने को तैंयार नहीं होते हैं. उन्हें अपना भी तो विकास करना हुआ. थराली, नारायणबगड़ होते हुए कर्णप्रयाग पहुंचने के बाद सड़क की हालत थोड़ा सा सही मिली. यहां से आगे रूद्रप्रयाग का रास्ता पकड़ लिया. रुद्रप्रयाग अलकनंदा तथा मंदाकिनी नदियों का संगमस्थल है. यहाँ से अलकनंदा देवप्रयाग में जाकर भागीरथी से मिलती है तथा गंगा बन जाती है.
भांजा नितीन, भतीजा अरूण समेत आलोकदा और फर्सवाणजी के बच्चों ने ‘दोपहर हो गई है खाना खिला दो रे’ का समवेत नारा लगाया तो फर्सवाणजी ने बताया आगे चैंस-भात बहुत बढ़िया मिलता है वहीं खाएंगे. रूद्रप्रयाग से दसेक किलोमीटर बाद रामपुर में एक जगह पता करने पर गोस्वामी ढाबा मिल गया. वर्ष 2004 से सुनील गोस्वामी इस ढाबे से अपनी आजीविका चला रहे हैं. नाम के अनुरूप चैंस-भात स्वादिष्ट रहा.
भोजन निपटाने के बाद आगे अगस्त्यमुनि के रास्ते पर चले तो साथी जगदीश उर्फ जैक ने गुड़िया के बाल खाने की जिद्व ठान ली. कुछेक देर बाद लाठी में गुड़िया के बाल वाला एक बालक रूपचंद मिल गया. बरेली का रूपचंद करीब सात साल से तलवाड़ी में रहता है और इसी से अपना गुजरा करता है. कुंड के पास पहुंच बांई ओर गुप्तकाशी की सड़क पकड़ ली. आगे तीनेक किलोमीटर के बाद गाड़ियों की लंबी लाइनों का जाम लगा मिला. यात्रा पर सिर्फ हम ही नहीं थे, कांरवा देख लगा जैसे पूरा विश्व ही इस यात्रा के लिए उमड़ आया हो. मन से मैं तो ट्रैक के लिए निकला था.
भीड़ का हूजूम देख लगा कि हिमालय की इस बार की यात्रा में शांति तो मिलने से रही. गुप्तकाशी की इस सर्पिली संकरी सड़क में बड़ी-बड़ी गाड़ियों की वजह से घंटो तक जाम लगे रहना आम बात हुई. कुछ लोग गाड़ी को ड्राइवर के हवाले छोड़ पैदल निकलते दिखे तो हम भी गाड़ियों से बाहर निकल आए. नीचे घाटी में मंदाकनी नदी का प्रवाह कुंड में थमा-थमा सा दिखा. सांझ ढल रही थी. उप्पर उंचाई पर उंखीमठ में सूरज की सुनहरी लालिमा फैली थी.
आजादी से पहले और बाद कई दसकों बाद तक चारधाम की यात्राएं पैदल ही होती रही. वर्ष 1959 में रुद्रप्रयाग से आगे काखड़ागाढ़ तक सड़क बन गई थी. जिसका वर्णन ओडिशा के प्रसिद्व लेखक चित्तरंजन दास ने अपने संस्मरण शिलातीर्थ किताब में किया है. उन्होंने तब ये यात्रा देवाल के हाटकल्याणी गांव से अपने शिष्य सदन मिश्रा और उनके परिवारजनों के साथ पैदल की थी. यात्रा पढ़ावों में तब चट्टियां ही रुकने का मुख्य साधन हुआ करती थी. उन्होंने इस यात्रा का सजीव वर्णन किया कुछ इस तरह किया है-
रुद्रप्रयाग से आगे काखड़ागाढ़ से तो बस आगे नहीं जाती थी. यहां से सब लोग पैदल या कांडी या डांडी से जाते थे. उस जमाने में एक डांडी का किराया दो सौ पचास रूपया होता था. डांडिया एक तरह से पालकी जैसे होने वाली हुई. एक व्यक्ति के लिए अधलेटी अवस्था में बैठने के लिए जगह होती है. उसे चार वाहक कंधे पर उठाकर ले जाने वाले हुए. कांडी में बैठ कर जाना इतना आरामदायक नहीं होने वाला हुआ. एक व्यक्ति कंधे पर सोल्टा लेकर जाता है यात्री को किसी तरह सोल्टा के अंदर बैठना हुआ. सिर और पैर सोल्टा के बाहर होते हैं, कमर पीठ और जांघ सोल्टा के भीतर रहने वाले हुए. बहुत ही असुविधाजनक होती है यह कांडी. घोड़े पर जाने के लिए किराया तब एक रूपया प्रति मील हुआ. घोड़े का मालिक घोड़े के साथ-साथ चलता था और किराया देने वाला आरोही केवल निकम्मा हो घोड़े पर बैठ मंजिल तक पहुंचने की कल्पना में खोया रहने वाला हुआ. तीर्थ यात्रा के रास्ते पर दुकानदार ही यात्री के पालक पोषक परिचालक और सरकार सब होने वाले हैं. वर्ष में इन्हीं कुछ महीने में वह पैसों का आश्चर्य जनक व्यापार करने वाले हुए. धर्म भाव से प्रेरित हो आने वाले यात्री ही उनका शिकार बनने वाले हुए. वह लोग दुकानदार के हाथों में दिए जाने वाले पैसे को धर्मपथ पार कराने के लिए दिया गया किराया मान खुद को सांत्वना देते हैं.
Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt
‘गाड़ी में जल्दी बैठो’ की आवाज से मैं चौंका. वाहन अब सरकने लगे थे. फाटा होते हुए सीतापुर पहुंचने तक अंधेरा घिर आया था. रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी 45 किलोमीटर और गुप्तकाशी से सोनप्रयाग 31 किलोमीटर है. सीतापुर में ‘होटल विजय प्लेस’ में सुबह ही अगस्त्यमुनि के भट्टजी ने फोन से हमारे लिए बुकिंग करवा ली थी. होटल में घुसे. कमरे ठीक थे. बाथरूम में नए गीजर भी चमचमाते दिखे, लेकिन उनका गुप्त कनेक्शन नीचे से कहीं बंद किया गया था जिस वजह से वो भी ठंडा पानी ही मजे से उगल रहे थे.
भोजन के लिए डाइनिंग हॉल में बुलावा आया. डाइनिंग हॉल के किनारे में बनी खुली रसोई में उनींदे से दो लोग भोजन बनाने पर जुटे दिखे. थोड़ा इंतजार के बाद टेबलों में डिस्पोजल प्लेट-गिलास लग गए और उनमें थोड़ी सी रसेदार सब्जी और एक-एक रोटी भी आ गई. डाइनिंग हॉल पूरा भरा पड़ा था. हॉल में खिचड़ीचुमा आवाजें तैर रही थी. थोड़ा सब्जी दे दो… रोटी दे दो… चावल के लिए दाल दे दो… हमारी प्लेटों से रोटी गायब हुई तो कुछ देर बाद हम भी उन आवाजों में अपने सुर मिलाने लगे. वहां काम करने वाले रोबोट की तरह यंत्रवत हो किसी की भी बात का उत्तर नहीं दे रहे थे. इस पर हमारे साथी हरीश जोशी ने किचन में मोर्चा संभाला और भोजन बांटने में मदद करने लगे. बमुश्किल आधा-अधूरा खाना मिला. डिस्पोजल प्लेटें बाहर डस्टबिन में डाल दिन के चैंस-भात को याद कर उदर को समझा लिया कि कल तेरी पूजा ढंग से कर दी जाएगी.
बाद में हरीशदा ने बताया कि कोरोनाकाल में होटल बंद थे तो वहां काम करने वाले स्टॉफ की छुट्टी कर दी गई. अब यात्रा खुली तो सही लेकिन स्टॉफ नहीं बुलाया गया है. बर्तन धोने के लिए कर्मचारी रखने का विकल्प डिस्पोजल बर्तनों से पूरी की जा रही है. तभी आलोकदा आए और उन्होंने बताया कि उनके परिचित अध्यापिका राजेश्वरी अपने बेटे और साथियों के साथ बद्रीनाथ को जा रहे थे लेकिन लामबगड़ के साथ ही कई जगहों पर रास्ता बंद होने की वजह से वो भी अब यहीं केदार दर्शन को आ रहे हैं. आलोकदा ने उनके रुकने की व्यवस्था भी यहीं होटल में करवा दी. देर रात वो भी पहुंच गए. अब हमारा दल पन्द्रह जनों का हो गया.
