कालीचौड़ गौलापार में स्थित काली माता का प्रख्यात मंदिर है. हल्द्वानी से 10 किमी और काठगोदाम से 4 किमी की दूरी पर स्थापित कालीचौड़ मंदिर के लिए काठगोदाम गौलापार मार्ग पर खेड़ा सुल्तानपुरी से एक खूबसूरत पैदल रास्ता जाता है.
खेड़ा सुल्तानपुरी से कुछ दूर चलने के बाद निर्जन और सुरम्य जंगल के बीच एक कच्ची पगडण्डी आपको कालीचौड़ के मंदिर तक ले जाती है.
आधुनिक कालीचौड़ मंदिर की स्थापना
आधुनिक काल में इस मंदिर की स्थापना के बारे में मान्यता है कि 1930 के दशक में कलकत्ता, पश्चिम बंगाल के रहने वाले एक भक्त को सपने में आकर माँ काली ने स्वयं इस गुमनाम स्थल के बारे में जानकारी दी. काली माता के भक्त इस कलकत्तावासी ने अपने हल्द्वानी निवासी एक मित्र रामकुमार चूड़ीवाले को माँ काली द्वारा स्वप्न में आकर यह सूचना देने की जानकारी दी.
इसके बाद दोनों भक्त कुछ और श्रद्धालुओं के जत्थे के साथ गौलापार पहुंचे और जंगल में मौजूद इस जगह को ढूँढ़ निकाला. दैवीय आदेश के अनुसार यहाँ पर काली मूर्ति व शिव की मूर्ति के साथ अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी पायी गयीं. खुदाई करने पर यहाँ देवी-देवताओं की कई मूर्तियों के साथ एक ताम्रपत्र भी मिला जिसमें माँ काली के माहात्म्य का उल्लेख किया गया था. उस वक़्त खुदाई में मिली मूर्तियाँ आज भी यहाँ के पौराणिक मंदिर खण्ड में संरक्षित कर रखी गयी हैं. इनमें से ज्य्यादातर मूर्तियाँ आंशिक तौर पर खंडित हैं.(घोड़ाखाल: धार्मिक आस्था और सैन्य शिक्षा का केंद्र)
एक चमत्कार की कहानी
लगभग 3 दशक पहले किच्छा के एक सिख (अशोक बाबा) परिवार ने अपने मृत बच्चे को यहाँ लाकर माँ काली के दरबार में यह कहकर समर्पित कर दिया कि माँ अब इस बालक का जो चाहे वो करें. यहाँ लाकर माँ काली को समर्पित किये जाने पर वह मृत बच्चा पुनर्जीवित हो उठा. तभी से यह परिवार मंदिर में अगाध श्रद्धा रखता है. तभी से नवरात्र व शिवरात्री पर आयोजित होने वाले भंडारे इसी परिवार द्वारा आयोजित किये जा रहे हैं.
तब रामदत्त जोशी पंचांगकार के पिता पंडित हरि दत्त जोशी ने यहां खुदाई के दौरान मिली इन मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा की थी. राम दत्त ने ही यहां सर्वप्रथम श्रीमद देवी भागवत कथा का पाठ भी कराया था.
मंदिर का पौराणिक महत्त्व
मान्यता है कि कालीचौड़ की यह पवित्र भूमि आदिकाल से ही ऋषि-मुनियों की तपस्थली रही है. कहते हैं कि सतयुग में सप्त ऋषियों ने इसी स्थान पर माँ काली की आराधना कर अलौकिक सिद्धियां प्राप्त की थीं. मार्कण्डेय ऋषि ने भी यहां तपस्या कर काली से वरदान प्राप्त किया. पुलस्तय ऋषि के साथ अत्रि व पुलह ऋषि ने भी इसी स्थान पर तपस्या की.
अनेक सन्तों के अध्यात्मिक जीवन की शुरुआत हुई कालीचौड़ से
गुरु गोरखनाथ, महेन्द्रनाथ, सोमवारी बाबा, नान्तीन बाबा, हैड़ाखान बाबा सहित अनेक सन्तों ने अपने अध्यात्मिक जीवन की शुरुआत में कालीचौड़ में ही तपस्या कर माँ काली की कृपा से ज्ञान की प्राप्ति की.
मंदिर के पुजारी ललित मिश्रा बताते हैं कि पायलट बाबा ने अपनी पुस्तक ‘हिमालय कह रहा है’ में कालीचौड़ के माहात्म्य का उल्लेख किया है. पायलट बाबा के शिष्य आज भी अपनी साधना कालिचौड़ आकर ही शुरू किया करते हैं.
तराई-भाबर के गजेटियर के अनुसार लगभग आठवीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य भी अपने उत्तराखंड आगमन के दौरान सबसे पहले इसी स्थान पर आये थे. यहाँ की गयी साधना से ही उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ. यहाँ रहकर उन्होंने लम्बे समय तक साधना की तथा अध्यात्मिक चिंतन भी किया.इसके बाद वे यहां से जागेश्वर और गंगोलीहाट के लिए चल पड़े थे.
पौराणिक समय की अनेक दन्तकथाओं व किवदन्तियों को समेटे यह मन्दिर काफ़ी समय तक गोपनीय रहा. लगभग सात दशक पूर्व कलकत्ता के भक्त को माँ काली ने ने जब इस स्थल के बारे में स्वयं आलोकित किया तब यह दोबारा प्रकाश में आया. (उत्तराखंड में रानीबाग के जियारानी मेले की तस्वीरें)
आज यहाँ महाकाली के साथ ही प्रहलाद, शिव, हनुमान, वेदव्यास आदि के मंदिरों का एक समूह अस्तित्वमान है. 7 दशक पहले एक पेड़ के नीचे खुदाई के दौरान निकली मूर्तियों से बनाया गया यह मंदिर आज भव्य आकार ले चुका है. यहाँ पर लम्बी साधना करने के इच्छुक भक्तों के लिए एक धर्मशाला का भी निर्माण किया गया है.
पांच-एक साल पहले मंदिर के सुचारू सञ्चालन के लिए कालीचौड़ मंदिर प्रबंधक समिति नाम से समिति का गठन भी किया गया है. समिति के अध्यक्ष बसंत सनवाल बताते हैं कि गुरु गोरखनाथ, महेन्द्रनाथ, सोमवारी बाबा, नान्तीन बाबा, हैड़ाखान बाबा सहित अनेकों सन्तों ने कालीचौड़ में ही आकर सिद्धि प्राप्त की थी. यह मंदिर अपने आप में कई दंतकथाओं एवं पौराणिक आख्यानों को समेटे हुए है. वे बताते हैं कि बीच के कई सालों में यह सिद्ध पीठ गोपनीय रहा, माँ ने भक्त के स्वप्न में स्वयं आकर इस सिद्ध पीठ का मार्ग बताया. इस तरह इसकी पुनर्स्थापना हो सकी. (आज भी बरकरार है बौराणी मेले की रंगत)
आज इस सिद्ध पीठ में दूर-दूर से श्रद्धालुओं के आने का सिलसिला साल भर चलता रहता है. नवरात्र और शिवरात्रि के अवसर पर यहाँ भक्तों का ताँता लग जाता है. इन मौकों पर यहाँ अखंड भंडारा भी चलता रहता है. यहाँ सच्चे मन से आस्था रखने वालों की मनोकामना अवश्य पूरी होती है.
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