अगली सुबह तीन बजे ही हरीशदा ने उठा दिया कि सोनप्रयाग में रजिस्ट्रेशन कराने जाना है. कार से हम दोनों सबके कागजातों को लेकर चले तो सोनप्रयाग से पहले ही पुलिस बैरियर पर रुकने का ईशारा मिला. ‘आगे गाड़ी ले जाना मना है. वहां सब पार्किंग फुल हो चुकी हैं. यहीं पार्किंग में खड़ी करो.’ जवान की आवाज कानों में पड़ी तो गाड़ी नीचे पार्किंग की ओर किनारे पर खड़ी कर दी क्योंकि अभी वापस भी जाना था. आगे घुप्प अंधेरा देख टार्च निकाल ली. सोनप्रयाग यहां से किलोमीटर भर था.
सोन गंगा और मंदाकिनी का संगम है सोनप्रयाग. सोनप्रयाग पहुंचने तक सुबह के चार बज चुके थे. यहां भीड़ का संमुद्र देख लगा जैसे कुंभ मेले में आ गए हों. रजिस्ट्रेशन ऑफिस में सर्पाकार लाइन में खड़े-बैठे लोग उंघते दिखे. इन्हे देख लगा जैसे ये रात से ही ये लाइन लगाए हो. भीड़ को चीरते हुए हरीशदा कागजों के पुलिंदों को लेकर अंदर जानकारी के लिए घुसे और कुछ देर बाद वापस आने पर बोले, ‘सबके आधार कार्डों का फोटोस्टेट मांग रहे हैं, मोबाईल में दिखाने पर नहीं मान रहे हैं.’
इकलौती फोटो स्टेट की दुकान में भीड़ एक-दूसरे पर चढ़ने को आमदा दिखी. मन किया कि वापस लौट चलूं. ‘भोले… बहुत हो गया तेरे दरबार में यहां तक आना. नमस्कार, माफ कर. अब कभी नहीं आउंगा तेरी सृष्टि के पगलाए मानसिक विकृतों के बीच में…
अगल-बगल नजर गई तो दिखा, कुछ दुकानें खाली कर उनके फर्श पर बिस्तर डाल लिए गए थे और दर्जनों यात्री टेढ़े-मेढ़े सोये अपनी यात्रा की थकान मिटा बेसुध पड़े हैं. इन सीसे वाली दुकानों के शटर खुले थे ताकि अंदर हवा आ-जा सके. केदार के नाम पर कमाई का ये धंधा भी चोखा हुआ.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
बमुश्किल घंटेभर बाद फोटो स्टेट हो सके तो फिर से लाइन में लगे. लाइन देख लगा कि कल तक भी शायद ही नंबर आएगा तो फोन कर मित्रों से मदद मांगी. सात बजे तक एक सज्जन मित्र द्वारा पास की व्यवस्था हुई तो वापस होटल की ओर अपना सामान और साथियों को लेने भागे.
सोनप्रयाग से आगे वाहन ले जाने की मनाही है तो वाहनों को पार्किंग के हवाले करने की समस्या खड़ी हो गई. हमने बाकी साथियों को कागजात थमा गौरीकुंड में मिलने की बात समझा वाहनों को पार्क करने के बाद आ जाने का तय किया. सोनप्रयाग की पार्किंग छल-छलाती दिखी तो सीतापुर की पार्किंग की शरण में ही गाड़ियां लेकर चल दिए. दो घंटे तक इस पार्किंग में जाने के रास्ते में गाड़ियां फंसी रही. पार्किंग का ठेकेदार अपना सिर थाम सभी को पार्किंग में जगह न होने की बात कह मना करते-करते उग्र हो उठा था. निराश हो कुछ वाहन वाले अपनी गाड़ियों को ठेल वहां से चले गए. पार्किंग वाले साहब से मिन्नत करते-करते बारह बज गए. बमुश्किल वो माने और हमें अंदर आने का ईशारा कर दिया. जगह कहीं नहीं मिली तो आगे पार्किंग के किनारे नए बन रहे भवन के बाहर पथरीली जगह में ही अपने दोनों वाहन ठेल कर पार्क कर दिए. रकसैक कांधे में डाल अब पार्किंग के शुल्क जमा करने के लिए पार्किंग वाले साहेब को ढूंढा तो वो अल्लादीन के चिराग के जिन्न की तरह गायब हो गए. कुछ दुकानदारों से भी पूछताछ की लेकिन कोई सफलता नहीं मिली तो केदारनाथ का लक्ष्य कर आगे सोनप्रयाग की ओर कदम बड़ा दिए. दोपहर हो गई थी तो केदार से आने-जाने वालों की वजह से सोनप्रयाग में एक बार फिर से महसूस होने लगा जैसे कुंभ के किसी मेले में आ गए हों. जहां देखो वहां विक्रय करने का बाजार सजा हुआ मिला. भीड़ का कारवां देख मन ये सोचकर विचलित होने लगा कि आंखिर हम यहां आए ही क्यों? मोबाईल का नेटवर्क काम नहीं कर रहा था. पता चला कि यहां सिर्फ ‘जीओ’ का ही राज है. कुछ साथी आगे निकल चुके थे लेकिन कौन कहां पहुंचा है ये पता नहीं चल पा रहा था. अचानक ही आलोकदा, जैक के साथ ही कुछ साथी मिले तो बिछड़ने की बेचैनी कम हुई.
वासुकी और मन्दाकिनी नदियों के किनारे लगभग 1830 मीटर की ऊँचाई पर सोनप्रयाग एक छोटा सा कस्बानुमा गांव है. सोनप्रयाग से केदारनाथ जाने के लिए अब हैली सेवा भी है. वैसे गुप्तकाशी, सोनप्रयाग, मैखंडा, जामू-फाटा और बडासू से केदारनाथ के लिए आठ हेली कंपनियों के हेलीकॉप्टर सुबह छह बजे से ही अंधेरा होने तक इस घाटी में चील-कव्वों की तरह शोर मचाते रहते हैं. वैसे गौरीकुंड के बाद चिरबासा में भी एक आपातकालीन हेलीपैड बना है.
सोनप्रयाग बाजार से थोड़ा आगे पुल के पास से गौरीकुंड के लिए जीपें जाती हैं. गौरीकुंड यहां से पांच किलोमीटर है. प्रशासन ने इनका किराया प्रति व्यक्ति तीस रूपया किया है. यहां पहुंचे तो यहां बने एक बड़े पुल के बगल से बने पैदल पुल में चिपके सैकड़ों लोग जीप के लिए लाइन में खड़े दिखे. बड़े पुल से पार जाने वालों को पैदल ही गौरीकुंड जाने का नियम बनाया गया है. लेकिन कई घंटों के इंतजार के बाद भी भीड़ आगे सरकने का नाम ही नहीं ले रही थी. दरअसल बड़े पुल से पैदल जा रहे यात्री आगे से ही गौरीकुंड से आने वाली जीपों में चुपचाप कब्जा कर ले रहे थे. इसी बीच पैदल पुल में एक युवक भीड़ को चीरते हुए आगे कोई अदृश्य-काल्पनिक साथी से ‘आ गया… आ गया… कहते हुए आगे निकल गया. हम सब उसे बस देखते ही रहे. पुल में किनारे खड़े आलोकदा को अचानक भीड़ का धक्का लगा तो उनका पैर पुल के किनारे लगी लोहे की टूटी जाली में फस गया. बमुश्किल उन्होंने पांव बाहर निकाला. उनके पांव में गहरा घाव हो गया था. रूमाल से घाव को बांध उन्होंने हमें आश्वस्त किया कि वो ठीक हैं.
भीड़ आगे सरकने का नाम नहीं ले रही कि उसी बीच एक एसडीएम साहब वहां पहुंचे. वहां की अव्यवस्था और किसी भी पुलिसकर्मी को न देख वो बौखला उठे और उन्होंने वायरलैस से हालात के बारे में आगे बताया तो आनन-फानन में वहां दो पुलिसकर्मी तैनात हो गए. धीरे-धीरे व्यवस्था ढर्रे पर आनी शुरू हुई. इस सबसे उकता हमारे कुछ साथी पैदल ही गौरी कुंड के लिए चल पड़े थे, उनमें बुजुर्ग दिगंबर परिहार भी थे. घंटेभर इंतजार के बाद जीप में घुसने का नंबर आया. बलखाती पतली सी सर्पिली सड़क में जीप का ड्राइवर तेजी से जीप दौड़ाने लगा तो एक पल के लिए सोचा कि इससे अच्छा तो पैदल ही निकल पड़ते. जीप वालों का सालभर में कुछ महिनों वाला ये त्योहार हुआ और अपने साथ सवारियों की जिंदगी को दांव में लगा वो दिनभर में बीसेक लौटाफेरी करने की जल्दी में रहने वाले हुए. बहरहाल, बीसेक मिनट बाद जीप गौरीकुंड के पास रूकी तो सांस वापस लौटी.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
गौरीकुंड में तीर्थयात्रियों, व्यापारियों और घोड़े-खच्चरों के चलते पांव रखने की जगह ही नहीं मिल रही थी. खुद पर आश्चर्य हो रहा था कि इस अथाह कुंभ जैसी भीड़ में हम खड़े कैसे हैं. गौरीकुंड, केदारनाथ यात्रा का अंतिम मोटर मार्ग पड़ाव है. अब यहां से 16 किलोमीटर की पैदल चढ़ाई का रास्ता हुआ. बाजार के साथ ही पतली सी गली में दोनों ओर दुकानों की भरमार दिखी. जहां देखो वहां विक्रय करने का बाजार सजा हुआ मिला. यहां डंडी-कंडी के साथ ही घोड़े-खच्चरों से जाने वालों की मारामार मची दिखी जो यात्रा सीजन में हर हमेशा मची रहती ही होगी. दुकानों में यात्रियों को किराए पर बांस की बनी डंडी भी मिल जाती है जिसे वापसी में वापस करने पर दसेक रूपया काटकर दुकानदार वापस ले लेता है.
केदारनाथ जाते वक्त गौरीकुंड में स्नान का नियम है लेकिन हजारों की भीड़ में वहां जब अपने सांथियों को ही खोजना मुश्किल हो रहा था तो कुंड में जाने का तो सवाल ही नहीं था. पता चला कि गौरीकुंड के अलावा केदारनाथ में चार और कुंड शिवकुंड, रेतकुंड, हंसकुंड और उदीकुंड भी हैं.
संकरी गली में दोनों ओर सजी बाजार की से जंगलचट्टी का रास्ता पकड़ हम भीड़ की सुनामी में बढ़ चले. कुछ दूरी पर स्वास्थ्य विभाग का कैंप मिला तो आलोक पांडे उसके अंदर चले गए. वहां सरल हृदय डाक्टर मिले. उन्होंने घाव साफ कर मरहम पट्टी कर टिटनस का इंजेक्शन भी लगा दिया. उन्हें धन्यवाद दे आगे का रास्ता नापना शुरू कर दिया. बाजार खत्म होने पर आगे रास्ता काफी चौड़ा मिला लेकिन भीड़, खच्चर, पालकी, कंडी वालों के बेतरतीब चलने से ये रास्ता भी संकरा जैसा महसूस हुआ.
रास्ते से नीचे नजर गई तो मंदाकनी नदी के किनारे स्थित गर्म कुंडों का निर्माण कार्य चल रहा था. बाद में पता चला कि अभी वहां स्नान पर मनाही लगी है. लगी रहे मनाही हमने कौन सा आस्था में डूबना-उतरना था. दिखावे से ज्यादा आस्था तो मन-विचारों की हुई. हांलाकि भक्तिमय आस्थाजन जो सभी कर्मकांडों को करते आए हैं और करते हैं वो अपवाद हुए. वरना तो आस्था-धर्म के नाम पर ज्यादातर तो गुस्सैल उपद्रवियों से ही हमारा पाला पड़ा.
मुझे यात्रिक फिल्म की याद हो आई जिसे मैंने यूट्यूब में देखी थी. 1952 में न्यू थियेटर ग्रुप द्वारा बनाई गयी फिल्म यात्रिक को हिन्दी सिनेमा की शुरुआती विवादित फिल्मों में डाल दिया गया. तब फिल्म का भारत भर में विरोध किये जाने की वजह से यह पूरे भारत में रिलीज नहीं हो पाई थी. इस विरोध का कारण फिल्म में ढ़ोंगी साधु ब्रह्मचारियों के अतिरिक्त तीर्थ यात्रा के नाम पर ढोंग करने वाले लोगों पर किया गया तीखा व्यंग्य था. लेकिन ये सब तो अभी भी चल ही रहा है. इस पर सवाल करने पर कहीं कोई सही उत्तर मिलने के बजाय हाय-हाय की ही आवाज उठने वाली हुई.
जंगलचट्टी के रास्ते में भी दोनों ओर बाजार सजा मिला. यहां अपने बिछड़े बुजुर्ग परिहारजी मिल गए. उन्होंने बताया कि बांकी लोग आगे निकल गए हैं. सब ठीक हैं सुन राहत मिली. आगे कुछ दूरी पर रूद्रा फाल नामक जगह पर फोटो खींचने-खींचवाने वालों में होड़ मची हुई दिखी. कुछेक जाबांज तो बंदरों की तरह चट्टानों में चढ़ झरने के नजदीक फोटो के साथ ही सेल्फी ले रहे थे. आलोकदा भी यहां रास्ते में फोटो लेने में मग्न हो लिए तो मासाब परिहारजी के साथ मैं आगे को बड़ चला. पत्थर की चट्टान पर लिखा दिखा कि भीमबली यहां से दो सौ मीटर आगे है. इस पैदल रास्ते में नींबू-पानी वाले आवाजें मारते रहते हैं- नींबू-पानी पी लो. लोग भी उन्हें निराश नहीं करते हैं. बुजुर्ग युवा परिहारजी ने नींबू-पानी की ईच्छा जताई तो एक ठेलेवाले से दो गिलास कड़क नींबू-पानी की फरमाईश कर डाली. बीस रूपये में एक गिलास. परिहारजी ने पानी पीने के बाद नींबूवाले से दो नींबू दस रूपये में खरीदे और अपनी पानी की बोतल में उन्हें निचोड़कर उसमें नींबूवाले से नमक भी डलवा लिया. ये अच्छा और सस्ता सौदा था. दस रूपये में चार गिलास नींबू पानी. नींबू पानी का ये सस्ता वाला फार्मूला परिहार मासाब रास्ते भर आजमाते रहे.
यहां आगे बोर्ड से पता चला कि गौरीकुंड से जंगलचट्टी चार किलोमीटर, जंगलचट्टी से भीमबली तीन किलोमीटर, वहां से लिंचौल चार किलोमीटर और लिंचौल से केदारनाथ का बेस कैंप चार किलोमीटर पर है. बेस कैंप से केदारनाथ मंदिर आगे एक किलोमीटर बाद है.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
केदारनाथ की यात्रा में हजारों लोगों का कारंवा आ-जा रहा था. इस भीड़ में घोड़े-खच्चरों की आगे निकलने की होड़ भी मची थी. चलते-चलते कब कौन घोड़ा-खच्चर दाएं-बाएं हो जाए ये आफत सभी पैदल चलने वालों के लिए हो रही थी. जमीं पर भीड़ का शोर और उप्पर आसमान में दर्जनों हैलीकाप्टरों का भयानक शोर से मन विचलित हो उठा. सुबह पौ फटते ही गुप्तकाशी, फाटा और सिरसी, बडासू से 11 से 12 हेली कंपनियों के हैलीकॉप्टर केदारनाथ के लिए उड़ान भरना शुरू कर देते हैं जो कि अंधेरा होने तक इन घाटियों में शोर मचाए रहती हैं. कुछ हेलीकॉप्टर तो हमें मंदाकनी नदी तल से 150 से 250 मीटर की ऊंचाई पर ही उड़ते दिख रहे थे. इन्हें तो बस पैंसा कमाना है, पर्यावरण गया तेल लेने. और जब पर्यावरण तेले लेकर आ जाएगा तो उसी से केदारजी के पीठ की मालिश कर दी जाएगी.
रास्ते किनारे कुछ जगहों पर साधुओं की मंडली भी अपनी धूनी जमाए भक्तों को बबूती लगाने के लिए ईशारे से बुलाने में लगी दिखी. अपने आसन के सामने उन्होंने त्रिशूल, डमरू के साथ ही शिव की फोटो सजाई है. इससे ज्यादा वो कर भी क्या सकते हैं. अपने को शिव का अनन्य भक्त साबित करते हुए चिलमों में चरस भरकर लंबे कश भरने में वो लगे थे. चिलम की आग में लपटें निकलती तो कई भक्त शिवभक्ति में डूब उनके पास खिंचे ही चले जाते. रास्ते में एक जगह कुछ युवा लड़के-लड़कियां भी सिगरट में चरस के कश मारते दिखे. सरेआम चरस पीते हुए वो इसे शिव का प्रसाद साबित करने में ऐसे लगे थे जैसे कि यहां शिवधाम में आने पर तो ये सब जरूरी हुआ. ऐसा लगा कि ये सब लोग यहां श्रद्वावश नहीं बल्कि मौज मस्ती के लिए ही आए हों. कुछ बुजुर्ग पालकी से यात्रा कर रहे थे. मजदूर भी अपनी कंडियों से बच्चों को लादे उन्हें केदारनाथ की यात्रा कराने में जुटे पड़े थे.
इस पागल भीड़ में यहां मैं क्यों आ गया, मेरी क्या मति मारी गई थी, अकेला होता तो शायद वापस लौट जाता कहीं दूसरी ओर हिमालय की शांत वादियों में. मन किया कि वापस लौट जाऊं चुपचाप लेकिन साथ वालों को क्या जवाब दूंगा फिर मन को समझाया कि चलो दो दिन ही हैं किसी तरह झेल ही लूंगा.
भीमबली पहुंचने पर मंदाकनी नदी के पार नजर गई तो वो रास्ता सर्पाकार सा उंचाई को जाता दिखा. भीमबली से आगे रामबाड़ा वाला रास्ता साल 2013 की आपदा में ध्वस्त हो गया था. जलप्रलय में रामबाड़ा, घिनुरपाणी और देवदर्शनी का रास्ता बह गया था. बाद में दूसरा नया रास्ता बनाया गया तो केदारनाथ की दूरी दो किलोमीटर बढ़ गई. आगे एक छोटे रास्ते से भीड़ का कारंवा आते-जाते दिखा तो हम भी उसी रास्ते हो लिए. आपदा के बाद रामबाड़ा से केदारनाथ पुल तक निम उर्फ नेहरू पर्वतारोहण संस्थान को पैदल मार्ग बनाने की जिम्मेदारी मिली तो निम ने चार मीटर तक चौड़े रास्ते का निर्माण किया. इस मार्ग पर छोटी लिनचोली, बड़ी लिनचोली और छानी कैंप पड़ाव बने दिखे. बड़ी लिनचोली अब रामबाड़ा की तरह ही चुपचाप अतिक्रमण कर अपना विस्तार करने में लगा है. यहां टेंट और प्री फेब्रिकेटेड हट्स दिखे जबकि हिमालयी क्षेत्र में इस तरह के निर्माण आपदा को ही निमत्रंण देते आए हैं. रामबाड़ा की नियति भी यही रही. लेकिन आस्था के नाम पर सब चुप्पी साध लेने वाले हुए.
धीरे-धीरे हम उंचाई की ओर बढ़ रहे थे और इधर सांझ भी ढलने लगी थी. हैलीकाप्टरों का शोर थमा तो मन में शांति मिली. लिनचोली पहुंचने तक अंधेरा घिर आया. रास्ते में जगमग करते बल्बों से प्रयाप्त रोशनी में हरीशदा, परिहार मासाब और मैं धीरे-धीरे बतियाते हुए रास्ता नाप रहे थे. हमारे सभी साथी हमसे आगे चल रहे थे.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
सात बजे फोन में मैसेज की धुन बजी तो चौंकते हुए मैंने फोन निकाला. बीएसएनएल के दो-एक डंडे ने अपने जिंदा होने का एहसास दिलाया. मैसेज नितीन का था. वो लोग केदारनाथ में पहुंच गए थे और जिस जगह रुकना था वहां का पता और फोन नंबर दिया था. मैंने अनुमान लगाया कि केदारनाथ पहुंचने में अभी दोएक घंटा लगेगा. नितीन को मैसेज भेज दिया कि नौ बजे तक हम पहुंचेगे. रास्ते में कई लोग वापस आते मिले पूछने पर उन्होंने बताया कि इस बार भीड़ बहुत है और रहने की जगह भी नहीं है इसलिए दर्शन कर अब नीचे जहां जगह मिलेगी वहां रात गुजार लेंगे. नहीं तो गौरीकुंड तो पहुंच ही जाएंगे. रुकते-बैठते नौ बजने से पहले ही हम केदारनाथ कैंप में पहुंच गए.
नितीन और अन्य साथी हमारा इंतजार करते मिले. वो यहां छह बजे पहुंच चुके थे और मंदिर की परिक्रमा भी कर आए थे. वो तुरंत ही हमें रास्ते के किनारे बने टिननुमा सैल्टर में ले गए. अंदर बीस बाई सोलह का एक हॉल था जिसके फर्श पर कुछ दम तोड़ती काली मैटरस बिछाई गई थी. किनारे पर रात गुजारने के लिए अपनी अंतिम सांसे गिन रहे सिलिपिंग बैग भी उदास नजरों से हमें देख रहे थे. रकसैक किनारे में रख कमरे के हालात देख एक-दूसरे को देख हम मुस्कुरा दिए. नीचे गोस्वामीजी के दिखाए गए स्वप्निल सपने पर अब हम मुस्कुराने के अलावा कर भी क्या सकते थे.
‘एक-एक कर खाना खा लें फिर रस्टोरेंट भी बंद होने वाला है.’ दरवाजे पर हरीशदा की आवाज से सभी का ध्यान उन्हीं की ओर चला गया. अपनी जगहों की घेराबंदी करने के बाद तीन-तीन जने टिन और छप्पर से बने रेस्टोरेंट के अंदर घुसे. ग्यारह हजार की उंचाई पर ठंड चरम पर थी. थोड़ा बहुत खाना गले में धकेल रैनबसेरे को दौड़ लगा दी. दस बज चुके थे. हम सभी पन्द्रह जने अपने शरीर को स्लीपिंग बैगों में धकेल चुके थे कि अचानक दरवाजा पीटने की आवाज आने लगी.
जैक ने दरवाजा खोला तो कुछेक लोग रात गुजारने के लिए मिन्नतें करने लगे. कमरे में बिल्कुल भी जगह नहीं थी लेकिन उनके तर्क थे कि सभी लोग बैठ कर ही रात गुजार लेंगे. हम सभी सुबह से मानसिक और शारीरिक रूप से थक गए थे और अब रातभर बैठने की कल्पना से ही मन सिहर उठा. इस बीच दुकान स्वामी आ गए और उन्होंने उन यात्रियों को बताया कि आगे धर्मशालाओं में मुफ्त में जगह मिल जाएगी, ठंड से बचने के लिए आग तापने को भी मिल जाएगी इन्हें क्यों परेशान कर रहे हो. बमुश्किल वो आश्वस्त हुए और आगे धर्मशालाओं की शरण में चले गए. मय जैकेट और गर्म कपड़ों के सिलिपिंग बैग में घुसने के बाद भी रातभर ऐसा लगा जैसे बर्फ की ठंडी चादर ओढ़ रखी हो. सोनप्रयाग में होटल विजय के गोस्वामीजी द्वारा दिया गया भरोसा याद आ रहा था. बच्चों समेत हम पन्द्रह जनों के अठारह हजार रूपये हाथों में गिनते हुए उन्होंने कहा था- आप किसी बात की चिंता न करें. वहां बहुत बढ़िया अरेजमेंट है चिंता की कोई बात ही नहीं है. दो टाईम का खाना और रहने का मात्र बारह सौ रूपया प्रति व्यक्ति. टॉयलट की सुविधा बाहर सार्वजनिक रूप से हर किसी के लिए नि:शुल्क है. मन में सवाल उठा कि बढ़िया अरेजमेंट ये होता है तो घटिया कैसा होता होगा.
सुबह पांच बजे सभी उठे तो ज्यादातर अपनी कमर दर्द की शिकायत करने लगे. वादे के मुताबिक मैटरस और सिलिपिंग बैग ने रात में माइनस डिग्री के इस हिमालयी ठंड में किसी का साथ नहीं दिया. कमर पकड़ते जैक ने बताया कि ठंड इतनी थी कि वो रातभर सो ही नहीं पाया. गिलेशिकवों में चाय के लिए ढूंढ खोज हुई. बमुश्किल रेस्टोरेंट के स्वामी जगे तो छह बजे चाय नसीब हो सकी. उन्होंने कुछ लोगों को कुछ पैंसो में रात गुजारने वास्ते अपने रेस्टोरेंट में जगह दे दी थी. वहां जगह बनाने के लिए कुर्सी-टेबल बाहर कर दिए गए थे. चाय पीने के बाद टॉयलट की ढूंढ खोज शुरू हुई.
केदार के रास्ते के किनारे बने फाइबर के टॉयलटों में भीड़ की लंबी लाइन लगी दिखी. कुछ खराब टॉयलट रस्सियों से बांधकर बंद किए गए थे. एक जोड़ीदार टॉयलट महिला/पुरूष वाला था. नंबर आने ही वाला था कि एक महिला ने महिला वाला चेंबर बिजी देखा तो वो साधिकार पुरूष वाले चेंबर में घुस गई. उधर महिला वाला चेंबर खाली हो गया था लेकिन किसी पुरूष की हिम्मत नहीं पड़ी कि वो वहां घुस जाए. इंतजार के अलावा कोई चारा नहीं था. टॉयलट के आस-पास गंदगी-कीचड़ बजबजाते हुए केदार धाम की महिमा वर्णित करता हुआ जैसा लगा. प्लास्टिक की दर्जनों बोतलें जहां-तहां लेटी-पड़ी स्वच्छता का आइना दिखा रही थी. बमुश्किल यहां से निजात मिली. आठ बज चुके थे. तभी नितीन का फोन आया कि मंदिर की लाइन बहुत बड़ी है, शायद शाम तक ही नंबर आएगा. नितीन और अरूण सुबह चार बजे ही मंदिर में दर्शन के लिए लाइन में लग चुके थे.
मंदिर के रास्ते को चले तो देखा कि दर्जनभर खाकी और हरे तंबूओं में पुलिस का अपना बसेरा है. दिन-रात वो केदार के वीआइपी भक्तों की सेवा में लगे रहने वाले हुए. दाहिनी ओर बगल में गढ़वाल मंडल निगम का रेस्ट हाउस दिखा. वहीं नीचे मंदाकनी की ओर हैलीपेड बना था जिसमें दो हैलीकाप्टर एक साथ उड़-बैठ रहे थे. वहां का स्टॉफ उनमें से नीचे से आए यात्रियों को तेजी से उतार रहा था और नीचे को जाने वालों को अंदर धकेल रहा था. यह सब तीस सेंकेड के भीतर हो रहा था और उसके बाद हैली भयानक शोर करते हुए तुरंत ही भाग जा रहा था. धर्म के नाम पर पैंसे वाले वीआईपीजों द्वारा हैली के मालिकों के लिए ये अच्छा खासा व्यापार चलता दिखा. उनके लिए यहां पर वीआईपीज के लिए शानदार लॉज बने दिखे. वो हैली से आते हैं, दर्शन कर एक तरह से एहसान सा जता जता खा-पीकर निर्वत हो हैली से वापस पैंसे कमाने चले जाते हैं.
तब यहां की देख-रेख का जिम्मा सरल व मृदु व्यवहार के प्रशासनिक अधिकारी योगेन्द्र सिंह पर था. करीब छह माह से वो हर किसी की मदद करने के साथ ही यहां हो रहे निर्माण कार्यों की जिम्मेदारी भी बखूबी निभा रहे थे. योगेन्द्रजी पहले बागेश्वर जिले में अपनी सेवाएं दे चुके थे तो उनसे मिलना लाजमी था. जैक को वो अच्छे परिचितों में थे तो उनसे ही मिलने चले गए. वो जैक के बाद मुझसे बहुत ही आत्मीयता से मिलते हुए बोले- अरे! भट्टजी पहले आते. तब मौसम बहुत खुशनुमा था अब तो मौसम भी खराब होने की चेतावनी मिली है. बातों ही बातों में योगेन्द्रजी ने बताया कि यहां पुलिस के लिए बिल्डिंग के साथ ही संगम घाट, आस्था पद समेत कई काम चल रहे हैं. चिनूक हैली से सामान आ जाता है. अभी बाद में रोपवे भी बननी है. ‘दर्शन कर लिए हैं क्या आप लोगों ने?’ उनके पूछने पर हमने उन्हें बताया कि कल से क्या-कुछ झेल रहे हैं अभी बच्चे लगे हैं लाइन में. इस पर उन्होंने चिंता जाहिर करते हुए कहा कि कल से मौसम खराब होने वाला है और ऐसे में तो हमारी टीम फस जाएगी. उन्होंने बताया कि आज तो तकरीबन दस हजार से ज्यादा की भीड़ है और इस भीड़ को देखते हुए आज सुबह साढ़े तीन बजे ही मंदिर के कपाट दर्शनों के लिए खोल दिए हैं.
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उसी वक्त एक महिला उनके पास आई और उन्हें बताया कि उनके परिवार के एक सदस्य का स्वास्थ्य खराब हो गया है उन्हें हैली से नीचे भिजवाने की कुछ व्यवस्था करवा दें. इस पर योगेन्द्रजी ने उनकी परेशानी समझ तुरंत ही हैली स्टॉफ के एक कर्मचारी को उनकी मदद करने को कहा. अचानक उन्हें हमारा ध्यान आया तो उन्होंने अपने स्टाफ से एक परिचित पुजारीजी को बुलाने भिजवा दिया. पुजारीजी आए तो उनसे कुशलक्षेम के बाद उन्होंने कहा कि आज श्रद्वालुओं की भीड़ बहुत है, किसी यात्री को रात गुजारने के लिए कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. उन्होंने धर्मशालाओं में लोगों को ठहराने बावत् पूछा तो पुजारीजी ने उन्हें आश्वस्त किया कि सभी श्रद्वालुओं की ठहरने और भोजन की व्यवस्था ठीक चल रही है. योगेन्द्रजी ने पुजारीजी से प्रार्थना कि हमें आज ही वापस जाना है यदि आपकी कृपा से इन्हें केदार के दर्शन हो जाते तो ये आज ही वक्त पर सोनप्रयाग पहुंच जाते. पुजारीजी ने तुरंत ही हामी भर दी और हमें अपने पीछे आने को कहा. सरल हृदय योगेन्द्रजी को धन्यवाद दे हम पुजारीजी के साथ हो लिए. मंदिर के आहते में पहुंचने पर देखा कि आधा किलोमीटर की तीन लाइनों में लगभग चारेक हजार लोग खड़े-बैठे हैं. नितीन और अरूण को बुला लिया. बीस मिनट बाद पुजारीजी ने हम सभी को मंदिर के द्वार पर पहुंचा दिया.
मंदिर के बाहर गणेश जी की मूर्ति द्वारपाल के रूप में विराजमान दिखी. मंदिर में प्रवेश करते ही चारों ओर नजर पड़ी, दीवारों पर पांच पांडव लक्ष्मी और श्री कृष्ण की मूर्तियां थी. हर मूर्ति के सामने पैसा देकर पुण्य अर्जित करने के लिए दान पेटियां दिखी. ऐसा लग रहा था भक्त, सेवक और पूजा के हॉल में भगवान कहीं खो गए हों. अंदर ड्यूटी वाले पुजारी, भक्तों को फटाफट निपटाने में लगे थे. अंदर पहुंचे तो वहां कुछ समझ में नहीं आ रहा था. पीछे से भीड़ का धक्का लगते जा रहा था और हम सभी यंत्रवत हो आगे को जा रहे थे. नितीन ने दक्षिणा के लिए अपनी जेब से पैसे निकाल उसमें से सौ रूपये देने चाहे, इससे पहले तुरंत ही पुजारीजी ने उसके हाथ से सारे रूपये ही एक झटके में झटक लिए. मैं बाहर को निकलने को हो ही रहा था पुजारीजी ने झल्लाते हुए मेरा हाथ पकड़ नीचे शिला में रगड़ते हुए कहा- आ जाते हैं ना जाने कहां-कहां से, कुछ पता होना भी तो चाहिए. उन्होंने भुनभुनाते हुए कहा तो मैं सिर्फ इतना ही कह- कोई शांत ढंग से बताने वाला भी तो होना चाहिए. यहां तो सब बिजनैस मैन बने बैठे हैं, बाहर निकल गया. देवता जहां स्थापित हो वहां भगवान के साथ मानव के परिचय और स्पर्श के लिए जो थोड़ी सी शांति चाहिए, वह यहां न थी.
सभी बाहर आ गए तो यहां लाए हुए पुजारीजी ने हमें एक जगह बिठाकर खुद ही हमसे अपना नाम, गोत्र बोलने को कहा. ये प्रक्रिया के बाद सभी सोच रहे थे कि पुजारीजी अब सही ढंग से पाठ-पूजा जैसा कुछ करवाएंगे. लेकिन उन्होंने सबसे अपनी दक्षिणा मांगी और मुझसे पांच सौ पर ऐंठ गए. बमुश्किल उनसे पीछा छुटाया. हर तीर्थ स्थलों पर पंडों के बारे में अनगिनत हैरतभरी किस्से-कहानियां भरी पड़ी हैं. एक किस्सा कहीं पढ़ा था कि एक बार जब पंडित जवाहरलाल नेहरू पूरी गए थे तब किसी पंडे ने अपने पुराने खाते में श्री मोतीलाल नेहरूजी का नाम खोज निकाला और उस दावे के अनुसार पंडित जवाहरलाल नेहरू से भी पंडों का महासूल वसूल किया गया.
जमीदारों के बही-खाते की तरह हर तीर्थ स्थलों में पंडे लोगों के पास एक या कई मोटे खाते रहते हैं. यह खाता उनके वंश अनुक्रम में पिता के पास से पुत्र के पास जाता है और पुत्र के पास से पुत्र के पास जाने का सिलसिला अनवरत चलते रहता है. उत्तराखंड के पंडों ने अपने-अपने बीच एक परस्पर सहायक संधि सूत्र में पूरे भारतवर्ष को बांट लिया है. दूर प्रांत से आया कोई भी यात्री इन तीर्थ स्थानों में पहुंचते ही सबसे पहले पंडों की गिरफ्त में फंसने के लिए विवश होते हैं. भगवान को प्रसाद चढ़ाने से पहले पंडों को चढ़ावा न चढ़ाने पर हमारे देश के तीर्थों में कोई काम नहीं होता है.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
मंदिर के चारों ओर साधुओं का जमघट था जो कि अपनी विशेष भेष-भूषा से सभी को आकर्षित कर रहे थे. जो भी उनकी फोटो खींचता उनसे वो दक्षिणा की अपेक्षा करते. बकायदा कुछ साधुजन तो कैमरामैंनों के इशारों पर तरह-तरह के पोज भी दे रहे थे. इसके लिए उनकी दक्षिणा पांच सौ शुरू होती थी. ये सब देख ऐसा लगा कि आंख मूंदकर भक्ति करो और भगवान के तथाकथित पंडों को रिश्वत दो. तब महसूस हुआ कि तीर्थ कभी मंदिर के अंदर नहीं मिलेगा, तीर्थ तो उसके बाहर हिमालय की शांत वादियों में मन के भीतर ही मिलेगा.
मंदिर के पीछे जाकर मंदिर की बनावट पर ध्यान गया तो मंदिर की बनावट बेजोड़ दिखी. पत्थरों को एक-दूसरे से जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तरीके का इस्तेमाल किया गया है. इसी मज़बूती के कारण ही मंदिर आज भी अपने उसी स्वरूप में खड़ा है. मैं हैरान हो सोच रहा था कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे मंदिर की शक्ल दी गई होगी.
केदार मंदिर तीनों तरफ से पहाड़ों से घिरा हुआ है. पाँच नदियां, मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी का संगम भी यही होता है. हांलाकि इन नदियों में से कुछ को अब काल्पनिक मान लिया गया है. सिर्फ मंदाकिनी ही स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है. केदारनाथ में भगवान शिवलिंग की पूजा विग्रह रूप में की जाती है जो बैल की पीठ जैसे त्रिकोणाकार रूप में है, जिस पर मेरा हाथ रगड़ा गया था. इसके बारे में मैंने कई सारी काल्पनिक दंत कथाएं पढ़ी-सुनी हैं. अब इनमें कितनी सच्चाई है इस बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं. हॉ, ये कहानियां बड़ी ही रूहानी मीठी गप्पों की तरह लगती हैं. एक कथा के अनुसार-
भगवान शिव पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे इसलिए वह अंतर्धान होकर केदार आ पहुंचे. पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि जब शिव को ढूंढते हुए पांडव यहां पहुंचे तो भगवान शिव ने बैल का रूप ले लिया और वे अन्य पशुओं के झुंड में मिल गए. पांडवों ने तब भी हार नहीं मानी और इस बीच भीम ने अपना आकार बढ़ाते हुए दो पहाड़ों तक अपने पैर फैला दिए. उनके दो पांवों के बीच से सभी गाय-बैल और भैंसे तो निकल गए, लेकिन बैल का रूप धारण किए शिव नहीं गए तो भीम ने बैलरूपी शिव को पकड़ने की कोशिश की लेकिन वो बैल के रूप में ही भूमि में समाने लगे. लेकिन इसी बीच भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया. इस पर बैलरूपी शिव का शरीर कई जगहों में बंट गया. उनके धड़ का भाग काठमांडू में प्रकट हुआ, जहां अब पशुपतिनाथ मंदिर है. भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुई. तब से इन चार स्थानों के साथ केदारनाथ धाम को मिलाकर पंचकेदार के रूप में पूजा जाता है. बाद में ना चाहते हुए भी शिव को पांडवों को दर्शन देने पड़ गए. अपने पापों की मुक्ति के लिए पांडवों ने भगवान शिव से प्रार्थना की तो शिवजी ने पांडवों को पाप मुक्त कर दिया. शिव आशीर्वाद मिलने के बाद पांडव स्वर्गारोहणी चोटी से स्वर्ग को निकल लिए थे.
केदारनाथ धाम हर तरफ से पहाड़ों से घिरा हुआ दिखा. एक तरफ है करीब 23 हजार 410 फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी तरफ है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी तरफ है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड. वर्ष 2001 में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान से माउंटेनियरिंग के एडवांस कोर्स में हमारी टीम के पन्द्रह ट्रैनरों ने केदारडोम चोटी में चढ़ाई की थी. तब चोटी में पहुंचने के बाद मेरे प्रशिक्षक दिगम्बर सिंह पंवार ने बताया कि कीर्तिबामक ग्लेशियर से केदारनाथ को भी हिमालयी रास्ता है. चोटी से हमने केदारनाथ के इलाके को समझने की कोशिश भी लेकिन हिमालयी चोटियों में बीस हजार फीट के बाद जहां तक भी नजर जाती है हिमालय का अथाह विस्तार ही दिखाई देता है.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
केदार मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसके बारे में आज तक भी कयास ही लगाए जाते रहे हैं. कुछेक का मानना है कि इसकी स्थापना आदिगुरु शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में कराया था.
जून 2013 की भीषण आपदा में आदि शंकराचार्य की समाधि ध्वस्त हो गई थी. अभी चल रहे पुर्ननिर्माण कार्य में समाधि स्थल के ऊपर आदि शंकराचार्य की 12 फीट ऊंची प्रतिमा स्थापित दिखी जिसे की अभी ढका गया था. बाद में इसका भी अनावरण होना था. तब की आपदा में करीब पांच हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे. केदारनाथ का यह इलाका चौराबाड़ी ग्लेशियर का एक हिस्सा है. वैज्ञानिक चिल्लाने में हैं कि ग्लैशियरों के लगातार पिघलते रहने और चट्टानों के खिसकते रहने से आगे भी इस तरह का जलप्रलय या अन्य प्राकृतिक आपदाएं जारी रहेंगी. लेकिन यहां जो निर्माण कार्य हो रहा है उसे देख लगा कि जैसे यहां कोई शहर बसाया जा रहा हो जिसमें कि लाखों लोग रहेंगे.
2013 की भयानक आपदा के बाद भी केदारघाटी की इस संवेदनशील इलाके को लेकर कोई भी गंभीर नहीं है. हर दिन हजारों लोगों का कारवां हिमालय के इस संवेदनशील इलाके पर अपने कचरे का ढेर छोड़ते जा रहा है. उधर हैलीकॉप्टरों का आतंक अलग है. लगता है कि इस सबसे इस हिमालयी क्षेत्र की सेहत तो कभी सुधरेगी नहीं. हां, 2013 की जैसी आपदाएं अपना इतिहास जरूर दोहराएंगी. इस बीच केदारनाथ पुनर्निर्माण के लिए सात सौ करोड़ रुपये की पांच बड़ी परियोजनाओं का शिलान्यास किया जा चुका है. केदारघाटी में जमकर पैसा बरस रहा है. जगह-जगह से ध्वस्त हुए पहाड़ों पर नवनिर्माण के काम चल रहे हैं.
‘चलें अब…’ परिहाजी की आवाज से मैं अपने में वापस लौटा. धीरे-धीरे मंदिर परिसर से वापस लौटे. मंदाकनी के किनारे के घाटों में कई भक्त ठंडे बर्फिले पानी में आस्था की डुबकी लगाते दिखे. हैलीपेड पर हैलीकॉप्टरों समेत लोगों का हाहाकार मचा था. रेस्टोरेंट में पहुंचे तो वायदे के मुताबिक हमारी टीम के लिए पराठे बन रहे थे. एक शख्स के लिए दो पराठे और साथ में चाय. रेस्टोरेंट स्वामी से बात-चीत में पता चला कि उनका नाम कृष्णा गोस्वामी है. कृष्णा ने गढ़वाल यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया है. यात्रा सीजन में छह माह अच्छा काम रहता है लेकिन यहां सामान की पहुंच बहुत मंहगा है. लागत से ज्यादा तो किराया पड़ जाता है. एक खच्चर एक बार में सामान की पांच पेटियां ही ला पाता है जिसका किराया दो हजार है. मंदिर के कपाट बंद होने के बाद वो अपनी दुकान के पोल-छत उखाड़कर नीचे छोटी लिन्चोली में पहुंचाते हैं. ऐसा क्यों? पूछने पर कृष्णा ने बताया कि यहां बर्फबारी बहुत होती है और बाद में बर्फ के साथ ही खिसक कर ये सामान मंदाकनी में चले जाते हैं. जिसमें से कुछ नहीं मिलता और जो मिलता है वो बहुत खराब हालात में मिलता है, जो फिर किसी काम नहीं आता.
पराठे-चाय पेट के हवाले कर हमने वापसी की राह पकड़ी. मौसम का मिजाज बदलने लगा था, हल्की बूंदाबादी होने लगी थी. नीचे से आने वाले लोग अपनी सांसों को थाम हमसे पूछ रहे थे कि, अभी कितना है? उन्हें थोड़ा है का दिलासा दे हम तेजी से नीचे को उतर रहे थे. रास्ते में वृद्व, डोली-डोके, घोड़े में सवार, नंगे पैर चल रहे कई युवाओं के अलावा पिकनिक मनाने की मंशा ले अनगिनत भक्तों का कारंवा केदारघाटी की ओर बढ़ा चला जा रहा था. घोड़े पर सवार हो कई भक्तगण फिल्मस्टार डैनी की तरह हैट लगाए, बगल में स्पीकर में ऊँची आवाज में शिव के गाने बजाते हुए और होंठो पर चरस से भरी हुई लंबी सिगरेट का गाढ़ा धुंवा उड़ाते हुए किसी शंहशाह के मांनिद शान से जाते दिखे. कुछेक जो पैदल चल रहे थे वो भी अपने शंहशाह की तरह कांधों में बड़ा स्पीकर लादे भयानक शोर में फिल्मी भक्तिमय गानों के साथ नाचने में मग्न हो केदार का हाल जानने को जा रहे थे.
मैं सोच रहा था कि शिव को तो शांति पसंद है. तो फिर इन सबको वो कैसे झेल रहे होंगे. शिव जब समाधि लगा कर बैठते है तो वे गहरे ध्यान में रहते है. पौराणिक कथाओ में भी जिक्र है कि भगवान शिव के ध्यान को भंग करना बहुत मुश्किल कार्य है. ऐसे में भगवान शिव ने एक बार कामदेव तक को भस्म कर दिया था क्यूंकि उन्होंने भगवान शिव के ध्यान को भंग करने का दुस्साहस किया था. 2013 की आपदा को देख लगा कि शिव को भी हिमालय की शांत वादियों में हुड़दंग बिल्कुल भी पसंद नहीं है. हो सकता है शिव ने ही तांडव किया हो लेकिन मानव कभी भी इन सबसे कोई सबक नहीं लेता है. ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, चर्च में नहीं, हृदय में है.
‘मासेप आओ चाय पी लो.’ रास्ते के किनारे बने एक ढाबानुमा दुकान से जैक ने आवाज लगाई. बूंदाबादी से ठंड बढ़ने लगी थी तो जैक का सुझाव भला लगा. चाय जल्दी ही निपट गई तो परिहारजी के साथ शार्टकट वाले रास्ते के बजाय नए बने रास्ते से चलने की बात बन गई. नया रास्ता किलोमीटर भर लंबा था. इसे देखने का मन भी था. इस रास्ते में सिर्फ घोड़े-खच्चर और पालकी वाले ही आ-जा रहे थे. बल खाता हुआ रास्ता नीचे मंदाकनी पर बने लोहे के पुल को पार करने के बाद भीमबली के पास पुराने रास्ते में मिल जाता है. संकरी गहरी घाटी में मंदाकनी भयानक गर्जना करते हुए आगे बढ़ रही थी. जंगलचट्टी पहुंचने तक बारिश भी तेज होने लगी थी तो कदमों की रफतार तेज हो गई. घंटेभर में हम सभी अलग-अलग हो गौरीकुंड पहुंचे तो एक ढाबे की शरण में गए. फोन ने काम करना बंद कर दिया था तो भीड़ में साथियों को नजरें ढूंढने में लगी थी. सुबह नाश्ते के बाद कुछ खाया भी नहीं था तो ढाबे स्वामिन को पराठा-चाय के लिए बोला. गर्म मोमो बन रहे थे तो उन्हें भी पराठों के बाद उदरस्थ कर लिया.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
बाहर घोड़े वाले और यात्री के बीच गर्मा-गर्म बहस हो रही थी. ‘जब बात ढाई हजार में हुई थी तो तीन हजार किस बात के दूं.?’
‘अरे! साहब अब मैं भी क्या करूं.. मैं तो अपने घोड़े और अपने खाने के लिए मांग रहा था अब पांच सौ रूपया सिपहिया ने ले लिए तो मैं अपना नुकसान क्यों झेलू?’ चर्चा में पता चला कि घोड़े-खच्चर, डांडी-पालकी वालों से केदारनाथ जाना-आना हर फेरे का रेट तय किया गया है. पैंसे कमाने के फेर में किसी ने दिन में ज्यादा फेरे मार लिए तो उसका कोई साथी ही सिपहिया के कान में चुपचाप ये बात बता देने वाला हुआ. ये झगड़ा भी ज्यादा फेरे के चक्कर में हो रहा था. जाने-आने के फेरे में दो सौ रूपया तय किया गया है, लेकिन ये घोड़े वाला कल केदारनाथ गया, रात वहीं रूका और आज गौरीकुंड आने के बाद केदारनाथ जाकर सवारी लेकर वापस गौरीकुंड आ गया. इस पर पुलिसिया जी ने पांच सौ का नोट झटक लिया. जिसे घोड़े वाला यात्री से ही वसूलना चाहता था. उसका भी कहना था, ‘साहब मैं और मेरा घोड़ा तो थक गया था. आपकी ही मान-मनौव्वल पर मैं आया. वहीं रहता तो ये सब नहीं होता. बाकी केदारजी तो देख ही रहे हैं.’
बुझे मन से यात्री ने पांच सौ रूपये दे दिए तो मजमा शांत हुआ.
आलोकदा के साथ अन्य सभी साथी मिल गए तो आगे सोनप्रयाग के लिए जीपों की पकड़-धकड़ के लिए गौरीकुंड में सड़क किनारे लगी लाईन में लग गए. दूर से जीपें आती तो दिख रही थी लेकिन वो वहीं से वापस लौट जा रही थी. लाईन में खड़े हुए सैकड़ों लोगों को घंटाभर हो चुका था तो सभी का धैर्य जबाव देने लगा. दरअसल कुछ लोग लाईन में लगने के बजाय आगे निकल कर जीप को रोक लेते और जीप सोनप्रयाग को म़ुड़ जाती. अंधेरा होने लगा था और लाईन में लगे लोग भी व्यवस्था के नाम पर हो-हल्ला करने लगे तो वहां तैनात पुलिस कर्मी भी ‘साहब को बुला के लाता हूं..’ कह भाग लिया. काफी देर होने पर लाईन बिखर गई तो पैदल ही चलने का निर्णय लिया. अंधेरे में परिहारजी के साथ बतियाते हुए धीरे-धीरे सड़क नापनी शुरू कर दी. दोएक किलोमीटर चले ही थे कि सोनप्रयाग को जा रही जीप से एक महिला की आवाज आई- सोनप्रयाग जा रहे हैं क्या?
जीप रुक गई तो पीछे की डिक्की में बमुश्किल गठरी बन हम दोनों समा गए. महिला ने बताया कि इस जीप से बुकिंग में बात हुई तो ये रास्ते से वापस मुड़ लिए. अब सभी का टिकट से बीसेक रूपया ज्यादा लगेगा. बीसेक मिनट बाद जीप ने सोनप्रयाग से पहले पुल पर पहुंचा दिया. कमाई के लिए उसने अभी और फेरे मारने का मन बना लिया था. हमारे बाकी साथी भी सोनप्रयाग पहुंच चुके थे. सीतापुर में ‘होटल विजय’ के मालिक गोस्वामीजी से रात में रुकने की बाद आलोकदा ने कर दी थी. सोनप्रयाग से सीतापुर लगभग दो किलोमीटर का रास्ता अंधेरे में ही पैदल नापा. होटल के कमरे में सामान रख खाने के लिए एक बार से वही हाय-तौबा मची रही. रोटी मिले तो सब्जी के लिए इंतजार, सब्जी मिले तो रोटी का इंतजार. आधा-अधूरा खाना मिला तो उसी में तसल्ली कर ली. बाहर तेज बारिश शुरू हो गई थी.
सुबह पांच बजे उठे तो वापसी की तैयारियां शुरू हो गई. हरीशदा और मैं सीतापुर की पार्किंग में वाहन लेने निकल गए. पार्किंग में कोई नहीं मिला तो वाहन बाहर निकाल कर एक बार फिर से पार्किंग के ठेकेदार की ढूंढखोज करनी शुरू की. दरअसल उन्होंने पार्किंग शुल्क बाद में लेने की बात कही थी लेकिन अब वो ढूंढे नहीं मिल पा रहे थे. एक दुकान रूपी चाय-मैगी का खोमचा खुलना शुरू हुआ तो उनसे पूछताछ की. उन्होंने भी हाथ खड़े कर दिए. उन्हें पार्किंग शुल्क देने की बात कही तो उन्होंने साफ मना कर दिया. पार्किंग ठेकेदार का न फोन नंबर मिल पाया और न ही उनका ठिकाना. छह बज चुके थे और मौसम भी डरावना हो रहा था तो वाहन लेकर होटल में आ गए. होटल में हल्का नाश्ता कर दस लोगों की दो टीमों को रूद्रप्रयाग या कर्णप्रयाग में मिलने की बात तय कर हम पांच जनों ने भी वापसी की राह पकड़ी. बारिश से कई जगहों पर पहाड़ से मलवा गिरने का सिलसिला शुरू हो गया था. मौसम विभाग ने 18 और 19 अक्टूबर 2021 को भारी बारिश की चेतावनी जारी कर चाय-पकौड़ी भकोसना शुरू कर दिया था. मौसम विभाग अपना काम कर चुका था. उसे इससे कोई मतलब नहीं रहता कि लोग मरें या बचें. वैसे सरकार को भी इस बात की कोई ज्यादा चिंता नहीं रहने वाली हुई. होती तो उत्तराखंड के कच्चे पहाड़ो को नोचते नहीं.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
दो बार मिट्टी-पत्थरों का कुछ मलवा वाहन की छत में आया तो मन खौफ से भर गया कि आज सुरक्षित पहुंचते भी हैं या यहीं कहीं आत्मा शरीर को अलविदा कर परमात्मा से मिलने न चले जाए. गुप्तकाशी पहुंचे तो जान में जान आई. अगस्त्यमुनि से आगे रामपुर में चैंसा-भात निपटाया. अब आगे कर्णप्रयाग से थराली के रास्ते को लेकर संशय बना हुआ था. इस रास्ते में ऑल वेदर रोड का काम चल रहा था और कच्चे पहाड़ों को भारी भरकम मशीनों से बुरी तरह से उधेड़ा जा रहा था. इससे कमजोर पहाड़ हल्की बारिश में नीचे आने में देर नहीं लगा रहे थे. कर्णप्रयाग से बीसेक किलोमीटर आगे बढ़े ही थे कि आशंका सच साबित हो गई. सड़क में पहाड़ से लगातार बड़े-बड़े बोल्डर आ रहे थे. दोनों ओर कई गाड़िया फसी थी. वही सुबह से लगातार बारिश हो रही थी. चमोली जिले में आपदा प्रबंधन विभाग को जानकारी दी तो कुछ देर बाद वहां एक जेसीबी पहुंच गई और आधे घंटे में रास्ता खुल गया. आगे कई जगहों पर पत्थर गिरने का सिलसिला मिला. अपने पीछे आ रहे आलोकदा और जैक को सावधानी से आने की ताकिद कर दी. दोपहर दो बजे थराली का बाजार पार किया तो राहत मिली. बारिश का कहर यहां कम था.
ग्वालदम से पहले ताल होटल में रुककर पीछे आ रहे साथियों का इंतजार करने पर सभी की सहमति बन गई. चार बजे तक सभी पहुंचे तो सभी के पास रास्ते के डरावने किस्सों की लंबी कहानियां थी. देर शाम सभी अपने घोसलों में पहुंच परिवार के साथ अपने खट्टे अनुभवों को छुपाकर मीठे अनुभव बांचने में लग गए. खबरें आ रही थी कि 18 और 19 अक्टूबर 2021 की बारिश भयानक आपदा लेकर आई है. उत्तराखंड के कुमाऊँ और गढ़वाल के कई हिस्सों में जमकर तबाही मचाई. प्राकृतिक आपदा में मरने वालों का आंकड़ा सौ से ज्यादा रहा और कई लोग लापता हो गए.
धरती का तापमान बढ़ने की वजह से एक ओर जहां विशाल हिमखंड टूटकर तबाही मचा रहे हैं, वहीं धरती का सीना जगह-जगह चीरकर मानव जनित तबाही को विकास का नाम दिया जा रहा है. इन खबरों को देख-सुनने के बाद सभी के परिजन साथियों को घूरने लगे तो, बमुश्किल उन्हें मनाते हुए समझाया कि हमें पता था ना इसके बारे में. तभी तो हम चोप्ता-तुंगनाथ भी नहीं गए और हम सभी पहले ही घर आ गए.
(Kedarnath Travelogue Keshav Bhatt)
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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